डाॅ. एस. के. वर्मा, डाॅ. केशबदास एवं डाॅ. गामिनी

ग्रामीण भाई गाय, भैस, बकरी से ज्यादा दूध प्राप्त करना चाहते है, परन्तु यह देखा जाता है कि उनका पशु उनकी अपेक्षाओं पर खरा नही उतरता है। पशुओ को हरा-चारा, चोकर, खली, खनिज-मिश्रण आदि अगर सही मात्रा में नही दिया जाए तो इसकी कमी से पशुओं में दूध उत्पादन क्षमता कम हो सकती है।

कभी-कभी उचित आहार देने पर भी पशु की दयनीय स्थिति होने का मुख्य कारण उनके पेट में पलने वाले पर जीवी (फैसिओला, सिस्टिीजोम, एम्फीस्टोम, गोल कृमि) है जो अघिकतर पशु की मृत्यु का कारण तो नही बनते है परन्तु पशु के विकास व दुध उम्पादकता को अवश्य ही रोकते है यह परजीवी पशुओं के भोजन को स्वयं खाकर पशुओं को भुखा रखते है। साथ ही ये परजीवी कुछ ऐसे द्रव्य-प्रदार्थ छोड़ते है जो पशुओं कें लिए हानिकारक होते है, अतः पशुओं को इन परजीवी बिमारियों से बचाना आवश्यक हैं।

परजीवी बीमारी को कैसे जाने:-
यदि आपके द्वारा उचित आहार देने पर भी पशु दूध कम दे रहा है या शरीर का विकास ठीक से नही हो रहा है तो इस स्थिति के लिए पशुओं में परजीवी की उपस्थिति ही मुख्य कारण होता है। परजीवी की अधिक संख्या पशुओं को रोगग्रस्त कर देती है।

इस रोग के प्रमुख लक्षण
  1. पहले अधिक भूख लगना
  2. बाद में भूख कम लगना या न लगना
  3. हल्का बुखार होना
  4. पषु का सुस्त होना
  5. थूथन का सूख जाना
  6. झुन्ड से अलग रहना तथा
  7. दोनो जबड़ो के बीच पानी भर जाना
यदि पशुओं में उपरोक्त लक्षण प्रकट हो रहे है तो सर्वप्रथम अपने पशु-चिकित्सक से सम्पर्क करें और अपने पशुओं का इलाज करवाएँ। अधिकतर परजीवी रोग एक या दो पशुओं में न हो कर एक साथ कई पशुओं पर होता हैं जो एक साथ चराये जाते है। अतः सारे पशुओं का एक साथ इलाज कराना उचित होगा क्योंकि इससे परजीवी बीमारी की रोकथाम में भी मदद मिलेगी।

परजीवी को फैलाने में पशुओं के मलपदार्थ का विषेष योगदान होता हैं। इसमें गाय, भैस, बछड़ा, बछिया के गोबर का योगदान सबसे अधिक हैं।

परजीवी बीमारी की रोकथाम

सामान्यतः पशुपालक केवल अधिक बीमार पशु का इलाज कराना पसंद करते है और कम बीमार पशु पर ध्यान नही देते है। परिणाम यह होता है कि धीरे धीरे कम बीमार पशु अधिक बीमार हो जाते है और कभी कभी जान से भी हाथ धोना पड़ सकता है।

अतः पशु बीमार ही न पड़े, हमें ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए व निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिएः-
  • सबसे पहले तो गाँव के बाहर से कोई भी जानवर खरीदकर लायें तो उसकी बीमारी की जाँच जरूर करवा लें।
  • पशु के मलपदार्थ या गोबर की सही व्यवस्था करें ताकि गोबर ज्यादा देर तक जमीन पर न रहे। साथ ही गोबर या मल को पोखर, तालाब या नाले के पानी में न मिलने दें जिससे पर्णकृमि का जीवन चक्रपूरा न हो और सरकेरिया पैदा न हो पाये।
  • मध्यवर्तीपोषी (इन्टरमिडियेट होस्ट) जैसे घोंघा आदि को नष्ट कर देना चाहिए, ताकि पर्णकृमि की जीवन चक्र पुरा न हो और अंडे व लारवा का विकास न हो सके। पाया गया है कि निक्लोसामाइड 4 मि.ली. ग्राम प्रति लीटर पानी के हिसाब से यदि पोखर व तालाब में मिला दिया जाये तो पोखर या तालाब के सारे घोंघे व मच्छर मर जाते है तथा इस रसायन का असर 15-20 दिनों तक बना रहता है।
  • यदि पशु बीमार पड़ गया हो तो उसके इलाज के लिए ब्रोड़ स्पेक्ट्रम दवायें जैसे ऐरोजोल, एकिल, फलूकोडिन-डी. एस का इस्तेमाल कर सकते है। पर्णकृमि के लिए फ्लुकोडिनप्लस आदि का इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • पशु परजीवी बीमारी से मुक्त रह सके, इसके लिए हम तीन महीने पर वयस्क जानवरों को ऐरोजोल या फ्लुकोडिन डी. एस बोलस तथा छोटे पशुओं और गर्भवती जानवरों को एकिलबोलस खिलाना चाहिए।