घृतकुमारी जिसे ग्वारपाठा एवं एलोवेरा के नाम से भी जाना जाता हैं, प्राचीन समय से ही चिकित्सा जगत में बीमारियों को उपचारित करने के लिए इसका प्रयोग किया जा रहा हैं। घृतकुमारी के गुणों से हम सभी भली-भांति परिचित हैं। हम सभी ने सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से इसका उपयोग किसी न किसी रूप में किया हैं। घृतकुमारी की मांग बढ़ती जा रही हैं। 

मृदा एवं जलवायु- 

प्राकृतिक रूप से इसके पौधे को बंजर भूमि में उगते देखा गया हैं। इसे किसी भी भूमि में उगाया जा सकता हैं। परन्तु बलुई दोमट मिट्टी में इसका अधिक उत्पादन होता हैं।

उन्नतशील प्रजातियाँ-

केन्द्रीय औषधीय सुगंध पौधा संस्थान के द्वारा सिम-सीतल, एल-1,2,5 और 4,9 एवं को खेतों में परीक्षण के उपरान्त इन जातियों से अधिक मात्रा में जैल की प्राप्ति हुई हैं। इनका प्रयोग खेती (व्यवसायिक) के लिए किया जा सकता हैं। अन्य प्रजाति आई.सी.111666

पौध रोपाई- 

भूमि की एक-दो जुताई के बाद खेत को पाटा लगाकर समतल बना लें। इसके उपरान्त ऊँची उठी हुई क्यारियों में 50x50 सेमी की दूरी पर पौधों को रोपित करें। पौधों की रोपाई के लिए मुख्य पौधों के बगल से निकलने वाले छोटे छोटे जिसमें चार-पाँच पत्तियाँ हों, का प्रयोग करें। लाइन से लाइन की दूरी 50 सेमी एवं पौधे से पौधे की दूरी 50 सेमी रखने पर 45,000-50,000 पौधों की आवश्यकता रोपाई के लिए होगी। सिचिंत दशाओं में इसकी रोपाई फरवरी माह में करें।

खाद एवं उर्वरक- 

10-15 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद पौधे के अच्छे विकास के लिए आवश्यक हैं। 120 कि.ग्रा. यूरिया, 150 कि.ग्रा. फास्फोरस एवं 33 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। नाइट्रोजन को तीन बार में एवं फास्फोरस व पोटाश को भूमि की तैयारी के समय ही दें। नाइट्रोजन का पौधों पर छिड़काव करना अच्छा रहता हैं।

सिंचाई- 

पौधों की रोपाई के बाद खेत में पानी दें। (घृतकुमारी) की खेती में ड्रिप एवं स्प्रिंकलर सिंचाई अच्छी रहती हैं। प्रयोग द्वारा पता चला हैं कि समय से सिंचाई करने पर पत्तियों में जैल का उत्पादन एवं गुणवत्ता दोनों पर अच्छा प्रभाव पड़ता हैं। इस प्रकार वर्ष भर में 3-4 सिंचाईओं की आवश्यकता होती हैं।

रोग एवं कीट नियंत्रण- 

समय-समय पर खेत से खरपतवारों का प्रकोप ज्यादा बढ़ने पर खरपतवारनाशी का भी प्रयोग कर सकते हैं। ऊँची उठी हुई क्यारियों की समय समय पर मिट्टी चढ़ाते रहें। जिससे पौधों की जड़ों के आस-पास पानी के रूकने की सम्भावना कम होती हैं एवं साथ ही पौधों को गिरने से भी बचाया जा सकता हैं। पौधों पर रोगों का प्रकोप कम ही होता हैं। कभी-कभी पत्तियों एवं तनों के सड़ने एवं धब्बों वाली बीमारियों के प्रकोप को देखा गया हैं। जो कि फफूँदी जनित बीमारी हैं। इसकी नियंत्रण के लिए मैंकोजेब, रिडोमिल, डाइथेन एम-45 का प्रयोग 2.0-2.5 ग्राम/ली. पानी में डालकर छिड़काव करने से किया जा सकता हैं।

फसल की कटाई एवं उपज- 

रोपाई के 10-15 महीनों में पत्तियाँ पूर्ण विकसित एवं कटाई के योग्य हो जाती हैं। पौधे की ऊपरी एवं नई पत्तियों की कटाई नहीं करें। निचली एवं पुरानी 3-4 पत्तियों को पहले काटना/तोड़े। इसके बाद लगभग 45 दिन बाद पुनः 3-4 निचली पुरानी पत्तियों की कटाई/तुड़ाई करें। इस प्रकार यह प्रक्रिया तीन-चार वर्ष तक दोहराई जा सकती हैं। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग प्रतिवर्ष 50-60 टन ताजी पत्तियों की प्राप्ति होती हैं। दूसरे एवं तीसरे वर्ष 15-20 प्रतिशत तक वृद्धि होती हैं।

कटाई उपरान्त प्रबंधन एवं प्रसंस्करण- 

विकसित पौधों से निकाली गई, पत्तियों के निचले सिरे पर अनुप्रस्थ काट लगा कर कुछ समय के लिए छोड़ देते हैं, जिससे पीले रंग का गाढ़ा रस निकलता हैं। इस गाढ़े रस को किसी पात्र में संग्रह करके वाष्पीकरण की विधि से उबाल कर, घन रस क्रिया द्वारा सुखा लेते हैं। इस सूखे हुए द्रव्य को मुसब्बर अथवा सकोत्रा, जंजीवर, केप, बारवेडोज एलोज एवं अदनी आदि अन्य नामों से विश्व बाजार में जाना जाता हैं।