विश्व की आबादी को भोजन उपलब्ध कराने में धान फसल की मुख्य भूमिका हैं। वर्तमान समय में जनसंख्या की लगातार वृद्धि हो रही हैं, जबकि कृषि योग्य जमीन में लगातार कमी हो रही हैं। अतः बढ़ती जनसंख्या एवं घटती जमीन को देखते हुये यह आवश्य हो गया हैं कि प्रति इकाई उत्पादकता में वृद्धि की जाये, जिससे बढ़ती जनसंख्या एवं घटती जमीन के बाद भी देश की जनसंख्या को भरपूर भोजन उपलब्ध कराया जा सके। इसके लिये धान की एस.आर.आई. (मेडागास्कर पद्धति) काफी सहायक सिद्ध हुई हैं। इस पद्धति से अन्य पद्धति की अपेक्षा 2 से ढ़ाई गुना अधिक उत्पादन प्राप्त होता हैं, इसमें कोई संदेह नहीं हैं।

एस.आर.आई. पद्धति को अन्य नाम जैसे मेडागास्कर पद्धति, श्री पद्धति, धान सघनता पद्धति आदि नामों से भी जाना जाता हैं। एस.आर.आई. (मेडागास्कर पद्धति) का विकास कृषि वैज्ञानिक हैनरी डी लालने के द्वारा सन् 1983-84 में फांस के मेडागास्कर द्वीप में किया गया। भारत में यह पद्धति 2000 के बाद आई।

एस.आर.आई. पद्धति से धान उत्पादन के मुख्य सिद्धांत इस प्रकार हैं-
1. धान का पौधा 15 दिन से अधिक होने पर वृद्धि कम होती हैं। इसे रोकने के लिये 15 दिन से कम अवधि के पौधों की रोपाई की जावे।
2. दूरी अधिक होने से वायु का आवागमन अच्छा होगा, जिससे पौधे स्वस्थ्य, मजबूत होंगे। कंसे अधिक निकलेंगे एवं प्रति बाली दानों की संख्या अधिक होगी, जबकि कम दूरी से ऐसा संभव नहीं हैं।

धान की कृषि कार्य माला-
1. खेत का चुनाव- इस पद्धति से धान की खेती करने हेतु ऐसे खेतों का चुनाव करें, जिसमें जल निकास एवं सिंचाई सफलतापूर्वक की जा सके।
2. बीज की मात्रा एवं चुनाव- प्रति हैक्टेयर 5 से 6 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर बीज की आवश्यकता होती हैं। जबकि, पारंपरिक पद्धति से रोपाई हेतु 30 से 50 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर बीज लगता हैं।

रोपणी (नर्सरी) तैयार करने की विधि-
1. एस.आर.आई. पद्धति हेतु 300-400 वर्ग फूट या 100 वर्ग मी. रोपणी की तैयारी इस प्रकार की जावे जैसे की सब्जियों की नर्सरी हेतु क्यारियाॅ बनाई जाती हैं। नर्सरी के लिए एक मीटर चैड़ी 10 मीटर लंबाई तथा 15 से.मी. की ऊंची क्यारियाॅ बनावें। क्यारियों के दोनों ओर सिंचाई नाली बनाना आवश्यक हैं।

2. क्यारियाॅ तैयार होने पर 50 से 60 किलोग्राम नाडेप कम्पोस्ट/वर्मी कम्पोस्टखाद, 10 किलो इफको 12:32:16 एवं 10 किलो यूरिया मिलाकर समतल कर दें।

3. बीजों को 12 घंटे पानी में डुबोकर रखें तत्पष्चात् छायादार जगह में बीजों को रखकर बीज उपचार सूडोमोनास लोरोसेंस 3 ग्राम मात्रा प्रति किलों बीज की दर से उपयोग करें। बीज को बोरों से ढकें ताकि बीज अंकुरित हो जायें। तैयार बीज को रोपणी में फैलाकर ऊपर कम्पोस्ट/गोबर गैस/वर्मी खाद एवं पेरा से बीजों को पूर्णतः ढ़ंक दें।

पोषक तत्व एवं उर्वरक-

1. खेत का मिट्टी परीक्षण परिणाम के अनुसार तत्वों के कमी की पूर्ति हेतु जैविक खादों (नाडेप खाद, गोबर खाद, वर्मी खाद, बायोगैस की खाद, नीलहरित काई/अजोला, पी.एस.बी. कल्चर, एजेक्टोवेक्टर कल्चर) एवं रासायनिक खाद का उपयोग किया जा सकता हैं।

2. जैविक खाद के रूप में 8 से 10 टन प्रति हैक्टेयर की दर से उपलब्ध खाद एवं पी.एस.बी. तथा ऐजेक्टोवेक्टर कल्चर एवं अन्य जैविक उत्पाद का उपयोग किया जाना चाहिए।

3. रासायनिक खाद का उपयोग नत्रजन, स्फुर एवं पोटा (100:60:30) के अनुपात में किये जाए। स्फुर एवं पोटाश की पूर्ण मात्रा आधार खाद के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए। यूरिया का उपयोग तीन बार (रोपाई के एक सप्ताह बाद, कंसे फूटने के समय एवं गवोट के प्रारंभ काल) में किया जाना चाहिए। प्रथम यूरिया का उपयोग 30 प्रतिशत, द्वितीय 50 प्रति, तृतीय 30 प्रतित मात्रा का उपयोग किया जाना चाहिए। पौधों की वनस्पति वृद्धि के आधार पर यूरिया की मात्रा कम की जा सकती हैं।

खेत में पौध रोपण की विधि-
1. रोपाई जुलाई के प्रथम सप्ताह में पूर्ण कराने पर 10 से लेकर 30 प्रतिषत तक अधिक उपज प्राप्त हो सकती हैं।

2. रोपाई किये जाने वाले खेत को अच्छी तरह जोत कर भुरभुरा कर लेवें तथा भूमि को समतल कर लेना चाहिए।

3. रोपाई कार्य हेतु 8 से 10 दिन के धान के पौधे उपयोगी होते हैं। इन पौधों को जड़ सहित सावधानी पूर्व उखांड़ लें, उखाड़ने के 15 से 30 मिनट के अंदर ही खेत में पौधे 25x25 या 20x20 सें.मी. की दूरी पर रोप देने चाहिए। पौधों की रोपाई 2 से.मी. गहरी एवं पौधों की जड़े सीधी होना आवश्य हैं व रोपाई किये जाने वाले खेत में पानी भरा नहीं होना चाहिए।

जल प्रबंधन- उचित जल निकासी की व्यवस्था। वनस्पति वृद्धि के समय भूमि प्रकार के आधार पर सिंचाई की जावे, इसके पीछे मूल उद्येष्य यह हैं कि पौधों की जड़ों के पास पर्याप्त नमी लगातार बनी रहें। हल्की दरार के बाद प्रथम सिंचाई करें एवं द्वितीय सिंचाई उसके बाद करें।

खरपतवार नियंत्रण- पहली निदाई रोपाई के 8 दिन बाद एवं षेष अन्य निदाई 10 दिन के अंतराल से कोनोवीडर से की गईं निंदाई-गुड़ाई से पौधों की जड़ों पर चढ़ जाती हैं, जिससे पौधों को जड़ वृद्धि में सहायता मिलती हैं। खरपतवार मिट्टी में मिल जाते हैं, भूमि में खरपतवार नियंत्रण के साथ हवा का आवागमन भी बढ़ता हैं, जिससे पौधों की वृद्धि भी तेजी से होती हैं।

कीट प्रबंधन- कीट प्रबंधन हेतु प्रारंभ में जैविक विधि एवं उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों से किया जाना उचित होगा। भूमि जनित कीट प्रबंधन हेतु नमी की खली के उपयोग के परिणाम अच्छे मिले हैं। खड़ी फसल में गौ-मूत्र, छाछ (मट्ठा) विधि से तैयार घोल का छिड़काव 15 दिन के अंतराल पर अधिक लाभकारी हुआ हैं। आवश्यकता पड़ने पर रासायनिक दवाईयों का उपयोग किया जायें।

उपज- पारंपरिक धान की खेती से 8 से 10 क्विंटल प्रति हैक्टेयर धान उत्पादन के विरूद्ध इस पद्धति से धान उत्पादन करने से 35 से 55 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उत्पादन प्राप्त होता हैं जो परम्परागत पद्धति की तुलना में 50 से 150 प्रतित अधिक हैं।