डॉ. पी. मुवेंथन (वरिष्ठ वैज्ञानिक), डॉ. गुंजन झा (वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख, कृषि विज्ञान केंद्र, राजनांदगांव),
डॉ. श्रावणी सान्याल (वैज्ञानिक), डॉ. निरंजन प्रसाद (वैज्ञानिक), सुमन सिंह (वरिष्ठ अनुसंधान सहायक, एनएएसएफ परियोजना), एवं डॉ. हेम प्रकाश वर्मा (यंग प्रोफेशनल, एफएफपी परियोजना)
भाकृअनुप. - राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान, बारोंडा, रायपुर (छत्तीसगढ़)
लथायरस इंफो: जलवायु सहनशील दलहनी फसल के लिए डिजिटल जानकारी
"लथायरस इंफो" मोबाइल ऐप एक अभिनव डिजिटल प्रयास है जिसे भाकृअनुप. -राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान , रायपुर द्वारा विकसित किया गया है, जिसका उद्देश्य किसानों को जलवायु परिवर्तन के प्रति सहनशील फसल लथायरस (खेसारी) की वैज्ञानिक, तकनीकी और व्यावहारिक जानकारी प्रदान करना है। यह ऐप विशेष रूप से उन किसानों के लिए लाभकारी है जो सीमित संसाधनों और विषम परिस्थितियों जैसे सूखा, जलभराव, लवणीयता या धान की परती भूमि में खेती करते हैं, जहां लथायरस जैसी सहनशील फसल एक बेहतर विकल्प प्रस्तुत करती है। यह ऐप हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में उपलब्ध है, जिससे देश के विभिन्न राज्यों के किसान, चाहे वे किसी भी क्षेत्र या भाषा-भाषी हों, इसे आसानी से समझ और उपयोग कर सकते हैं। ऐप में लथायरस की उन्नत किस्मों, बीज दर, बुवाई विधि, पोषण एवं जल प्रबंधन, खरपतवार नियंत्रण, रोग एवं कीट प्रबंधन, कटाई, मड़ाई और भंडारण से संबंधित विस्तृत जानकारी सरल भाषा में दी गई है। यह ऐप किसानों को वैज्ञानिक खेती की ओर प्रेरित करता है और सतत कृषि विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में कार्य करता है।
मुख्य उद्देश्य:
"लथायरस इंफो" मोबाइल ऐप का मुख्य उद्देश्य किसानों को लथायरस (खेसारी) की खेती से संबंधित संपूर्ण वैज्ञानिक जानकारी एक ही मंच पर सरल और सुलभ रूप में उपलब्ध कराना है, जिससे वे इस जलवायु सहनशील फसल को अधिक प्रभावी ढंग से अपना सकें। ऐप में लथायरस की जलवायु अनुकूलता, पोषण संबंधी विशेषताएं, उन्नत कम-ऑक्सालाइल डाईएमिनो प्रोपियोनिक एसिड किस्मों की जानकारी, सही बीज दर और बोवाई की विधियाँ, मृदा उर्वरता बनाए रखने हेतु पोषण प्रबंधन, सीमित जल संसाधनों में सिंचाई तकनीक, प्रमुख खरपतवारों की पहचान और नियंत्रण, रोग एवं कीट प्रबंधन के टिकाऊ उपाय, और फसल की समय पर कटाई, मड़ाई एवं सुरक्षित भंडारण जैसे सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को शामिल किया गया है। यह ऐप विशेष रूप से उन गरीब और छोटे किसानों के लिए उपयोगी है जो सीमित संसाधनों के साथ खेती करते हैं और कम लागत में अधिक उपज एवं लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। ऐप का सरल भाषा और दो भाषाओं (हिंदी और अंग्रेज़ी) में उपलब्ध होना इसे और अधिक उपयोगकर्ता-अनुकूल बनाता है, जिससे यह तकनीक ग्राम्य भारत के अंतिम किसान तक पहुँचने में सक्षम हो पाती है।
लथायरस का परिचय और महत्व
तिवड़ा (Lathyrus sativus L.), जिसे खेसारी, टियोरा, लाखड़ी या कसारी के नाम से भी जाना जाता है, एक पारंपरिक दलहनी फसल है जिसकी उत्पत्ति दक्षिण यूरोप और पश्चिमी एशिया में मानी जाती है। यह भारत के शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में विशेष रूप से सीमांत और छोटे किसानों के लिए एक सस्ता, टिकाऊ और पोषणयुक्त खाद्य स्रोत है। इसकी विशेषता यह है कि यह सूखा, जलभराव और लवणीयता जैसी विषम परिस्थितियों में भी अच्छी उपज देती है तथा कीट व रोगों का प्रकोप भी बहुत कम होता है। इसके बीजों में प्रोटीन, फाइबर और खनिज प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं, जिससे यह दाल, पापड़, आटा मिश्रण और सत्तू जैसे खाद्य उत्पादों में प्रयोग होती है। हालांकि, अधिक सेवन से इसमें मौजूद बीटा-ऑक्सालाइल डाईएमिनो प्रोपियोनिक एसिड न्यूरोटॉक्सिन के कारण लैथिरिज़्म का खतरा रहता है, लेकिन वैज्ञानिकों द्वारा विकसित कम-ऑक्सालाइल डाईएमिनो प्रोपियोनिक एसिड किस्में और पारंपरिक प्रसंस्करण विधियाँ इसे अब एक सुरक्षित और जलवायु-स्मार्ट फसल के रूप में पुनः स्थापित कर रही हैं।
उपयोग और पोषण मूल्य
तिवड़ा एक अत्यंत पौष्टिक और बहुउपयोगी दलहनी फसल है, जो ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में प्रोटीन का सस्ता स्रोत मानी जाती है। इसके बीजों में 20-30% तक प्रोटीन के साथ-साथ फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, लोहा, कैल्शियम और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं, जो संतुलित आहार के लिए आवश्यक हैं। यह उन समुदायों के लिए उपयोगी है जहाँ पशु प्रोटीन या महंगी दालें उपलब्ध नहीं होतीं। तिवड़ा का उपयोग दाल, आटा मिश्रण, सत्तू, पापड़, भुजिया, और हरी सब्ज़ी के रूप में किया जाता है, जबकि इसकी हरी फलियाँ चारे के रूप में भी काम आती हैं। इसकी जड़ें नाइट्रोजन स्थिरीकरण में सहायक होती हैं, जिससे यह फसल मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ाती है। पोषण, बहुउपयोगिता और सतत कृषि में योगदान के कारण तिवड़ा एक महत्वपूर्ण फसल बनती जा रही है।
मिट्टी और जलवायु
तिवड़ा एक अत्यंत अनुकूलनीय और जलवायु-लचीली फसल है, जिसे विभिन्न प्रकार की मिट्टियों और मौसम में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। यह रेतीली दोमट से लेकर भारी काली मिट्टी तक में पनपती है, बशर्ते जल निकास अच्छा हो। कम उपजाऊ भूमि और धान की कटाई के बाद की परती भूमि में भी यह फसल अच्छी उपज देती है। तिवड़ा शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है और कम वर्षा (300–500 मिमी) में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती है। इसकी गहरी जड़ें मिट्टी से नमी सोखने में सक्षम होती हैं, जिससे यह सूखा सहन कर पाती है। कुछ किस्में अस्थायी जलभराव को भी सहन कर सकती हैं। यह फसल हल्की ठंड में भी अच्छी वृद्धि करती है और रबी मौसम (अक्टूबर-नवंबर) में 20–25°C तापमान पर इसकी बोआई उपयुक्त रहती है। तिवड़ा सीमांत परिस्थितियों में भी स्थिर और सुरक्षित उत्पादन देने वाली आदर्श फसल है।
उन्नत किस्में
तिवड़ा की पारंपरिक किस्मों में बीटा-ऑक्सालाइल डाईएमिनो प्रोपियोनिक एसिड नामक विषाक्त तत्व की अधिकता के कारण इसके अत्यधिक सेवन से स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव होते थे, जिससे यह फसल लंबे समय तक उपेक्षित रही। लेकिन हाल के वर्षों में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद" और ICAR-NIBSM को "आईसीएआर - राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान", रायपुर जैसे संस्थानों द्वारा कम विषाक्त , उच्च पोषण गुणवत्ता और कीट-रोग प्रतिरोधक उन्नत किस्में विकसित की गई हैं। इन किस्मों में 'रतन', 'प्रतीक', 'महातिवड़ा', 'पूसा-24', और 'निर्मल-1' प्रमुख हैं, जिनमें बीटा-ऑक्सालाइल डाईएमिनो प्रोपियोनिक एसिडकी मात्रा बहुत कम है और ये मानव उपभोग के लिए सुरक्षित हैं। ये किस्में सीमित सिंचाई में भी अच्छी उपज देती हैं, जिससे यह फसल जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनती है। किसानों तक इन किस्मों को पहुँचाने के लिए प्रशिक्षण, फार्मर फील्ड स्कूल और मोबाइल ऐप जैसे साधनों का उपयोग किया जा रहा है। अब तिवड़ा पारंपरिक नहीं, बल्कि सतत कृषि और पोषण सुरक्षा में योगदान देने वाली एक आधुनिक और उपयोगी फसल बन चुकी है।
बीज दर और कतारबंदी
तिवड़ा की सफल खेती के लिए उचित बीज दर और वैज्ञानिक कतारबंदी अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि इससे पौधों की वृद्धि, वायुसंचार, प्रकाश संश्लेषण और पोषक तत्वों की उपलब्धता बेहतर होती है। सामान्यतः इसकी बुवाई के लिए 35–40 किग्रा बीज प्रति हेक्टेयर उपयुक्त माना जाता है, जिसे 2–3 सेमी गहराई पर बोया जाना चाहिए। कतारबद्ध बुवाई में कतार से कतार की दूरी 25–30 सेमी और पौधे से पौधे की दूरी 7–10 सेमी रखनी चाहिए, जिससे पौधों को पर्याप्त स्थान और संसाधन मिलते हैं। इससे न केवल रोगों की संभावना घटती है, बल्कि निराई-गुड़ाई, कीट नियंत्रण और कटाई जैसे कार्य भी आसान हो जाते हैं। यह तकनीक कम लागत में अधिक उपज के लिए सहायक है।
तिवड़ा का बीजोपचार:
तिवड़ा की अच्छी पैदावार, रोगों से बचाव और प्रारंभिक वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए बीजोपचार अत्यंत आवश्यक होता है। बुवाई से पहले बीजों को सबसे पहले फफूंदनाशक जैसे कार्बेन्डाजिम या थीरम @ 2-3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए, जिससे बीज जनित रोगों से सुरक्षा मिलती है। इसके बाद बीजों को राइजोबियम कल्चर और पी.एस.बी. (स्फटिक घुलनशील जीवाणु) जैसे जैव उर्वरकों से उपचारित करना चाहिए। जैविक कल्चर को शक्कर या गुड़ के घोल में मिलाकर बीजों पर लेपित कर छाया में सुखाया जाता है। इस क्रम को ध्यानपूर्वक अपनाने से बीजों का अंकुरण बेहतर होता है, पौधों की नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्षमता बढ़ती है और प्रारंभिक अवस्था में फसल को स्वस्थ विकास मिलता है, जिससे अंततः उत्पादन में वृद्धि होती है।
पोषण और जल प्रबंधन
तिवड़ा की खेती में पोषण और जल प्रबंधन का विशेष महत्व है क्योंकि यह फसल प्रायः सीमांत भूमि और वर्षा आधारित क्षेत्रों में उगाई जाती है। चूंकि यह एक दलहनी फसल है, इसलिए यह वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर मिट्टी की उर्वरता बढ़ाती है, फिर भी बेहतर उत्पादन के लिए संतुलित पोषण आवश्यक है। बुवाई के समय प्रति हेक्टेयर 20 किग्रा नाइट्रोजन, 40 किग्रा फास्फोरस और 20 किग्रा पोटाश की सिफारिश की जाती है। जैविक खेती को बढ़ावा देने हेतु राइजोबियम और स्फटिक घुलनशील जीवाणु जैसे जैव उर्वरकों से बीजोपचार करना लाभकारी होता है। जल प्रबंधन की दृष्टि से यह फसल कम पानी में भी अच्छी उपज देती है, परंतु पुष्पन और फलन अवस्था में हल्की सिंचाई देने से उत्पादन में वृद्धि होती है। सामान्यतः रेनफेड (वर्षा आधारित) क्षेत्रों में इसकी खेती होती है, लेकिन जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो, वहाँ दो हल्की सिंचाइयों से उपज में काफी सुधार हो सकता है।
खरपतवार और कीट प्रबंधन
तिवड़ा की फसल की आरंभिक अवस्था में खरपतवारों की उपस्थिति से फसल की वृद्धि और उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। विशेषकर पहले 30–40 दिनों में खरपतवार नियंत्रण अति आवश्यक होता है। इसके लिए दो बार निराई-गुड़ाई (20–25 और 40–45 दिन पर) करने की सलाह दी जाती है। यदि श्रम या संसाधन की कमी हो तो बुवाई के बाद पेंडिमेथालिन 1.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से पूर्व उगने वाले खरपतवारों पर छिड़काव प्रभावशाली होता है। कीट और रोग की दृष्टि से तिवड़ा अपेक्षाकृत सहनशील फसल है, परंतु कुछ समस्याएँ जैसे फली भेदक कीट या जड़ सड़न देखी जा सकती हैं। फली भेदक के नियंत्रण हेतु नीम आधारित जैव कीटनाशक (जैसे 5% नीम का तेल) या बीटी (बेसिलस थुरिन्जियेंसिस) का प्रयोग करें। जड़ सड़न से बचाव के लिए बीजोपचार में ट्राइकोडर्मा या कार्बेन्डाजिम का उपयोग किया जा सकता है। संपूर्ण फसल चक्र में निगरानी और जैविक उपाय अपनाकर कीट व रोग नियंत्रण करना पर्यावरणीय दृष्टि से भी लाभकारी होता है।
फसल की कटाई, मड़ाई और भंडारण
तिवड़ा की फसल सामान्यतः 120–130 दिनों में परिपक्व हो जाती है। जब फलियाँ पूरी तरह सूखकर भूरे रंग की हो जाएँ, तो कटाई का समय उचित होता है। अधिक विलंब से कटाई करने पर फलियों से दाने झड़ सकते हैं, जिससे उपज में हानि होती है। कटाई के बाद फसल को खुली धूप में 2–3 दिन तक अच्छी तरह सुखाया जाता है, जिससे मड़ाई में सुविधा होती है। मड़ाई पारंपरिक विधियों (जैसे लाठी से पीटना या बैलों से कुचलना) या थ्रेशर द्वारा की जा सकती है। मड़ाई के बाद प्राप्त दानों को अच्छे से साफ कर, 10–12% नमी स्तर तक सुखाना आवश्यक है ताकि वे भंडारण में सुरक्षित रहें। भंडारण के लिए सूखे, हवादार, कीट-रहित स्थान का चयन करें और भंडारण पात्र जैसे पीपी बैग या ड्रम में नीम की पत्तियाँ डालकर प्राकृतिक संरक्षण सुनिश्चित किया जा सकता है। बीजों के दीर्घकालिक संरक्षण के लिए वैज्ञानिक भंडारण विधियाँ अपनाना लाभकारी होता है।
उतेरा पद्धति के माध्यम से लथायरस उत्पादन में नवाचार और संभावनाएँ
लथायरस जिसे छत्तीसगढ़ में ‘लखड़ी’ या ‘तीवड़ा’ कहा जाता है, एक कठोर दलहनी फसल है जो अधिक नमी या सूखे की स्थिति में भी अच्छी उपज देती है। यह फसल भारत के विभिन्न राज्यों जैसे छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में रबी मौसम (अक्टूबर-नवंबर) में बोई जाती है और फरवरी-मार्च में कटाई की जाती है। इसकी खेती सीमांत और वर्षा-आश्रित क्षेत्रों में की जाती है, क्योंकि यह अल्प वर्षा व बाढ़ दोनों में उग सकती है। छत्तीसगढ़ में यह पारंपरिक रूप से "उतेरा पद्धति" से भी बोई जाती है, जिसमें धान की कटाई से पूर्व खेत में नमी के रहते लथायरस का बीज सीधे छिड़का जाता है, जिससे बिना जुताई की खेती संभव होती है और सिंचाई, श्रम व लागत की बचत होती है। वर्तमान में यह फसल छत्तीसगढ़ में लगभग 0.48 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में उगाई जाती है, जिससे 0.32 मिलियन टन उत्पादन और 671 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता प्राप्त होती है। यह सस्ती प्रोटीन युक्त फसल है और जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण द्वारा मृदा उर्वरता बनाए रखने में सहायक है, किंतु पारंपरिक विधियों और तकनीकी ज्ञान की कमी के कारण इसकी संभावित उत्पादकता नहीं मिल पाई। इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा 1998-99 से 2013-14 तक रायपुर, बिलासपुर और कांकेर जिलों में ‘रतन’, ‘प्रतीक’, ‘निर्मल’ और ‘महतेओरा’ किस्मों पर 950 प्रक्षेत्र प्रदर्शन किए गए, जिनमें उन्नत बीज, संतुलित पोषण, कीट-रोग नियंत्रण और खरपतवार प्रबंधन तकनीकों का समावेश किया गया। इनसे पारंपरिक विधियों की तुलना में औसतन 47.45% अधिक उपज प्राप्त हुई, और 'निर्मल' किस्म ने 82.6% अधिक उपज दी। यह अध्ययन दर्शाता है कि उन्नत तकनीकों और उतेरा पद्धति के संयुक्त प्रयोग से लथायरस की उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि संभव है, जो किसानों की आय बढ़ाने और देश को दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
ऐप डाउनलोड करने की प्रक्रिया: लथायरस इंफो ऐप
"लथायरस इंफो" एक द्विभाषीय (हिंदी और अंग्रेज़ी) मोबाइल ऐप है, जिसे भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद – राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान , रायपुर द्वारा विशेष रूप से लथायरस (खेसारी) फसल की वैज्ञानिक जानकारी, कम- बीटा-ऑक्सालाइल डाईएमिनो प्रोपियोनिक एसिड किस्मों का प्रचार, और कृषक जागरूकता हेतु विकसित किया गया है। यह ऐप किसानों, कृषि छात्रों, वैज्ञानिकों और विस्तार कार्यकर्ताओं के लिए उपयोगी है, जिससे वे जलवायु-स्मार्ट फसल लथायरस की जानकारी आसानी से प्राप्त कर सकें।इस ऐप को डाउनलोड करना बहुत ही आसान है। यदि आप एंड्रॉइड स्मार्टफोन उपयोगकर्ता हैं, तो इसे गूगल प्ले स्टोर से निःशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं। इसके लिए नीचे दिए गए सरल चरणों का पालन करें:
डाउनलोड करने के विभिन्न चरण:
- अपने मोबाइल फोन में गूगल प्ले स्टोर खोलें।
- सर्च बार में “लथायरस इंफो” टाइप करें और सर्च पर क्लिक करें।
- सर्च परिणामों में “लथायरस इंफो” नामक ऐप दिखाई देगा – उसे पहचानें और उस पर क्लिक करें।
- ऐप विवरण पेज पर पहुँचने के बाद “इंस्टॉल”बटन दबाएं।
- कुछ ही क्षणों में ऐप डाउनलोड होकर आपके फोन में इंस्टॉल हो जाएगा।
- आप सीधे इस लिंक पर क्लिक करके भी ऐप के डाउनलोड पेज तक पहुँच सकते हैं:
- लथायरस इंफो– गूगल प्ले स्टोर लिंक:-https://play.google.com/store/apps/details?id=in.res.nibsm.lathyrusappnew
अधिक जानकारी के लिए संपर्कसूत्र
यदि ऐप के प्रयोग में किसी प्रकार की सहायता या सुझाव की आवश्यकता हो, तो आप नीचे दिए गए पते और माध्यमों से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद – राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान, रायपुर (छत्तीसगढ़) से संपर्क कर सकते हैं:
- पता: भाकृअनुप. – राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान, बारोंडा, पोस्ट – बंगोली, रायपुर – 493225, छत्तीसगढ़, भारत
लाभ:
"लथायरस इंफो" ऐप किसानों को लथायरस (खेसारी) की खेती से जुड़ी वैज्ञानिक एवं तकनीकी जानकारी सरल भाषा में उपलब्ध कराता है, जिससे वे पारंपरिक तरीकों की बजाय आधुनिक व वैज्ञानिक पद्धतियों को अपना सकते हैं। ऐप के माध्यम से किसान उन्नत किस्मों, बीज दर, पोषण और जल प्रबंधन, कीट एवं रोग नियंत्रण, फसल कटाई और भंडारण जैसी जानकारियाँ प्राप्त कर पाते हैं। इससे न केवल उनकी फसल की उत्पादकता और गुणवत्ता में वृद्धि होती है, बल्कि उन्हें कम लागत में अधिक लाभ भी मिलता है। साथ ही, यह ऐप जलवायु-लचीली खेती को बढ़ावा देता है, जिससे किसान सूखा, लवणता और असमान वर्षा जैसी समस्याओं से बेहतर ढंग से निपट सकते हैं। इस प्रकार, यह ऐप किसानों की आय बढ़ाने, जोखिम घटाने और सतत कृषि प्रणाली को प्रोत्साहित करने में सहायक सिद्ध होता है।
निष्कर्ष:
"लथायरस इंफो" ऐप एक प्रभावशाली डिजिटल पहल है, जो किसानों को लथायरस (खेसारी) जैसी जलवायु-सहनशील व पोषक फसल की वैज्ञानिक जानकारी सरल भाषा में उपलब्ध कराता है। यह ऐप न केवल खेती को तकनीक और नवाचार से जोड़ता है, बल्कि किसानों को सतत कृषि, पोषण सुरक्षा और आयवृद्धि की दिशा में सशक्त बनाता है। कम-ODAP किस्मों की जानकारी, उन्नत कृषि विधियों और द्विभाषीय सुविधाओं के साथ यह ऐप छोटे और सीमांत किसानों के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यह प्रयास उपेक्षित फसलों को मुख्यधारा में लाने और आत्मनिर्भर किसान समाज की ओर एक मजबूत कदम है।
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