डॉ. पी. मूवेंथन, वरिष्ठ वैज्ञानिक
डॉ. हेमप्रकाश वर्मा, यंग प्रोफेशनल
सुमन सिंह, सीनियर रिसर्च फेलो
भा. कृ. अनु. प.-राष्ट्रीय जैविक स्ट्रैस प्रबंधन संस्थान, बरोंडा, रायपुर (छ. ग.)
जल संसाधनों के कुशल और दीर्घकालिक उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए विकसित की गई प्रक्रियाएँ और उपकरण हैं। बढ़ती आबादी, जलवायु परिवर्तन, और जल संकट के मद्देनजर, इन तकनीकों का महत्व तेजी से बढ़ रहा है। पारंपरिक जल प्रबंधन प्रणालियाँ अक्सर पानी की बर्बादी और प्राकृतिक संसाधनों के अति-उपयोग का कारण बनती हैं, जिससे कृषि की उत्पादकता और पर्यावरणीय स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।आधुनिक जल प्रबंधन तकनीकों का मुख्य उद्देश्य पानी का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करना, फसलों की बेहतर उत्पादकता हासिल करना और पर्यावरण पर न्यूनतम प्रभाव डालना है। इन तकनीकों में ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई, वर्षा जल संचयन, जल पुनर्चक्रण, हाइड्रोपोनिक्स और एक्वापोनिक्स जैसी उन्नत प्रणालियाँ शामिल हैं, जो न केवल पानी की खपत को कम करती हैं, बल्कि मिट्टी की गुणवत्ता और कृषि की स्थिरता को भी बनाए रखती हैं।इन तकनीकों के उपयोग से किसान पानी की कमी वाले क्षेत्रों में भी खेती कर सकते हैं और जल संसाधनों के संरक्षण में योगदान कर सकते हैं। सतत कृषि के लिए जल प्रबंधन न केवल भविष्य की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करता है, बल्कि पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए भी आवश्यक है।
सतत कृषि में जल प्रबंधन का महत्व
सतत कृषि का उद्देश्य पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था को संतुलित करते हुए दीर्घकालिक कृषि उत्पादन बनाए रखना है। यह कृषि की एक ऐसी प्रणाली है जो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, जैव विविधता की रक्षा, और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए डिजाइन की गई है। सतत कृषि में जल प्रबंधन एक प्रमुख भूमिका निभाता है, क्योंकि जल कृषि उत्पादन के लिए आवश्यकतम संसाधनों में से एक है। जलवायु परिवर्तन, बढ़ती जनसंख्या, और पानी की कमी जैसी चुनौतियाँ जल प्रबंधन को और अधिक महत्वपूर्ण बनाती हैं। बिना प्रभावी जल प्रबंधन के, फसल उत्पादन में गिरावट हो सकती है और पर्यावरणीय असंतुलन उत्पन्न हो सकता है। इसलिए, आधुनिक जल प्रबंधन तकनीकों का उपयोग कर पानी का कुशल उपयोग सुनिश्चित करना जरूरी है, ताकि कृषि की दीर्घकालिक स्थिरता बनी रहे और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
सतत कृषि की अवधारणा
सतत कृषि वह कृषि पद्धति है जो वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करती है, लेकिन उनका अति-उपयोग या ह्रास नहीं करती। इसका उद्देश्य पर्यावरणीय स्वास्थ्य को बनाए रखते हुए फसल उत्पादकता में सुधार करना है। सतत कृषि निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित है। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, जैसे जल, मिट्टी, और जैव विविधता का संरक्षण, एक महत्वपूर्ण पहलू है जो दीर्घकालिक उत्पादकता को बनाए रखने में सहायक है। इसके लिए आवश्यक है कि बिना मिट्टी की उर्वरता और जल संसाधनों को नुकसान पहुँचाए, दीर्घकालिक कृषि उत्पादन को बनाए रखा जाए। पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने के लिए उर्वरकों, कीटनाशकों, और अन्य कृषि रसायनों का सीमित उपयोग किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि किसानों और स्थानीय समुदायों की आजीविका में सुधार हो, जिससे सामाजिक और आर्थिक स्थिरता प्राप्त हो सके।
जल संसाधनों का कृषि में महत्व
जल कृषि उत्पादन का एक अभिन्न हिस्सा है। फसलों की वृद्धि और उत्पादन के लिए जल की निरंतर आपूर्ति आवश्यक होती है। जल संसाधनों का कृषि में कई तरह से उपयोग होता है-
- सिंचाई- फसलों को आवश्यकतानुसार जल प्रदान करना, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहाँ वर्षा अपर्याप्त होती है। मिट्टी की नमी बनाए रखना पानी की कमी से मिट्टी की नमी घट जाती है, जिससे फसल की पैदावार पर असर पड़ता है।
- कृषि प्रक्रिया में सहायता- खेती के विभिन्न चरणों जैसे बुवाई, निराई, और कटाई में पानी की जरूरत होती है। कई क्षेत्रों में कृषि जल संसाधनों पर अत्यधिक निर्भर है। जल की कमी या अनियमितता कृषि उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित कर सकती है। इस कारण, जल का सही और कुशल प्रबंधन बेहद आवश्यक हो जाता है।
जल प्रबंधन और कृषि की स्थिरता के बीच संबंध
जल प्रबंधन और कृषि की स्थिरता एक दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। अगर जल प्रबंधन सही तरीके से नहीं किया जाता है, तो इसके परिणामस्वरूप जल संकट, भूमि की उर्वरता में गिरावट, और फसल उत्पादन में कमी हो सकती है। कुशल जल प्रबंधन फसलों को आवश्यकतानुसार जल प्रदान करता है, जिससे जल का दुरुपयोग कम होता है और उत्पादन में सुधार होता है।
- मिट्टी की गुणवत्ता का संरक्षण- पानी का सही उपयोग मिट्टी की गुणवत्ता को बनाए रखने में मदद करता है, जिससे दीर्घकालिक कृषि स्थिरता सुनिश्चित होती है।
- वातावरणीय स्थिरता- बेहतर जल प्रबंधन से भूजल स्तर स्थिर रहता है, सूखा और जलभराव जैसी समस्याओं को कम किया जा सकता है, जिससे पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।
- जलवायु परिवर्तन से निपटना- जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनों पर बढ़ते दबाव से निपटने के लिए जल प्रबंधन तकनीकें महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार, जल प्रबंधन की कुशलता और सतत कृषि के बीच का संबंध यह दर्शाता है कि कृषि की सफलता और स्थिरता के लिए जल का सही उपयोग और संरक्षण अनिवार्य है।
कृषि में जल प्रबंधन हेतु सिंचाईं की तकनीकें-
ड्रिप सिंचाई पद्धत्ति
यह सिंचाई की एक उन्नत तकनीक है जिसे टपक सिंचाई भी कहा जाता हैं, अन्य सिंचाई पद्धत्ति की तुलना में पानी की अधिक बचत करता है। इस विधि में पानी बूंद-बूंद करके पौधे या पेड़ की जड़ में सीधा पहुँचाया जाता है जिससे पौधे की जड़े पानी को धीरे-धीरे ग्रहण करते रहते है। इस विधि में पानी के साथ उर्वरको को भी सीधा पौधों के जड़ क्षेत्र में पहुँचाया जाता है जिसे फ्रटीगेसन कहते है जिससे समय व श्रम की बचत होती हैं। पानी की बचत के साथ साथ अतिरिक्त क्षेत्र को भी सिंचित किया जा सकता है। कम से कम 30 से 40 प्रतिशत तक पानी की बचत होती है। पुरे खेत में पानी का एक समान वितरण होता हैं जिससे इसका उपयोग खुले खेत, व्यावसायिक ग्रीन हाउस, आवासीय उद्यानों, पॉलीहाउस, शेड नेट फार्मिंग सभी में आसानी से इस्तेमाल किया जा सकता है। सभी प्रकार की मृदाओं में सफलता पूर्वक सिंचाई की जा सकती हैं । इस पद्धत्ति से सिंचाई करने से फसलों में खरपतवारों का प्रकोप बहुत ही कम होता है। अतः इस तकनीक की मदद से कृषक पानी व श्रम की बचत तथा उर्वरक उपयोग दक्षता में सुधार कर सकता है और सतत कृषि हेतु महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता हैं।
स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धत्ति
स्प्रिंकलर सिंचाई पद्धत्ति जिसे फव्वारा सिंचाई भी कहते हैं यह सिंचाई करने का एक उन्नत तकनीक और साधन है। इसमें पानी पौधों के जड़ों में नहीं जाकर वर्षा के फुहारों की तरह गिरता है। इसमें छिद्र वाली नालियों से जल का प्रवाह किया जाता है और फिर फुहारों की तरह पानी की बूंदें पौधों पर गिरती है। इसमें मुख्य तत्व मोटर पंप, पाइप फिल्टर, पाइप की मुख्य नली, बौछार करने वाली पाइप की नली और पानी फेखने वाला फुहारा है। इनकी सहायता से ही स्प्रिंकलर कार्य करता है।
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