अभय बिसेन, वैज्ञानिक (फल विज्ञान),
पं शिव कुमार शास्त्री कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, राजनांदगाँव
उत्पादन के दृष्टिकोण से भारत विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक देश है जो विश्व में केले के कुल उत्पादन का 15 प्रतिशत भाग की पूर्ति करता है। भारत में केले के कुल उत्पादन की दृष्टिकोण से छत्तीसगढ़ राज्य 11वें स्थान पर है। पहले के समय में इसे गृह वाटिका में गृह उपभोग, पूजन एवं स्थानीय बाजार में विक्रय करने हेतु लगाया जा रहा है किन्तु वर्तमान समय में छत्तीसगढ़ राज्य में केले की खेती सघन बागवानी पद्धति को अपनाकर व्यापारिक स्तर पर की जा रही है। केला विटामिन ए.सी. एवं बी2 कैल्सियम, पोटेशियम और आयरन जैसे खनिज तत्व एवं ऊर्जा का स्रोत माना गया है। 100 ग्राम केले से लगभग 104 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होता है।
जलवायु पौधे के अच्छे वृद्वि व विकास के लिए 18 से 27 सेन्ट्रीग्रेड तापमान अनूकूल माना जाता है । 12 सेन्ट्रीग्रेड से तापमान कम होने पर केले के पौधे को तापमान के कारण नुकसान पहुॅचता है एवं 38 सेन्ट्रीग्रेड से. ज्यादा तापमान होने पर केले के पत्तियों झुलस जाती है । 80 किलो मीटर प्रति घंटा की रफतार से जिन क्षेत्रों मे हवा चलती है वहां इसकी खेती नही करनी चाहिए ।इसकी खेती उष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में की जाती है किन्तु मध्य शुष्क जलवायु वाले क्षेत्र जैसे छत्तीसगढ में केले की गैंरडनाइन किस्म को आसनी से उगाया जा सकता है ।
भूमि की तैयारी: केले को लगाने की पूर्व खेत 2-4 बार जुलाइ रोटेरटर या ब्रारकर चलाना ढेले फोड लें। ताकि मिटटी भुरभुरी बन जाये। पौधे की प्रकृति के अनुसार जल निकास की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए। इसके बाद 200 क्विटल गोबर की खाद प्रति हेक्टर का दर से में मिलाये टेक्टर की सहायता उॅची क्यारिया बनानी चाहिए एवं टेक्टर चालते ड्रिल मशीन की सहायता से 1.8x1.5 मी. पर गडडे करना चाहिये। प्रति गडडे में 20 कि.गा. गोबर की खाद 250 ग्राम की खेती एंव 20 ग्राम कार्बा. प्रति गडडा डालना चाहिये । साथ ही 100 ग्राम एस.एस.पी.व 50 ग्राम पोटाश प्रति गडडा डालनी चाहिए । उचित जल विकास कार्बनिक पदाथो से मुक्त सामान्य काली मिटटी जिसमें जल विकास की उचित व्यवस्थान हो उसे करना चाहिये ।
उन्नत संवर्धन से विकसित केले के पौधे को लगाने के लाभ
- पैतृक पौधों के समान गुण वाले होते है।
- प्राप्त पौधे बिमारी एवं कीडो से मुक्त होते है।
- विकसीत पौधे एक समान वृद्वि विकास एवं फूल उत्पन करने वाले होते है ।
- पौध हमेशा मिलने के कारण वर्ष भर पौधों को लगाया जा सकता है ।
- शीघ्र फल देते है ।
- नई किस्मों के कम समय में अधिक से अधिक पौधे विकसीत किये जा सकते है ।
लगाने का समय:- प्रायःउन्नत संवंर्धन में विकसित केले के पौधेा को साल कर लाया जा सकता किन्तु इसे लगाने उचित समय जून- जुलाई एवं अक्टूबर-नवम्बर होता है ।
पौधेा को लगाने का तरीका:- सघन बागवानी पद्विति के अन्तर्गत पौधेां को लगाने के लिए 30x30x30 या 45x45x45 सेन्टीमीटर आकार के गडडे खोदे जाते है । पौधे से पौधे की दूरी 1.8x1.5 मी. रखी जाती है । इस दूरी पर प्रति एकड 1452 पौधे एवं प्रति हैक्ट. 3630 पौधे लागाये जाते है । क्यारियों बनाते समय इनकी दिशा उत्तर से दक्ष्णि की ओर रखना चाहिए।
छत्तीसढ राज्य हेतू उपयुक्त केले की किस्म
गै्रेड नेन
अधिक उपज वाली किस्म करीब एक पौधे से 30 किग्रा फल प्राप्त हेाते है। उच्च गुणवत्ता वाले फल प्राप्त हेाते है मिठास उवार्फ कैवेन्डिश से कम रहती है । प्रोसेसिंग के लिए ये किस्म उत्तम है । फल को अधिक समय तक सुरक्षित रख सकते है। ये टिपक सिंचाई पद्वति से उगाने के लिए उत्तम है ।
डवार्फ कैवेन्डिश- ये किस्म टिशू कल्चर के द्वारा तैयार कि जाती है । ये किस्म टपक सिंचाई पद्वति से उगाने के लिए उत्तम है । साथ ही सब्जियों के लिए उपयोगी है। फल लंबे ,अण्डाकार हेाते है फल का वनज 25 किलो तक प्राप्त होता है । मिठास अधिक,परिपक्वता के समय फल पीले एवं हरे रंग के होते है।
बत्तीसाः यह सब्जी के लिए उत्तम एवं अधिक उत्पादन वाली किस्म है। सरलता से पक जाती है तथा रेशा रहित होती है। इसका पौधा लंबा होता है। छत्तीसगढ़ के लिए उपयुक्त होता है।
उर्वरक देने का तरीका -
प्रति पौधे प्रति वर्ष 430 ग्राम यूरिया 375 ग्राम सिगल सुपर फास्फेट 500 ग्राम पोटास देना चाहिये । प्रति एकड 6.25 क्विटल उर्वरक 575 क्विटल सिगल सुपर फास्फेट व 7.25 क्विटल प्रति एकड पोटास की आवश्यकता होती है । पौधे लगाते समय 100 ग्राम सिगल सुपर फास्फेट एवं पोटास 50 ग्राम दे। लगाने के 10 दिन बाद यूरिया 25 ग्राम दे। सूक्ष्म पोषक तत्व के कमी के लक्षण दिखाई देने पर पत्तिया छोटी एवं पत्तियों के वेन्स में नेकरोटिक लाइन दिखाई पडती है। इसलिए पौधे लगाने के तृतीय सप्ताह बाद 50 ग्राम /पौधे के हिसाब से बोरिक एसिड एवं जंक सल्फेट डालना चाहिए ।
टपक सिंचाइ्र्र द्वारा खाद देना
केले का उत्पादन टपक सिंचाई पद्वति से करने पर ही उत्पादन अधिक मिलता है। किस समय कितनी घुलनशील खाद की मात्रा डालनी चाहिये निम्नलिखित तालिका में दर्शाया गया है।
समय/दिन |
ग्रेड |
कुल
मात्रा (किग्रा.) |
किग्रा./दिन/एकड |
1-90 |
19.19.19 |
192 किग्रा. |
2.13 |
13.0.46 |
93 किग्रा. |
1.033 |
|
यूरिया |
70 किग्रा. |
0.77 |
|
91-150 |
0.52.37 |
59 किग्रा. |
0.983 |
13.0.46 |
82.5 किग्रा. |
1.376 |
|
यूरिया |
117.5 किग्रा. |
1.985 |
|
151-300 |
13.0.46 |
282.5 किग्रा. |
1.88 |
यूरिया |
150 किग्रा. |
1.00 |
सिंचाई- केले का पौधा मौसम प्रकृति होने के कारण इस फसल अधिक पानी की आवश्यकता होती है। कम पानी देने या सिंचाई करने पर जिसका सीधा असर उपज पर देखा गया है । इस लिए ड्रिप विधि दृवारा सिंचाइ्र्र देना वैज्ञानिक रूप से अच्छा माना गया है । जिसके कारण 60 प्रतिशत तक जल की बचत एवं 30 -40 प्रतिशत उपज में वृद्वि देखी गई है । छत्तीसगढ क्षेत्र के लिए पानी की आवश्यकता एंव सिंचाई निर्धारण निम्न रूप से किया गया है-
माह |
कुल
मात्रा (लीटर /दिन/पौधा) |
माह |
कुल
मात्रा (लीटर /दिन/पौधा) |
जून |
05 |
दिसम्बर |
06 |
जुलाई |
04 |
जनवरी |
09 |
अगस्त |
05 |
फरवरी |
11 |
सितम्बर |
06 |
मार्च |
16-18 |
अक्टूबर |
8-10 |
अप्रेल |
18-20 |
नवम्बर |
08 |
मई |
20-25 |
निंदाई -गुडाई -समय-समय पर केले की फसल में निदाई गुडाई जरूरी हेाती है साथ ही साथ पौधे पर मिटटी चढाते रहना चाहिये ।
अनावश्यक सकर निकालना
पौधे लगाने के 2-3 माह बाद से ही पौधो के बगल से सकर निकलने लगाते है जिसे समय समय पर निकालते रहना चाहिए । जब केले में फूल आना शूरू हो उस समय एक स्वस्थ सकर, आगामी रैटून की फसल के लिये रखें जाते है।
केले के घेर को सहारा देना -केले के घेर को बास द्वारा कैची आकार में फंसाकर सहारा देना चाहिये अन्यथा पौधों के टूटने की संभावना रहती है। विशेष रूप से घेर निकलते समय सहारे की आवश्यकता हेाती है ।
गर्म हवा से सुरक्षा -केले के पौधेा को तेज हवाओं से बचाव करना आत्यंत आवश्यक हेाता है वायु अवरोधक के रूप में सेसबेनिया या एम.पी.चरी को उत्तर पश्चिम दिशा की आरे पांच कतारेां में लगाना चाहिये ।
फल तोडना एवं पकाना - पौधों में फल पूर्ण विकसित हो जाये और उसमें रंग परिवर्तन दिखाई देने लग्र तो पूरे घेर को काट लेना चाहिये ईथीनीन 150-250 पी.पी.एम के घेल में उपचारित करने पर फल जल्दी व एक साथ पकते है ।
उपज- उपयुक्त विधि अनुसार केले की खेती की जाये तो प्रति पौधा 20-25 किलो फल प्राप्त किये जा सकते है एवं 9 से 10 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर मुख्य फसल से एवं इतनी ही उपज पेडी रेटून फसल से ले सकते है ।
केले की पेडी(रैटून) की फसल
पेडी की फसल द्वारा भी उचित प्रबंधन से अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है । जब मुख्य फसल 7-8 माह की जो जाती है एवं मुख्य फसल में फूल आना शुरू हो तो स्वस्थ सुकर को पेडी की फसल हेतु छोड देना चाहिए । मुख्य फसल के कटाई हो जाने के उपरांत मुख्य फसल के अवशेष को तुरंत साफ करके पेडी की फसल हेतु खाद एवं उर्वरक का उपयोग करना चाहिए। मुख्य फसल के तरह ही पेडी की फसल से अच्दी उपज प्राप्त करने हेतु 250 ग्राम नत्रजन 150 ग्राम स्फर एवं 200 ग्राम पोटाश प्रतित पौध की दर से दना चाहिए । नत्रजन उर्वरक का 3 बराबर भागों में बांटकर 30 दिन के अंतराल पर देना चाहिए । स्फूर एवं पोटाश की पूरी मात्रा की नत्रजन का एक भाग को मुख्य फसल की कटाई के तुरंत बाद पौधों से 40 सेमी की दूरी पर देकर तुरंत गुडाई करके मिटटी में अच्दी तरह मिला देना चाहिए और सिंचाइ करना चाहिए । समय समय पर बगल की सकर को काटकर अलग करते रहना चाहिये । शेष सस्य क्रियाए उपरोक्त वर्णित मुख्य फसल की तरह ही अपनायें।
रोग एवं कीट
रोग
पनामा रोग:- यह फफूंद जनित रोग है। उसके रोग जनक मिट्टी में रहते हैं। और कंद में प्रवेश कर जाते हैं अत्यधिक फैलाव की दशा में पौधे के ऊपरी सिरे में पानी व भोजन का स्थानांतरण रूक जाता है एवं कंद फट जाता है। जिसके कारण पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं एवं पौधे से दुर्गंध आती है।
नियंत्रण:- संक्रमित मिट्टी में निरंतर 3-4 वर्ष तक केला नहीं लगाना चाहिए। संक्रमित पौधों को उखाड़कर जला दें। मृदा में 1:3 के अनुपात में चूना डालकर पानी देवें।
शीर्ष गुच्छा रोगः- यह विषाणु जनित रोग होता है जो कि माहू व सफेद मक्खी के द्वारा फैलता है। यह रोग केवेन्डिस किस्म में ज्यादा लगता है। इसके आक्रमण होने पर पत्तियां छोटी संकरी हो जाती हैं एवं पौधे का ऊपरी सिरा गुच्छे का रूप धारण कर लेता है।
नियंत्रण:- रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देवें। रोग के वाहक जैसे माहू व सफेद मक्खी को रोगोर 1 से 1.5 मिली. प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
चित्ती रोग:- यह फफूंद जनित रोग है। प्रारंभिक अवस्था में इसके लक्षण पौधे की तीसरी एवं चैथी पत्तियों पर दिखाई देते हैं। धब्बे प्रारंभिक अवस्था में पीले रंग के जो बाद में काले-भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते हैं।
नियंत्रण:- रोग के आरंभिक लक्षण दिखाई देने पर कापर आक्सी क्लोराइड या नीला थोथा का 3 ग्राम प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करे।
कीटः
तना छेदक:- यह कीट केले के तने में छेद करता है जिसकी वजह से तने में सड़ाव होना शुरू हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिए प्रति पौधा 3 ग्राम कार्बाफ्यूरान दवा के दाने को डाले।
फल छेदक इल्लीः- यह फलों के निचले भाग में छेद करता है जो छेद करते हुए फलों के ऊपरी भाग तक पहुंच जाता है। अंततः फल सड़ जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए बगीचे की सफाई करे और मेलाथियान पावडर का मुरकाव इल्ली का प्रकोप दिखाई देने पर 15 दिनों के अंतराल से दो से तीन बार करें।
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