सुरेश कुमार साहू (पीएचडी स्कॉलर) पादप रोग विज्ञान विभाग
आयुष गुप्ता (एम एस सी)पादप रोग विज्ञान विभाग

चना एक महत्वपूर्ण फलीदार फसल है जो दुनिया भर के किसानों के लिए पोषण और आय का एक मूल्यवान स्रोत है।भारत में यह रबी की फसल के रूप में मध्य प्रदेश , उत्तर प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में खेती की जाती है | सामान्यतः चने की खेती को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसमें उकठा (Fusarium wilt) रोग का खतरा भी शामिल है , यह फंगल रोग, अगर ठीक से प्रबंधित नहीं किया गया तो चने की फसलों पर कहर बरपा सकता है। उकठा मुख्य रूप से फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम (Fusarium oxysporum) नामक फफूंद के कारण होता है। यह मृदा तथा बीज जनित बीमारी है। यह रोग पौधे में फली लगने तक किसी भी अवस्था में हो सकता है। यह रोगज़नक़ फसल के अवशेषों पर सर्दियों में रहता है और कई वर्षों तक मिट्टी में बना रह सकता है, जिससे यह चने की खेती के लिए बार-बार खतरा बन सकता है। यह कवक बीजाणु पैदा करते है जो हवा, बारिश या सिंचाई के पानी द्वारा पूरे खेत में फ़ैल जाते है, मौसम में बदलाव और बार-बार खेत में एक ही फसल लगाने पर चने की फसल में उकठा रोग लगने की संभावना बढ़ जाती है, ऐसे में किसान सही प्रबंधन अपनाकर इससे छुटकारा पा सकते हैं।

लक्षण
यह रोग आमतौर पर चने की पत्तियों और फलियों पर भूरे रंग के केंद्र और गहरे भूरे रंग की सीमा के साथ छोटे, गोलाकार धब्बो के रूप में शुरू होता है।जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, ये धब्बे आपस में जुड़ जाते हैं, जिससे पत्तियों और फलियों को व्यापक क्षति हो सकती है। समय से पहले पत्तियों का गिरना: संक्रमित पौधों में अक्सर समय से पहले पत्ती गिरने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकाश संश्लेषण क्षमता और समग्र पौधे का स्वास्थ्य खराब हो जाता है।उकठा रोग फली के विकास में बाधा उत्पन्न कर सकता है और बीज की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है, जिससे अंततः पैदावार कम हो सकती है और आर्थिक नुकसान हो सकता है।प्रारम्भ मे पौधे की ऊपरी पतियां मुरझा जाती हैं, धीरे-धीरे पूरा पौधा सूखकर मर जाता है। जड़ के पास तने को चीरकर देखने पर वाहक ऊतकों मे कवक जाल धागेनुमा काले रंग की संरचना के रूप में दिखाई देता है।


रोकथाम:-

1. चना की बुवाई उचित समय यानि 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक करना चाहिए।

2. गर्मियों में मई से जून में गहरी जुताई करने से फ्यूजेरियम फफूंद का संवर्धन कम हो जाता है। मृदा का सौर उपचार करने से भी रोग में कमी आती है।

3. उचित खरपतवार नियंत्रण से रोग फैलने के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है। खरपतवार रोगज़नक़ के लिए वैकल्पिक मेजबान के रूप में कार्य कर सकते हैं, जिससे इसे जीवित रहने और गुणा करने की अनुमति मिलती है।

4. बीज को मिट्टी में 8 सेंटीमीटर की गहराई में बुवाई करना चाहिए।

5. चना की उकठा रोग प्रतिरोधी किस्में लगाना चाहिए।

6. उकठा रोग का प्रकोप कम करने के लिए तीन साल का फसल चक्र अपनाया जाना चाहिए।

7. सरसों या अलसी के साथ चना की अन्तर फसल लगाना चाहिए।

8. इसके नियंत्रण के लिए ट्राइकोड्रर्मा पाउडर 10 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोंपचार करें। साथ ही चार किलोग्राम ट्राइकोड्रर्मा को 100 किलोग्राम सड़ी हुई गोबर की खाद मे मिलाकर बुवाई से पहले प्रति हैक्टयर की दर से खेत मे मिलाएं। खड़ी फसल मे रोग के लक्षण दिखाई देने पर कार्बेन्डाजिम 50 डब्लयू.पी.0.2 प्रतिशत घोल का पौधों के जड़ क्षेत्र मे छिड़काव करें।

9. कटाई के बाद, फसल के अवशेषों और मलबे को हटाकर खेत की उचित स्वच्छता सुनिश्चित करें। इससे सर्दियों में इस बीमारी के बढ़ने और बाद की फसलों में दोबारा होने की संभावना कम हो जाती है।