लेखराम वर्मा, डाॅ. अविनाश गौतम, सहायक प्राध्यापक,
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, फिंगेश्वर (गरियाबंद)
धर्मपाल केरकेट्टा, विषय वस्तु विशेषज्ञ, कृषि चिज्ञान केन्द्र, बस्तर
छत्तीसगढ़ कृषि निर्भर राज्य है इसे ‘‘धान का कटोरा‘‘ कहा जाता है। राज्य के अधिकांश किसान छोटे और सीमांत वर्ग से हैं। वर्ष 2024-25 की राज्य कुल जी.डी.पी. 5.61 लांख करोड़ अनुमानित है। छ.ग. में प्रति व्यक्ति अनुमानित आय 147360 रू है। राज्य के किसान मुख्यरूपः धान उत्पादन से जुड़े है। वर्ष 2024 में 34,51,729 हेक्टेयर रकबे एवं कुल 27 लाख पंजीकृत किसान से 160 लाख मिट्रीक टन खरीदी का लक्ष्य है, जिसके लिए 1,47,440 करोड़ का बजट अनमानित है। वर्ष 2001 की तुलना में खरीदे गये धान की तुलना में 300 प्रतिशत (2001 में 463104 मिट्रीक टन) है। आशानुरूपकिसान समृद्व हुये है। किसान की समृद्वि से ही राज्य खुशहाल हो सकता है। परंतु यह भी सत्य कि छ.ग. में किसानों की निर्भरता बढ़ी धान में बढ़ी है और अन्य दिगर फसलों का रूझान किसानों के बीच कम हुआ है। सरकार ने धान के लिए बेहतर बाजार का मौका प्रदान किया है। तकनीकी रूप से कृषिविदों के लिए किसान का एक ही फसल में निर्भरता या एक ही फसल को बार-बार एक ही जमीन पर उगाना अच्छा नही माना जाता और इसके साथ ही फसल विविधीकरण से अन्य कृषिगत समस्याऐं झेलनी पड़ सकती है। आइए फसल विविधीकरण के उन पहलुओं को समझते है।
एक फसलीकरण के दुश्परिणाम
1. बायो-डायवर्सीटी का लुप्त होना-
कुछ वर्ष पहले ही छ.ग. में विभिन्न प्रकार के धान की सुगंधित किस्मों का भ्रडार तो था ही बल्कि इसके अलावा भी अनेक किस्म प्रचलित थे। जिन सभी को एक साथ क्वालिटी राईस कहा जाता था। जो किसान के खेत से अब लगभग लुप्त ही हो गये है। ऐसी बहुत सी किस्में है जिनका नामभर बाकी रह गया है। किसानों के पास निचली व मध्यम भूमि के लिए अलग-अलग देशज किस्में रहती थी। इनका स्थान आज की उन्नत और संकर बीजों ने ले लिया है, क्योकि आज किसान उत्पादन केन्द्रित है। परंतु धान के अलावा भी बहुत सी दलहन व तिलहन की किस्में विलुप्त होते जा रही है। यह उपलब्ध बायो-डायवर्सीटी की क्षरण के रूप में भी देखा जा सकता है।
2. आर्थिक बोझ एवं निर्भरता-
भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यतेल आयातक बन गया है। वर्ष 2000 में लगभग 5 मिलियन मिट्रिक टन था जो कि वर्ष 2024 में 15 मिलियन मिट्रिक टन हो गया है। साथ ही साल दर साल यह आयात बढ़ रही है, हांलाकि वर्ष 2023 में आयात में कुछ गिरावट आई है। परंतु फिर भी भारत ने एकवर्ष में लगभग 1 लाख 30 करोड़ रूपये खर्च तेल आयात में खर्च किये है। इसका असर न केवल खाद्यतेलों के मूल्य में पड़ता है बल्कि एक भार देश की जी.डी.पी. में पड़ता है।ठीक वैसे ही भारत दलहन आयात करने में एक बड़ा पैसा लगाती है। वर्ष 2023-24 में 4.7 मिलियन मिट्रीक टन आयात किया गया। इसका वित्तीय भार प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से देश की विकासदर पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
3. मृदा उर्वरता में कमी -
बार-बार एक ही फसल उगाने से मिट्टी में विशेष पोषक तत्वों (जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस) का अत्यधिक दोहन होता है, जिससे पोषक तत्व असंतुलन और उर्वरता में गिरावट होती है। जैविक पदार्थों की कमी मिट्टी की संरचनात्मक स्थिरता को प्रभावित करती है, जिससे उसकी जल धारण क्षमता और वातन घट जाता है। सूक्ष्मजीव विविधता के अभाव में मिट्टी का पोषक चक्र बाधित होता है, और रोगजनकों व कीटों का प्रसार बढ़ता है। लगातार पोषक तत्वों की खपत के कारण कैटायन एक्सचेंज क्षमता (ब्म्ब्) कम हो जाती है, और मिट्टी का पी.एच. स्तर अस्थिर हो जाता है। जल निकासी और नमी बनाए रखने की क्षमता प्रभावित होने से मिट्टी के क्षरण की दर बढ़ जाती है। तकनीकी दृष्टिकोण से, फसल विविधीकरण के अभाव में टिकाऊ कृषि प्रणाली बनाए रखना कठिन हो जाता है, जिससे मिट्टी की दीर्घकालिक उत्पादकता को नुकसान पहुंचता है।
4. कीट व्याधियों का अधिक प्रभाव-
जब किसान बार-बार एक ही फसल (मोनोक्रॉपिंग) लगाते हैं, तो मिट्टी और खेत का पर्यावरण एकसमान हो जाता है। यह स्थिति कीटों और रोगों के लिए आदर्ष बन जाती है, क्योंकि उन्हें अपनी पसंद की फसल हर सीजन में मिलती रहती है। उदाहरण के लिए, यदि लगातार धान उगाई जाती है, तो धान की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीट, जैसे तना छेदक, तेजी से बढ़ते हैं और उनके नियंत्रण में मुश्किल होती है। इसके अलावा, फसल विविधीकरण की कमी के कारण खेत में जैव विविधता घट जाती है। अलग-अलग फसलों से कीट और रोगों के चक्र को तोड़ा जा सकता है, क्योंकि हर फसल में अलग तरह की प्रतिरोधक क्षमता होती है। लेकिन जब केवल एक ही फसल लगाई जाती है, तो कीट और रोग बार-बार उसी फसल पर हमला करते हैं, जिससे उनकी संख्या और तीव्रता बढ़ जाती है। अनुमान के हिसाब से वर्ष 2001 में भारत में औसतन 238 ग्राम प्रति हेक्टर की दर से कुल 88 हजार मिट्रीक टन पेस्टीसाईड उपयोग किया गया था। जबकि वर्ष 2023 में 2.58 लाख टन उत्पादन किया गया। जो लगभग 20 वर्शो में दो गुना अधिक है।
क्या है ? फसल चक्र एवं फसल विविधीकरण-
फसल चक्र कृषि में उपयोग की जाने वाली एक पारंपरिक और वैज्ञानिक विधि है, जिसमें एक ही खेत में विभिन्न मौसमों या वर्षों में अलग-अलग फसलें उगाई जाती हैं। इसका उद्देश्य मिट्टी की उर्वरता बनाए रखना, फसल उत्पादन में सुधार करना और कीट व रोगों के प्रकोप को कम करना है। जबकि फसल विविधीकरण का तात्पर्य खेती के पारंपरिक तरीके को बदलकर एक ही क्षेत्र में अलग-अलग फसलें उगाने की प्रक्रिया से है। इसका उद्देश्य खेती की जोखिम को कम करना, किसानों की आय बढ़ाना, और प्राकृतिक संसाधनों का टिकाऊ उपयोग सुनिश्चित करना है।
फसल चक्र के लाभ -
- फसल चक्र मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में सहायक होती है।
- जल और पोषण प्रबंधन कार्य आसान होता है।
- मिट्टी के भौतिक और रासायनिक गुणों में सुधार और
- कीट और रोग नियंत्रण एवं प्रबंणन के लिए मददगार है।
फसल विविधीकरण के लाभ -
- आय के स्रोत बढ़ाना
- एक ही आय स्त्रोत में कम निर्भरता
- जोखिम प्रबंधन
- बदलते मौसम में अधिक उपयोगी
- परिवार के पोशण एवं सेल्फ सफिसियेंट बनाने के लिए पोशण बाड़ियों का विकास
- बाजार में निर्भरता कम होती है।
- मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने में सहायक
- उपलब्ध साधनों का कुशल उपयोग
चुनौतियाॅ- फसल चक्र एवं फसल विविधीकरण के लिए मुख्यरूप से सिंचाई संसाधनों की कमी, बाजार की अस्थिरता, जागरूकता की कमी, तकनीकी प्रशिक्षण की कमी और सबसे महत्वपुर्ण कृषि के लिए घटता रूझान प्रमुख है। इसके अलावा ग्रामीण स्तर पर मवेषिंयों के चरागन क्षेत्र में कमीं और बंदरों का ग्रामीण परिवेश में दखल बढ़ने के कारण भी फसल विविधीकरण की वर्तमान समय में प्रमुख बाधा है। इससे दलहन और घर की बाड़ी में सब्जी उत्पादन पर गंभीर रूप से बुरा प्रभाव पड़ा है।
संभावनाएं और समाधान
- उच्च भूमि में विविधीकरण - दलहन और तिलहन जैसी फसलें, जैसे उड़द, मूंग, चना, धान के विकल्प के रूप में उपयुक्त हो सकती हैं।
- फलदार वृक्षों का रोपण- आम, अमरूद, केला, सीताफल जैसे फलदार वृक्ष किसानों के लिए अतिरिक्त आय का स्रोत बन सकते हैं।
- जैविक खेती को बढ़ावा- रासायनिक खाद और कीटनाशकों पर खर्च कम कर जैविक खाद, वर्मी कम्पोस्ट और हरी खाद का उपयोग करना लाभकारी है।
- पानी का समुचित प्रबंधन- जल संचयन तकनीकों और माइक्रो-इरीगेशन जैसे उपायों से सिंचाई की प्रभावशीलता बढ़ाई जा सकती है।
- मिश्रित खेती- कृषि और पशुपालन का संयोजन किसानों को खाद, दूध और अतिरिक्त आय प्रदान करता है।
- संकर बीज और तकनीकी सहायता- नई फसलों के लिए बेहतर बीज और तकनीकी प्रशिक्षण किसानों को फसल विविधीकरण में मदद कर सकता है।
सरकार की भूमिका और नीतियां
राज्य सरकार और केंद्र सरकार फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करने के लिए कई योजनाएं जैसे मेंढों में अरहर, दलहन व तिलहन प्रोत्साहन योजना, “राष्ट्रीय कृषि विकास योजना” और “प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना” जैसी पहलें किसानों को फसल विविधीकरण अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। इसके अलावा, “मृदा स्वास्थ्य कार्ड” योजना किसानों को मृदा परीक्षण के आधार पर उपयुक्त फसल चक्र अपनाने में मदद करती है। इन योजनाओं का विशेष प्रचार प्रसार आवष्यक है। कृषि योजनाओं के साथ साथ उद्यानिकी को प्रोत्साहन देने वाली नीतियों और कायों को प्राथमिकता देनी होगी।
सामुदायिक भागीदारी और संवेदनशीलता
किसान समूहों और स्व-सहायता समूहों के माध्यम से सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा दिया जा सकता है। किसान संगोष्ठियों और कार्यशालाओं के माध्यम से फसल विविधीकरण की तकनीकों और लाभों के प्रति जागरूकता बढ़ाई जा सकती है।
इन प्रयासों के माध्यम से किसान फसल विविधीकरण को अपनाकर अपनी आय में वृद्धि कर सकते हैं और मृदा की उर्वरता को बनाए रखते हुए आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ सकते हैं। टिकाऊ कृषि प्रणाली के लिए यह बदलाव आवश्यक है।
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