मुकेश कुमार पटेल शोधार्थी, कीट विज्ञान एवं पल्लवी राय, कृषि विस्तार विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर, (छ.ग.)
मूंगफली के दानों से 40-45 प्रतिशत तेल प्राप्त होता है जोकि प्रोटिन का मुख्य स्त्रोत है। मूंगफली की फल्लियों का प्रयोग वनस्पति तेल एवं खलियों आदि के रुप में भी किया जाता है। मूंगफली का प्रचुर उत्पादन प्राप्त हो इसके लिये पौध रोग प्रबंधन की उचित आवश्यकता महसूस होती है। पौध रोग की पहचान एवं प्रबंधन इस दिशा में महत्वपूर्ण प्रयास है। मूंगफली तिलहनी फसलों के रुप में ली जाने वाली प्रमुख फसल है। मूंगफली की खेती मुख्य रुप से रेतीली एवं कछारी भूमियों में सफलतापूर्वक की जाती है।
मूंगफली के प्रमुख रोग एवं रोगजनक:
क्र. रोगरोग जनक
1. टिक्काया पर्ण चित्ती रोग सर्कोस्पोरा अराचिडीकोला/ सर्कोस्पोरा पर सोनाटा
2. रस्ट अथवा गेरूआ रोग पक्सिनिया अरॉचिडिस
3. स्टेम रॉट एस्क्लेरोसियम रोल्फ्साइ
4. बडने क्रोसिस बड़ने क्रोसिस वायरस
5. एनथ्रक्नोज कोलेटो ट्राइकमडिमेटियम/ कोलेटो ट्राइकम के पसिकी
1. मूंगफली का पर्ण चित्ती अथवा टिक्का रोग-
भारत में मूंगफली का यह एक मुख्य रोग है और मूंगफली की खेती वाले सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। भारत में उगाइ जाने वाली मूंगफली की समस्त किस्में इस रोग के लिये ग्रहणशील है। फसल पर इस रोग का प्रकोप उस समय होता है जब पौधे एक या दो माह के होते है। इस रोग में पत्तियों के ऊपर बहुत अधिक धब्बे बनने के कारण वह शीघ्र ही पकने के पूर्व गिर जाती है, जिससे पौधों से फलियां बहुत कम और छोटी प्राप्त होती हैं।
मूंगफली का पर्ण चित्ती अथवा टिक्कारोग
रोग लक्षण-
रोग के लक्षण पौधे के सभी वायव भागों पर दिखाइ देते है। पत्तियों पर धब्बे सर्कोस्पोरा की दो जातियों सर्कोस्पोरा पर सोनेटा एवं स्र्कोस्पोरा एराचिडी कोला द्वारा उत्पन्न होते है। एक समय में दोनो जातियां एक ही पत्ती पर धब्बे बना सकती है। सर्वप्रथम रोग के लक्षण पत्तीयों की उपरी सतह पर हल्के धब्बे के रुप में दिखाइ देते है और पत्ति की निचली बाह्य त्वचा की कोषिका यें समाप्त होने लगती है। सर्कोस्पोरा एराचिडी कोला द्वारा बने धब्बे रुप रेखा में गोलाकार से अनियमित आकार के एवं इनके चारों ओर पीला परिवेष होता है। इन धब्बों की ऊपरी सतह वाले ऊतक क्षयी क्षेत्र लाल भूरे से काले जबकि निचली सतह के क्षेत्र हल्के भूरे रंग के होते है। सर्कोस्पोरा परसोनेटा द्वारा बने धब्बे अपेक्षाकृत छोटे गोलाकार एवं गहरे भूरे से काले रंग के होते है। आरंभ में यह पीले घेरे द्वाराधिरे होते है तथा इन धब्बों की निचली सतह का रंग काला होता है। ये धब्बे पत्ती की निचली सतह पर ही बनते है।
रोग नियंत्रण उपाय-
- मूंगफली की खुदाइ के तुरंत बाद फसल अवषेशों को एकत्र करके जला देना चाहिये।
- मूंगफली की फसल के साथ ज्वार या बाजरा की अंतवर्ती फसलें उगाये ताकि रोग के प्रकोप को कम किया जा सके।
- बीजों को थायरम ( 1 : 350 ) या कैप्टान ( 1 : 500 ) द्वारा उपचारित करके बोये।
- कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत या मेनकोजेब 0.2 प्रतिशत छिड़काव करें।
2. मूंगफली का गेरुआ रोग-
रोग लक्षण-
सर्वप्रथम रोग के लक्षण पत्तियों की निचली सतह पर उतकक्षयी स्फोट के रुप में दिखाइ पड़ते है। पत्तियों के प्रभावित भाग की बाह्य त्वचा फट जाती है। ये स्फोट पर्ण वृन्त एवं वायवीय भाग पर भी देखे जा सकते है। रोग उग्र होने पर पत्तीयां झुलसकर गिर जाती है। फल्लियों के दाने चपटे व विकृत हो जाते है। इस रोग के कारण मूंगफली की पैदावार में कमी हो जाती है, बीजों में तेल की मात्रा भी घट जाती है।
नियंत्रण-
- फसल की शीघ्र बोआई जून के मध्य पखवाडे में करे ताकि रोग का प्रकोप कम हो।
- फसल की कटाई के बाद खेत में पडे रोगी पौधों के अवषेशों को एकत्र करके जला देना चाहिये।
- बीज को 0.1 प्रतिशत की दर से वीटा वेक्स या प्लांट वेक्स दवा से बीजोपचार करके बोये।
- खडी फसल में घुलनशील गंघक 0.15 प्रतिशत की दर से छिड़काव या गंधकचूर्ण 15 कि.ग्रा. प्रति हे. की दर से भुरकाव या कार्बेन्डाजिम या बाविस्टीन 0.1 प्रतिशत की दर से छिडके।
3. जड़ सड़न रोग-
रोग लक्षण-
पौधे पीले पड़ने लगते है मिट्टी की सतह से लगे पौधे के तने का भाग सूखने लगता है। जड़ों के पास मकड़ी के जाले जैसी सफेद रचना दिखाइ पड़ती है। प्रभावित फल्लियों में दाने सिकुडे हुये या पूरी तरह से सड़ जाते है, फल्लियों के छिलके भी सड़ जाते है।
नियंत्रण-
- बीज शोध न करें।
- ग्रीष्मकालीन गहरी जुताइ करें।
- लम्बी अवधि वाले फसल चक्र अपनायें।
- बीज की फफूंदनाशक दवा जैसे थायरम या कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें।
4. कली ऊतकक्षय विषाणु रोग-
रोग लक्षण-
यह विषाणुजनित रोग है रोग के प्रभाव से मूंगफली के नये पर्णवृन्त पर हरिमाहीनता दिखाइ देने लगती है। उतकक्षयी धब्बे एवं धारियां नये पत्तियों पर बनते है तापमान बढ़ने पर कलीउतकक्षयी लक्षण प्रदर्शित करती है पौधों की बढ़वार रुक जाती है। थ्रिप्स इस विषाणु जनितरोग के वाहक का कार्य करते है। ये हवा द्वारा फैलते है।
नियंत्रण-
- फसल की शीघ्र बुवाइ करें।
- फसल की रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें।
- मूंगफली के साथ अंतवर्तीफसलें जैसे बाजरा 7:1 के अनुपात में फसलें लगाये।
- मोनोक्रोटो फॉस 1.6 मि.ली./ली या डाइमेथोएट 2 मि.ली./ली. के हिसाब से छिड़काव करें।
5. श्यामव्रण या ऐन्थ्रेक्नोज-
रोग लक्षण-
यह रोग मुख्यत: बीजपत्र, तना, पर्णवृन्त, पत्तियों तथा फल्लियों पर होता है। पत्तियों की निचली सतह पर अनियमित आकार के भूरे धब्बे लालिमा लिये हुये दिखाइ देते है, जो कुछ समय बाद गहरे रंग के हो जाते है। पौधों के प्रभावित उतक विवर्णित होकर मर जाते है और फलस्वरुप विशेष विक्षत बन जाते है।
नियंत्रण-
- ग्रीष्मकालीन गहरी जुताइ करें।
- प्रमाणित एवं स्वस्थ बीजों का चुनाव करें।
- संक्रमित पौधों के अवषेशों को उखाड़कर फेक दे।
- बीजों को कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या मेनकोजेब (0.31) प्रतिशत या कार्बेनडॉजिम (0.7) प्रतिशत द्वारा बीजोपचार करें।
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