नीलिमा जांगड़े,
केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल
जीतेन्द्र सिन्हा, कृषि अभियांत्रिकी संकाय,
इ.गा.कृ.वि.वि., रायपुर (छ.ग.)

वर्षा जल प्रबंधनः भारत में प्रकृति की देन से प्रचुर मात्रा में वर्षा होती है परन्तु देश में स्थानिक वर्षा की मात्रा एवं वितरण अस्थाई रूप से अत्यधिक परिवर्तनशील है। कम अवधि के साथ उच्च तीव्रता की वर्षा की वजह से बारिश जमीन की सतह पर गिरने के बाद अपवाह के रूप में बह जाती है। इसलिए उस वर्षा के पानी को वही संचय करना बहुत जरुरी है। सामान्यतः वर्षा जल का संचयन दो तरीकों से किया जा सकता है जैसे इन-सीटू एवं एक्स-सीटू।
(अ) इन-सीटूवर्षासंरक्षणःइन-सीटूतकनीक एक तरीके से मृदा प्रबंधन का उपाय है जो वर्षा जल के अंतशरण (इंफिल्ट्रेशन) को बढ़ाती है एवं सतही अपवाह करती है। इन-सीटू जल संरक्षण के तरीकों का प्राथमिक उद्देश्य खेती योग्य क्षेत्र में सिंचित वर्षा जल के अंतशरण में सुधार के द्वारा मिट्टी की परतों में पानी का भण्डारण को बढ़ावा देना है। आमतौर पर इन-सीटू वर्षा जल संरक्षण के लिये कुछ पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाता है।

1. चौड़ी क्यारी एवं कुंड पद्धतिः- इस पद्धति में लगभग 100 सेमी चौड़ी क्यारियाँ 50 सेमी गहरे कुंडों के साथ बनाई जाती है। इन क्यारियों की चौड़ाई को खेती के लिये स्थान की स्थिति, फसल की ज्यामिति एवं प्रबंधन के तरीकों के आधार पर परिवर्तित किया जा सकता है। यह तकनीक उन क्षेत्रों में जहाँ काली मिट्टी पाई जाती है और जहाँ वर्षा 750 मिमी. या इससे अधिक होती है वहां उपयुक्त है।

2. मेड़ एवं कुंड पद्धतिः- इस विधि का सिद्धांत खेत में मेड़ एवं कुंड के माध्यम से वर्षा जल संग्रहण में सुधार के द्वारा मिट्टी की ऊपरी सतह में पानी की मात्रा को बढ़ाना है। यदि ढाल के सहारे मेड़ एवं कुंड बनाया जाता है तो इस पद्धति को कंटूर मेड़ एवं कुंड पद्धति भी कहा जाता है। यह सामान्य तौर पर 5 प्रतिशत की ढलान एवं जहाँ 350-750 मिमी वर्षा होती है यह उस क्षेत्र में बनाया जाता है कुंड के दोनों किनारों पर फसलों को लगाया जा सकता है।

3. कंटूर ट्रेन्चिंगः- इस तकनीक में खाइयों को कृत्रिम रूप से फसल क्षेत्र में कंटूर पंक्तियों के साथ तैयार किया जाता है। यदि वर्षा जल पहाड़ी के नीचे की और बहता है तो नीचे इन खाइयों को बनाने से वर्षा का पानी इन खाइयों में एकत्रित रखा जा सकता है जो कि मिट्टी की उप सतह परत में फसल विकास एवं उपज में वृद्धि करने के लिए पौधो की जड़ों तक चला जाता है।

4. सीढ़ीदार खेत एवं कंटूर बंडिंगः- सीढ़ीदार खेत एवं कंटूर बंडिंग पहाड़ी के ढलान को कई छोटे-छोटे ढलानों में बांटते हैं और पानी के प्रवाह को रोककर मिट्टी में पानी के अवशोषण को बढ़ावा देते हैं। साथ ही मिट्टी के कटाव को भी बचाते है। यह संरचना 8 प्रतिशत से कम ढलान पर प्रभावी साबित होती है। 8 प्रतिशत से ज्यादा ढलान में यह संरचना महँगी एवं कम प्रभावी साबित हो जाती है।

5. कंटूर खेतीः- इस विधि से एक ही ढलान में खेती की गतिविधियां (जुताई, रोपाई, फसल कटाई आदि ) की जाती है, इसमें ऊपर व नीचे के ढलान की आवश्यकता नहीं होती है। कंटूर खेती वर्षा के अपवाह को रोकने के लिए एक छोटी बाधा के रूप में कार्य करती है। जिससे पानी को जमीन के अंदर जाने का समय ज्यादा मिल जाता है। कंटूर खेती 2 से 7 प्रतिशत तक की मध्यम ढलान वाले क्षेत्रों के लिए कारगर साबित होती है।

6. सूक्ष्म जलग्रहणः- इस तकनीक के तहत बारनी क्षेत्रों से वर्षा जल के अपवाह को फसली क्षेत्र में संग्रहित किया जाता है, जिससे संग्रहित क्षेत्र की मिट्टी में पानी के स्टार में सुधार हो सकता है। सूक्ष्म जलग्रहण को मुख्य रूप से पेड़ या झाडियों को उगाने के काम में लिया जाता है। यह तकनीक प्रतिवर्ष 150 मिमी से काम वर्षा वाले क्षेत्रों तथा शुष्क व अर्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए सबसे उपयुक्त है।

(ब) एक्स सीटूवर्षा जल संरक्षणः-इस विधि में वर्षा जल के अपवाह को फसल क्षेत्र के बाहर एकत्रित किया जाता है। इसके लिए कई तरह की यांत्रिक संरचनाओं जैसे खेत तालाब, चेक डेम आदि की जरुरत पड़ती है।

1. प्रक्षेत्र जलाशयः- प्रक्षेत्र जलाशय तटबंध प्रकार का या खोदा हुआ हो सकता है। तट बंध प्रकार का जलाशय उन स्थानों पर बनाया जाता है जहाँ पानी की निकासी वाली नालियों में गड्ढे हो, वह स्थान उपयुक्त रहता है। इस प्रकार के जलाशय में गड्ढों से मिटटी के अवसाद हटा दिया जाता है और उसमे वर्षा के पानी को एकत्रित करने के लिए एक तट बंध का निर्माण किया जाता है। खुदे हुए जलाशय का निर्माण खेत में उस जगह किया जाता है जहाँ जलाशय के क्षेत्रफल में वर्षा जल का अधिकतम अपवाह एकत्रित हो सके। इस प्रकार के जलाशय में इनलेट व आउटलेट संरचनाओं के साथचारों ओर तट बंध का निर्माण किया जाता है।

2. चेकडेमः- इस प्रकार की संरचनाओं का निर्माण जल संरक्षण क्षेत्र में जल निकासी वाली नालियों में किया जाता है। इन संरचनाओं के निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्री (ईट, पत्थर, रेट, सीमेंट आदि) का प्रयोग किया जाता है।

3. नहरी क्षेत्र में जल संरक्षणः- नहरी सिंचाई भारत में कुल सिंचित क्षेत्र के 29 प्रतिशत योगदान के साथ दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सिंचाई स्त्रोत है। कुछ नहरे वर्षभर सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध करवाती है जिससे जब भी फसलों को सिंचाई के लिए पानी की आवश्यकता होती है उस समय पानी की उपयुक्त मात्रा को उपलब्ध करवाया जा सकेता कि सूखे की स्थिति से फसलों को बचाया जा सके और साथ ही कृषि उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिल सके। नहर के कमांड में काम पानी की मात्रा एवं फसल के लिए अविश्वनीय पानी की अनुपलब्धता के कारण फसल उत्पादकता संभावित उत्पादकता की तुलना में कम है। इस स्थिति में वर्षा जल संरक्षण एवं सुरक्षित सीमा तक भू जल दोहन का सुझाव दिया गया है। नहर के पानी को संचित रखने के लिए सहायक जल संरचनाओं का निर्माण किया जाता है।

4. जल विस्तारः- यह विधि कृत्रिम रूप से भू जल पुनःभरण के लिये व्यापक रूप से उपयोग में लाई जा रही है। इस विधि में जमीन की सतह पर पानी को भरा जाता है जिससे पानी अंतःसरण के द्वारा जमीन से जाकर भू जल स्तर में मिल जाता है।

5. टपकन तालाबः- यह एक कृत्रिम रूप से बनाया गया सतही जल निकाय है, जो अत्यधिक पार गम्य भूमि में सतही अपवाहको टपकन द्वारा भू जल का पुनभरण कर सके।

उपरोक्त सिंचाई विधियों को अपनाने के साथ-साथ अन्य कुछ बातों को भी ध्यान रखने की भी आवश्यकता है, जैसे-
  • सिंचाई जल की समस्या का समाधान अत्याधिक भू जल का दोहन करके पूर्ण नहीं किया जा सकता बल्कि वर्षा जल को उसी जमीन पर संग्रहण करके किया जा सकता है। जिसके लिए सरकार द्वारा समय-समय विभिन्न कदम उठाये जाते हैं, जैसे कि समेकित जलागम प्रबंधन कार्यक्रम, जिसके अन्तर्गत पूर्व में संचालित कार्यक्रमों जैसे समेकित जलागम विकास कार्यक्रम, ड्राटप्रान एरिया प्रोग्राम तथा मरूस्थल विकास कार्यक्रम को जोड़कर बनाया गया है। जिसका उद्देश्य मिटटी, वनस्पति और जल को संरक्षित तथा विकसित करना, जिसमें वर्षा जल के संरक्षण के साथ-साथ भू जल पुनर्भरण की भी बात कही गयी है।
  • फसल चक्र को इस तरह योजनाबद्व करें, कि वर्षा जल का सम्पूर्ण उपयोग हो, साथ ही वही फसले बोई जानी चाहिए, जिनकी जल मांग क्षमता कम हो, खासकर उन क्षेत्रों में जहां सिंचाई जल की अनुपलब्धता हो।
  • आवश्यकता से अधिक जल को खेत में न रखा जाये, फसल को जल भराव से बचाते हुए फसलों की जलमांग के अनुसार ही सिंचाई की जानी चाहिए।
  • जल ही जीवन है, इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी के साथ बचाया जाये, व्यर्थ न बहाया जाये एवं सही प्रयोग किया जाये क्योंकि पौधे का भी प्रथम भोज्य जल ही है।

सारांशः-
कृषि का सम्पूर्ण लाभ बिना जल प्रबंधन के संभव नही है। जल को प्राथमिक जिम्मेदारी के साथ सही एवं दक्ष प्रयोग किया जाये तो कृषि से अपेक्षित लाभ दूर नहीं है।