डॉ. निशी केशरी
सहप्राध्यापक, सूत्रकृमि
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा, समस्तीपूर, बिहार
जब परजीवी सूत्रकृमि की बड़ी जनसंख्या पौधों की जड़ों में उपस्थित होते हैं तो ये फसलों को भारी नुकसान पहुँचाते हैं। किसानों के द्वारा सूत्रकृमि नियंत्रण हेतु विभिन्न रासायनिक विधियों का प्रयोग किया जाता है जिनका विषैला प्रभाव पौधों तथा मनुष्य दोनों पर पड़ता है। इन सूत्रकृमियों से पौधों की सुरक्षा के लिए पौधों के अपशिष्ट पदार्थों का प्रयोग किया जाता है। कृषि अपशिष्टों का प्रयोग पादप परजीवी सूत्रकृमियों के प्रबंधन में भी किया जा सकता है। हरी खाद या फसल के सूखे अवशेषों, जैसे-विभिन्न प्रकार की खल्लियाँ (सरसों की खल्ली, नीम की खल्ली, करंज की खल्ली इत्यादि), लकड़ी के बुरादे, गन्ने का अपशिष्ट इत्यादि को सूत्रकृमि के प्रबंधन में उपयोग किया जाता रहा है।
सूत्रकृमि की सक्रियता पौधे, जलवायु एवं मिट्टी के वातावरण से प्रभावित होती है। इन तीनों कारकों में बदलाव से सूत्रकृमि की संख्या में भी बदलाव आता है। यह बदलाव मिट्टी में किसी भी कार्बनिक पदार्थों/भूमि सुधारकों के समायोजन से लाया जा सकता है। यह प्रक्रिया मिट्टी में हानिकारक सूत्रकृमि की संख्या को कम तथा पौधों में वृद्धि के द्वारा प्रदर्शित होती है। इनके इस्तेमाल से पौधों एवं मिट्टी के वातावरण में कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। इन भूमि सुधार कों में तिलहन खल्लियाँ, हरी खाद, सूखे फसल के अवशेषों एवं खादों का इस्तेमाल होता है। इन्हें भूमि में मिलाकर जुताई की जाती है। मिट्टी के वातावरण को बदलने का सबसे कुशल तरीका होता है मिट्टी में सड़ने लायक कार्बनिक अवशेषों को मिलाना। इस प्रक्रिया से पौधे मजबूत होते हैं और उनमें बीमारियों से लड़ने की ताकत में वृद्धि होती है साथ ही सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है। इन तरीकों से सूत्रकृमि की संख्या को उनके हानिकारक स्तर से नीचे लाया जा सकता है न कि उनकी पूरी संख्या को खत्म किया जाता है। किसी भी जीव को वातावरण से पूरी तरह खत्म करना इंसान के वश में नहीं है बल्कि उनके संख्या को कम कर उनके द्वारा होने वाली हानि को कम किया जा सकता है। फसलों के अवशेष, जैसे गेहूँ की पुआल, धान का पुआल, धान के बीज के छिलकों को अगर मिट्टी में मिलाकर जुताई किया जाये तो सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है। ये चीेजें मिट्टी में जब पूरी तरह से विखंडित होते हैं तब ये सूत्रकृमिनाशी के रूप में काम करती है।
विभिन्न फसलों जैसे अल्फाल्फा, जई, तीसी के अवशेषोंको 10 टन प्रति एकड़ की दर से जड़गाँठ सूत्रकृमि से ग्रसित टमाटर की फसल में खेतों में मिलाने पर उनकी संख्या में कमी पायी गयी। कपास, राई, लूसर्न इत्यादि फसलों के अपशिष्ट भी इस काम आते हैं। ऐसा देखा गया कि गेहूँ के पुआल को नीम की खल्ली और खाद के साथ मिट्टी में मिलाने से पौधा परजीवी सूत्रकृमि की संख्या में काफी कमी आ जाती है। लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि इनको विखंडित होने में समय लगता है और उसके बाद ही ये सूत्रकृमिनाशी की भूमिका निभा पाते हैं।
इनके इस्तेमाल से दूसरे फायदे भी होते हैं जैसे-
1. मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि
2. रासायनिक खादों के इस्तेमाल में कमी
3. इनका इस्तेमाल सस्ता होता है
4. इनका कोई अवशिष्ट अगली फसल में नहीं आता
5. मिट्टी में लाभदायक जीवों के लिए हानिरहित होता है।
6. इस्तेमाल में आसानी होती है।
7. पशुओं के लिए विषरहित।
8. वातावरण को प्रदूषणमुक्त रखने में मदद मिलती है।
9. इसके लिए कोई अतिरिक्त ध्यान रखने की जरूरत नहीं होती।
तिलहन खल्लियों का इस्तेमाल- अण्डी की खल्लियों के इस्तेमाल से नींबू की प्रजातियों में हानि पहुँचाने वाला सूत्रकृमि, टायलेन्कुलस सेमी पेनिट्रांस की संख्या में कमी देखी गयी है। करंज खल्ली के इस्तेमाल से जड़गाँठ सूत्रकृमि की संख्या में 50-100 प्रतिशत की कमी हुई है। इसी तरह नीम, मूँगफली, तिल, सरसों, महुआ, कपास इत्यादि की खल्लियों से सूत्रकृमि की संख्या में कमी लायी जा सकती है। इनका इस्तेमाल पौधे लगाने के तीन सप्ताह पहले मिट्टी में किया जाना चाहिए। गेहूँ एवं जौ में सरसों एवं अण्डी की खल्ली के इस्तेमाल से सिस्ट सूत्रकृमि का प्रबंधन होता है जो इन फसलों को काफी हानि पहुँचाते हैं। यदि इन खल्लियों को गेहूँ के अवशेषों और खाद के साथ मिलाकर व्यवहार किया जाये तो ज्यादा सफलता मिलती है।
नीम, धतुरा, गेंदा, भांग, पुदीना, मदार के पत्ते, सर्पगन्धा के जड़, तुलसी के पत्ते, मेथी के पत्ते, अण्डी के पत्ते इत्यादि कई ऐसे पौधे हैं जिनके पत्तों के मिट्टी में इस्तेमाल से पौधा परजीवी सूत्रकृमि की संख्या में कमी लायी जा सकती है।
कम्पोस्ट एवं खेतों की खाद का इस्तेमाल
कृषि अपशिष्टों को खाद के साथ मिलाकर मिट्टी में उपयोग करने से पौधा परजीवी सूत्रकृमि का नियंत्रण होता है। इससे पहले गर्मियों में खेतों की गहरी जुताई करने से बेहतर लाभ मिलता है।
हरी खाद का इस्तेमाल-
इसमें पौधों को उगाना और उनके मुलायम अवस्था में ही मिट्टी में मिलाने से अच्छी तरह विखण्डित होने के बाद मुख्य फसल को पोषक तत्व प्रदान करते हैं। जैसे-अनानास के हरे पत्ते 50-200 टन प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में मिलाने से सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है। नीम, करंज, सनई, ढैंचा, गेंदा इत्यादि के हरे पत्तों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर मिट्टी में मिलाने से सूत्रकृमियों का नियंत्रण होता है।
कार्बनिक पदार्थों का मिट्टी में समावेश करने से मिट्टी का वातावरण बदल जाता है जो पौधा परजीवी सूत्रकृमि के लिए हानिकारक होता है। इस दौरान निम्नलिखित प्रक्रिया होती है-
1. कार्बनिक पदार्थों के विखण्डन से मिट्टी में मांसभक्षी जीवों, फफूँद, जीवाणु इत्यादि की संख्या बढ़ जाती है।
2. विखण्डित होने पर रासायनिक स्त्राव सूत्रकृमि को सीधे नुकसान पहुँचाते हैं।
3. सूक्ष्मजीवों की जैविक प्रक्रियाओं द्वारा उत्सर्जित पदार्थों से प्रत्यक्ष रूप से सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है।
4. कभी-कभी कार्बनिक पदार्थ सीधे तौर पर सूत्रकृमि को नुकसान पहुँचाते हैं।
5. इन पदार्थों के समावेश से मृदा कापी एच मान बदल जाता है जो सूत्रकृमि के लिए नुकसानदेह होता है।
6. विखण्डीकरण के दौरान मिट्टी के तापमान में अंतर होता है जो सूत्रकृमि के साधारण जीवन चक्र को प्रभावित करता है।
7. विखण्डीकरण के दौरान उत्पादित फैटी एसिड, फिनोल, अमोनिया, अमीनो एसिड इत्यादि सूत्रकृमियों के लिए हानिकारक होती है ऐसा पाया गया है कि कृषि अपशिष्टों के विखण्डीकरण में बहुत तरह के एसिड का उत्पादन होता है जो शिशु सूत्रकृमि को 50 प्रतिशत तक समाप्त कर देता है।
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