कल्प दास, पी.एचडी. स्कालर, सब्जी विज्ञान विभाग,
(पंजाब ऐग्रिकल्चरल यूनिवर्सिटी, लुधियाना)

छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में वर्षा ऋतु अधिक उष्णता और आर्द्रता के साथ आती है, जिसके कारण कुछ विशेष रोग और कीट बढ़ सकते हैं। जुलाई और अगस्त महीनों, जो छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में बारिश का मौसम होता है, वहाँ भिंडी में रोग विकास के लिए विशेष कृषि-जलवायु स्थितियाँ होती हैं। इन स्थितियों में शामिल हैं उच्च आर्द्रता, गर्म तापमान, और आवधिक वर्षा। यहां इन कारकों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है जो भिंडी में रोग विकास को बढ़ावा देते हैं
  • उच्च आर्द्रता बारिश के मौसम में आर्द्रता स्तर अधिक होता है, जिससे कीटाणु पथोजनों के विकास और वृद्धि के लिए एक अनुकूल माहौल बनता है। ऐसे मौसम में भिंडी में कुछ सामान्यतः पाए जाने वाले फंगल रोग होते हैं जैसे की चूर्णिल आसिता और पीला शीरा मोजेक वायरस। ये रोग आर्द्रता में बढ़ते हैं और फसल में तेजी से फैल सकते हैं, यदि सही तरीके से नियंत्रित नहीं किए जाएं तो उत्पादन में काफी हानि हो सकती है।
  • गर्म तापमान छत्तीसगढ़ में बारिश के मौसम में गर्म तापमान का मौसम होता है, जो भिंडी में रोग विकास के लिए अधिकांश समय आवश्यक होता है। गर्म तापमान के साथ ही, कुछ फंगल और बैक्टीरियल रोग भी प्रबल हो सकते हैं, जैसे की दौरे में आने वाला विरल रोग (ब्रौन स्पॉट) और पेस्टिसाइड डिपोजिशन बेली कटेसी (सांत्रिक्त)।
  • आवधिक वर्षा बारिश के मौसम में छत्तीसगढ़ में विशेष रूप से आवधिक वर्षा होती है। यह निम्न बीजों और वृक्षों में रोगों के विकास के लिए अनुकूल भूमिका निभाती है, और यह भिंडी के लिए भी सबसे अधिक प्रमुख रोगों का कारण होती है। वर्षा के दौरान, पानी बहुत तेजी से विकर्षित होता है और अस्थायी जल तत्वों द्वारा प्लांट में फैलता है, जिससे पाथोजन फैल सकते हैं और फसल पर अस्तित्व रखने वाले रोगों का विकास हो सकता है।

इन कृषि -जलवायु स्थितियों के साथ भिंडी में रोग विकास का बढ़ावा होता है। यहां आपको ध्यान देने योग्य होगा कि ये स्थितियाँ विभिन्न रोगों के विकास के लिए अनुकूल हो सकती हैं, और इसलिए समय-समय पर प्रक्रियाओं और नियंत्रण उपायों को अपनाना आवश्यक होता है ताकि रोगों का प्रबंधन संभव हो सके। जैसे कि पीला शीरा मोजेक वायरस (येलोवेन) और चूर्णिल आसिता रोग भिंडी के प्रमुख रोग हैं। येलो वेन रोग में पौधों के पत्तों पर पीले दाग बनते हैं, जबकि चूर्णिल आसिता रोग में पौधों के तने पर सफेद छाले दिखाई देते हैं। कीटों में मोयला, हरातेला, सफेदमक्खी, प्ररोहे और फल छेदक कीट भिंडी के प्रमुख कीट हैं। मोयला कीट भिंडी के पत्तों पर सफेद बदबूदार दाग बनाती है, हरा तेला कीट पत्तों को खाती है और पौधे को कमजोर करती है, सफेद मक्खी कीट फलों में प्रवेश करके उन्हें नष्ट करती है, प्ररोहे कीट पौधों के रस पीने से उन्हें कमजोर और पतला बना देती है और फलछेदक कीट फलों में छेद बनाती है और उन्हें ग्रस्त कर देती है।

छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्रों में इन रोगों और कीटों का प्रबंधन करने के लिए, किसानों को अवसरों पर नियमित रूप से पौधों की जांच करनी चाहिए और योग्य पेस्टिसाइड और कीटनाशकों का उपयोग करना चाहिए। नियमित जलाशयों का प्रबंधन, स्वच्छता और संगठनित खेती तकनीकों का अनुपालन भी भिंडी के रोग और कीट संबंधी नुकसान को कम करने में सहायता कर सकता है। इस लेख में हम भिंडी के रोग और कीट संबंधी नुकसान के प्रबंधन पर चर्चा करेंगे। यहां हम इन रोगों और कीटों के प्रमुख कारणों, लक्षणों, और प्रभावी प्रबंधन उपायों पर विस्तार से चर्चा करेंगे। हम उपयुक्त कीटनाशकों, रोग प्रतिरोधक प्रदारकों और स्वच्छता की उपायों के बारे में जानकारी प्रदान करेंगे ताकि किसान भिंडी के रोग और कीट से नुकसान को कम करने के लिए उचित और प्रभावी नियंत्रण उपाय अपना सकें।

भि‍ण्‍डी के कीट

1. भिण्डी का प्ररोह एवं फल छेदक

लक्षण
भिंडी का यह कीट सबसे ज्यादा वर्षा ऋतु में नुकसान पहुंचाता है। शुरूआती अवस्था में इल्ली कोमल तने में छेदकर के खा जाती है और जिससे तना सूख जाता है। यदि फूलों की अवस्था पर आक्रमण होने पर फल लगने के पहले ही फूल गिर जाता है। जब फल अवस्था में यह इल्ली प्रकोप करती है तो फलो में छेद कर गूदे को खा जाती है।

प्रबंधन
  • क्षतिग्रस्त पौधो के तनो तथा फलो को एकत्रित करके नष्ट कर देना चाहिए।
  • मकड़ी एवं परभक्षी कीटों के विकास या गुणन के लिये मुख्य फसल के बीच-बीच में और चारों तरफ बेबी कॉर्न लगायें जो बर्ड पर्च का भी कार्य करती है।
  • फल छेदक की निगरानी के लिये 5 फेरोमोन ट्रैप प्रति हेक्टेयर लगायें।
  • फल छदेक के नियत्रंण के लिये टा्रइकोड़रमा एक लाख प्रति हेक्टेयर की दर से 2-3 बार उपयोग करें तथा साइपरमेथ्रिन (4 मि.ली./10 ली.) या इमामेक्टिनबेन्जोएट (2 ग्रा./10 ली.) या स्पाइनोसैड (3 मि.ली./10 ली.) का छिड़काव करें ।
  • क्युनालफॉस 25 प्रतिशत ई.सी. क्लोरपायरिफॉस 20 प्रतिशत ई.सी. अथवा प्रोफेनफॉस 50 प्रतिशत ई.सी. की 5 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी के मान से छिडकाव करें तथा आवश्यकतानुसार छिडकाव को दोहराएं।

2. भिण्डी का फुदका या तेला

लक्षण
रस चूसक कीट पौधे के कोमल भागो जैसे पत्तियों और तने से रस चूस लेते है, जिस कारण पौधे कमजोर हो जाते है और पौधे की बढ़वार रूक जाती है।

प्रबंधन
  • नीम की खली 250 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयेर की दर से अंकुरण के तुरंत मिटटी में मिला देना चाहिए तथा बुआई 30 दिन बाद फिर मिला देना चाहिए।
  • बुवाई के समय कार्बोफयुराँन 3जी 1 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयेर की दर से मिटटी मे मिलाने इस कीट का काफी हद तक नियंत्रण होता है।

3. भिण्डी की सफेद मक्खी

लक्षण
ये सूक्ष्म आकार के कीट होते है तथा इसके शिशु एवं प्रौढ पत्तिायों के कोमल तने एवं फल से रस को चूस कर नुकसान पहुंचाते है। जिससे पौधो की वृध्दि कम होती है। जिससे उपज में कमी आ जाती है। तथा ये येलो वेन मोजैक वायरस बीमारी फैलाती है।

प्रबंधन
  • नीम की खली 250 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयेर बीज के अंकुरण के समय एवं बुवाई के 30 दिन के बाद नीम बीज के पावडर 4 प्रतिशत या 1 प्रतिशत नीम तेल का छिडकाव करें।
  • आरम्भिक अवस्था में रस चूसने वाले कीट से बचाव के लिये बीजों को इमीड़ाक्लोप्रिड या थायामिथोक्सम द्वारा 4 ग्रा. प्रति किलो ग्राम की दर से उपचारित करें।
  • कीट का प्रकोप अधिक लगने पर आक्सीमिथाइलडेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी. अथवा डायमिथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. की 5 मिली मात्रा प्रति लीटर पानी में अथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस.एल अथवा एसिटामिप्रिड 20 प्रतिशत एस. पी. की 5 मिली./ग्राम मात्रा प्रति 15 लीटर पानी में मिला कर छिडकाव करें एवं आवश्यकतानुसार छिडकाव को दोहराएं।

4. भिण्डी की रेडस्पाइडर माइट

लक्षण
यह माइट पौधो की पत्तिायों की निचली सतह पर भारी संख्या में कॉलोनी बना कर रहता हैं। यह अपने मुखांग से पत्तिायों की कोशिकाओं में छिद्र करता हैं। इसके फलस्वरुप जो द्रव निकलता है उसे माइट चूसता हैं। क्षतिग्रस्त पत्तिायां पीली पडकर टेढ़ी मेढ़ी हो जाती हैं। अधिक प्रकोप होने पर संपूर्ण पौधा सूख करनष्ट हो जाता हैं।

प्रबंधन
इसकी रोकथाम हेतु डाइकोफॉल 5 ईसी. की 2.0 मिली मात्रा प्रति लीटर अथवा घुलनशील गंधक 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिडकाव करें एवं आवश्यकतानुसार छिडकाव को दोहराएं।

5. भिण्डी की जड़ग्रन्थि सुत्रकुमि

लक्षण
जडग्रन्थि सुत्रकुमि पौधो की जडो मे घाव बना देते है। जिसके कारण पौधे मिटटी से जल एवं पोषक तत्वो का अवशोषण नही कर पाते परिणाम स्वरूप पौधे पीले पड जाते है एवं पोषक तत्वो की कमी के फलस्वरूप पौधो की वृघ्दि की रूक जाती है तथा फल का आकार छोटा हो जाता है।

प्रबंधन
  • फसल चक्र मे अनाज वाली फसलो को लगाना चाहिए।
  • ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई 2 से 3 बार करनी चाहिए।
  • जैव कीटनाशक स्युडोमोनासफलोरीसेन्स 10 ग्रा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करना चाहिए।
  • पौधो के प्रारंभिक वृध्दि अवस्था के समय सिचाई से पहले नीमागाँन 30 लीटर प्रति हेक्टयेर छिडकाव करना चाहिए।

भिंडी के कीट और रोग प्रबंधन में उपयोग होने वाले केमिकल और उनके मार्केट नाम

स.क्र.

केमिकलकानाम

मार्केटनाम

1.

ट्राइकोडर्माविरिडी

डॉबैक्टोसडर्मस

2.

कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत डब्ल्यूपी

धानुकाधानुस्टिन

3.

इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एसएल

बायरकॉन्फिडोर

4.

कॉपरऑक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्ल्यूपी

धानुकाधानुकोप

5.

बैसिलससबटिलिस

डॉ. बैक्टोज़बैक्टस

6.

हेक्साकोनोजोल 5 प्रतिशत ईसी

टाटारैलिसकोंटाफप्लस

7.

येलोस्टिकी ट्रैप

इकोयेलोस्टिकी ट्रैप

8.

एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 18.2 प्रतिशत और डिफेनोकोनाज़ोल 11.4 प्रतिशत एससी

धानुकागोडिवासुपर

9.

डाइमिथोएट 30 प्रतिशत ईसी

टाटारैलिसटैफगोर

10.

नीमतेलपीपीएम 3000

नीमतेल

11.

वर्टिसिलियमलेकेनी

डॉ. बैक्टोवर्टिगो

12.

फ्लोनिकामाइड 50 एसजी

यूपीएलउलाला

13.

फेरोमोन ट्रैप

फनेल ट्रैप

14.

इमामेक्टिनबेंजोएट 5 प्रतिशत एसजी

धानुकाईएम1

15.

क्लोरेंट्रानिलिप्रोएल 18.5 प्रतिशत डब्ल्यू / डब्ल्यू

एफएमसीकोराजन


भिण्डी के रोग

1. शिरा रोग (यलो वेन मोजैक वाइरस)

लक्षण
यह भिण्डी की सबसे महत्वपूर्ण एवं अधिक हानि पहुचानें वाली विषाणु जनित बीमारी है जो सफेद मक्खी दवारा फैलती है संक्रमण जल्दी होने पर 20-30 प्रतिशत तक उपज मे हानि होती है और उचित नियंत्रण न होने पर ये 70-90 प्रतिशत तक हानि पहुचती है, तथा इस रोग के लक्षण पौधो के सभी वृध्दि अवस्था मे दिखाई देती है। भिंडी में इस रोग से पत्तियों की शिराएं पीली वचित कबरी और प्यालेनुमा दिखाई देने लगती है। अगर फल की बात करे तो फल भी छोटे और कम लगते हैं। भिंडी की फसल में खतरनाक बीमारी विषाणु द्वारा फैलता है ,तथा यह रोग सफ़ेद मक्खी कीट से फैलता है।

प्रबंधन
  • जुन के अन्तिम सप्ताह या फिर जुलाई के पहले सप्ताह मे ही बीज की बुआई कर देनी चाहिए।
  • पीत शिरा रोग प्रतिरोधी किस्म लगाने चाहिए जैसे अर्का अनामिका, वर्षा उपहार, अर्का अभय, पूसाए-4, प्रभनी क्रांति,
  • आक्सीमिथाइलडेमेटान 25 प्रतिशत ई.सी अथवा डायमिथोएट 30 प्रतिशत ई.सी. की 5मिली प्रति लीटर पानी में अथवा इमिडाक्लोप्रिड 17.8 प्रतिशत एस.एल. अथवा एसिटामिप्रिड 20 प्रतिशत एस. पी. की 5 मिली./ग्राम मात्रा प्रति 15 लीटर पानी।

2. चुर्णिलआसिता

लक्षण
भिंडी की फसल में इस रोग के कारण पत्तियों या तने पर सफेद चूर्णी लिए हुए धब्बे दिखाई देते है। ज्यादा प्रभावित पौधे की पत्तियाँ पीली पडकर गिर जाती है। इस रोग काय दिवातावरण में अधिक आर्द्रता होती है तो ज्यादा देखने को मिलता है। यह रोग की समस्या सबसे पहले पुरानी पत्तियों पर अधिक देखने को मिलती है।

प्रबंधन
इस रोग का नियंत्रणन करने पर पैदावार 30 प्रतिशत तक कम हो सकती है। इस रोग के नियंत्रण हेतु घुलनशील गंधक 5 ग्राम मात्रा अथवा हैक्साकोनोजोल 5प्रतिशत ई.सी. की 1.5 मिली. मात्रा प्रतिलीटर पानी में घोलकर 2 या 3 बार 12-15 दिनों के अंतराल पर छिडकाव करना चाहिए

3. आर्द्रगलन

लक्षण
इस रोग का प्रकोप भिंडी पर दो तरह से होता है। पहला पौधे का जमीन में बाहर निकलने से पहले एवं दूसरा जमीन की सतह परस्थित तने का भाग काला पडकर गिर जाता है और बाद में पौधा सुख जाता है। यदि वातावरण में अधिक आर्द्रता होती है तो यह रोग ज्यादा बढ़ता है। तो इसलिए फसल का सही समय पर उपचार करते रहना चाहिए।

प्रबंधन
  • आवश्यकता से अधिक सिचाई नही करनी चाहिए।
  • ट्राइकोडर्मा विरीडी 3ग्रा. प्रतिकि.ग्रा. बीज दर से बीजोप्चा करना चाहिए।
  • डाइथेनएम-45 0.2प्रतिशत एवं बैवस्टीन1 प्रतिशत की दर से मिटटी मे मिला ने से इस रोग मे कमी आती हैं।

4. फ्युसेरियमविल्ट (म्लानी)
यह रोग एक फफुदजनित रोग है जो लम्बे समय तक मिटटी मे बने रहते है। शुरूआत मे पौघे अस्थाई रूप से सूखने लगते है तथा बाद मे सक्रमण बढने पर पौधे की लताऐ एवं पतियाँ पीली पडने लगती है तथा कवक पौधे के जड प्रणाली पर आक्रमण करते जिससे पौधे मे जल सवंहन अवरूध्द हो जाता है जिससे पौधे पुर्णत; मर जाते है।

प्रबंधन
  • लगातार एक ही जगह पर भिण्डी की खेती नही करनी चाहिए।
  • फसल चक्र का प्रयोग करना चाहिए।
  • रोग अधिक दिखने पर केराथेन 6 ग्रा प्रति 10 ली. पानी या बैवेस्टीन 1 ग्रा प्रतिली. पानी मे मिलाकर 5-6 दिन के अंतराल मे 3 बार छिडकाव करना चाहिए।