डॉ. अनिमेष कुमार चंद्रवंशी (कृषि अभियांत्रिकी विभाग )
डॉ. ज्योति साहू ( अनुवांशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग)
श्री रोहित सिंह (कृषि सांख्यिकी विभाग )
कृषि महाविद्यालय अवं अनुसंधान केंद्र जांजगीर - चांपा,(छ.ग.)

भारत कृषि प्रधान देशः अस्ति अत्रत्या भूमि: सुजला, सुफला, शस्यश्यामला च अस्ति ।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की भूमि अच्छी तरह से सिंचित, उपजाऊ और फसलों से समृद्ध है।

परिचय
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव वैश्विक हैं, लेकिन बढ़ती आबादी के लिए खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जलवायु परिवर्तन भारत के लिए चिंता का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र बन गया है। भारत में, मध्यम अवधि के जलवायु परिवर्तन अनुमान (2010-2039) एक महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव का संकेत देते हैं, जिससे संभावित उपज में 4.5 से 9 प्रतिशत तक की कमी संभावना है। दूसरे शब्दों में कहे तो जलवायु परिवर्तन की लागत प्रति वर्ष सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.5 प्रतिशत तक है। इस लेख के माध्यम से हम कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से उत्पन्न चुनौतियाँ और समाधान जान पाएंगे ।

चुनौतियाँ
मौसम का बदलता मिजाज, फसल का नुकसान पिछले एक दशक में, बदलते मौसम का कृषि उत्पादकता पर गहरा प्रभाव पड़ा है। बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा, लंबे समय तक सूखा, और खराब मौसम की वजह से तूफान और बाढ़ जैसे घटनाओं ने विश्व स्तर पर खेती के कार्यों को बाधित कर दिया है। 2016 में प्रकाशित खाद्य और कृषि संगठन के आंकड़ों के अनुसार, यदि जीएचजी उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन की वर्तमान स्थिति जारी रहती है, तो वर्ष 2100 तक प्रमुख अनाज फसलों के उत्पादन में गिरावट आएगी (मक्का की पैदावार में 20-45 प्रतिशत), गेहूं में 5-50 प्रतिशत और चावल में 20-30 प्रतिशत)। जिससे निकट भविष्य में फसल हानि एक अभूतपूर्व दर से बढ़ सकती है जो उत्पादन को कम करने, खाद्य कीमतों में वृद्धि के कारक होंगे और बढ़ती जनसंख्या की बढ़ती जरूरतों का सामना करना मुश्किल हो जाएगा।

पानी की कमी
कृषि उत्पादन और खाद्य सुरक्षा के लिए जल आवश्यक है। यह पारिस्थितिक तंत्र की जीवनदायिनी है. यह देखा गया है कि 19वीं सदी के अंत से पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है, फलस्वरूप वर्षा की प्रणाली में बदलाव और वाष्पीकरण दर में वृद्धि के कारण जल स्रोतों की कमी और सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता में कमी देखी गई है। जलवायु मॉडल का अनुमान है कि 2100 तक, वैश्विक तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी और वार्षिक वर्षा में 20 प्रतिशत की कमी आएगी इसलिए पानी की कमी दुनिया भर में किसानों के लिए एक अहम चिंता का विषय बना हुआ है ।

कीट और रोग का दबाव
गर्म तापमान और बदलती जलवायु ने कीटों और बीमारियों के पनपने के लिए अधिक अनुकूल वातावरण प्रदान किया है, जिससे प्रमुख फसलों को काफी नुकसान होता है। पिछले कुछ समय से कृषि क्षेत्र में आक्रामक कीटों में वृद्धि देखी गई है, जैसे कि फॉल आर्मीवॉर्म और टिड्डियों के झुंड, फसलों को नुकसान करके फलस्वरूप आर्थिक नुकसान को बढ़ाता है। नए क्षेत्रों में कीटों, बीमारियों और खरपतवारों का फैलाव भी फसल प्रबंधन के लिए चुनौतियाँ खड़ी कर रहा है । एफएओ का अनुमान है कि सालाना वैश्विक फसल उत्पादन का 40 प्रतिशत तक कीटों के कारण नष्ट हो जाता है। हर साल, पौधों की बीमारियों से वैश्विक अर्थव्यवस्था को $220 बिलियन से अधिक का नुकसान होता है

मृदा क्षरण
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप भूमि क्षरण की दर बहुत अधिक हो रही है, जिससे मरुस्थलीकरण और मिट्टी पोषक तत्वों की कमी बढ़ रही है। ग्लोबल अस्सेस्मेंट ऑफ़ लैंड डिग्रेडशन एंड इम्प्रूवमेंट (ग्लाडा) के अनुसार दुनिया भर में एक चौथाई भूमि क्षेत्र को अब खराब के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। लैंड डिग्रेडशन से 1.5 अरब लोगों का जीवन प्रभावित हो रहा है और हर साल मानवजनित गतिविधियों और जलवायु परिवर्तन के कारण 15 अरब टन उपजाऊ मिट्टी नष्ट हो जाती है।

फसलों की पोषण गुणवत्ता में कमी
पौधे की वृद्धि और विकास के लिए खनिज पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड का ऊंचा स्तर पौधों की वृद्धि को प्रोत्साहित करता है लेकिन इसके परिणामस्वरूप खाद्य फसलों में प्रोटीन और आवश्यक खनिज सांद्रता कम हो सकती है। पिछले 150 वर्षों के दौरान वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, अध्ययनों से ये पाया गया है की डाइऑक्साइड बढ़ने से फसलों के खाद्य वर्गों में पोषक तत्वों (स्थूल और सूक्ष्म पोषक तत्व) का स्तर कम हो गया है साथ ही ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने से पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में नकारात्मक प्रभाव देखा गया है।

समाधान

कुशल जल प्रबंधन
पानी के उपयोग को सुनियोजित करने और दुर्लभ संसाधनों पर निर्भरता कम करने के लिए, कुशल जल-प्रबंधन तकनीकों जैसे ड्रिप सिंचाई (70-80 प्रतिशत), वर्षा जल संचयन, भूजल पुनर्भरण और सूखा-सहिष्णु फसलों उत्पादन करने से किसानों को आवश्यक समय में पानी की कमी की समस्या से राहत मिल सकती है।

मृदा संरक्षण एवं संवर्धन
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के खिलाफ मिट्टी के क्षरण को कम करने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, कुशल सिंचाई प्रणाली (ड्रिप व स्प्रिंकलर)और जल प्रबंधन (रेन वाटर हार्वेस्टिंग एंड ग्राउंड वाटर रिचार्ज)रणनीतियाँ पानी का संरक्षण करती हैं और मिट्टी के कटाव को रोकती हैं । सटीक कृषि, कृषि वानिकी और जैविक खेती जैसी स्थायी भूमि प्रबंधन प्रथाओं को लागू करने से मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है। इसके साथ साथ मिट्टी के कटाव को नियंत्रित करने के लिए टेरासिंग, समोच्च खेती, कवर फसलें लगाना कुशल तकनीकें हैं।

सही किस्मों का चयन
पैदावार और बेहतर उत्पादकता में स्थिरता प्राप्त करने के लिए सूखा, गर्मी और बाढ़ प्रतिरोधी बीज किस्मों का चयन । यह मौसम के अनुमानों और योजना के आधार पर स्थानीय स्तर पर कृषक समुदाय के साथ मिलकर किया जाना चाहिए ।

फसल का नाम

गहरा जल/जलप्लावन/जल जमाव सहनशीलता (टॉलरेंस)

सूखा सहनशीलता

चावल

वर्षाधन, सरला, पूजा, प्रतीक्षा, दुर्गा, नीरजा, जलधि 1, जलधि 2

सहभागी धान, वंदना, अंजलि, सत्यभामा, डीआरआर धान 43, बिरसा विकास धान 111,

मक्का

एचएम-5, सीड टेक-2324, एचएम-10, पीएमएच-2

पूसा हाइब्रिड मक्का 1, एचएम 4, पूसा हाइब्रिड मक्का 5, डीएचएम 121, बुलंद,

गेहूं

-

HI 8802 (पूसा गेहूं 8802), पीबीडब्ल्यू 527 पीबीडब्ल्यू 644

सोयाबीन

-

एनआरसी 7, जेएस 95-60


संरक्षित खेती और खाद्य संरक्षण प्रौद्योगिकी: खाद्य उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में संरक्षित खेती और खाद्य संरक्षण तकनीकें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। संरक्षित खेती के तरीके जैसे कि ग्रीनहाउस और पॉली हाउस नियंत्रित वातावरण बनाते हैं जो फसलों को चरम मौसम की घटनाओं, कीटों और बीमारियों से बचाते हैं।ये संरचनाएं एक स्थिर और उचित वातावरण प्रदान करती हैं, जिससे किसान मौसमी विविधताएं के बावजूद भी साल भर वांछित फसल उत्पादन कर सकते है। कैनिंग, फ्रीजिंग और सुखाने जैसी खाद्य संरक्षण तकनीकें फसल के बाद के नुकसान को कम करने में मदद करती हैं और खराब होने वाली उपज के जीवन अवधि को बढ़ाती हैं, जिससे प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों में भी भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित होती है। इन तकनीकों को अपना करके, हम खाद्य सुरक्षा को बढ़ा सकते हैं साथ ही कृषि में नुकसान को कम कर सकते हैं।

जलवायु स्मार्ट प्रौद्योगिकियों को अपनाना
जलवायु लचीला कृषि तकनीक जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने और अनुकूल बनाने में सक्षम बनाने के साथ पर्याप्त खाद्य उत्पादन सुनिश्चित करता है। जलवायु चुनौतियों के जवाब में, किसानों और शोधकर्ताओं ने जलवायु-स्मार्ट प्रौद्योगिकियों को अपना रहे हैं । इनमें सटीक कृषि, सुदूर संवेदन, मौसम पूर्वानुमान और जलवायु-लचीली फसल किस्मों को विकसित करने के लिए जैव प्रौद्योगिकी का उपयोग शामिल है। इसके अतिरिक्त, जैव विविधता को बढ़ाने, कार्बन प्रच्छादन में वृद्धि करने और लचीली कृषि प्रणालियों के निर्माण के लिए कृषिवानिकी, फसल चक्रण जैसी नवीन विधियाँ समुचित समाधान है।



जलवायु-परिवर्तन को चुनौती देने वाली योजनाएँ और उनकी भूमिका
भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने और सामान्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न योजनाओं को लागू किया गया है, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना सौर ऊर्जा, ऊर्जा दक्षता, जल, स्थायी कृषि, और नवीन तकनीकों पर केंद्रित है। जलवायु परिवर्तन पर राज्य कार्य योजना व राष्ट्रीय कार्य योजना आपसी सामंजस्य स्थापित करते हुए राज्य-आधारित जलवायु मुद्दों को हल करते हैं, केंद्रीय जल आयोग द्वारा बाढ़ की भविष्यवाणी से देश भर में बाढ़ का प्रबंधन करने में मदद मिलती है। मृदा स्वास्थ्य की रक्षा के लिए, भारत सरकार ने मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना शुरू की है जिसका मुख्य उद्देश्य मिट्टी के नमूनों का विश्लेषण करना और किसानों को उनकी भूमि उर्वरता की स्थिति के बारे में बताना है। कृषि में मौसम संबंधी सलाहकार सेवाएं किसानों को उनके खेती के अनुकूल मौसम की जानकारी प्रदान करते हैं। प्रति बूंद अधिक फसल योजना खेती में जल उपयोग दक्षता को बढ़ावा देती है। वर्षा आधारित क्षेत्र विकास कार्यक्रम जलवायु जोखिमों को कम करने के लिए कृषि प्रणालियों को मजबूत करता है। राज्य सरकारें राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना द्वारा समर्थित बाढ़ प्रबंधन और कटाव रोधी योजनाओं को लागू करती हैं। जलवायु लचीला कृषि में राष्ट्रीय नवाचार (एनआईसीआरए) - भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया, एनआईसीआरए एक प्रमुख नेटवर्क परियोजना है जिसका उद्देश्य जलवायु लचीला कृषि को विकसित करना और बढ़ावा देना है।

निष्कर्ष
ग्रीनहाउस गैसें मुख्यतः कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड ग्रीनहाउस गैसें जलवायु परिवर्तन के पीछे मुख्य कारण हैं। वे वातावरण में में ऊष्मा को कैद कर लेते है फलस्वरूप तापमान बढ़ रहा है आज मानवीय गतिविधियों ने इन गैसों के स्तर को बढ़ा दिया है जिसके परिणामस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु में अनिश्चितता जैसी समस्या पैदा हो रही है। पिछले दशक ने कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान की है जो जलवायु-लचीली कृषि पद्धतियों की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डालती है। स्थायी और नवीन दृष्टिकोणों को अपनाने से, किसान जलवायु जोखिमों को कम कर सकते हैं।बदलती परिस्थितियों के अनुकूल हो सकते हैं और भावी पीढ़ियों के लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। सरकारों, संगठनों और व्यक्तियों को जलवायु-लचीली कृषि को बढ़ावा देने और समर्थन करने के लिए सहयोग करना चाहिए, अनुसंधान और विकास में निवेश करना चाहिए, किसानों को सूचना और संसाधनों तक पहुंच प्रदान करनी चाहिए, और स्थायी प्रथाओं को प्रोत्साहित करने वाली नीतियां स्थापित करनी चाहिए। जलवायु- अनुकूल कृषि केवल एक विकल्प नहीं है; यह जलवायु परिवर्तन के सामने एक स्थायी और सुरक्षित भविष्य के निर्माण के लिए अति आवश्यक है।