हेमंत कुमार सिंह, अमित सिंह, धर्मप्रकाश श्रीवास्तव एवं कबीर आलम
पशुचिकित्सा एवं पशु पालन महाविध्यालय कुमारगंज अयोध्या
बीरेंद्र सिंह
राष्ट्रीय डेरी अनुसन्धान संस्थान करनाल हरियाणा
भारत एक कृषि प्रधान देश है, तथा खेती यहॉ के लोगो की आजीविका का एक प्रमुख स्रोत है। छोटे, सीमांत किसान और भूमिहीन मजदूर वर्ग मुख्य रुप से जुगाली करने वाले छोटे जानवर (बकरी एवं भेड़) को पालते है। जिसमें भेड़ ज्यादातर मांस और ऊन के लिए, और बकरी दूध व मांस के लिये पाली जाती है।
भारतीय अर्थव्यावस्था मे पशुधन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये देश में लगभग 8.8 प्रतिशत आबादी को रोजगार प्रदान करता है। भारत में विशाल पशुधन संसाधन है, जिसका देश की कुल जीडीपी में योगदान 4.11 और कृषि जीडीपी का 25.6 प्रतिशत है। अंतः परजीवी रोगों से होने वाली भेड़- बकरियो की मृत्यु दर को रोक कर हम देश की जीडीपी में पशुधन के योगदान को और भी बढा सकते हैं।
भारत की भू-जलवायु पशु परजीवी आबादी के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करती हैं। छोटे रोमांथक/जुगाली वाले पशुओं को संक्रमित करने वाले प्रमुख परजीवी निम्नलिखित हैं-
गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल नेमाटोड जैसे हेमोन्चस स्पीशीज (Haemonchus spp.), ट्राइकोस्ट्रॉन्गिलस स्पीशीज (Strongyloides spp.), कूपेरिया स्पीशीज(Cooperia spp.), ओसोफैगॉस्टोमम स्पीशीज (Oesophagostomum spp.), त्रिचूरिस स्पीशीज(Trichuris spp.) और स्ट्रांगिलोइड्स स्पीशीज (Trichostrongylus spp.), आइमेरिया स्पीशीज (Eimeria spp.) सबसे आम परजीवी रोगकारक हैं, लेकिन भेड़ और बकरी में गंभीर आर्थिक नुकसान के लिए हेमोन्चस कॉन्टोर्टस जिम्मेदार है। हेमोन्चस कॉन्टोर्टस दुनिया भर में छोटे जुगाली करने वाले जानवरों की एक बड़ी समस्या है। जिस से पशुधन उद्योग की उत्पादकता और लागत आदि प्रभावित होती है।
अंतः परजीवी
फीता कृमि
भेड़-बकरियों में मुख्य (Moniezia, Avitellina and Stilesia. spp.) फीता कृमि मुख्य रुप से पाये जाते है, जिनसे पशुओं में पानी जैसे दस्त, निर्जलीकरण, पेट की ऐंठन, भूख में कमी, और कमजोर जानवर आदि लक्षण प्रमुख रुप से दिखाई पडते है। समय पर इलाज न मिल पाने के कारण कई बार जानवर की मौत तक हो जाती है।
गोल कृमि
भेड़-बकरियों में मुख्यतः (Haemonchus, Oesophagostomum and Bunostomum spp.) गोल कृमि पाये जाते है, जो आंतों में पतले धागे की तरह लम्बे व सफेद रंग के होते है, जो भेड़-बकरियों की आंतों से खून चूसते हैं, इन कृमि के कारण जानवर में पेट में दर्द, दस्त, एनीमिया और वजन कम हो जाना जैसे लक्षण देखे जाते है। वयस्क नर-मादा हेमोन्कस परजीवी और इनके एल-4 लार्वा रक्त चूसने वाले होते हैं। जो प्रति दिन 0.05 मिली रक्त चूसता है। जिस से खून की कमी हो जाती है और भेड़ की मृत्यु तक हो सकती है।
फ्लूक कृमि
भेड़-बकरियों में मुख्य (Fasiola, Amphistome and Schistosoma spp.) फ्लूक कृमि पाये जाते है, जिनसे संक्रमित जानवरों में निम्न लक्षण दिखाई देते हैं जैसे कि- कम चारा चरना, शरीर का क्षीण होजाना, जानवर में रोएं भीगे - भीगे प्रतीत होना, कभी-कभी बदबूदार बुलबुले के साथ पतले दस्त होना, जानवर का घोघ फूल जाना, और जानवर को उठने में कठिनाई होना आदि। जानवर का समय पर इलाज न मिल पाने के कारण कई बार जानवर का बच पाना मुश्किल हो जाता है।
प्रोटोजोआ परजीवी
आइमेरिया स्पीशीज(Eimera spp.) भेड़ और बकरियों में काक्सिडीओसिस (Coccidiosis) नामक रोग को पैदा करता है। ये आंतों के अस्तर में रहते हैं और पोषक तत्वों को नष्ट करते हैं जो पोषक तत्व जानवरों को अवशोषित करने की आवश्यक होते है। जिससे पशु को तीव्र दस्त अथवा पेचिस लग जाते हैं।
पेट के कीड़े
पेट के कीड़े भेड़ों की आंतों में पहले धागे की तरह लम्बे व सफेद रंग के होते है, जो भेड़-बकरियों की आंतों से खून चूसते हैं, इन कीड़ों के कारण जानवर के पेट में दर्द, दस्त, एनीमिया और वजन कम हो सकता है।
हेमोन्कोसिस
रोगजनन
- वयस्क नर-मादा और एल-4 लार्वा रक्त चूसने वाले होते हैं।
- प्रत्येक कीड़ा प्रति दिन 0.05 मिली रक्त चूसता है।
- हेमोन्कोसिस में महत्वपूर्ण नैदानिक विशेषता एनीमिया है। जिस से जानवर कमज़ोर हो जाता है
- कीड़े अक्सर काटने वाली जगह को बदलते रहते हैं, इसलिए कई काटने वाले घाव देखे जा सकते हैं।
- अबोमासम में घाव और रक्तस्राव होता है।
रोग के लक्षण
- यह रोग भेड़-बकरियों में अधिक होता है। यह तब होता है जब युवा जानवर इस रोग संक्रमण के संपर्क में आ जाता है। इस रोग में परजीवी जानवर का रक्त चूसते है। जिस से जानवर के शरीर में खून की कमी(एनीमिया) और जानवर को बुखार आता है जानवर सुस्त होकर खाना पीना छोड देता है, मल गहरे रंग का होता है और मल के साथ खून आता है।
- जब भेड़ लंबे समय तक इस रोग के संक्रमण से ग्रसित रहता है। तो जानवर में हाइपोप्रोटीनेमिया और एडिमा ( जबड़े की स्थिति बोतल तरह स्थिति) हो जाती है। ऊन का गिरना, कमजोरी, मृत्यु पूर्व निर्धारित अवधि के भीतर हो सकती है। जानवर का उपचार शीघ्र करवाना चाहिए क्योंकि इस रोग में परजीवी द्वारा जानवर का रक्त चूस लिया जाता है। जिस से खून की कमी हो जाती है और भेड़ की मृत्यु हो जाती है।
फेफड़े के कीड़े
रोगजनन
भारत में फेफड़े के कीड़े की तीन मुख्य प्रजातियाँ पायी जाती हैं, जो डिक्टायोकैलस फिलारिया (Dictyocaulus filaria), म्यूएलरियस कैपिलारिस(Muellerius capillaris) और प्रोटोस्ट्रॉन्गिलस रूफेंसेंस (Protostrongylus rufescens) हैं| इस रोग में डिक्टायोकैलस फिलारिया फेफड़ों के ब्रोन्ची में पाया जाता है, प्रोटोस्ट्रॉन्गिलस रूफेंसेंस छोटे ब्रोन्किओल्स में रहता है ,म्यूएलरियस कैपिलारिस फेफड़ों के ऊतकों की गहराई में मिलता है। ये फेफड़े के कीड़े भेड़-बकरियों में वरमिनस न्यूमोनिया पैदा करते है।
रोग के लक्षण
इसका संक्रमण तब होता है जब भेड़ या बकरी एक स्लग या घोंघा खाती है और कीड़े लार्वा आंतों के मार्ग से फेफड़ों तक के ऊतकों से गुजरता है।बीमार भेड़-बकरियों में जलन और दर्द जानवर को खांसी सांस लेने में तकलीफ होती है ।न्यूमोनिया लक्षण दिखते हैं, जैसे खांसी- बुखार का आना , नाक से गाढ़ा पानी निकलना ,भूख न लगने के लक्षण भी दिखते हैं तथा फेफड़े खराब हो जाने से जानवर मर जाते हैं|
यकृत फ्लूक
रोगजनन
छेरा रोग (Fasciolosis) पशुओं की यह एक परजीवी बीमारी है। छेरा रोग भेड़-बकरियों में यकृत फ्लूक परजीवी, फासिओला हेपेटिका (Fasciola hepatica) के कारण होता है । ये परजीवी कुछ समय नदी, तलाब, पोखर आदि में पाये जाने वाले घोंघा में व्यतीत करते है और घास की पत्तियों पर लटके रहते है। जब भेड़ या बकरी इस घास के संपर्क में आते है, तो ये परजीवी जानवर के शरीर में प्रवेश कर जाते है और जानवर के यकृत को संक्रमित करता है।वयस्क फ्लूक आकार में 2 से 3 सेमी के होते हैं और पित्त नलिकाओं में रहते हैं । जानवर का यकृत जैसे-जैसे प्रभावित होता है, वैसे-वैसे रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं ।
रोग के लक्षण
- जानवर को भूख कम लगती है।
- शरीर का क्षीण होने लगता हैं ।
- जानवर में रोएं भीगे - भीगे प्रतीत होते हैं ।
- कभी-कभी बदबूदार बुलबुले के साथ पतला दस्त होते हैं ।
- जानवर का घोघ फूल जाता हैं ।
- जानवर को उठने में कठिनाई होती हैं ।
- जानवर का समय पर इलाज न मिल पाने के कारण कई बार जानवर की मौत हो जाती है।
काक्सिडीओसिस
आइमेरिया स्पीशीज भेड़ और बकरियों में काक्सिडीओसिस नामक रोग को पैदा करता है। ये आंतों के अस्तर में रहते हैं और पोषक तत्वों को नष्ट करते हैं जो पोषक तत्व जानवरों को अवशोषित करने की आवश्यक होते है। जिससे पशु को तीव्र दस्त अथवा पेचिस लग जाते हैं।
रोग के लक्षण
काक्सिडीओसिस संक्रमण का सबसे आम संकेत दस्त है। दस्त के एक-दो दिनों के बाद जानवर सुस्त हो जाते हैं अगर इस बिमारी का प्रकोप ज्यादा हुआ तो दस्त में रक्त भी आ सकता है। कभी कभी रक्त के बड़े बड़े थक्के भी दस्त में देखे जा सकते है।
जानवर के शरीर का तापमान चढ़ उतार सकता है। जानवर कमजोर, शरीर में रक्त की कमी यानी एनीमिक हो जाता है, इस बिमारी में सांस सबंधी समस्या भी देखी जा सकती है। जिससे सांस लेने में कठिनाई भी होती है। जानवर को भूख में कम लगती है। जानवर कमजोर हो जाता है। यदि समय पर इलाज न मिल पाने के कारण कई बार जानवर की मौत हो जाती है।
उपचार
नियंत्रण: -
- चारागाह प्रबंधन।
- प्रोफिलैक्टिक एंथेलमिंटिक दवा।
- टीकाकरण
(I) चारागाह प्रबंधन
चरागाहों में
- लार्वा के बोझ को कम करने के लिए चारागाह, भेड़ के झुंड को शांत और नम स्थिति के तहत कम से कम छह महीने के लिए चरागाह से रोक दिया जाना चाहिए और गर्म और शुष्क परिस्थितियों के लिए दो महीने के लिए। इतना आराम देने से हम लार्वा के बोझ को कम कर पाएंगे।
- जानवरों में घूर्णी चराई, झुंड को कुछ अवधि के लिए किसी विशेष क्षेत्र पर चरने की अनुमति दी जानी चाहिए, उसके बाद झुंड को क्षेत्र के दूसरे हिस्से में स्थानांतरित करें।
- वयस्क और युवा जानवर को अलग से चराई की जानी चाहिए क्योंकि वयस्क कैरी के रूप में कार्य करते हैं और हेलमिन्थ संक्रमण के प्रतिरोधी होते हैं।
- भेड़ के झुंड की दर चरागाह के प्रति हेक्टेयर चरने की इजाजत दी जानी चाहिए । झुंड की दर से चारागाह संदूषण में वृद्धि होगी।
- विभिन्न प्रजातियों के मेजबान के साथ वैकल्पिक चराई , जैसे मवेशी और भेड़ का विकल्प सबसे आम है।
(II) प्रोफिलैक्टिक एंथेलमिंटिक दवा
- एल्बेंडाजोल – 5 मिलीग्राम / किग्रा.
- फेनबेंडाजोल - 7.5 मिलीग्राम / किग्रा
- थियाबेंडाजोल - 44 मिलीग्राम / किग्रा
- मोरेंटेल टार्ट्रेट - 10 मिलीग्राम / किग्रा
- लेवामिसोल - 7.5 मिलीग्राम / किग्रा
- Ivermectin - 200 मिलीग्राम / किग्रा सॅबक्यूटेन्यॅस s/c
- मोक्सीडैक्टिन - 0.2 मिलीग्राम / किग्रा सॅबक्यूटेन्यॅस s/c
- डोरमेक्टिन - 0.2 मिलीग्राम / किग्रा सॅबक्यूटेन्यॅस s/c
- नेमाडेक्टिन - 0.2 मिलीग्राम / किग्रा सॅबक्यूटेन्यॅस s/c
- एप्रिनोमेक्टिन - 0.5 मिलीग्राम / किग्रा डालना।
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