रवींद्र कुमार (मृदा विज्ञान)
उदय कुमार (सस्य विज्ञान)

वर्तमान समय में खेती में रसायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग एवं सीमित उपलब्धता को देखते हुये अन्य पर्याय भी उपयोग में लाना आवश्यक हो गया है तभी हम खेती की लागत को कम कर फ़सलों की प्रति एकड उपज को भी बढा सकते हैं, साथ ही मिट्टी की उर्वरा शक्ति को भी अगली पीढी के लिये बरकरार रख सकेंगे।
हरी खाद मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिये एवं फ़सल उत्पादन हेतु जैविक माध्यम से तत्वों की पूर्ति का वह साधन है जिसमें हरी वानस्पतिक सामग्री को उसी खेत में उगाकर या कहीं से लाकर खेत में मिला दिया जाता है। इस प्रक्रिया को ही हरी खाद देना कहते हैं।
सीमित संसाधनो के समुचित उपयोग हेतु कृषक एक फसली द्वीफसली कार्यक्रम व विभिन्न फसल चक्र अपना रहे है, जिससे मृदा का लगातार दोहन हो रहा है जिससे उसमें उपस्थित पौधों के बढ़वार के लिए आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहें है। इस क्षतिपूर्ति हेतु विभिन्न तरह के उर्वरक व खाद का उपयोग किया जाता है।
उर्वरक द्वारा मृदा में सिर्फ आवश्यक पोषक तत्व जैसे नत्रजन, स्फुर पोटाश जिंक इत्यादि की पूर्ति होती है मगर मृदा की संरचना उसकी जल धारणा क्षमता एवं उसमें उपस्थित सूक्ष्मजीवों को क्रियाशीलता बढ़ाने में इनका कोई योगदान नहीं होता। अत इस सबकी परिपूर्ति हेतु हरी खाद का प्रयोग एक अहम भूमिका निभाता है।
भारत वर्ष में हरी खाद देने की प्रक्रिया पर लम्बे समय से चल रहे प्रयोगों व शोध कार्यों से सिध्द हो चुका है कि हरी खाद का प्रयोग अच्छे फ़सल उत्पादन के लिये बहुत लाभकारी है।

जैविक खेती में हरी खाद की जरुरत
बढ़ती हुई जनसंख्या और सभी को भोजन की आपूर्ति की अपेक्षा में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों अधिक उपयोग किया जा रहा है। परिणाम स्वररूप प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान का चक्र (इकोलॉजी सिस्टम) प्रभावित हो रहा है। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है। पर्यावरण प्रदुषण हो रहा है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती जा रही है।
अन्य मुख्य बात यह भी है की अधिक उत्पादन के लिये खेती में अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशक का उपयोग करना पड़ता है जिससे सामान्य व छोटे किसान के पास कम जोत में अत्यधिक लागत लग रही है । उनपर कृषि के ऋण का बोझ भी बढ़ता जा रहा है।
इसलिए इस प्रकार की उपरोक्त सभी समस्याओं से निपटने के लिये गत वर्षों से निरन्तर टिकाऊ खेती के सिध्दान्त पर खेती करने की सिफारिश की जा रही है, जिसे हर प्रदेश में कृषि विभाग की तरफ से जैविक खेती करने के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है और भारत सरकार भी इस प्रकार की खेती को बढ़ावा देने के लिए लगी हुई है।
भारत में जैविक खेती का क्षेत्र रकबा वर्ष 2003-04 में 42,000 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2013-14 में बढ़कर 7.23 लाख हेक्टेयर के स्तर पर पहुंच गया। भारत सरकार ने वर्ष 2001 में जैविक उत्पादन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम (एनपीओपी) को क्रियान्वित किया. इस राष्ट्रीय कार्यक्रम में प्रमाणन एजेंसियों के लिए मान्यता कार्यक्रम, जैव उत्पादन के मानक, जैविक खेती को बढ़ावा देना इत्यादि शामिल हैं।

हरी खाद का वर्गीकरण
हरी खाद को प्रयोग करने के आधार पर दो वर्गों में बांटा जा सकता है-

1. उसी स्थान पर उगाई जाने वाली हरी खाद
हरी खाद के लिये उपयोग किये गये पौधो को जिस खेत में हरी खाद का उपयोग करना है उसी खेत में फ़सल को उगाकर एक निश्चित समय पश्चात् पाटा चलाकर मिट्टी पलटने वाले हल से जोतकर मिट्टी में सडने को छोड दिया जाता है। वर्तमान समय में पाटा चलाने व हल से पलटाई करने के बजाय रोटावेटर का उपयोग करने से खड़ी फ़सल को मिट्टी में मिला देने से हरे पदार्थ का विघटन शीघ्र व आसानी से हो जाता है।

2. अपने स्थान से दूर उगाई जाने वाली हरी खाद की फ़सलें
हमारे देश में आमतौर पर हरी खाद के उपयोग के लिये यह विधि प्रचलित नहीं है परन्तु दक्षिण भारत में हरी खाद की फ़सल अन्य खेत में उगाई जाती है, और उसे उचित समय पर काटकर जिस खेत में हरी खाद देना रहता है उसमें जोत कर मिला दिया जाता है इस विधि में जंगलों या अन्य स्थानों पर पेड पौधों, झाडियों आदि की पत्तिायों, टहनियों आदि को इकट्ठा करके खेत में मिला दिया जाता है।

हरी खाद बनाने के लिये अनुकूल फसले
हमारे देश में आमतौर पर हरी खाद के उपयोग के लिये दलहनी फ़सलें उगाई जाती है। दलहनी फ़सलो की जड़ों में गांठे पाई जाती है तथा इन ग्रन्थियों में विशेष प्रकार के सहजीवी जीवाणु रहते है। जो कि वायुमंडल में पाई जाने वाली नाइट्रोजन का स्थरीकरण कर मिट्टी में नाइट्रोजन की पूर्ति का कार्य भी करते हैं । अतः यह स्पष्ट है कि दलहनी फ़सलें मिट्टी की भौतिक दशा सुधारने के साथ साथ जीवांश पदार्थ एवं नाइट्रोजन की भी पूर्ति भी करते है। जबकि बिना फ़लीवाली फ़सलों में वायुमंडल की नाइट्रोजन का यौगिकीकरण करने की क्षमता नहीं होती है।

ढेंचा, लोबिया, उरद, मूंग, ग्वार बरसीम, कुछ मुख्य फसले है जिसका प्रयोग हरी खाद बनाने में होता है। ढेंचा इनमें से अधिक आकांक्षित है । ढेंचा की मुख्य किस्में सस्बेनीया ऐजिप्टिका, एस रोस्ट्रेटा तथा एस एक्वेलेटा अपने त्वरित खनिजकरण पैटर्न, उच्च नाइट्रोजन मात्रा तथा अल्प ब्रूछ अनुपात के कारण बाद में बोई गई मुख्य फसल की उत्पादकता पर उल्लेखनीय प्रभाव डालने में सक्षम है।

बुवाई का अनुकूलतम समय-
हमारे देश में विभिन्न प्रकार जलवायु पाई जाती है अतरू सभी क्षेत्रों के लिये हरी खाद की फ़सलों की बुवाई का एक समय निर्धारित नहीं किया जा सकता। परन्तु फ़िर भी यह कह सकते है कि सिंचित अवस्था में मानसून आने के 15 से 20 दिन पूर्व या असिंचित अवस्था में मानसून आने के तुरंत बाद खेत अच्छी प्रकार से तैयार कर हरी खाद की फसल के बीज बोना चाहिए।

हरी खाद के लिये फ़सल की बुवाई करते समय खेत में पर्याप्त नमी का होना आवश्यक है। जिन फ़सलो के बीज छोटे होते है उनमे बीज दर 25-30 किग्रा तथा बड़े आकार वाली किस्मों की बीज दर 40-50 कि.ग्रा/हैक्टर तक पर्याप्त होता है।

प्रमुख हरी खाद के बुवाई का अनुकूल समय एवं फसलों में उपलब्ध जीवांश की मात्रा -

फसल

बुआई का समय

बीज दर (कि.ग्रा/हे.)

हरे पदार्थ की मात्रा (टन/हे.)

नत्रजन का प्रतिशत

प्राप्त नत्रजन (कि.ग्रा/ हे.)

खरीफ फसलों हेतु

ढेंचा

 

अप्रैल-जुलाई

80-100

18-20

0.43

60-100

अप्रैल-जुलाई

80-100

20-25

0.42

84-105

लोबिया

 

अप्रैल-जुलाई

45-55

15-18

0.49

74-78

जून- जुलाई

20-22

10-20

0.41

40-49

मूंग

जून- जुलाई

20-22

8-10

0.48

38-48

ज्वार

अप्रैल-जुलाई

30-40

20-25

0.38

68-85

रबी फसलों हेतु

सैंजी

अक्टूबर-दिसम्बर

25-30

26-29

0.51

120-135

बरसीम

अक्टूबर-दिसम्बर

20-30

16

0.43

60


उर्वरक की आवश्यकता
यद्दपि हरी खाद की फ़सल को उर्वरकों की आवश्यकता बहुत कम मात्रा में होती है परन्तु फ़सल को शीघ्र बढाने हेतु, हरीखाद बोने के समय 80 कि.ग्रा. नत्रजन तथा 40-60 कि.ग्रा/हे सल्फर देना चाहिए। इसके बाद जो दूसरी फसल लेनी हो उसमें सल्फर की मात्रा देने की आवश्यकता नहीं होती। तथा नत्रजन में भी 50 प्रतिशत तक की बचत की जा सकती है।

फ़सल के पलटाई का अनुकूलतम समय
हरी खाद की फसल से अधिकतम कार्बनिक पदार्थ एवं नत्रजन प्राप्त करने हेतु एक विशेष अवस्था पर ही पलटाइ करना चाहिए। अतरू इन फसलों को 30-45 दिन अवधि में पलटना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए की पलटने के समय पौधे नरम हो और फूल आने से पहले ही फसल पलट दी जाये।

जब फसल की बढ़वार अच्छी हो गयी हो तथा फूल आने अपघटन में अधिक समय लगता है साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इसके बाद लगायी जाने वाली फसल में आधार नत्रजन की मात्रा नहीं दी जानी चाहिए।
मृदा एवं जलवायु की विभिन्न दशाओं के अनुसार हरी खाद की फ़सलों की औसत उत्पादकता एवं उनके उपयोग से मृदा में निम्नानुसार जीवांश पदार्थ एवं नाइट्रोजन का योगदान संभावित होता है।

हरी खाद फसल के आवश्यक गुण
1. फसल में वानस्पतिक भाग अधिक व तेजी से बढ़ने वाली हो।
2. फसलों की वानस्पतिक भाग मुलायम और बिना रेशे वाली हो ताकी जल्दी से मिट्टी मे मिल जायें।
3. फसलों की जड़े गहरी हो ताकी नीचे की मिट्टी को भुरभुरी बना सके और नीचे की मिट्टी के पोषक तत्व ऊपरी सतह पर इकटठा हो।
4. फसलों की जड़ो में अधिक ग्रंथियां हो ताकि वायु के नाइट्रोजन को अधिक मात्रा में स्थिरीकरण कर सकें।
5. फसलों का उत्पादन खर्च कम हो तथा प्रतिकूल अवस्था जैसे अधिक ताप, वर्षा इत्यादि के प्रति सहनशील हो।

हरी खाद से लाभ
हरी खाद से मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा से भौतिक दशा में सुधार होता है। नाइट्रोजन की वृध्दि हरी खाद के लिए प्रयोग की गई दलहनी फसलों की जड़ों में ग्रंथियां होती हैं जो नत्रजन का स्थिरीकरण करती हैं। फलस्वरुप नत्रजन की मात्रा में वृध्दि होती है।

एक अनुमान लगाया गया है कि ढैंचा को हरी खाद के रुप में प्रयोग करने से प्रति हेक्टेयर 60 किग्रा. नत्रजन की बचत होती हे तथा मृदा के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में वृध्दि होती है, जो टिकाऊ खेती के लिए आवश्यक है।