टॊसन कुमार साहू, एम. एस. सी. (कृषि), सस्य विज्ञान
शहीद गुंडाधुर कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, जगदलपुर
डॉ. योगेश कुमार मेश्राम, कीट शास्त्र विभाग, कृषि महाविद्यालय, रायपुर
मंजू टंडन, सहायक प्राध्यापक (सस्य विज्ञान),कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, जांजगीर-चाम्पा (छ.ग.)

करेला अपने पौष्टिक एवं औषधीय गुणों के कारण काफी लोकप्रिय सब्जी है।करेला में अनेक औषधीय गुण के अलावा खनिज, प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट के विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ भी पाया जाता है। पाचन, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और गठिया जैसे रोगियों के लिए करेला बहुत लाभकारी होता है इसलिए करेला के बीजों से दवाईयां भी बनाई जाती है। करेला से सब्ज़ी के अलावा अचार और जूस भी बनाया जाता है।

भूमि का चयन
करेला की सफलतापूर्वक खेती बलुई दोमट ( सैण्डी लोम ) तथा मटासी मृदा में की जा सकती है । हल्दी भुरभुरी जीवांश युक्त मृदा , जहाँ पानी का जमाव न होता हो , इस फसल के लिये उपयुक्त है । इस फसल को उगाने हेतु खेत में पानी के निकास के समुचित व्यवस्था करना आवश्यक है । करेला की खेती के लिये 6-7 पी. एच . मान वाली मृदा योग्य पाई गई है ।

खेत की तैयारी
करेले की फसल की बुआई से पहले जमीन की अच्छी तरह से जुताई की जाती है। इसके बाद पाटा लगाकर समतल किया जाता है। इसके बाद लगभग दो-दो फीट पर क्यारियां बनाएं। इन क्यारियों की ढाल के दोनों ओर लगभग 1 से 1.5 मीटर की दूरी पर बीजों की रोपाई की जाती है।

बुआई का समय
  • गर्मी के मौसम में जनवरी से मार्च तक इसकी बुआई की जाती है।
  • बारिश के मौसम में जून से जुलाई के बीच की जाती है।

बीज दर
6 - 7 किलोग्राम / हेक्टेयर

उन्नत किस्में
पूसा विशेष , पूसा दो मौसमी , अर्का हरित , श्रेया , झालरी , एम.सी. - 84

बीजोपचार
बुवाई से पहले बीजों को बाविस्टीन (2 ग्रा प्रति किलो बीज दर से) के घोल में 18-24 घंटे तक भिगाना चाहिए। वहीं बुवाई के पहले बीजों को निकालकर छाया में सुखा लेना चाहिए।

पौध अंतरण-
  • कतार से कतार- 1-2 (मीटर)
  • पौधे से पौधे की दूरी- 0.5-0.6 (मीटर)
खाद एवं उर्वरक 
  • नाइट्रोजन-75 (कि.ग्रा.) /हेक्टेयर
  • स्फूर-60 (कि. ग्रा.)/ हेक्टेयर
  • पोटाश-60 (कि. ग्रा.)/ हेक्टेयर

उर्वरक देते समय ध्यान रखें की नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा स्फूर एवं पोटाश की पूरी मात्रा बोवाई के समय देना चाहिए। शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा टाप ड्रेसिंग के रूप में बोवाई के 30-40 दिन बाद देना चाहिए। फूल आने के समय इथरेल 250 पी. पी. एम. सांद्रता का उपयोग करने से मादा फूलों की संख्या अपेक्षाकृत बढ़ जाती है, और परिणामस्वरूप उपज में भी वृद्धि होती है। 250 पी. पी. एम. का घोल बनाने हेतु (0.5 मी. ली.) इथरेल प्रति लिटर पानी में घोलना चाहिए करेले की फसलों को सहारा देना अत्यंत आवश्यक है।

मंडप बनाकर फसलों को सहारा दिया जाता है– सस्ते बांस , जिनकी ऊँचाई लगभग 1.5 मीटर होती है , उनका उपयोग करें । इन बांसों को पौधों की लाइन में 3-4 मीटर की दूरी पर गाड़ देते हैं । सभी बांसों के ऊपरी हिस्सों में तार बांधकर एक - दूसरे से जोड़ा जाता है । इन तारों के बीच में नारियल की रस्सी इस प्रकार से बांधते हैं कि एक जाल सा बन जाता है । पौधों के पास अरहर के सूखे पेड़ गाड़ कर बेल को सुतली या रस्सी के सहारे मण्डप पर चढ़ा देते हैं ।


सिंचाई व्यवस्था 
बारिश में बुवाई करने पर इसमें कम सिंचाई से भी काम चल जाता है लेकिन गर्मी में इसकी समय-समय पर सिंचाई अवश्य करनी चाहिए। सिंचाई करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि खेत में पानी का जमाव नहीं हो। इसके लिए खेत में नालियां इस तरह बनानी चाहिए कि भूमि में नमी बनी रहे लेकिन खेत में जल का ठहराव नही हो पाए।

निराई-गुड़ाई
फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए 2-3 बार निराई-गुड़ाई करनी पड़ती है। सामान्यत: पहली निराई बुवाई के 30 दिन बाद की जाती है। बाद की निराई मासिक अंतराल पर की जाती है।

फसल की सुरक्षा

रैड बीटल–यह हानिकारक कीट है, जो करेला पर प्रारम्भिक अवस्था पर लगता है। यह कीट पत्तियों को खा कर पौधे की बढ़ाव को रोकता है। इसकी सूंडी खतरनाक होती है, यह करेला के पौधे की जड़ों को काटकर फसल को नष्ट कर देती है।

रोकथाम– रैड बीटल से करेले के फसल की सुरक्षा हेतु पतंजलि निम्बादी कीट रक्षक का प्रयोग प्रभावि है। 5 लीटर कीटरक्षक को 40 लीटर पानी में घोलकर, सप्ताह में दो बार छिड़काव करें। इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर कीटनाशी जैसे प्रोफेनोफोस 40% + साइपरमेथ्रिन 4% ईसी 35-40 मिली/ पंप या डाइमेथोएट 30% ईसी 1 मिली/लीटर की दर से 10 दिनों के अन्तराल पर पर्णीय छिड़काव करें ।

प्रमुख रोग

1.पाउडरी मिल्ड्यू रोग– यह रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएटम के कारण होता है। इसकी वजह से करेले की बेल एंव पत्तियों पर सफेद गोलाकार जाल फैल जाता है, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाता है। इस रोग में पत्तियां पीली हो जाती है और फिर सूख जाती है।

जैविक उपचार – इस रोग से करेला की फसल को सुरक्षित रखने के लिए 5 लीटर खट्टी छाछ लें, उसमें 2 लीटर गौमूत्र और 40 लीटर पानी मिलाकर, छिड़काव करते रहना चाहिए। प्रति सप्ताह एक छिड़काव करें लगातार तीन सप्ताह तक छिड़काव करने से करेले की फसल पूरी तरह सुरक्षित हो जाती है।

रासायनिक उपचार - रोग की रोकथाम हेतु कार्बेन्डाजिम 50% डब्लू.पी या एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 23% एस सी का उचित मात्रा से छिड़काव करे।

2.मोजेक विषाणु रोग – यह रोग विशेषकर नई पत्तियों में चितकबरापन और सिकुड़न के रूप में प्रकट होता हैं। पत्तियां छोटी एवं हरी-पीली हो जाती हैं। संक्रमित पौधे का ह्नास शुरू हो जाता हैं और उसकी वृद्धि रूक जाती हैं। इसके आक्रमणसे पर्ण छोटे और पत्तियों में बदले हुए दिखाई पड़ते हैं। कुछ पुष्प गुच्छों में बदल जाते हैं ग्रसित पौधा बौना रह जाता हैं और उसमें फल बिल्कुल नहीं होता हैं।

उपचार- इस रोग की नियंत्रण के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं हैं लेकिन विभिन्न उपायों के द्वारा इसको काफी कम किया जा सकता हैं। खेत में से रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। इमिडाक्लोरोप्रिड 0.3 मिली/लीटर का घोल बनाकर दस दिन के अन्तराल में छिड़काव करें।

3.एंथ्रेक्वनोज रोग – करेला फसल में यह रोग सबसे अधिक पाया जाता है। इस रोग से ग्रसित पौधे में पत्तियों पर काले धब्बे बन जाते हैं, जिससे पौधा प्रकाश संश्लेषण क्रिया में असमर्थ हो जाता है, फलस्वरुप पौधे का विकास अच्छी तरह से नहीं हो पाता।

जैविक उपचार– रोग की रोकथाम हेतु एक एकड़ फसल के लिए 10 लीटर गौमूत्र में 4 किलोग्राम आडू पत्ते एवं 4 किलोग्राम नीम के पत्ते में 2 किलोग्राम लहसुन को उबाल कर ठण्डा कर 40 लीटर पानी में इसे मिलाकर छिड़काव करने से यह रोग पूरी तरह फसल से समाप्त हो जाता है।

रासायनिक उपचार - रासायनिक उपचार में एज़ोक्सिस्ट्रोबिन 23% एस सी या कार्बेन्डाजिम 12% + मैंकोजेब 63% डब्लू.पी का उचित मात्रा में छिड़काव करें।

4.चूर्णिल आसिता – रोग का लक्षण पत्तियां और तनों की सतह पर सफेद या धुंधले धुसर दिखाई देती हैं। कुछ दिनों के बाद वे धब्बे चूर्ण युक्त हो जाते हैं। सफेद चूर्णी पदार्थ अंत में यमूचे पौधे की सतह को ढ़ंक लेता हैं। जो कि कालान्तर में इस रोग का कारण बन जाता हैं। इसके कारण फलों का आकार छोटा रह जाता हैं।

उपचार- इसकी रोकथाम के लिए रोग ग्रस्त पौधों को खेत में इकट्ठा करके जला देते हैं। रासायनिक फफूंदनाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 1/2 मिली/लीटर या माइक्लोब्लूटानिल का 1 ग्राम/10 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर सात दिन के अंतराल पर छिड़काव करें।

करेले की तुड़ाई – करेला बोने के बाद लगभग 60 से 75 दिन में फसल तैयार हो जाती है। फसल तैयार होने के बाद फलों की तुड़ाई मुलायम एवं छोटी अवस्था में ही कर लेनी चाहिए। फलों को तोड़ते समय ध्यान देना चाहिए कि करेले के साथ डंठल की लम्बाई 2 सेंटीमीटर से अधिक होनी चाहिए। इससे फल अधिक समय तक टिके रहते हैं। करेले की तुड़ाई सुबह के समय करनी चाहिए।

उपज – 150-175 क्विं/ हेक्टेयर