डॉ. लता जैन, डॉ. विनय कुमार एवं सूरज वारे
आईसीएआर- राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान, बरोंडा, रायपुर, छत्तीसगढ़

पशुओं के थन के रोग को थनैला या स्तनशोथ कहते हैं। यह अयन अर्थात थन को प्रभावित करने वाला संक्रामक रोग है जो समस्त पशु प्रजातियों के मादा पशुओं जैसे की गाय, भैंस, भेड़ बकरी, सुअर आदि पशु में पाई जाती है जो अपने बच्चों को दूध पिलाते हैं। थनैला दुधारू पशुओं में होने वाली एक प्रमुख बीमारी है जो डेयरी उद्योग को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। अतः आर्थिक दृष्टिकोण से इस रोग का बहुत ही महत्व हैं । इस बीमारी से भारतवर्ष में 60 प्रतिशत से अधिक गाये, भैंसे और बकरी पीड़ित है। थनैला रोग से पशु की जान को कोई खतरा नहीं होता है लेकिन इस रोग से प्रभावित पशु में 15% तक दुग्ध उत्पादन में कमी हो जाता है, जिससे पशुपालक को काफी नुकसान होता है।

थनैला रोग होने के कारण
  • यह मादा पशुओं में जीवाणु , विषाणु , फफूंद अथवा माइकोप्लाज्मा के संक्रमण से होने वाला रोग हैं । गौवंशी एवम् भैंसों में यह प्रायः स्टैफिलोकोक्कस आँरियस , स्ट्रेपटोकोक्कस एग्लैक्सिया, कोरिनीबैक्टीरियम पायोजेनिस, माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरक्लोसिस, एशेरिशिया कोलाई आदि अनेक जीवाणु के कारण होता हैं। ये जीवाणु गंदे वातावरण , पशु के अंदर, थनों के त्वचा पर या दूध निकलने वाली मशीन के अंदर अधिक मात्रा में रहते है ।
  • इसके अलावा चोट तथा मौसमी प्रतिकूलताओं के कारण भी थनैला हो जाता हैं।
  • रोग का प्रसारण संक्रमित पानी बिछावन , उपयोग में लाने वाले उपकरण तथा दूध दोहने वाले के हाथों से हो सकता है ।
  • पशु बाड़े में पाई गई अस्वच्छता, फर्श की नियमित रूप से साफ-सफाई न करने से, थन पर गोबर लगने, यूरिन अथवा कीचड़ का संक्रमण होने, दूध दोहने के समय साफ-सफाई का न होना या गलत तरीके से दूध दुहने से इस रोग की संभावना बढ़ती है ।
  • पशुओं के अयन या थन में चोट लगने, दूध पीते समय बछड़े या बछिया का दांत लगने से भी यह बीमारी हो जाती है ।
  • समय पर दूध निकालने में देरी के कारण तथा अपूर्ण दूध निकलना पशु को रोग के प्रति संवेदनशील बनाते हैं ।
  • वयस्क तथा ज्यादा दूध देने वाले पशु इस रोग से अधिक प्रभावित होते है ।
  • गौरतलब है कि जब मौसम में नमी अधिक होती है या वर्षाकाल का मौसम हो, तब इस रोग का प्रकोप और भी बढ़ जाता है।
  • पिछले पैरों के ज्यादा बढ़े हुए नाखूनो, खुरों का टेढ़ामेढ़ा बढ़ना तथा दो खुरों के बीच मे जख्म होने से भी यह रोग होने की संभावना होती है।
  • जेर अटकने का इतिहास एवं बच्चादानी में इन्फेक्शन होने से भी यह रोग होता है।
  • रोजाना के आहार में मिनरल्स की कमी जैसे कोबाल्ट, कॉपर, फॉस्फोरस, सेलेनियम इत्यादि होने से भी होता है।
  • थनैला रोग संक्रमण तीन चरणों में होता है- सबसे पहले रोगाणु थन में प्रवेश करते हैं, इसके बाद संक्रमण उत्पन्न करते हैं तथा बाद में पशु के थन में सूजन पैदा करते हैं।

थनैला रोग के लक्षण
लक्षण के अधार पर यह तीन तरह का होता है जो कि इस प्रकार है-

1. तीव्र थनैला
  • इस अवस्था में रोग के लक्षण बहुत कम समय में प्रकट होते है।
  • इसमें पशुओं को तेज बुखार , जुगाली बंद करना तथा थन व अयन के एक या अधिक भागों में सूजन आ जाता है तथा छूने पर गर्म, व लाल मालूम होता है।
  • यह रोग दुधारू पशुओं में किसी भी समय एवं ब्यात की किसी भी अवस्था में हो सकता है । ब्यात के बाद प्रथम सप्ताह में ही रोग का पता चल जाता है ।
  • पशु खाना-पीना छोड़ देता है एवं अरूचि से ग्रसित हो जाता हैं।
  • दुहाई के समय गाय छटपटाने लगती है ।
  • इस रोग में थनों से गाढ़ा हल्का पीला खून मिला हुआ द्रव निकलता है जो थन को खींचने पर कठिनाई से बाहर निकलता है।
  • कभी - कभी यह फोड़े का रूप भी ले लेता है जो बाहर की तरफ फूट जाता है।
  • यह ज्यादा गर्मी तथा नमी के मौसम में होता है और थन ज्यादा खराब हो सकता है ।

2. कम तीव्र थनैला
  • यह अवस्था पहली अवस्था से कम घातक होती है।
  • इस अवस्था के लक्षण ज्यादा प्रकट नहीं होते तथा सूजन भी बहुत कम पायी जाती है।
  • कभी - कभी थनों से पीला द्रव भी निकलता है । उसमें दूध के थक्के खून एवं पीभ (पस) भी दिखने लगते है।
  • दूध उत्पादन अचानक से कम हो जाता है

3. दीर्घकालीन थनैला
  • इस अवस्था में रोग के लक्षण धीरे - धीरे प्रकट होते हैं
  • इसकी पहली पहचान यह है कि दूध में छोटे - छोटे बलवजे आने लगते हैं तथा बाद में दूध पतला पड़ जाता है और बलवजे भी ज्यादा आने लगता है।
  • पहले थन बड़ा तथा सख्त मालूम होता है ।
  • यह अवस्था काफी समय तक चलती है तथा बाद में छूने पर गर्म लगता है तथा पशु को दर्द होता है।
  • दूध का रंग मटमैला, पीला, गुलाबी, लाल या हरा होना। दूध से दुर्गन्ध आना।
  • दूध में फैट की मात्रा हमेशा कम ही रहती है।
  • विकारग्रस्त थन से छेने के पानी जैसा, फटे दूध की तरह दूध के साथ छोटा-छोटा थक्का निकलता है, या दही की तरह जमा दूध निकलना । कभी-कभी रक्त के छोटे-छोटे थक्के और पीभ (पस) भी दिखाई पड़ते है और कभी-कभी थन से पानी जैसा पदार्थ निकलता है, अंततः दुध उत्पादन पूरी तरह बंद हो जाता है।
  • लक्षण प्रकट होते ही दूध की गुणवत्ता खराब हो जाती है। अयन के प्रभावित हिस्से से प्राप्त दूध में भौतिक एवं रासायनिक परिवर्तन हो जाता है।
  • कभी कभी थनों में गाठे पड़ना एवं रोगग्रस्त थनों का सिकुड़ जाना अथवा छोटा हो जाना भी शामिल होता हैं।
  • रोग का समय पर समुचित उपचार न हो तो थन की सूजन बढ़ कर सख्त हो जाती है और थन लकड़ी या पत्थर की तरह कठोर होकर सुख जाता है।
  • अलाक्षणिक या उपलाक्षणिक प्रकार के रोग में थन व दूध बिल्कुल सामान्य प्रतीत होते हैं लेकिन प्रयोगशाला में दूध की जाँच द्वारा रोग का निदान किया जा सकता है।


रोग परीक्षण
अलाक्षणिक या उपलाक्षणिक प्रकार के रोग में थन व दूध बिल्कुल सामान्य प्रतीत होते हैं लेकिन प्रयोगशाला में दूध की जाँच द्वारा रोग का पता किया जा सकता है।

  • सामान्य दूध का पीएच 6.0 से 6.8 परंतु थनैला रोग से युक्त दूध का पीएच 7.4 हो जाता है।
  • सामान्यतः दूध में 0.12 प्रतिशत सोडियम क्लोराइड होता है लेकिन थनैला रोग से पीड़ित पशु के दूध में इसकी मात्रा 1.4% या अधिक हो जाती है।
  • स्ट्रिप कप जाँच
  • कैलिफ़ोर्निया मेस्टाइटिस परिक्षण द्वारा जाँच
  • संदेह की दृष्टी में दूध का कल्चर एवं सेंसिटिविटी परिक्षण
  • दूध की देहिक कोशिका गणना जाँच
  • मेथिलीन ब्लू रिडक्शन जाँच

उपचार
थनैला रोग का उचित व कारगर उपचार शुरुआती / प्रारम्भिक अवस्थाओं में ही संभव है। अन्यथा रोग के बढ़ जाने पर थन को बचा पाना मुश्किल हो जाता है। इस रोग से बचने के लिये दुधारु पशु के दूध की जाँच समय पर करवा कर जीवाणुनाशक औषधियों द्वारा उपचार पशु चिकित्सक द्वारा करवाना चाहिए। यह अत्यन्त आवश्यक है कि उपचार पूर्णरूपेण किया जाये, बीच में न छोडें। इससे बचने के लिए दुधारु पशु के दूध की जाँच समय पर करवा कर जीवाणुनाशक औषधियों द्वारा उपचार पशु चिकित्सक की सलाह द्वारा करवाना चाहिए।

एंटीसेप्टिक औषधियाँ
  • 1: 1000 एक्रीफ्लेविन घोल को थन के अंदर इंजेक्शन देने से लाभ होता है।
  • सिप्रोफ्लाक्सासिन बोलस खिलाने से आशातीत लाभ होता है।
  • मैंस्टोडिन स्प्रे या विसपरेक स्प्रे का छिड़काव करने पर सूजन और दर्द कम हो जाता है।

प्रतिजैविक औषधियाँ
  • थनैला रोग को ठीक करने के लिए एनरोफ्लाक्सासिन, पेनिसिलिन, अम्पिसिलिन, एमोक्सीसिलीन, जेंटामाइसिन, सीफोपेराजान+सलबैकटम, पेंडिस्ट्रिन, मेस्टीवर्क, मेस्टीसिलिन आदि प्रतिजैविक या एंटीबायोटिक्स अत्यंत उपयोगी एवं सबसे कारगर है। इन दवाइयों को कुछ कम्पनिया विभिन्न नामो से बाज़ार में बेचे जाते है। अम्पिसिलिन और क्लोक्सासिलिन दवाईयां प्लास्टिक सिरिंज में बाजार में मिलता है, इसे धीमी के रास्ते थन में चढ़ाया जाता है। परंतु कोई भी औषधि या प्रतिजैविक औषधि खिलाने से पूर्व पशु चिकित्सक से सलाह अवश्य लें।
  • प्रायः यह औषधियां थन में ट्‌यूब चढा कर तथा साथ ही मांसपेशी में इंजेक्शन द्वारा दी जाती है। थन में लगाने का लिए मलहम भी उपयोग किया जाता है ।
  • एंटीबायोटिक औषधि के साथ लेवेमीसोल का एक इंजेक्शन भी लगाया जाता है, जिससे थनैला रोग के जीवाणुओं के विरुद्ध जानवरो में प्रतिरोधक शक्ति पैदा होती है।
  • विटामिन ऐ, सी, ई एवं सेलिनियम का इंजेक्शन भी उपयोग किया जाता है जो की थनैला रोग में काफी फायदेमंद होता है।

रोकथाम
  • यह रोग अत्यधिक कुप्रबंधन से फैलता है, अत: ग्वालों के हाथों, कपड़ों , दूध निकालने वाली मशीनों, बर्तनों, पशुशाला, तथा अयन की स्वच्छता पर विशेष ध्यान देकर बचाव किया जा सकता है।
  • रोग यदि फैल रहा हो तो रोगी तथा स्वस्थ पशुओं में अलगाव की विधि अपनानी चाहिए।
  • थन अथवा अयन पर लगी हुई चोटों का अतिशीघ्र उपचार करना चाहिए
  • एक भी पशु की रोग की आशंका होने पर सभी दुधारू पशुओं के दूध का परीक्षण करना चाहिए।
  • थनैला की आशंका होते ही तत्काल उसका उपचार करना जरूरी है अन्यथा यह बीमारी चारों थनों को संक्रमित कर पशु को हमेशा के लिए बेकार कर सकती है। कभी-कभी थनैला के साथ अयन में क्षय रोग के जीवाणु प्रविष्ट होकर इसे और भी जटिल बना देते हैं।

बचाव के उपाय
इस बीमारी का टीका ना होने के कारण रोकथाम के निम्नलिखित उपायों पर समुचित ध्यान देना चाहिए —

1. थनों को बाहरी चोट लगने से बचाएं ।

2. पशु घर के फर्श को सूखा रखें, समय-समय पर चूने का छिड़काव करें और मक्खियों पर नियंत्रण करें। दूध दोहने के लिए पशु को दूसरे स्वच्छ स्थान पर ले जाएं।

3. दूध दोहन से पहले थनों को खूब अच्छी तरह से साफ पानी से धोना ना भूले उसके पश्चात पोटेशियम परमैंगनेट 1:10000 के घोल से हाथ तथा थन धोकर दूध निकालने से पशु को यह रोग लगने की संभावना कम होती है ।

4. दूध दुहने से पूर्व साबुन से अपने हाथ अच्छी तरह से धो लें।

5. दूध जल्दी से और एक बार में ही दोहन करें अधिक समय न लगाएं ।

6. थनैला बीमारी से ग्रस्त थन का दूध सबसे अंत में अलग बर्तन में दोहे तथा उसे उपयोग में ना लाएं।

7. घर में स्वस्थ पशुओं का दूध पहले और बीमार पशु का दूध अंत में दोहे।

8. दूध दोहन के पश्चात थनों को कीटाणुनाशक धोल जैसे कि आयोडोफोर या पोटेशियम परमैंगनेट के घोल में डुबाएं या घोल का स्प्रे करें।

9. दूध दोहने के बाद थन नली (टीट कैनाल) कुछ देर तक खुली रहती है व इस समय पशु के फर्श पर बैठ जाने से रोग के जीवाणु थन नली के अंदर प्रवेश कर बीमारी फैला सकते हैं। अतः दूध दोहने के तुरंत बाद दुधारू पशुओं को पशुआहार दें जिससे कि वह कम से कम आधा घंटा फर्श पर न बैठे ।

10. दुधारू पशुओं के दूध की समय-समय पर (कम से कम माह में एक बार ) जांच करते रहें।

11. दूध सूखते ही थनैला रोग से बचाने वाली औषधि थनों में अवश्य चढ़ाएं।

12. पशु को विटामिन ई के साथ सेलेनियम लवण खिलाने से थनैला के प्रकोप को कम किया जा सकता है।

13. उपचार और परामर्श के लिए नजदीकी पशु चिकित्सक से तत्काल सलाह लेनी चाहिए।

14. थनैला ग्रसित पशु के दूध का उपचार के दौरान तथा उपचार के समाप्त होने के कम से कम 4 दिन बाद तक ना तो उपयोग में लाएं और नहीं विक्रय करें क्योंकि इस दूध के पीने से मनुष्यों में गले व पेट की बीमारियां हो सकती हैं।

15. सदैव पशु चिकित्सा को परामार्श करें । पशु का इलाज़ स्वयं न करें ।