आँचल जायसवाल, कृषि प्रसंसकरण एवं खाद्य अभियांत्रिकी
पूर्वी तिवारी, कृषि मशीनरी एवं शक्ति अभियांत्रिकी
स्वामी विवेकानन्द कृषि अभियांत्रिकी एवं प्रौद्योगिकी 
महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, रायपुर (छ.ग.)

धान-सह मछलीपालन एक अभिनव कृषि प्रणाली है। इसमें धान मुख्य उद्यम है और आय को सुरक्षित करने के लिए मछली की अंगुलिकाओं को अतिरिक्त आय साधन के रूप में अपनाया जाता है। धान-सह-मछलीपालन से तात्पर्य धान के साथ मछली का अतिरिक्त उत्पादन प्राप्त करने के लिए सिंचित धान के खेतों में धान और मछली का एक साथ उत्पादन करने से है। इस खास तरह की खेती को फिश-राइस फार्मिंग कहा जाता फिश-राइस फार्मिंग चीन, बांग्लादेश, मलेशिया, कोरिया, इंडोनेशिया, फिलिपिंस, थाईलैंड में हो रही है। इसके साथ ही भारत में कई इलाकों में फिश-राइस फार्मिंग की मदद से किसान दोगुनी आमदनी कर रहे हैं। धान के साथ मछलीपालन, किसानों की अधिक आय के साथ पैदावार में सुधार में सहायक है। यह पद्धति रोजगार के अवसर पैदा करती है और पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ता हैं जो उनकी खाद्य सुरक्षा के लिये भी आवश्यक है।

धान संग मतस्यपालन की तकनीक
स्थान का चयन धान-सह-मछलीपालन के लिए कम ढलान वाले क्षेत्र का चयन किया जाना चाहिये जहां पानी धीमा बहता हो और जरूरत के समय उपलब्ध हो।

मृदा गुणवत्ता
धान के खेत की मृदा जैविक खाद से भरपूर होनी चाहिए और इसमें जलधारण की उच्च क्षमता होनी चाहिये। आमतौर पर मध्यम बनावट वाली मृदा जैसे कि सिल्टी क्ले या सिल्टी क्ले लोम धान-सह-मछलीपालन या झींगा पालन के लिए सबसे उपयुक्त मृदा है।

मेड़ निर्माण
धान-सह-मछलीपालन के लिए चुने गए भूखंडों को फरवरी में उनके तटबंध को ऊपर उठाकर तैयार किया जाता है। धान के खेत मजबूत बांध की वजह से मछलीपालन के लिए उपयुक्त होते हैं। ये पानी के रिसाव को वांछित गहराई तक रोकते हैं और बाढ़ के दौरान पाली गई अंगुलिकाओं या मछलियों के पलायन पर भी रोक लगाते हैं। मैदान की भौगोलिक और स्थलाकृति के कारण ऊंचाई बनाने के लिए डाइक को 1.0-1.5 मीटर तक पर्याप्त ऊंचा और काफी मजबूत बनाना चाहिए।

खेत को समतल करना
मेड़ निर्माण कार्य पूरा होने के बाद, धान के खेतों का आधार हल चलाकर और लकड़ी के लट्ठे की मदद से समतल किया जाता है। फरवरी-मार्च से निराई की जाती है। इसके बाद सिंचाई के लिए आसान मार्ग, भंडारण और पानी की निकासी के लिए जल निकास द्वार बनाए जाते हैं। जल प्रबंधन के लिए धान के खेत के बीच में 1.5-2.0 मीटर गहरे चैनल बनाए जाते हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि लगभग सभी धान के खेतों में एक या दो इनलेट और एक से अधिक आउटलेट हों। एक बार ड्रेसिग का काम खत्म हो जाने के बाद, धान का खेत धान की बिजाई और मछली के बीज के स्टॉकिंग के लिए तैयार हो जाता है। मछली के बीज का संग्रहण धान के अंकुर के प्रत्यारोपण के 10-15 दिनों के बाद किया जाता है।

धान के खेत में पानी भरना और निराई
जून-जुलाई में रोपाई के बाद धान के खेत में पानी भर दिया जाता है। उचित पिफल्टरिंग की अनुमति देने के लिए पानी के स्तर को न्यूनतम 5 सें.मी. रखने पर ध्यान रखा जाता है। धान के परिपक्व होने तक पानी का स्तर 30-50 सें.मी. गहरा रखा जाना चाहिये। खरपतवार नियंत्राण में उपजे हुए धान के भूखंडों के दोनों ओर के खरपतवारों को श्रमिको द्वारा उखाडकर सप्ताह में दो या तीन बार खरपतवार नियंत्रित रखा जाता है। खरपतवार नियंत्राण की रासायनिक विधि को प्रयोग में नहीं लेना चाहिये।

धान के खेत में खाद डालना
धान-सह-मछलीपालन के लिए उपयोग किए जाने वाले खेत में पशु से प्राप्त खाद जैविक अपशिष्ट पर आधारित होती है। इसमें पोल्ट्री ड्रॉपिंग, सूकर अपशिष्ट, गाय के गोबर और पौधों के अपशिष्ट जैसे-धान की भूसी, डिस्टिलरी के अपशिष्ट उत्पाद तथा राख इत्यादि का उपयोग किया जा सकता है। धान के खेत में गाय के गोबर की खाद का प्रयोग 10 कि.ग्रा./50 मीटर की दर से किया जाता है।

मछली बीज के स्रोत
सामान्य रूप से लगभग 1-2 महीने की अवधि के लिए छोटे आकार के तालाबों में पालन करके पर्याप्त मात्रा में मछली के बीज ( मत्स्य अंगुलिका) का उत्पादन किया जाता है और इसे सीधे धान के खेतों में मछलीपालन के लिए उपयोग में लेते हैं।

मछली बीजों का संचयन
धान के खेत में मछली बीज को डालने से पहले नर्सरी से मुख्य धान के खेतों में धान की रोपाई जून-जुलाई में की जाती है। धान की जडों को मजबूत करने के लिए धान को दो सप्ताह के लिए छोड़ दिए जाने के बाद, अंगुलिका आकार का मछली बीज 2500 नग/हैक्टेयर क्षेत्रफल में डाला जाता है। मछलियों के उचित उत्पादन के लिए कतला, रोहू, एवं मृगल प्रजाति की मछलियां 3ः3ः4 के अनुपात में डाली जानी चाहिए। मछलीपालन की अवधि 3-6 महीने होती है और धान की फसल परिपक्वता अवधि 5-7 महीने होती है।

अंगुलिकाओं का संचयन
शुरूआत में 20 ग्राम से 35 ग्राम तक की मछली की अंगुलिकाओं को धान के खेत में पानी भरने के बाद क्रमशः 2000 अंगुलिकाएं/हैक्टेयर की दर से रखा जाता है।

पानी की गुणवत्ता की जांच करना जल के विभिन्न गुणवत्ताकारक मासिक अंतराल पर मापे जाने चाहिये। पानी की उचित उत्पादकता एवं प्राकृतिक आहार की प्रचुरता के लिये सेची डिस्क से मापी गई जल पारदर्शिता 12-25 सें.मी. अच्छी मानी जाती है। जल का पी-एच मान 7.5-8.5 मत्स्य उत्पादन के लिये अच्छा माना जाता है। पानी विद्युत की चालकता को एक मल्टी-रेंज चालकता मीटर से मापा जाना चाहिये। उत्पादक जल में विद्युत चालकता 200/µs/सें.मी. से अधिक होनी चहिये। घुलित ऑक्सीजन ;डीओ को भी घुलित ऑक्सीजन मीटर से मापा जाता है। मछलियों की उचित बढवार के लिये इसकी मात्रा 5-6 पीपीएम/लीटर होनी चाहिये।

मछलियों का रखरखाव
मछलियों को साधारणतः शारीरिक भार का 3-4 प्रतिशत प्रतिदिन की दर से परिपूरक आहार दिया जाता है। इसके लिए चावल की भूसी और मूंगपफली या भीगी हुई सरसों की खली बराबर मात्रा में मिलाकर आहार के रूप में दी जाती है। तालाब में मछलियों की वृद्धि दर की निगरानी हाथ के जाल का उपयोग करके मछली संग्रहण से की जानी चाहिये। समय पर मछलियों का वजन और माप लिया जाना चाहिये। आहार दरों को तदनुसार समायोजित किया जाना चाहिये। प्रत्येक उप-नमूने से पहले मछली को आकर्षित करने के लिए आहार का उपयोग किया जाना चाहिये।

मछलियों का संग्रहण
धान के खेत में 3-4 महीने की अवधि के लिए मछलीपालन कर 200-300 कि.ग्रा./ हैक्टेयर का उत्पादन और 5-6 महीने की अवधि में मछली का उत्पादन 400-500 कि.ग्रा./ हैक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है। संग्रहण के लिए पहले पानी को आउटलेट पाइप के माध्यम से निकाला जाता है। इस तरह धान के खेत के मध्य में मछलियों और पानी को जमा किया जाता है, जिससे मछलियों को आसानी से पकड़ा जा सकता है। मछली का संग्रहण पूरा होने के बाद धान की कटाई की जाती है। सामान्य रूप से धान की कटाई सितंबर-अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में की जाती है। धान की पैदावार 3500-4500 कि.ग्रा./ हैक्टेयर होती है।

विपणन
धान के खेत से ली जाने वाली मछलियों को स्थानीय बाजार में जिंदा या ताजा स्थिति में बेचा जाता है। बाजार की उच्च मांग के कारण जीवित मछली 150-200 रुपये प्रति कि.ग्रा. और ताजी मछली 120-150 रुपये प्रति कि.ग्रा. बेची जा सकती है।

धान संग मतस्यपालन खेती के फायदे-
  • मिट्टी की सेहत अच्छी रहती है।
  • फसल का उत्पादन बढ़ती है।
  • प्रति यूनिट एरिया पर कमाई अच्छी होती है।
  • उत्पादन में खर्च कम होता है।
  •  फार्म इनपुट की कम जरूरत पड़ती है।
  • किसानों की आमदनी बढ़ती है।
  • केमिकल उर्वरक पर कम खर्च होता है।