आकृति सिंह सिसोदिया, अतिथि शिक्षक
सौमित्र तिवारी
अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय, बिलासपुर (छ.ग.)

सतावर (एस्पेरेगस रेसीमोसस)- सतावर लिलिएसी कुल का आरोही बहुवर्षीय औषधीय पौधा हैं। मूल रूप से यह पौधा एशिया, अफ्रीका एवं ऑस्ट्रेलिया में पाया जाता है। भारत मे सतावर 4000 अक्षांश ऊंचाई पर हिमालय क्षेत्रों में और 1200 मीटर ऊंचाई पर अन्य प्रदेशों में पाया जाता है। सतावर के औषधीय उपयोगों से भी भारतीय काफी पूर्व से परिचित थे। विभिन्न भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में इसका सदियों से उपयोग किया जाता रहा है। सतावर का उपयोग सब्जी एवं दवा दोनो के रूप में किया जाता हैं। मध्य प्रदेश में सतावर साल एवं मिश्रित वनों में पाया जाता जाता है। जिसे वहा पर ‘नार बोझ’ के नाम से पुकारा जाता है। वैसे तो इसकी प्रचुर मात्रा मे प्राप्ति जंगलों से ही होती रही है, परंतु इसकी देश विदेशो में काफी मांग हैं जिसकी पूर्ति हेतु इसके कृषिकरण की आवश्यकता महसूस की जाने लगी हैं अतः मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में इसकी व्यवसायिक खेती की जाने लगी हैं।

वानस्पतिक परिचय
सतावर एक बहुवर्षीय औषधीय पौधा है जो 90– 150 सेमी (3–5 फीट) ऊंचा बढ़ता है, परंतु झुकी हुई और आरोहणशील होती है। जंगलों एवं गृह वातिकाओ में लगाए जाने वाले पौधे 0.9– 1.0 मीटर (30– 35 फीट) तक ऊंचे हो जाते हैं। इसकी शाखाएं पतली और पत्तियां बारीक सुई के समान होती है, जो 1.3– 2.5 सेमी तक लंबी होती है। इसकी शाखाओं पर 1.28 सेमी लंबे और सीधे कांटे होते है। फूल सफेद और गुच्छों में लगते है। फूल छोटे छोटे, गोल और पकने पर लाल रंग के हो जाते है। इसके बीज काले रंग के होते है। इसकी जड़े कंदवत् लंबी, गुच्छों में होती है और एक साथ कई संख्या में होती है औषधीय उपयोग में मुख्यतया इसकी जड़े ही उपयोग की जाती है। सतावर की 22 प्रजातियां भारत में विभिन्न भागों में पाई जाती है जिनमें से तीन प्रजातियां अधिक प्रचलित है; यथा– एसोरेगस रेसीमोसस, एसोरेगस किमि जिवांकस और एसोरेगस रेसीमोसस सबएसी जो क्रमशः हासन (कर्नाटक) दक्षिणी प्राय: द्वीप एवं भोपाल प्रदेश और सिक्किम में पाई जाती है, इनके अतिरिक्त सतावर की एक प्रजाति महासतावरी (एसोरेगस‌‌ सारमेंटोसस) के नाम से जानें जाती है। जिसकी लता अपेक्षाकृत बड़ी होती है। इसके कंद लंबे और संख्या में अधिक होते है। सतावर की अन्य प्रजाति एसोरेगस फिलिसिनस है जो कांटे रहित होती है और मुख्यता हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाती है। सतावर की एक अन्य किस्म सूप व सलाद निर्माण में उगाई जाती है जिसकी शहरो में अधिक मांग है उसे ‘एसोरेगस आफिसीनेलिस’ की संज्ञा दी जाती है। औषधीय उपयोग के लिए एसोरेगस रेसीमोसस नामक प्रजाति को ही उगाया जाता है।

रासायनिक अवयव
सतावर की जड़ों में स्टेरीओडल ग्लाइकोसाइड्स (sterodial glycocedes) , एस्पेराजिन (asparagine), स्पेरागोसाइड ( asparagosides) , फ्लेवोनाइड्स ( flanavoides) पाए जाते है। इनके अतिरिक्त एल्ब्यूमिन युक्त पदार्थ, लवाब सेल्यूलोज (cellulose), चूर्ण, आर्द्रता एवं भस्म पाए जाते है।

उपयोगी भाग

● अपरिपक्व अंकुर

● तना

● जड़

● भाले



सतावर की खेती

जलवायु
शतावरी समशीतोष्ण और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगाया जाता हैं औसत दिन का तापमान 25-30 डिग्री से. और रात में 15-20 डिग्री से. आदर्श होता है। सतावर को पहाड़ी क्षेत्रों में मार्च– मई में उगाया जाता है एवं मैदानी इलाकों में जुलाई– नवंबर में उगाया जाता है ।

मिट्टी और मिट्टी की तैयारी
सफल उत्पादन के लिए अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी आवश्यक है, और रेतीली मिट्टी को भी प्राथमिकता दी जाती है।क्राउन रोट रोग को नियंत्रित करने के लिए अच्छी जल निकासी महत्वपूर्ण है। शतावरी के व्यावसायिक रोपण ऐसी मिट्टी में नहीं की जानी चाहिए जो रेतीली दोमट से भारीक हो।उन जगहों से बचें जहां भारी बारिश के बाद 8 घंटे से अधिक समय तक पानी खड़ा रहता है। इष्टतम पीएच 6.5-7.5 है ।

किस्मों
शतावरी की कई नई किस्में अब उपलब्ध हैं। किस्मों को मोटे तौर पर दो समूहों में बांटा गया है, हरे रंग के भाले के साथ: अधिक लोकप्रिय और मुख्य रूप से ताजा बाजार में उपयोग किया जाता है सफेद या हल्के हरे रंग के शतावरी के साथ – मुख्य रूप से प्रसंस्करण के लिए उपयोग किया जाता है।

पूर्णता
आईएआरआई, नई दिल्ली द्वारा अनुशंसित। यह एक प्रारंभिक, एकसमान, उत्पादक किस्म है, जो उच्च खाद्य मूल्य के साथ स्वादिष्ट है। भाले बड़े, हरे, रसीले और हल्के सिरे वाले होते हैं। औसत उपज 80-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है।

पैदावार
नर पौधे अधिक कुल उपज देते हैं जबकि मादा पौधे बड़े व्यक्तिगत भाले पैदा करते हैं। उपज किस्मों , क्षेत्र, जलवायु और लिंग के रूप में भिन्न होती है। एक हेक्टेयर में औसतन 25-40 क्विंटल भाले पैदा होते हैं।

भंडारण
शतावरी को 2-3 सप्ताह के लिए 95 प्रतिशत सापेक्ष आर्द्रता पर और 0-2 डिग्री सेल्सियस पर भंडारित किया जा सकता है।गीले टिशू पेपर में रखे भाले 13 या 16 दिनों के भंडारण के बाद ताजा और दृढ़ दिखते हैं

औषधीय उपयोग
सतावर भारतीय चिकित्सा पद्धतियों में प्रयुक्त होने वाले प्रमुख औषधिय पौधो में से एक है। यूनानी चिकित्सा पद्धति के अनुसार सतावर गुर्दे एवं यकृत के रोगों को दूर करने वाली है। इसकी जड़ों से अनेकों औषधियों का निर्माण किया जाता है।

● शक्तिवर्धक टानिक– विभिन्न शक्तिवर्धक टानिको के निर्माण में सतावर की जड़ों का उपयोग किया जाता है। जो सामान्य कमजोरी दूर करने शुक्रवधध शुक्र वर्धन शुक्रवर्धन एवं यौनशक्ति बढ़ाने का कार्य करती है। महिलाओं के लिए अनेक औषधियों का निर्माण किया जाता है व महिलाओं में होने वाले बांझपन को भी ठीक करती है।

● दुग्ध वृद्धि हेतु– बच्चो को स्तनपान करने वाली महिलाओं के लिए भी सतावर काफी प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। वर्तमान में इससे संबंधित अनेक औषधियों का निर्माण किया जाता है, जो ना केवल महिलाओं बल्कि गाय भैसो में दूध वृद्धि हेतु काफी उपयोगी सिद्ध हो रही है।

● मानसिक तनाव से मुक्ति हेतु– सतावर की जड़ों से मानसिक तनाव से मुक्ति प्रदान करने हेतु कई औषधियों का निर्माण किया जा रहा हैजो काफी कारगर सिद्ध हो रही है।

● शरीर पीड़ा निवारण हेतु– सतावर की जड़ों का उपयोग गठिया, पेट दर्द, हाथो और घुटने का दर्द, सिर दर्द, पैरोंके तलवों मे दर्द, मूत्र संस्थान से सबंधित रोग, सायटिका, गर्दन के अकड़ आने आदि के निवारण हेतु उपयोग प्रचुर मात्रा में किया जा रहा है।

● पेट संबंधी विकारों को दूर करने हेतु– भूख न लगने और पाचन सुधारने हेतु इसकी जड़ों से टानिको का निर्माण किया जा रहा है।

● अन्य रोग हेतु– विभिन प्रकार के ज्वरो एवं स्नायु तंत्र से संबंधित विकारों को दूर करने हेतु विभिन्न औषधियों का निर्माण किया जा रहा हैं।

● ल्यूकोरिया के उपचार हेतु- सतावर की जड़ों को गाय के दूध में उबाल कर देने से लाभ होता हैं।

निष्कर्ष
सतावर उन लोगों के लिए भी रामबाण साबि‍त होती है, जो अपने बढ़ते वजन से परेशान हैं. इसमें घुलनशील और अघुलनशील फाइबर होते हैं, जो वजन को कम करने में मददगार हैं। सतावर में भरपूर मात्रा में फोलेट होता है. ऐसे में इसके इस्‍तेमाल से बच्‍चे में रीढ़ की हड्डी संबंधी समस्‍या नहीं होती और वह मानसिक समस्‍याओं से भी बचा रहता है। सतावर (शतावरी) की जड़ का उपयोग मुख्य रूप से ग्लैक्टागोज के लिए किया जाता है जो स्तन दुग्ध के स्राव को उत्तेजित करता है। सामान्य तौर पर इसे स्वस्थ रहने तथा रोगों के प्रतिरक्षण के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसे कमजोर शरीर प्रणाली में एक बेहतर शक्ति प्रदान करने वाला पाया गया है। सतावर (शतावरी) की जड़ का उपयोग मुख्य रूप से ग्लैक्टागोज के लिए किया जाता है जो स्तन दुग्ध के स्राव को उत्तेजित करता है। इसका उपयोग शरीर से कम होते वजन में सुधार के लिए किया जाता है तथा इसे कामोत्तेजक के रूप में भी जाना जाता है। इसकी जड़ का उपयोग दस्त, क्षय रोग (ट्यूबरक्लोसिस) तथा मधुमेह के उपचार में भी किया जाता है। सामान्य तौर पर इसे स्वस्थ रहने तथा रोगों के प्रतिरक्षण के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसे कमजोर शरीर प्रणाली में एक बेहतर शक्ति प्रदान करने वाला पाया गया है।