डॉ. निशी केशरी एवं डॉ. के.एन. पाठक
डॉ. राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा,
समस्तीपुर, बिहार, इंडिया

सूत्रकृमि हमारे फसलों के अनदेखे शत्रु हैं जो फसलों के गुण एवं उपज दोनों में अकल्पनीय हानि पहूँचा सकते हैं। ये न केवल स्वयं हानि पहँचाते हैं अपितु अन्य रोग कारक जैसे जीवाणु, विषाणु तथा फफूंद द्रारा पैदा होने वाले रोगों को फैलाते हैं, तथा उनकी संक्रमणता को तीव्र करते हैं। अतः इनकी मिली जुली हानि काफी अधिक हो जाती है।

पादप परजीवी सूत्रकृमियों की अनेक प्रजातियाँ कृषि योग्य मिट्टी में पायी जाती है। इनमें से अनेक पौधों की जड़ों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं तथा कुछ पौधों के ऊपरी भागों पर निर्भर रहते हैं। अधिकतर बिना कोई विशेष लक्षण दिखाये फसल कमजोर हो जाती है। कुछ सूत्रकृमि प्रजातियों के कारण पौधे की जड़ांे अथवा तने, पत्तियों, फूलांे आदि पर धब्बे, सूजन, आकार विकृति आदि विशेष लक्षण दिखाई देते हैं। लगभग सभी प्रकार के उद्यान फसलों की उपज एवं गुणवत्ता कम करके ये सूक्ष्म हानिकारक जीव किसानों के करोड़ो रूपयों की हानि प्रतिवर्ष पहँचाते हैं।

सूक्ष्म आकार, मिट्टी में निवास व अस्पष्ट लक्षणों के कारण सूत्रकृमि एवं उनके द्वारा हानि को किसान ठीक से नहीं पहचानते। बहुत से पढे लिखे लोग, अन्य विषयों के विशेषज्ञ, अफसर तथा राजनीतिज्ञ भी इस विषय मे अनभिज्ञ हैं। हालांकि सूत्रकृमि विज्ञान भारत में कई विश्वविद्यालयों एवं कृषि संस्थानों में पनपा है फिर भी आम जानकारी के लिए और अधिक प्रकाशनों तथा आलेखों की जरूरत है।

सूत्रकृमि एक-संक्षिप्त परिचय
सूत्रकृमि को अंग्रेजी में निमेटोड कहते हैं तथा आम भाषा में यह गोल कृमि के नाम से जाना जाता है। यह छोटे-पतले, खड़ रहित, धागे की तरह के द्विलिंगी जन्तु हैं। संसार में लगभग 1,00,000 सूत्रकृमि प्रजातियाँ हैं, जिनमें मनुष्य केेवल 20,000 से ही परिचित है। इनमे से कई पोषक के लिये जीवाणु, कवक तथा अन्य सूक्ष्म जीवों पर निर्भर है, परन्तु कई प्रजातियाँ पौधों, कीड़ों, मछलियों, पक्षियों, मवेशियों, कुत्तों एवं मनुष्य समेत कई अन्य जीवों में परजीवी के रूप में पाई जाती हैं। ये सागर के असीम गहराई से लेकर पर्वतों की अधिकतम चोटी तक कहीं भी, जहाँ जीवन की संभावना है, वहाँ पाये जाते हैं। पृथ्वी पर कोई भी ऐसा पौधा नही है जो कम से कम एक या दो सूत्रकृमि प्रजातियों से संक्रमित न हो।

केले के जड़गांठ सूत्रकृमि की मादा और अण्डे

केला उद्यान एवं सूत्रकृमि समस्या
बिहार राज्य की जलवायु केले की खेती के लिए उपयुक्त है। केला उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र वर्तमान वैशाली जिला में परम्परागत प्रभेद, चीनिया, चम्पा, मालभोग, अलपान, कंथाली आदि का उत्पादन होता रहा है। इसके अतिरिक्त मुजफ्फरपुर, भागलपुर (नवगछिया एवं बिहपुर), बेगूसराय, पूर्णिया, कटिहार एवं समस्तीपुर में भी ब्यापक रूप से केले की खेती की जाती है, परन्तु कंथाली, मालभोग, चीनियाँ आदि परापरागत प्रभेदों का क्षेत्र निरंतर घटता जा रहा है। इसकी प्रमुख वजहों में एक उखड़ा रोग है जो सूत्रकृमि की वजह से अधिक तीव्रता से पौधों को संक्रमित करता है।

जड़गांठ सूत्रकृमि द्वारा केले में जगांठ

केला की खेती में, खास कर जहाँ एक बार रोपाई के बाद कई सालों तक केला खेत में लगा रहता है, वहाँ सूत्रकृमि समस्या का बहुत महत्व है। सालों साल सूत्रकृमि की जनसंख्या बढ़ती जाती है, जो उस खेत में आने वाले वर्षो  मे केला उत्पादन के हित मे नहीं है। केले की जड़े सफेद, मांसल और अविभाजित होता है जो कन्द से 3-4 मीटर व्यास में और जमीन के अंदर लगभग 1 मीटर तक की पादप परजीवी सूत्रकृमि जड़ों के सामान्य कार्य में अत्यधिक गतिरोध या व्यवधान पैदा करते हैं। फलतः केले के पौधे फफूँद एवं जीवाणुओं के आक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। सूत्रकृमि की 22 जातियाँ तथा लगभग 50 प्रजातियाँ केले की जड़ों से पोषण प्राप्त करती हैं। इनमें से जड़गाँठ सूत्रकृमि, हेलिकोटाइलेंकस, होपलोलाइमस, टाइलेंकोरिंकस आदि प्रमुख परजीवी सूत्रकृमि हैं। कन्थाली एवं मालभोग प्रजातियों में सूत्रकृमि का प्रकोप अधिक पाया गया है।

हानि
सिर्फ सूत्रकृमियों की वजह से केले की फसल को लगभग 10 प्रतिशत की हानि प्रतिवर्ष अनुमानित है। यदि केले में सूत्रकृमि संक्रमण के पश्चात् अन्य रोग पैदा करने वाले कवक या जीवाणु का भी आक्रमण हो जाये तो केले के बगीचे को 50 प्रतिशत से अधिक की हानि विशेष परिस्थिति में हो सकती है।

केलेे में कृमि संक्रमण के लक्षण
जड़गाँठ सूत्रकृमि संक्रमित जड़ों पर छोटे किन्तु अण्डे की आकृति वाली गाँठ दिखाई पड़ती है। यदि इन गाँठो को छोटी चिमटी की सहायता से तोड़ा जाय तो उसके अन्दर गोल थैली के समान फूली कृमि मादा दिखाई देती है। यदि कन्द प्रत्यारोपण की अवस्था ही में इसका संक्रमण हो जाता है तो ऐसे पौधे की बढ़वार घट जाती है। पत्तियां पीली तथा पतली हो जाती हैं।

केले के बिलकारी सूत्रकृमि

पादप परजीवी हेलीकोटाइलेंकस (गोल कृमि) आक्रांत जड़ों पर भूरे घब्बे दिखाई पड़ते हैं। पौधा अन्य रोगों के प्रति अधिक सुग्राही हो जाता है। पनामा विल्ट की बीमारी सूत्रकृमि आक्रांन्त पौधों को अधिक तीव्रता से पकड़ती है। इस रोग से प्रभावित पेड़ों की पत्तियां सफेद-पीली सी दिखती हैं, तथा तेज हवा के झोकों से पेड़ गिर जाता है। जड़ निशान सूत्रकृमि से प्रभावित जड़ों पर लंबे तथा लाल-काले घब्बे दिखाई देते हैं। यदि चाकू से जड़ों को लंबाई में काटा जाये तो जड़ के अन्दर छोटी-छोटी नालियाँ भी दिखाई देती हैं।

केले के बिलकारी सूत्रकृमि द्वारा उखड़ा रोग

बगीचे में अन्तर्वर्ती खेती और सूत्रकृमि का आक्रमण
फल वृक्षो के बाग में शुरू के कुछ वर्षों तक, जब तक पेड़ छोटे रहते हैं, कतारों एवं पेड़ांे के बीच की जगह का सही उपयोग करने हेतु अन्तर्वर्ती फसल लेना आर्थिक दृष्टि से फायदेमन्द तो होता ही है साथ ही भूमि संरक्षण एवं भूमि उर्वराशक्ति में सुधार करने के लिए भी आवश्यक है। अंतर्वर्ती फसलों के देख रेख के साथ-साथ फल वाले वृक्षों की भी स्वाभाविक रूप से देख-रेख होती रहती है।

केले के सूत्रकृमि द्वारा उखडा रोग में पौधे का जड़ से गिर जाना 

फलो के बाग यदि ऐसी जमीन में लगाया गया है, जिसमें पहले से सब्जियों, दलहन या मसाला फसलों की खेती होती रही है तो संभावना बनती है कि इस मिट्टी में जड़ गाँठ सूत्रकृमि और अन्य वाह्य परजीवी कृमियों की संख्या मिट्टी में अधिक हो । इसलिए आवश्यक है कि अन्तर्वर्ती खेती करने के पूर्व मिट्टी में उपस्थित सूत्रकृमियों की संख्या की जाँच प्रयोगशाला में करा ले। यदि सूत्रकृमि की संख्या एक या दो सूत्रकृमि प्रति ग्राम मिट्टी या इससे अधिक हो तब, आप इससे मिर्च, करेला, नेनुआ, मूली, गाजर, पालक, लोबिया, मटर, उड़द, मूँग, खेसारी, अदरक, हल्दी और मेथी आदि की फसल अंतर्वर्ती फसल के रूप में न ले। उपर्युक्त सभी फसलें जड़गाँठ सूत्रकृमि तथा अन्य कृमियो की संख्या बढ़ाने में मददगार होगी। फल वृक्षों की जड़ों में भी सूत्रकृमि संक्रमण बढ़ जाने की संभावना है।

जड़ों के अंदर कोशिकाओं की क्षति

ऐसी अवस्था मे प्याज, लहसुन, सूत्रकृमि रोधी टमाटर की प्रजातियाँ जैसे, हिसार ललित, पंजाब एन.आर. 7, पूसा नियामुक्त, मंगला, कर्नाटक हाइब्रिड, आदि, या घनियाँ, पातगोभी, फूलगोभी को अंतर्वर्ती फसल के रूप मे लिया जा सकता है।

सूत्रकृमि का प्रबंधन

1. गर्मी के दिनो में खेत की गहरी जुताई करें। इसके लिए मई-जून का महीना सर्वाेत्तम है जब तापक्रम 40 डिग्री से. से उपर चला जाता है। 15 दिनों के अंतर पर दो बार जोत कर मिट्टी पलट दें। इससे सूत्रकृमि के अण्डे तथा शिशु कृमि ऊपर चले आयेंगे तथा ताप से नष्ट हो जायेंगे।

2. नर्सरी बेड बना ले फिर उसकी भी गुड़ाई कर मिट्टी पलटें तथा उसके ऊपर सफेद पालीथीन की चादर बिछाएं। पालीथीन की चादरों के किनारों को चारों तरफ से मिट्टी तथा ईटो से ढंक दें। इसको 3 हफ्तों तक छोड़ दें। पालीथीन सूर्य के ताप को 5 डिग्री से. तक बढा देता है। इस अवधि मे अधिकतर सूत्रकृमि मर जाते हैं। ऐसी नर्सरी मे स्वस्थ पौधे पैदा होंगे।

3. यदि सूत्रकृमि संक्रमित जमीन में सूत्रकृमियों की संख्या अत्यधिक है तो मिट्टी में कार्बोफ्यूरान 3 जी नामक दवा का 40 ग्राम/पौधे की दर से उपयोग मिट्टी में बुआई के 90 दिन बाद करें।

4. केले के खेत को 6 महीनों तक खाली छोडने से उनकी संख्या में कमी आती है।

5. रोगग्रसित पौधों को खेतों से हटा दें।

6. गर्म पानी (55 डिग्री से.) में 15-25 मिनट तक प्रकंदों को डुबाकर रखें, फिर लगाएं। इसके लिए बराबर मात्रा में खौलते पानी और ठंढे पानी को मिलाकर इस्तेमाल करें।