मुक्तिलता तिर्की, पीएचडी रिसर्च स्कॉलर
डॉ. खुशबू साहू, सब्जी विज्ञान विभाग
कृषि महाविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)

परिचय
जिमीकंद ‘एरेसी’ कुल का एक सर्वपरिचित पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम अमोर्फोफ्लस कैंपानुलेटस (Amorphophallus companulatus) है। जिमीकंद को अंग्रेजी में एलीफैंट फुट यम (Elephant Foot Yam) के नाम से जाना जाता है। जिसे भारतवर्ष में सूरन, बालुकन्द, अरसधाना, कंद तथा चीनी आदि अनेक नामों से जाना जाता है। इसकी खेती भारत में प्राचीन काल से होती आ रही है तथा अपने गुणों के कारण यह सब्जियों में एक अलग स्थान रखता है। अभी तक जिमीकंद(सूरन) की खेती केवल व्यक्तिगत तौर पर की जाती रही है। लेकिन आज देश के कई किसान ऐसे है जो इसकी खेती करके लाखों रुपए कमा रहे हैं। जिमीकंद में पोषक तत्वों के साथ ही अनेक औषधीय गुण पाये जाते हैं जिनके कारण इसे आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है। जिमीकंद(सूरन) में भरपूर मात्रा में कार्बोहाइड्रेट, खनिज, कैल्शियम, फॉस्फोरस समेत कई तत्व पाए जाते है। इसे बवासीर, खुनी बवासीर, पेचिश, ट्यूमर, दमा, फेफड़े की सूजन, उदर पीड़ा, रक्त विकार में उपयोगी बताया गया है। इसकी खेती हल्के छायादार स्थानों में भी भली-भांति की जा सकती है जो किसानों के लिए काफी लाभप्रद सिद्ध हुआ है।

उपयुक्त जलवायु
जिमीकंद(सूरन) गर्म जलवायु का पौधा है। इसकी खेती के लिए 20 से 35 डिग्रीसेंटीग्रेड का तापमान काफी उपयुक्त होता है। बुआई के समय बीजों को अंकुरण के लिए अधिक तापमान की जरूरत पड़ती है। यही कारण है कि इसकी बुआई अप्रैल से मई के महीने में की जाती है जबकि पौधों की बढ़वार के दौरान अच्छी बारिश होना जरूरी है।

खेती के तैयारी और मिट्टी का चुनाव
अभी तक परपंरागत खेती में किसान जिमीकंद की खेती को कम महत्व के जमीन पर कर आ रहे हैं किसी भी कंद वाली फसल के लिए उत्तम जल निकासी वाली एवं भुरभुरी दोमट मिट्टी अच्छी रहती है। कंद वाली फसलों के लिए खेत की जुताई करने के बाद बार बार पाटा लगाना चाहिए ताकि खेत में ढ़ेल न बनें। इसके लिए खेत की अच्छे से गहरी जुताई कर कुछ दिनों के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दें, ताकि खेत की मिट्टी में अच्छे से धूप लग सके। इसकी खेती के लिए 5.5 से 7.2 तक की पीएचमान वाली मिट्टी सबसे उपयुक्त होता है।

जिमीकंद(सूरन) की उन्नत किस्में
जिमीकंद की कई उन्नत किस्में हैं। जिन्हें उनकी गुणवत्ता, पैदावार और उगने के मौसम के आधार पर तैयार किया गया है। जैसे- गजेन्द्र, एम -15, संतरागाछी, कोववयूर इत्यादि। आपको कौन-सी किस्म का चयन करना है। इसका चुनाव आप अपने क्षेत्र और जलवायु के आधार पर तय कर सकते हैं।

गजेन्द्र
इस किस्म को कृषि विज्ञान केंद्र संबलपुर द्वारा तैयार किया गया है। इसके पौधों में कम गर्मी वाले फल लगते है, जिन्हे खाने से शरीर में खुजली नहीं होती है। पौधों की इस किस्म को बारिश के मौसम में नहीं उगाया जाता है। इसमें एक पौधे में केवल एक ही फल निकलता है, तथा फल के अंदर हल्का नारंगी रंग का गूदा पाया जाता है। यह प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 80 टन की पैदावार देता है।

श्री पद्मा (एम -15)
यह दक्षिण भारत की स्थानीय किस्म है। पौधे की इस किस्म को श्री पद्मा के नाम से भी जानते है। इसके फलो की तासीर कम गर्मी वाली होती है, जिससे इसे खाने से खुजली जैसी शिकायत नहीं होती है। इसमें भी एक पौधे में एक ही फल प्राप्त होता है। एक हेक्टेयर के खेत में यह 70 से 80 टन की पैदावार देता है। यह दक्षिण भारत में अधिक उगाई जाने वाली फसल है।

संतरागाछी
इस किस्म के एक पौधे में कई फल पाए जाते है। इन फलो की तासीर हलकी गर्म होती है, जिससे इन्हे खाने पर हलकी खुजली जैसी समस्या देखने को मिल सकती है। इसकी फसल 5 से 6 महीने में पैदावार देना आरम्भ कर देती है। यह प्रति हेक्टेयर में 50 टन की सामान्य पैदावार देने वाली किस्म है।

बुवाई और बीजोपचार
जिमीकंद का बीज आलू की तरह कंद को पूरा लगाकर या काटकर लगाया जाता है। इसके लिए 250 से 500 ग्राम का कंद उपयुक्त होता है। कटिंग वाले कंदों में अंकुरण के लिए कलिका, आंखों का होना आवश्यक है।

कंदों की बिजाई करने से पूर्व इनका उपचार जरूर करना चाहिए।इसके लिए इमीसान 5 ग्राम एवं स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में घोल कर कंद को 25-30 मिनट तक या ताजा गोबर का गाढ़ा घोल बनाकर उसमें 2 ग्राम कार्बोंडाजिम (वेविस्टीन) पाउडर प्रति लीटर घोल में मिलाकर कंद को उपचारित कर छाया में सुखाने के बाद ही लगायें। उपरोक्त आकार के कंद लगाने पर इनकी बढ़वार 8-10 गुणा के बीच होता है। बीज दर कंद के आकार एवं बुआई की दूरी पर निर्भर करता है।

जिमीकंद की खेती का उपयुक्त समय
जिमीकंद(सूरन) की खेती भारत में बारिश के मौसम से पहले और बाद में की जाती है। लेकिन अप्रैल-मई जून का महीना सबसे उपयुक्त होता है। सिंचाई का प्रबंध होने पर इसे आप मार्च के महीने में लगा सकते हैं।

लगाने की विधि: 
दो विधियों द्वारा जिमीकंद की बुआई की जाती है:
1. गड्ढों में 2. चौरस खेत में ।

गड्ढों में: इस विधि से अधिकांशत: ओल की बुआई की जाती है। इस विधि में 75 x 75 x 30 सें.मी. या 1.0 x 1.0 मी. x 30 सें.मी. चौड़ा एवं गहरा गड्ढा खोद कर कंदों की रोपाई की जाती है। रोपाई के पूर्व निर्धारित मात्रा में खाद एवं उर्वरक मिलाकर गड्ढा में डाल दें। कंदों को बुआई के बाद मिट्टी से पिरामिड के आकार में 15 सें.मी. उंचा कर दें। कंद की बुआई इस प्रकार करते हैं कि कंद का कलिका युक्त भाग ऊपर की तरु सीधा रहे।

चौरस खेत में: ओल की बुआई करने के लिए अंतिम जुताई के समय गोबर की सड़ी खाद एवं रासायनिक उर्वरक में नेत्रजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा को खेत में मिलाकर जुताई कर देते हैं। उसके बाद कंदों के आकार के अनुसार 75 से 90 सें.मी. की दूरी पर कुदाल द्वारा 20 से 30 सें.मी. गहरी नाली बनाकर कंदों की बुआई कर दी जाती है तथा नाली को मिट्टी से ढक दिया जाता है।
बीज दर 250 ग्राम के कंद को 75 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाने से 50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर, 500 ग्राम के कंद लगाने पर 80 क्विंटल ,250 ग्राम का कंद एक मीटर की दूरी पर लगाने से 25 क्विंटल , 500 ग्राम के कंदों को एक मीटर पर लगाने के लिए 50 क्विंटल प्रति हैक्टेयर बीज की जरूरत होती है।

खाद और उर्वरक
कंद की अच्छी उपज के लिए सडी गोबर की खाद 15 क्विंटल एवं नत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश 80,60, 80 किलोग्राम के अनुपात में प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें। फास्फोरस की पूरी मात्रा जमीन में मिला दें। बाकी तत्वों को कंदों पर मिट्टी चढ़ाते समय 60 से 80 दिन की फसल होने पर जमीन में डालें। शूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रयोग भी जोत में मिलाकर करने से उत्पादन बढ़ता है।

मल्चिंग
बुआई के बाद पुआल अथवा शीशम की पत्तियों से ढक देना चाहिए जिससे कंदों का अंकुरण जल्दी होता है। इससे जमीन में नमी बनी रहती है और गर्मी का प्रभाव भी नव अंकुर पर नहीं पड़ता। इस प्रक्रिया को अपनाने से खरपतवार भी नहीं उगते।

सिंचाई
कंदों को बरसात से पहले हल्की दो सिंचाई आवश्यक होती हैं। निराई एक माह बाद और दो से तीन माह बाद करनी होती है। बरसात में पौधों के पास जल जमाव न होने दें। फसल को अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है, इसलिए बीजो की रोपाई के बाद तुरंत सिंचाई कर देनी चाहिए, तथा बीजो के अनुकरण तक खेत में नमी को बरक़रार रखने के लिए सप्ताह में दो बार सिंचाई करनी चाहिए।

निकाई-गुड़ाई
जिमीकंद के खेत में सामान्य खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता होती है। इसके लिए बीजो की रोपाई से तक़रीबन 15 दिन बाद प्राकृतिक तरीके से निराई-गुड़ाई कर खरपतवार पर नियंत्रण करना चाहिए। जिमीकंद के पौधों को लगभग तीन से चार नीलाई गुड़ाई की आवश्यकता होती है। जिन्हे समय-समय पर खरपतवार दिखाई देने पर कर देना चाहिए।

रोग एवं रोकथाम

झुलसा रोग:
इस किस्म के रोग जीवाणु जनित होते है। यह सितम्बर के माह में पौधों की पत्तियों पर आक्रमण करता है, जिससे पौधे की पत्तिया हल्के भूरे रंग की दिखाई देने लगती है। इस रोग के अधिक प्रभावित होने पर पत्तिया भूरे रंग की होकर गिरने लगती है, जिससे पौधा वृद्धि करना बंद कर देता है। इंडोफिल या बाविस्टीन की उचित मात्रा का छिड़काव कर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है।

तना गलन:
इस तरह का रोग अक्सर जल-भराव की स्थिति में देखने को मिलता है। इस तरह के रोग से बचाव के लिए खेत में जल-भराव की स्थिति न पैदा होने दे। यह जड़ गलन रोग पौधे के तने को जमीन के पास से गला कर नष्ट कर देता है। कैप्टान दवा का उचित में मात्रा में पौधों की जड़ो में छिड़काव कर इस रोग की रोकथाम की जा सकती है।

तम्बाकू सुंडी:
यह एक कीट जनित रोग होता है, तम्बाकू सुंडी का लार्वा सुंडी के रूप में आक्रमण करता है। इसका लार्वा हल्के भूरे रंग का होता है,जो पौधों की पत्तिया खाकर उसे नष्ट कर देता है। यह रोग जून और जुलाई के माह में अधिक आक्रमण करता है। पौधों पर लगने वाले इस रोग से बचाव करने के लिए मेन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की उचित मात्रा का छिड़काव किया जाता है।

खुदाई
बुआई के सात से आठ माह के बाद जब पत्तियाँ पीली पड़ कर सूखने लगती है तब फसल खुदाई हेतु तैयार हो जाती है। खुदाई के पश्चात कंदों की अच्छी तरह मिट्टी साफ़ कर दो-तीन दिन धूप में रखकर सुखा लें। कटे या चोट ग्रस्त कंद को स्वस्थ कंदों से अलग कर लें। इसके बाद कंद को किसी हवादार भण्डार गृह में लकड़ी के मचान पर रखकर भण्डारित करें। इस प्रकार ओल को पांच से छ: माह तक आसानी से भण्डारित किया जा सकता है।

उत्पादन
जिमीकंद के एक हेक्टेयर के खेत में तक़रीबन 70 से 80 टन की पैदावार प्राप्त हो जाती है। जिमीकंद का बाजारी भाव 2000 रूपए प्रति क्विंटल के आसपास होता है, जिस हिसाब से किसान भाई इसकी एक बार की फसल से लगभग 4 लाख तक की कमाई कर सकते है।जिमीकंद या सूरन के बीज उत्पादन हेतु 40 x 60 सेंटीमीटर की दूरी पर 100 ग्राम वजन के कटे हुए कंदों के टुकड़े लगाने पर लगभग 2 से 4 टन प्रति हेक्टेयर रोपण सामग्री लगती है और 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर कंद उत्पादन के रूप में प्राप्त किए जा सकते हैं।