इंजी. आँचल जायसवाल, कृषि प्रसंस्करण एवं खाद्य अभियांत्रिकी
डॉ. अभय बिसेन, परमिंदर सैनी एवं मधु कुमारी पैंकरा
कृषि महाविद्यालय अनुसंधान केंद्र कटघोरा, कोरबा (छ.ग.)

करौंदा एक झाड़ीनुमा पौधा है, जिसका वैज्ञानिक नाम कैरिसा कैरेंडस है। यह एपोसाइनेसी कुल का एक महत्वपूर्ण पौधा है एवं इसका उत्पत्ति स्थान भारत माना जाता है। भारत के अलावा यह मलेशिया, दक्षिण आफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका व म्यांमार में भी पाया जाता है। देश में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, बिहार व हिमालय क्षेत्रों में इसे उगाया जाता है। अधिकतर क्षेत्रों में यह जंगलीरूप में ही पाया जाता है। कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां इसे व्यावसायिक रूप से उगाया जाता है। फलों का आकार अण्डाकार होता है व प्रत्त्येक फल में सामान्यतः दो से चार बीज पाये जाते हैं। पौष्टिकता की दृष्टि से करौंदा स्वास्थ्य के लिए बहुत गुणकारी हैं। लौह की अच्छी मात्रा होने के कारण एनीमिया रोग में उपचार के लिए करौंदा एक अत्यन्त लाभाकारी फल हैं। अधपके फलों में पेक्टिन की अधिक मात्रा होने के कारण करौंदे से उश्रम गुणवता की जैली, जूस, बनाई जाती हैं।

शुष्क अथवा अर्धशुष्क क्षेत्रों में घरों के आसपास इसके 1-2 पौधे आसानी से मिल जाते हैं। करौंदे की फसल शुष्क क्षेत्रों में आर्थिक रूप से लाभदायक साबित हो सकती है। ऐसे क्षेत्रों में सिंचाई जल की कमी के कारण दूसरी फसलों को सफलतापूर्वक उगाना बहुत मुश्किल कार्य होता है। अर्धशुष्क क्षेत्रों में इसे अन्य फसलों के साथ अथवा खेत की फेंसिंग के रूप में लगाकर अतिरिक्त लाभ लिया जा सकता है। करौंदा ‘एक पंथ दो काज वाली’ कहावत को भी चरितार्थ करता है। एक तो यह खेत के चारों ओर बाड़ के रूप में लगाने से पफसल की जंगली जानवरों से रक्षा करता है, दूसरा बाड़ के रूप में लगाये गए पौधों पर लगे पफलों को बेचने से अतिरिक्त आमदनी मिल जाती है।

मृदा
इसका पौधा सहिष्णु प्रवृति का होता है, जिसके कारण इसकी खेती लगभग सभी तरह की मृदाओं ;पथरीली, चट्टानी, अनुपजाऊद्ध में आसानी से की जा सकती है। यह 8.5 पी-एच मान वाली ऊसर मृदाओं में भी अच्छी प्रकार फलता-फूलता है। अच्छी पैदावार के लिए बलुई दोमट मृदा जिसमें जल निकास की व्यवस्था अच्छी हो, सर्वोत्तम होती है। जलवायु इसका पौधा कापफी सख्त प्रवृति का होने के कारण इस पर वातावरणीय कारकों का बहुत कम असर पड़ता है। यह अधिक तपमान एवं शुष्क जलवायु को ज्यादा पसंद करता है। उष्ण तथा उपोष्ण जलवायु में इसे आसानी से उगाया जा सकता है। ऐसे क्षेत्रा जहां बरसात अधिक होती है एवं जलमग्नता की स्थिति बनी रहती है, इसकी खेती के लिए अनुपयुक्त होते हैं। नये पौधे तैयार करना करौंदे के नये पौधे बीज एवं वानस्पतिक विधियों ;कलम, लेयरिंग व कलिकायन से तैयार किए जा सकते हैं।



खाद एवं उर्वरक
व्यावसायिक दृष्टिकोण से जब करौंदे का रोपण किया जाता है तो पोषण प्रबंधन बहुत आवश्यक हो जाता है। संतुलित मात्रा में खाद एवं उर्वरक दिये जायें तो निश्चित रूप से पौधों की अच्छी बढ़वार के साथ ही अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। मृदा जांच के उपरान्त ही खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। करौंदे में खाद एवं उर्वरकों की मात्रा पौधे की आयु, मृदा की उर्वरता तथा फसल को दी गयी कार्बनिक खादों की मात्रा पर निर्भर करती है। खाद एवं पोषक तत्वों की पूर्ति के लिए गोबर अथवा कम्पोस्ट खाद, फॉस्पफोरस और पोटाश की पूरी मात्रा तथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा को वर्षा आरंभ होने से पहले अथवा अंत में दें व शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा को फूल आने के बाद दें।

पोषक तत्वों से भरपूर
पोषक तत्वों व औषधीय गुणों से भरपूर करौंदे का फल आकर्षक, रंगीन और बेरी किस्म का होता है। करौंदे में विटामिन सी, विटामिन ई और विटामिन के की प्रचुर मात्रा तो मौजूद होती ही है , यह फल एंटी-ऑक्सीडेंट से भरपूर भी होता है। इसमें ये सभी पोषक तत्व अन्य फलों की तुलना में अधिक पाए जाते हैं। इसमें आयरन, कैल्शियम, पोटैशियम, जिंक जैसे तत्व भी भरपूर मात्रा में मौजूद होते हैं उच्च पोषक तत्वों और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर होने के कारण इस फल को सूपरफूड भी कहा जाता है।

  • इसके फलों में अन्य फलों की तुलना में लौह तत्व प्रचुर मात्रा में पाया जाता है इसलिए कभी-कभी एनीमिया के उपचार में इसका इस्तेमाल होता है।
  • इसमें लौह तत्व के अलावा कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्पफोरस एवं विटामिन-सी भी भरपूर मात्रा में होता है। फलों में थायमिन, राइबोफ्रलेविन, पैंटोथैनिक अम्ल, पाइरीडक्सीन, बायोटिन, पफॉलिक अम्ल की भी अच्छी मात्रा उपलब्ध होती है।
  • कच्चे फलों के सेवन से भूख बढ़ती हैं पके फल पित्त दोष के उपचार में उपयोगी हैं। यह वातनाशक भी होता है।
  • फलों को खाने से मसूड़ों से खून आना बंद हो जाता है, इसके साथ ही रक्त अल्पता में भी अत्यधिक पफायदा होता है।
  • पर्याप्त मात्रा में विटामिन-सी होने की वजह से यह स्कर्वी रोग से लड़ने में भी सहायक है।
  • करौंदे की जड़ों के रस को लुम्बागों, छाती और गुप्त रोगों के उपचार के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • करौंदा की जड़ों के रस का प्रयोग पेट के कीड़े मारने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
  • इसकी पत्तियों का रस बुखार के उपचार के लिए उपयोग में लिया जाता है एवं पत्तियों का अर्क शहद के साथ चाटने पर खांसी तुरन्त ही समाप्त हो जाती है।

करौंदा के पौधे के विभिन्न भागो की विशेषताएँ
  • यह एक गैर-पारंपरिक फसल है, जो मुख्यतः वर्षा आधारित क्षेत्रों में ही उगायी जाती है। एक बार करौंदे का पौधा स्थापित होने के बाद न्यूनतम प्रबंधन एवं देखभाल में भी अच्छी उपज देता है।
  • इसमें जल की कमी तथा सूखा सहन करने की क्षमता अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक होती है। इसके साथ ही कीट-व्याधियों का प्रकोप भी अपेक्षाकृत कम होता है।
  • खाद-पानी की आवश्यकता भी इसे कम होती है।
  • पोषक तत्वों व औषधीय गुणों के कारण बाजार में इसके फलों व तैयार उत्पादों की मांग में दिनों-दिन इजाफा होता जा रहा है।
  • करौंदे की लकड़ी सफेद, कड़ी व चिकनी होने के कारण चम्मच व कंघे बनााने के काम आती हैं।

तुड़ाई उपरांत भण्डारण
करौंदा के पौधे लगाने के दूसरे वर्ष से फल देना प्रारम्भ कर देता है। फल लगने के लगभग 2-3 माह बाद (जुलाई-सितम्बर) परिपक्व होकर तोड़ने योग्य हो जाते हैं। फल की सतह का रंग बदलना परिपक्वता की निशानी हैं। तुड़ाई दो-तीन चरणों में की जाती हैं। करौंदा की एक पूर्ण विकसित झाड़ी से लगभग 30-35 कि.ग्रा. फल प्राप्त हो जाते हैं। तुड़ाई उपरांत फलों को छायादार स्थान पर रखना चाहिए। कमरे के सामान्य तापमान पर करौंदा के फलों को एक सप्ताह तक भण्डारण किया जा सकता हैं। कम तापमान व उचित सापेक्ष आर्द्रता पर भण्डारण क्षमता को बढ़ाया जा सकता हैं। पके फलों में पक्टिन की अच्छी मात्रा होने के कारण उनका उपयोग जैम व जेली बनाने के लिए किया जाता हैं। इसके अलावा फलों से रस निकाल कर पेय पदार्थ भी बनाये जातें है। करौंदे के फलों से गुणवत्तायुक्त अचार बनता है। करौंदे के हल्के पके व पूरे पके फलों से उत्कृष्ट रंगीन वाइन भी बनाइ्र जाती हैं। करौंदे के अधपके फलों में छिद्र करके व चीनी की चाशनी में खाने वाला रंग मिलाकर ’नकल चेरी’ नामक बहुत ही बढ़िया उत्पाद बनाया जाता है जिसे नौ महीने तक बिना किसी विशेष नुकसान के कम तापमान पर रखा जा सकता है। अन्य परिरक्षित पदार्थों में चटनी, स्क्वैश, सीरप, कैण्डी व टार्ट शामिल हैं।अपरिपक्व फलों का उपयोग सब्जी, अचार व चटनी बनाने में और पके फलों का विभिन्न मूल्य संवर्धित उत्पादों जैसे-जैम, जेली, कैंडी, मुरब्बा, अचार इत्यादि तैयार करने में किया जाता है।