रुपारानी दिवाकर (पादप रोग विज्ञान), 
मधु कुमारी (किट विज्ञान), 
राजेश कुमार एक्का (किट विज्ञान)
कृषि महाविद्यालाय एवं अनुसंधान केंद्र कटघोरा कोरबा (छ.ग.)

वर्तमान समय में पादप रोग के प्रबंधन में विभिन्न प्रकार के जैव नियंत्रक उपयोग किये जा रहे हैं और इनकी भूमिका रोगों के उपचार में बढ़ती जा रही है । हाल में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 29 हजार करोड़ रुपए तक का नुकसान फसलों पर लगने वाले कीटों एवं बीमारियों से होता है, एवं इसके नियंत्रण हेतु साधारणतया जहरीले रसायनों का प्रयोग किया जाता है। अनुमानतः प्रतिवर्ष कृषि रसायनों की खपत 17.4 करोड़ डालर है, जिसका 90 प्रतिशत भाग कीट, खरपतवार एवं रोगों के रासायनिक नियंत्रण में इस्तेमाल होता है। एक अनुमान के मुताबिक हजारों करोड़ रुपए की कृषि पैदावार इन रसायनों के इस्तेमाल के कारण बाजार में अस्वीकार कर दिये गए हैं।

रासायनिक दुष्प्रभाव में रसायन का खाद्य शृंखला में चला जाना, मृदा में शामिल होकर भूजल को प्रदूषित करना तथा रोग कारकों में रसायन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकसित होना प्रमुख है। इसके अतिरिक्त कुछ मृदाजनित रोगों का नियंत्रण भी रसायनों द्वारा कठिन होता है। यह जैव नियंत्रक पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते और मिटटी की उर्वरक क्षमता बनाये रखते हैं ।अतः रासायनिक नियंत्रण के बढ़ते हुए दुष्प्रभावों को कम करने के लिये एक विकल्प के रूप में जैविक पादप रोग नियंत्रण की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

जैविक रोग नियंत्रण
सामान्यतः पादप रोग कारकों के नियंत्रण के लिये दूसरे जीवों का उपयोग ही जैविक नियंत्रण कहलाता है। जैविक नियंत्रण वह प्रक्रिया है जिसमें एक से अधिक सूक्ष्मजीवियों का उपयोग रोग कम करने या रोकने के लिये किया जाता है। वे सूक्ष्म जीव जो कारकों के नियंत्रण के लिये प्रयुक्त होते हैं, जैविक रोगनाशक कहलाते हैं। ये सूक्ष्म जीव रोग कारकों की संख्या को कम कर, रोग कारकों द्वारा रोग उत्पन्न करने में रोक लगाकर एवं संक्रमण के बाद रोग विकास को रोककर पादप रोगों को नियंत्रित करते हैं। जैविक नियंत्रण में कवकों एवं जीवाणुओं दोनों प्रकार के जैविक रोग नाशक सूक्ष्मजीव प्रयोग में लाये जा रहें हैं। इनमें ट्राइकोडर्मा हारजिएनम, ट्राइकोडर्मा विरिडि, एसपरजिलस नाइजर, बैसिलस सबटिलिस एवं स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स प्रमुख रूप से इन दिनों उपयोग में लाये जा रहे हैं।

अम्लीय मिट्टी तथा जलवायु, ट्राइकोडर्मा आधारित जैव फफूंदनाशी के लिये अत्यधिक उपयोगी हैं। यह मृदा में पाई जाने वाली हरे रंग की एक फफूंदी है जो पौधों में बीमारी करने वाले रोग कारकों जैसे राइजोक्टोनिया, पीथियम, स्केलेरोशियम, मैक्रोफोमिना, स्कलरोटिनिया, फाइटोफ्थोरा, मिलाइडोगाइन इत्यादि का पूर्ण रूपेण अथवा आंशिक रूप से विनाश करके इनके द्वारा होने वाली बीमारियों जैसे आर्द्रगलन, बीज सड़न, उकठा, मूल विगलन एवं सूत्रकृमि का मूलग्रंथि रोग इत्यादि के नियंत्रण में सहायक होता है।

रोग नियंत्रण की क्रिया विधि

1. प्रतिजीविता
कुछ कवक और जीवाणु इस क्रिया में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं । ये कवक और जीवाणु कम आणविक भार के यौगिक या एक एंटीबायोटिक उत्पादित करते हैं जो दूसरे सूक्ष्मजीव पर सीधा प्रभाव डालते हैं और रोग जनक को पूर्ण रूप से समाप्त कर देते हैं ।
उदाहरण के लिए फेनजिन एंटीबायोटिक, स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस के द्वारा उत्पन्न होती है और गेंहू के रोगजनक जयुमेनोमाइसिस ग्रामिनिस वैरायटी ट्रिटिसि को पूर्ण रूप से नियंत्रित करती है ।

2. परजीविता
इस प्रक्रिया में एक जीव दूसरे जीव को भोजन के रूप में प्रत्यक्ष रूप से उपयोग करता है। उदहारण के तौर पर वे कवक जो अन्य कवक परजीवी होते हैं आमतौर पर उन्हें माइकोपैरासाइट्स के रूप में संदर्भित किया जाता है।
इस प्रक्रिया के दौरान जैव नियंत्रक प्रतिनिधि जीव के शरीर से चिपक कर उसकी बाहरी परत को कुछ प्रतिजैविक पदार्थों द्वारा गलाकर उसके अंदर का सारा पदार्थ उपयोग में ले लेता है, जिससे रोग कारक जीव नष्ट हो जाता है।

3. प्रतियोगिता
इस प्रक्रिया को अप्रत्यक्ष प्रक्रिया माना जाता है जिससे खाद्य पदार्थों की कमी के आधार पर रोगजनकों को बाहर किया जाता है । इस प्रकार के जैव नियंत्रण में जैव नियंत्रक प्रतिनिधि उस पोषक तत्त्व की मात्रा में कमी कर देते हैं जिसके लिए रोगजनक पौधों पर आक्रमण करते हैं और इस प्रकार जैव नियंत्रक प्रतिनिधि और रोगजनक के बीच एक प्रतिस्पर्धा होती है और रोगजनक को बाहर कर दिया जाता है।

प्रयोग विधि

1. बीजोपचार विधि
इस विधि में 10 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम बीज उपचारण के लिए उपयोग में लेते हैं। सबसे पहले जैव नियंत्रक के पाउडर को पानी में घोल लेते हैं , फिर बीज को इस घोल में डाल देते हैं, जिससे पूरा बीज अच्छी अरह से पाउडर द्वारा उपचारित हो जाता है। पानी की इतनी मात्रा रखते हैं, की बीज उपचारण के बाद घोल ना बचे।
चिकने बीजों जैसे मटर, अरहर, सोयाबीन आदि के उपचारण के लिए घोल में कुछ चिपकने वाला पदार्थ जैसे गोंद, कार्बोक्सी मिथाइल सेलुलोस आदि मिला देते हैं, जिससे जैव नियंत्रक से बीज अच्छी तरह चिपक जाये। इसके बाद उपचारित बीज को छायादार फर्श पर फैलाकर एक रात के लिए रख देते हैं और अगले दिन इनकी बुआई करते हैं।

2. छिड़काव विधि
इस विधि में 5-10 ग्राम पाउडर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना लेते हैं और मशीन (स्प्रेयर) द्वारा छिड़काव कर सकते हैं। अगर, जैव नियंत्रकों का छिड़काव बीमारी आने से पहले किया जाता है तो ये ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध हो सकते हैं।

3. पौध उपचारण विधि
इस विधि में पौधों को पौधशाला से उखाड़कर उनकी जड़ को पानी से अच्छी तरह साफ कर लेते हैं। फिर पौधों को जैव नियंत्रक घोल में आधा घंटा के लिए रख देते हैं। इस प्रकार खेतों में लगाने के पहले जड़ों को जैव नियंत्रक के घोल में उपचारित करते हैं। पौधा उपचारण मुख्यतः धान, टमाटर, बैगन, गोभी, मिर्च, शिमला मिर्च इत्यादि के लिए करते हैं।

4. मृदा उपचार
इस हेतु जैव नियंत्रक का पाउडर उपयोग में लाते हैं। इसके लिए 1 किलोग्राम पाउडर को 100 किलोग्राम कम्पोस्ट या गोबर खाद में मिलाकर एक एकड़ खेत में बिखेरते हैं।

5. बूंद-बूंद सिंचाई विधि
5-10 ग्राम पाउडर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना लेते हैं और बूंद- बूंद सिंचाई द्वारा खेत में पौधों की जड़ों तक पहुँचाते हैं।

जैव नियंत्रक के प्रमुख गुण

1. जैव नियंत्रको में रोग नियंत्रण की अत्यधिक विस्तृत क्षमता होती हैं।

2. इसके जैव उत्पाद की क्षमता बहुत विस्तृत, स्थिर और सरल होती है। विकसित प्रजातियाँ 10-45 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान एवं 8 प्रतिशत नमी पर स्थिर रहती है।

3. मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।

4. मृदा में कोई प्रदूषण नहीं होता है, मृदा में रहने वाले अन्य लाभदायक जीवों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।

5. इनका भण्डारण तथा एक स्थान से दुसरे स्थान पर आसानी से स्थान्नान्तरण किया जा सकता है।

6. इनको प्रयोगशाला में आसानी से तैयार किया जा सकता है।

7. ये बड़े क्षेत्रों में रोगजनकों एवं कीटों के नियंत्रण में सक्षम होते हैं।

8. ये रोग नियंत्रण की वैकल्पिक विधि है।

9. जहाँ अन्य तरीके लागु नहीं हैं, वहां इसका इस्तेमाल किया जा सकता है।

10. चयनात्मक लक्ष्य जीव पर ही इसका प्रभाव पड़ता है।

11. रोगजनकों में प्रतिरोध उत्प्रेरण की संभावना कम हो जाती है।

12. प्रभावी लागत भी कम आती है।

13. जैविक नियंत्रण का दीर्घकालिक प्रभाव होता है।

14. इनका बड़े पैमाने पर पालन किया जा सकता है तथा एकीकरण किया जा सकता है।

सफल जैव नियंत्रक के लिए आवश्यकताएं

1. प्रतिस्पर्धा करने और बने रहने में सक्षम।

2. उपनिवेश और प्रसार करने में सक्षम।

3. पौधे और पर्यावरण के लिए गैर रोगजनक होना चाहिए।

4. उत्कृष्ट शेल्फ जीवन होना चाहिए।

5. सस्ती होनी चाहिए।

6. बड़ी मात्रा में उत्पादन करने में सक्षम होना चाहिए।

7. जीवन क्षमता बनाये रखने में सक्षम।

8. वितरण और अनुप्रयोग विधियों को उत्पाद स्थापना का समर्थन करना चाहिए।

सावधानियाँ

1. अम्लीय मिट्टी में ट्राइकोडर्मा पाउडर का उपयोग करें तथा क्षारीय मिट्टी में स्यूडोमोनस पाउडर का उपयोग करें।

2. उपचारित बीज बोने से पहले ये सुनिश्चित कर लें कि मृदा में उचित आर्द्रता हो।

3. छिड़काव हमेशा शाम के समय करें।

4. जैव नियंत्रक का उपयोग सेल्फ लाइफ के अन्दर ही करें।