मधु पटियाल, रूचिचौहान, एस. के. विश्नोई, के. के. प्रामाणिक, धर्म पाल, ऐ के शुक्ला एवं अंजना ठाकुर
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (क्षेत्रीय केंद्र, टुटीकंडी), शिमला, हिमाचल प्रदेश-171004
भारतीय गेहूँ एंव जौ अनुसन्धान संस्थान करनाल
सी एस के एच पी के वी, पालमपुर
प्लांट टिशुकल्चरएक कृत्रिम वातावरण में पौधों को स्थानांतरित करके नए पौधे को विकसित करने की एक तकनीक है। इस तकनीक के माध्यम से पौधों की कोशिकाओं, ऊतकों या अंगों (एक्सप्लांट) को जीवाणु रहित परिस्थितियों में एक पोषक माध्यम में संरक्षित या विस्तारित किया जाता है। प्लांट टिशुकल्चर पौधे के एक्सप्लांट की क्षमता पर निर्भर करता है जिन्हें यदि ग्रोथ मीडियम और उपयुक्त वातावरण दिया जाता है, तोएक पूरा नया पौधा तैयार हो जाता है । पादप कोशिकाओं या ऊतकों(एक्सप्लांट) की इस क्षमता को 'टोटिपोटेंसी' कहा जाता है।
प्लांट टिशुकल्चर के लिए आवश्यकताएँ:
1. एक उपयुक्त एक्स्प्लांट ।
2. सैल विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए ऊर्जा स्रोतों और अकार्बनिक लवण युक्त उपयुक्त ग्रोथमीडियम। यह तरल या अर्ध ठोस हो सकता है ।
3. पौधों में वृद्धि के लिए हार्मोन: ऑक्सिन और साइटोकिनिन।
प्लांट टिशुकल्चर के चरण:
1. शून्य चरण: एक्सप्लान्ट्स का चयन: जिस पौधे को कल्चर मीडिया पर उगाना है, उससे लिए गए पौधे के भागको एक्स्प्लांट कहा जाता है । यह पत्ता, जड़, तना, कलियाँ, फूल या इनका छोटा सा टुकड़ा भी हो सकता है ।कई प्रजातियों में विभिन्न अंगों के एक्स्प्लान्ट्स के विकास और पुनर्जनन की दर भिन्न होती है। एक्सप्लान्ट का चयन यह निर्धारित करता है की जो पौधे टिशुकल्चर द्वारा विकसित किये जाते है वह अगुणित या द्विगुणित है।
2. पहला चरण: एक्सप्लान्ट्स को उचित कल्चर मीडिया पर विकसित करना: एक्स्प्लान्ट्स को कल्चर मीडिया पर विकसित करने से पहले जिवाणुमुक्त बनाया जाता है जिस प्रक्रिया को सरफेसस्टरलाइजेशन कहा जाता है ।टिशुकल्चर से पहले एक्सप्लांटस का कीटाणुओं और जीवाणुओं से मुक्त होना आवश्यक है। सरफेसस्टरलाइजेशन के लिए सबसे पहले एक्सप्लान्ट्स पर 70 प्रतिशत एथेनॉल का एक मिनट के लिए प्रयोग किया जाता है, उसके बाद एक प्रतिशत सोडियम हाइपोक्लोराइट (NaOCl) + ट्वीन20 की 2-3 बूंदें का प्रयोग 15 मिनट के लिए एक्सप्लान्ट्स को कीटाणु मुक्त करने के लिए किया जाता है । पत्तियों के लिए यह तरीका सबसे प्रभावी साबित हुआ है ।इसके बाद एक्सप्लान्ट्स को विकसित करने के लिए कृत्रिम (artificial) मीडिया तैयार किया जाता है जोकि पौधों की मूल आहार की ज़रूरतों को पूरा करके उनके विकास में मदद करता है । सबसे ज्यादा इस्तेमाल होने वाला मीडिया “एम एस मीडिया (मुराशिगे और सकूग मीडिया)” है। जिसतरह से हम बाहर पौधों को मिटटी में उगाते है और खाद तथा अन्य ज़रूरी खुराक देते हैं, उसी प्रकार से प्रयोगशालाके अन्दर पौधों को मिटटी की जगह मीडिया पर उगाया जाता है और अन्य ज़रूरी खुराक दी जाती हैं।उसके बाद पौधों को कल्चर रूम में रखा जाता है जो एक ऐसा कमरा होता है जहाँ प्रकाश, तापमान, आर्द्रता और फोटोप्रीड आदि को नियंत्रित किया जाता है । कुछ दिनों के बाद जब एक्सप्लान्ट्स से पहली पत्ती निकलती है उसके बाद पतित्यों की संख्या में वृद्धि के लिए इन पौधों को अगले चरण में स्थानांतरित किया जाता है।
3. दूसरा चरण: मल्टीप्लीकेशन: इस चरण का लक्ष्य एक्सप्लान्ट्स उत्पादित पत्तियों की संख्या में वृद्धि करना है। जब इन नई पत्तियों को नए कल्चर मीडिया पर निर्धारित समय में बार-बार स्थानांतरित किया जाता है, तो इन पत्तियों की संख्या में काफी वृद्धि होती है और इस प्रक्रिया को सबकलचरिंग (subculturing) कहा जाता है।
4. तीसरा चरण: रूटिंग: जिन पौधों में पूरी तरह से पत्तियां आ जाती हैं, उनकीअगले चरण में ऑग्ज़िन(auxin) के उपयोग से जड़ें बनाने के लिए सबकलचरिंगकी जाती है ।
5. चौथा चरण: हार्डनिंग और एकलेमेटाईज़ेशन: जब पौधों में जड़ें अच्छी तरह से बन जाती हैं, तो चौथे चरण में सामान्य जलवायु के अनुरूप उन्हें ढालना होता है। इसमें पौधों को निरंतर रूप से खुली हवा वाले वातावरण में रखना होता है जहाँ पर नमी कम हो तथा प्रकाश ज्यादा हो।इसलिए पौधो को कांच गृह में रखना अनिवार्य होता है ताकि पौधेबाहर के वातावरण की परिस्थियों में रहने के लिए तैयार हो सकें ।
प्लांट टिशुकल्चर के प्रकार
1. भ्रूण कल्चर (Embryo culture)
2. गुणित उत्पादन (Haploid production)
3. दैहिक संकरण(Somatic hybridization) के माध्यम से बेहतर संकर उत्पादन।
4. सिंथेटिकसीड्स का उत्पादन
5. माइक्रोप्रॉपैगेशन तकनीक: वर्ष के थोड़े समय के भीतर और सभी समय के दौरान वानिकी में उपयोगी फसल और वृक्ष प्रजातियोंके बड़ी संख्या में पौधे प्राप्त करने के लिए माइक्रोप्रॉपैगेशनतकनीक।
6. सैलकल्चर : दवा, कॉस्मेटिक और खाद्य उद्योगों में उपयोग।
प्लांट टिशुकल्चर के उपयोग
एक उभरती हुई तकनीक के रूप में, पादपऊतक संवर्धन (प्लांट टिशूकल्चर)का कृषि और उद्योग दोनों पर बहुत गहरा प्रभाव है। प्लांट टिशूकल्चरके मुख्य उपयोग निम्न हैं:
1. उन्नत फसल किस्मों का उत्पादन: सोमाक्लोनल परिवर्तनशीलता केफल स्वरुपकुछ प्रकार केकैलस ऐसे क्लोन को जन्म देतें हैं जिनमें मूल पौधों से अलग योग्य विशेषताएं होती हैं और जो व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण उन्नत किस्मों के विकास की ओर ले जाती हैं।विभिन्न फसलों में टिश्यूकल्चर के माध्यम से प्रजातियां तैयार की गई हैं, उदहारण के तोर पर : बेगोनियापौधे में आकृति, प्रति पौधे फूलों की संख्या और फूलों का आकार; कैल्थिया में एंजेला, कोरा, डॉटी, एक्लिप्स जैसी किस्मों का विकास;लहसुन मेंपैतृक क्लोन की तुलना में अधिक बल्ब उपज । टिश्यूकल्चर की प्रोटोप्लास्टसंलयन(protoplast fusion) एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा दूर से सम्बंधितप्रजातियों को क्रॉस करके नए संकर (novel hybrids) बनाये जाते हैं।
2. मेरिस्टेम और शूटटिपकल्चर के माध्यम से रोग मुक्त (वायरस मुक्त) पौधों का उत्पादन: मेरिस्टेमटिपकल्चर का उपयोग वायरलस्टॉक से वायरस मुक्त पौधों का उत्पादन करने के लिए किया जा सकता है, जैसेकि: गन्ना, आलू की कई प्रजातियां।कयोडालिस्यानहुसुओ (Coryodalisyanhusuo), एक महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है जिसके कैलस से दैहिक भ्रूणजनन द्वारा रोग मुक्त कंदों का उत्पादन किया गया है। इसके अलावाकेले के गुच्छेदार शीर्ष वायरस (बीबीटीवी) और ब्रोममोज़ेकवायरस (बीएमवी) से रहित केले के पौधों को मेरिस्टेमटिप द्वारा उत्पादन किया गया है।
3. लवणता, हर्बिसाइड, सूखा और गर्मी के तनाव के लिए सहिष्णु किस्मों का उत्पादन: प्लांट टिशुकल्चरद्वारा गाजरमें सूखा प्रतिरोधी, बैंगन में तनाव-सहिष्णु सोमाक्लोनबनाएं गए हैं ।
4. जर्मप्लाज्म संरक्षण: लुप्तप्, संकटग्रस्त और दुर्लभ प्रजातियों को सूक्ष्मप्रजनन द्वारा सफलतापूर्वक उगाया और संरक्षित किया जाता है ।
5. इन-विट्रो(in-vitro) तकनीक: पौधों की प्रजातियां जो बीज पैदा नहीं करती हैं (बाँझ पौधे) या जिनमें 'पुनरावर्ती' बीज होते हैं जिन्हें लंबे समय तक संग्रहीत नहीं किया जा सकता है, उन्हें जीन बैंकों के रखरखाव के लिए इन-विट्रो(in-vitro) तकनीकों के माध्यम से सफलतापूर्वक संरक्षित किया जा सकता है।
6. ट्रांसजेनिक पौधे: आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) पौधे, जिसमें जैव-प्रौद्योगिकी पद्धति द्वारा एक कार्यात्मक विदेशी जीन को शामिल किया गया है, ट्रांसजेनिक पौधे कहलाते हैं। कीट प्रतिरोध, शाकनाशी सहनशीलता, पकने में देरी, अमीनोएसिड और विटामिन की मात्रा में वृद्धि, तेल की गुणवत्ता में सुधार आदि जैसे विभिन्न लक्षणों के लिए कई ट्रांसजेनिक पौधों का उत्पादन किया गया है।
7. विभिन्न बागवानी फसलें: इन फसलों के क्लोनल प्रसार में टिशुकल्चर का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा रहा है। ऑर्किड, कार्नेशन्स, गुलाब, जरबेरा, गुलदाउदी, आलू, स्ट्रॉबेरी, और सेब का सफलतापूर्वक इन-विट्रो(in-vitro) क्लोन किया गया है।उदहारण के तोर पर :ऐप्पलरूटस्टॉक्सएम 26 और एमएम 106फाइटोफ्थोरासे प्रतिरोधी, ऐप्पलरूटस्टॉकमॉलिंग 7सफेद जड़ सड़न से प्रतिरोधी, केले में अर्ध-बौना और फ्यूजेरियमविल्ट के लिए प्रतिरोधी।
टिशूकल्चर के लाभ
टिशूकल्चर तकनीक के विभिन्न लाभ निम्न हैं:
- एक्स्प्लांट की एक छोटी मात्रा के साथ बहुत कम समय में अधिक पौधे प्राप्त किए जा सकते हैं।
- उत्पादित नए पौधे रोगमुक्त होते हैं।
- पौधों को पूरे वर्ष उगाया जा सकता है, चाहे मौसम कोई भी हो।
- टिशूकल्चर तकनीक द्वारा पौधों को उगाने के लिए बड़े स्थान की आवश्यकता नहीं होती है।
- बाजार में नई किस्मों के उत्पादन में तेजी आती है।
- इस तकनीक का उपयोग डाहलिया, गुलदाउदी, ऑर्किड आदि जैसे सजावटी पौधों के उत्पादन के लिए भी किया जा रहा है।
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