मुक्ति लता तिर्की, राजश्री गायन, निशा जांगड़े, वंदना यादव
सब्जी विज्ञान
इंदिरा गांधी कृषि महाविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)
करेला एक महत्वपूर्ण सब्जी वाली फसल है, जो स्वाद में कड़वा होता है। अपने इस कड़वेपन के कारण करेला कई प्रकार के रोगो को दूर करने में सहायक है। करेले में एंटी बायोटिक, एंटी फंगल, एंटी सेप्टिक, एंटी वायरल जैसे औषधियें गुण होते है इसमें कई प्रकार के विटामीन एवं खनिज पाये जाते है। मुख्य रूप से करेले में विटामिन सी एवं आयरन की अधिकता होती है, जो स्वास्थ के लिए लाभप्रद है।
जलवायु
करेले की खेती के लिए गर्म और आद्र जलवायु अच्छी होती है। बीजो केे अंकुरण के लिए न्यूनतम 18 डिग्री सेन्टीग्रेट और पौधे के विकास के लिए 20-30 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान की आवश्यकता होती है। इससे कम या अधिक तापमान होने से कम मात्रा में मादा फूल उत्पन्न होते है, जिससे उपज प्रभावित होती है।
मृदा
करेले की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है लेकिन, बलुई - दोमट मृदा को इसकी खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। नंदियों के किनारे पाये जाने वाली जलोद मृदा में भी करेले की उपज अच्छी होती है। करेले की खेती के लिए मृदा का पी.एच. 6.5 से 7.0 तक होना चाहिए।
बीज दर एवं बुवाई का समय
इसकी बीज दर प्रति हेक्टेयर 4.5 - 6 कि.ग्रा. होता है। गर्मी के मौसम की फसल के लिए जनवरी से मार्च तक बुवाई की जाती है। मैदानी इलाको में बारिश के मौसम की फसल के लिए बुवाई जून से जुलाई मंे बीज बोई जाती है और पहाड़ियों में मार्च से जून में बीज बोया जाता है।
उन्नत किस्में
1. अर्का हरित- इसे IIHR बैगलोर से प्रकाशित किया है। फल धारी के आकार का आकर्षक, चमकदार और चिकना हरा होता है। यह 120 दिनों का फसल है। उपज 130 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होता है।
2. पूसा दो मौसमी- यह स्थानीय संग्रह से चयन है। इस किस्म को बसंत, ग्रीष्म तथा वर्षा ऋतु में उगाया जाता है। इसे IARI से रिलीज किया गया है इस किस्म के फल बीज लगाने के लगभग 55 दिनों में खाने के लिए तैयार हो जाते है। फल गहरा हरा, लम्बा कम मोटा, 18 से.मी. लम्बा और एक किलो में 8 से 10 फल आते हैं।
3. पूसा विशेष- इस किस्म के बेल बौने तथा अत्यधिक पौध घनत्व के लिए उपयुक्त है। फल चमकदार हरा कम लंबा तथा मोटा अचार के लिए उपयुक्त होते है।
4. प्रिया- इसका चयन केरला कृषि महाविद्यालय Vellanikkara से किया गया है। फल ज्यादा लंबा (40 से.मी.), परिपक्व हरा, तथा पहली तोड़ाई 61 दिनो में करते है। इस किस्म से बहुत ज्यादा फल निकलते है।
खेती की तैयारी एवं बुवाई की विधि
करेले की खेती के लिए खेत को 1-2 बार जोत कर समतल किया जाता है। डिब्लिंग विधि द्वारा बीजो को बोया जाता है। 2.5 - 3.0 से.मी. गहराई वाले गढ्डे में 3 से 4 बीजो को बोया जाता है। जल्दी अंकुरण के लिए बीजो को बोआई से पहल 25-30 पी.पी.एम. बोरान के घोल में 24 घण्टे तक भिगोकर रखा जाता है। बुआई करते समय दो पंक्तियों के बीच की दूरी 1.5-2.0 मी. एंव पौधो के बीच की दूरी 60-120 से.मी. रखी जाती है। ऐसा करने से सिंचाई एंव खरपतवार निकालने में सुविधा होती है, साथ ही पौधे को विकास करने के लिए पर्याप्त जगह भी मिलती है।
करेले की फसल को लगाने के लिए बांस के खम्बे का उपयोग किया जाता है जिसे Trellis System कहते है इसमें करेले केे बेल को बांस के खम्बो तथा रस्सी के सहारा 1 से 1.5 मीटर उपर चढाया जाता है इस प्रणाली से खेती करने से सिंचाई, निदाई -गुराई तथा फल की तोड़ाई में असानी होती है।
खाद एवं उर्वरक
जुताई के दौरान मिट्टी में गोबर खाद 10 टन/हेक्टेयर मिलाया जाता है। करेले की खेती के लिए प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन 100 किलोग्राम फास्फोरस 50 किलोग्राम और पोटेशियम 50 किलोग्राम दिया जाता है। रोपन से पूर्व नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस और पोटेशियम की पूरी मात्रा दी जाती है। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा पौधे में फूल आने के समय दिया जाता है। मादा फूलों की मात्रा बढ़ाने के लिए पौधे में जब दो पत्तियाँ आ जाती है, तब 250 पी.पी.एम. इथ्रेल (2.5 उस इथ्रेल + 10 लीटर पानी का घोल) का छिड़काव किया जाता है। यह छिड़काव सप्ताह में कम से कम एक बार किया जाना चाहिए।
सिंचाई
सिंचाई उतनी ही करे जितना पौधें के लिए आवश्यक हो। वर्षा ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता कम होती है। गर्मी में 5 - 7 दिन के अंतराल में सिंचाई आवश्यक होता है। फल तथा फूल के समय मिट्टी में नमी रखना जरूरी होता है इससे उपज अधिक प्राप्त होता है।
तोड़ाई
पहली तोड़ाई बीज लगने के 55-60 दिन में करते है। जब फल कोमल तथा हरे हो तब फलो की तोड़ ले क्योंकि करेले बहुत जल्दी परिपक्व और लाल होने लगते है। कोमल फलो को अधिकतर खाने में प्रयोग करते है। करेले की तोड़ाई 2-3 दिन के अंतराल में करते रहे।
उपज
करेले की उपज खेती की प्रणाली, किस्म तथा मौसम के अनुसार भिन्न होती है। औसत फल उपज 6-12 टन/हेेक्टेयर तक होती है।
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