ब्रजेश कुमार नामदेव
कृषि विज्ञान केंद्र गोविन्दनगर, होशंगाबाद (म.प्र.)

वर्तमान में खेती के तौर-तरीकों और वातावरण में हुए बदलाव का असर मृदा और पानी दोनों पर पड़ा है। परिणाम स्वरुप मृदा में उपस्थित जीवांश कार्बन के साथ साथ लाभदायक सूक्ष्म जीवो, मित्र कीटो, पोषण गुणवत्ता युक्त अनाज का उत्पादन, पर्यावरण जैव विविधता भी प्रभावित हुई है।
    विश्व के कई हिस्सों में उपजाऊ मिट्टी बंजर हो रही है। जिसका कारण अधिक मात्रा में हानिकारक कृषि रसायनों- कीटनाशी, फफूंदनाशी, खरपतवारनाशी का उपयोग और आवश्यकता से अधिक रसायनिक उर्वरको का उपयोग करना है इसके अलावा नरवाई या फसल अवशेष को खेत में ही जला देना भी एक कारण है, ऐसा करने से मिट्टी के जैविक गुणों में कमी आने की वजह से मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में दिन प्रतिदिन गिरावट आ रही है। इन सब क्रियाओ से कृषि भूमि में मृदा जीवांश कार्बन में भी कमी आयी है | इन सब बातो को ध्यान में रखकर आज हमें अपने कृषिकार्य वातावरण, मृदा के स्वस्थ को ध्यान में रखकर करना होगा जिससे की लम्बे समय तक भूमि को जीवंत रख सके और अधिक उत्पादन के साथ गुणवत्ता युक्त अनाज एवं अन्य फासले प्राप्त कर सके अत: आज हमें खेती को इस इस दशा में ले जाना होगा जहाँ पर हम मृदा को जीवंत रखकर मृदा जैव विवधता, पर्यावरण जैव विविधता का सरंक्षण कर सके, भूमि को उपजाऊ बनाने के लिए उसे सुपोषित कर सके या अन्य शब्दों में कहे तो भूमि सुपोषण के द्वारा अपने कृषि कार्य करने होगे जिससे की हम मृदा को स्वस्थ बनाये रखने के साथ साथ हानिकारक रसायनों से मुक्त अनाज लोगो को उपलब्ध करा सके और साथ की पर्यावरण व् जैव विविधता का सरंक्षण कर सके प्रस्तुत लेख में भूमि सुपोषण के साथ कृषि कार्य में उपयोगी घटकों के बारे में बताया गया है जिनको हम अपने कृषि कार्यों में सम्मलित कर सकते है जिससे की हनिकारक कृषि रसायनों के उपयोग से बचा जा सकता है।

कृषि रसायनिकों के प्रयोग से होने वाले दुष्प्रभाव-
  • इनके प्रयोग से मृदा में कार्बनिक तत्वों में कमी आ जाती है जिससे मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है।
  • इनके उपयोग से मृदा में पाये जाने वाले सुक्ष्मजीवों की संख्या एवं उनके जीवन मे दुष्प्रभाव पड़ता है। प्रायः शोध में यह पाया गया है कि केंचुआ जिसे किसानों का मित्र माना जाता है, अत्यधिक रसायनों के प्रयोग से इनकी संख्या में भारी कमी पायी गयी है।
  • कीटनाशकों के लगातार प्रयोग से कीट अपने अन्दर प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर लेते है। जिससे की इन कीटों को नियन्त्रण करना कठिन हो जाता है। इनके साथ-साथ लाभदायक कीटों जैसे-लेडी बर्ड बीटल, मधुमक्खी आदि की संख्या पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
  • यह रसायन धीरे धीरे घटित होते है जिसके कारण वे मृदा तथा जल को भी प्रदुषित करते है।
  • खाद्यान्नों एवं बागवानी फसलों में प्रयोग होने वाले रसायन भोजन के माध्यम से मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर विभिन्न स्वास्थय सम्बन्धी समस्याओं को जन्म देते है।

भूमि सुपोषण एवं फसल प्रबंधन में उपयोगी आवश्यक घटक-

1. फसल के लिए बीजों या प्रर्वधन सामग्री का चुनाव-
बीजों एवं प्रर्वधन सामग्री खरीदने समय यह ध्यान रखना चाहिए कि बीज एवं प्रर्वधन सामग्री स्वस्थ हो तथा बीमारी रहित हों। ये सामग्री हमेशा सुपरिक्षित स्थान से ही खरीदे। हमेशा उच्च गुणवत्ता वाली पौध सामग्री का प्रयोग करे। प्रतिवर्ष नयी सामग्री खरीदने से बेहतर है कि स्वंय स्वस्थ बीज एवं पौध सामग्री का उत्पादन करे। यदि किसी स्थान पर किसी कीट या रोग का प्रकोप अधिक हो तो उन स्थानों पर कीट प्रतिरोधी या रोगाणु प्रतिरोधी की उन्नत किस्मों का प्रयोग करना चाहिए।

2. ग्रीष्मकालीन खेतो को खाली छोड़ना-
मई-जून के महीनो में खेत की 30-45 सेमी. गहरी जुताई करके उन्हें कुछ समय के लिए खाली छोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से खरपतवार के बीजों तथा मृदा में पाये जाने वाले कीटों को आसानी से सूर्य की गर्मी द्वारा नष्ट किया जा सकता है।

3. फसल चक्र-
यह एक महत्वपूर्ण सस्य क्रिया है। किसानों को प्रतिवर्ष एक ही फसल को एक स्थान पर बार-बार नही लगाना चाहिए। ऐसा करने से फसल की गुणवत्ता तथा उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। किसान दो या तीन वर्ष के अन्तराल में पुनः उसी फसल को लगा सकते है। यदि सही रूप से फसल चक्र अपनाया जाय तो एक फसल द्वारा अवशोषित पोषक तत्वों को आसानी से पुनः संचित किया जा सकता है। इसके साथ-साथ हर साल नयी फसल लगाने से मित्र कीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती है। फसल चक्र में दलहनी फसलों का भी प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि यह मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा को बढ़ाती है।

4. सहयोगी फसल (ट्रेप फसले)-
यदि किसान टमाटर की खेती करना चाहते है तो फसल में इल्लियों के प्रकोप से फसल को बचाने के लिए वे गेन्दा की फसल को टमाटर की फसल के चारों ओर लगा सकता है। ऐसा करने से कीट गेन्दे को प्रभावित करेगें और अन्दर की फसल सुरक्षित हो जायेगी। जहाँ में निमेटोड की समस्या हो वहाँ पर भी गेन्दा को उगाना चाहिए।

5. खरपतवार नियन्त्रण-
यदि किसान छोटे क्षेत्रफल में खेती कर रहा है तो हाथ या मशीनों द्वारा आसानी से खरपतवार नियन्त्रित किया जा सकता है। खरपतवार नियन्त्रण दूसरा बहुत महत्वपूर्ण तरीका है आच्छादन करना या पलवार बिछाना।



आच्छादन करना या पलवार बिछाना-
आच्छादन विभिन्न चीजों जैसे- गोबर की खाद, पुआल, सूखी घास, प्लास्टिक की पॉलीथिन जो विभिन्न रंगों जैसे- लाल, काली, नीले, सिल्वर रंगों में उपलब्ध होती है से किया जा सकता है। कार्बनिक पदार्थो के प्रयोग द्वारा आच्छादन करने से मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ती है, क्योंकि ये धीरे-धीरे विघटित होते है तथा मृदा में पोषक तत्वों को बढ़ाते है।

आच्छादन करने के लाभ-
  • फसल को कम सिचांई की आवश्यकता पड़ती है क्यां कि वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी पुनः मृदा में पहुँच जाता है।
  • जाड़ो में आच्छादन करने से मृदा तापमान को बढ़ाया जा सकता है जबकि गर्मियों में कार्बनिक पदार्थो के आच्छादन प्रयोग करने से मृदा तापमान को घटाया जा सकता है।
  • आच्छादन करने से खरपतवार नियन्त्रित रहता है। शोधो द्वारा पाया गया है काली पॉलीथिन के नीचे खरपतवार नहीं उगता है।
  • आच्छादन करने से फसल में लगने वाली मृदा सबन्धी बीमारियों की रोकथाम आसानी से किया जा सकता है।
  • मृदा, हवा तथा जल अपरदन नहीं होता है।

आच्छादन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-
  • आच्छादन के लिए कभी-भी सूखी भूमि का चुनाव न करें। हमेशा नमी युक्त भूमि का चयन करें। यदि भूमि सूखी हो तो एक दिन पहले हल्की सिंचाई कर लें।
  • बीजों को लगाने के लिए आच्छादन की परत 10 सेमी. से कम होनी चाहिए।
  • यदि आच्छादन का प्रयोग खरपतवार नियन्त्रण के लिए हो तो परत 10 सेमी. से मोटी होनी चाहिए।
  • यदि फसल एकवर्षीय हो तो 20-25 माइक्रोन वाली मोटी पॉलीथिन फिल्म का प्रयोग करना चाहिए। यदि फसल द्विवर्षीय हो तो 40-50 माइक्रोन वाली मोटी पॉलीथिन फिल्म का प्रयोग तथा फसल बहुवर्षीय हो तो 50-10 माइक्रोन मोटी पॉलीथिन का प्रयोग उत्तम माना जाता है।


खादों एवं जैव उर्वरको का प्रयोग-
जो भी किसान कृषि का व्यवसाय करते है, वे छोटे या बड़े स्तर पर पशुपालन भी करते है। पशुपालन के साथ-साथ वे आसानी से जैविक खाद का निर्माण कर सकते है। इनके प्रयोग से मृदा की उर्वरा तथा जल अवशोषण क्षमता बढ़ती है तथा मृदा अपरदन भी नियन्त्रित रहता है।

गोबर की खाद-
गाय एवं भैंस द्वारा उत्सर्जित गोबर तथा मूत्र को पराल के साथ एक गढढ़े में विघटित करके जो खाद बनायी जाती है। उसे गोबर की खाद कहते है। उसी प्रकार से किसान बकरी एवं मुर्गी की खाद भी आसानी से घर पर तैयार कर सकते है। इन खादों की गुणवत्ता और मात्रा जानवरों के खिलाये जाने वाले चारें तथा गोबर की खाद तैयार करने की विधि पर आधारित होती है। हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि खेत में कच्चा गोबर की खाद का प्रयोग न करें।

कम्पोस्ट -
कम्पोस्ट बनाने के लिए सब्जियों, फलों, पत्तियों तथा पौधें के अवशेष तथा जानवरों द्वारा उत्पादित का प्रयोग किया जाता है। कम्पोस्ट बनाने के लिए एक ग्ढ्ढा तैयार करना पड़ता है। जिसमें वे ये पौधों द्वारा उत्पादित कूड़े कचरे को सूक्ष्मजीवों की सहायता से अपघटित किया जा सके ।

केचुंआ खाद -
इस प्रकार की खाद को तैयार करने के लिए केंचुओं का प्रयोग किया जाता है। केंचुआ खाद की गुणवत्ता 3 चीजों में निर्भर करती है। केंचुआ की प्रजाति, पानी तथा सड़ी हुयी खाद। केंचुआ खाद बनाने के लिए आइसीनिया फाइटिडा और यूडरोलिस यूजिनिया केंचुओं का प्रयोग किया जाता है। ये केंचुए खाद को बहुमूल्य कम्पोस्ट में बदल देते है ।

जैव उर्वरक-
यह मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीव होते है जिनको प्रयोगशाला में कल्चर किया जाता है। रईजोबियम , एजोटोबैक्टर, एजोस्प्रिलम नाइट्रोजन यौगिकीकरण, फॉस्फोरस घुलनशीलता और कार्बनिक पदार्थो के विघटन द्वारा पौधों की जड़ो को पोषक तत्वों को आसानी से उपलब्ध कराते है। इसके साथ-साथ ये पादप वृद्धि नियामक हार्मोन्स तथा विटामिन्स आदि का निर्माण करते है। जैव उर्वरक पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ाने के साथ-साथ फसल की पैदावार को 10-25 प्रतिशत तक बढ़ा देते है ।

कीट एवं रोग नियन्त्रण-
  • फसल की किस्मों का चुनाव करते समय रोग एवं कीट प्रतिरोधी उन्नत किस्मों का प्रयोग करे।
  • रोग एवं कीटों को नियन्त्रित के लिए समय-समय पर खेत में भ्रमण करते रहना चाहिए। ताकि प्रारम्भिक अवस्था में ही उन्हे नियन्त्रित किया जा सके ।
  • यदि किसान छोटे क्षेत्रफल में खेती कर रहा है तो हाथों द्वारा कीट के अण्डों लार्वा तथा प्यूपा को इकट्ठा करके मार देना चाहिए।
  • कुछ कीट प्रकाश की तरफ आकर्षित होते है। उनकी संख्या को लाईट ट्रैप लगवा कर नियन्त्रित किया जा सकता हैं।
  • उसी प्रकार कुछ कीट रंगों की तरफ आकर्षित होते है। इन कीटों को नियन्त्रित करने के लिए रंगीन चिपचिपे ट्रैप का प्रयोग करना चाहिए। जैसे- थ्रिप्स के लिए नीले रंग का तथा एफिड के लिए पीले रंग का ट्रैप प्रयोग किया जाता है। इन ट्रेपो में हानिकारक कीट उसकी तरफ आकर्षित होके उस पर चिपक कर मर जाते है।
  • फेरोमोन ट्रैप का प्रयोग कीटों की आबादी को नियन्त्रित करने में बहुत सहायक होता है। इस ट्रैप से भिनी-भिनी सुगन्ध निकलती है। जो नर कीटों को भ्रमित करके अपनी ओर आकर्षित करती है जिसके कारण वे इस ट्रैप में प्रवेश कर जाते है और मर जाते है।
  • इन सबके अतिरिक्त प्राकृतिक रूप से निर्मित कीटनाशकों जैसे- नीम,प्याज,मिर्च तथा लहसुन आदि के घोल द्वारा छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा जैविक कीटनाशी बेवेरिया बेसियाना, मेटाराईजियम, वर्टीसीलीयम आदि का छिड़काव करना चाहिए ।