मखाना की खेती मुख्य रूप से पानी की घास के रूप में होती हैं। इसको कुरूपा, अखरोट भी कहा जाता हैं। मखाना पोषक तत्वों से भरपूर एक जलीय उत्पाद हैं। जिसके अंदर प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट काफी मात्रा में मिलते हैं। जो मनुष्य के लिए लाभदायक होते हैं। इसका इस्तेमाल खाने में लोग मिठाई, नमकीन और खीर बनाने में लेते हैं। इसके अलावा दूध में भिगोकर इसे छोटे बच्चों को खिलाया जाता हैं। इसकी खेती के लिए जल भराव वाली भूमि की जरूरत होती हैं। भारत में इसकी खेती गर्म और शुष्क जलवायु वाले प्रदेशों में की जा सकती हैं। इसके पौधे पर कांटेदार पत्ते आते हैं। और इन्ही कांटेदार पत्तों पर बीज बनते हैं। इसके पत्तों से बीज निकलने के बाद वो तालाब की सतह में चले जाते हैं। जिन्हें पानी से निकालकर एकत्रित किया जाता हैं। लेकिन इसकी खेती करने वाले किसान भाइयों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता हैं। इसके फल समय पर प्राप्त नही होने और सतह में चले जाने से लगभग 25 प्रतिशत फल खराब हो जाता हैं।

उपयुक्त वातावरण
मखाने की खेती के लिए जल भराव वाली काली चिकनी भूमि उपयुक्त होती हैं। क्योंकि इसके पौधे पानी के अंदर ही उगते हैं। इसके लिए जलभराव वाली जमीनों में मिट्टी खोदकर तालाब बनाये जाते हैं। जिनमें पानी अधिक समय तक स्थिर बना रहता हैं। इसकी खेती उष्ण कटिबंधीय भागों में की जाती हैं। इसके पौधे को विकास करने के लिए सामान्य तापमान की जरूरत होती हैं।

तालाब तैयार करना
मखाना की खेती पूरी तरह से ऑर्गेनिक तरीके से की जाती हैं। इसके लिए मिट्टी को खोदकर उसमें पानी भर दिया जाता हैं। उसके बाद मिट्टी और पानी को मिलकर कीचड़ तैयार किया जाता हैं। इस कीचड़ वाले भाग में इसके बीजों को लगाया जाता हैं। कीचड़ तैयार करने के बाद तालाब में फिर से पानी भर दिया जाता हैं। तालाब में पानी की भराई कम से कम 6 से 9 इंच तक की जानी चाहिए। इसके अलावा अधिकतम 4 फिट पानी काफी होता हैं। इन तालाबों को बीज लगाने के लगभग दो महीने पहले तैयार किया जाता हैं।

तालाब विधि
यह मखाना की खेती करने की परम्परागत विधि है। इस विधि में बीज को बोने की आवश्यकता नहीं होती हैं क्योंकि पूर्व वर्ष के तालाब में बचे बीज आगामी वर्ष के लिए बीज का काम करते हैं। जबकि खेती विधि में मखाना के बीज को सीधे खेतों में बोया जाता है या फिर धन की फसल की भाँति तैयार पौध की रोपनी नये तालाब में की जाती है। परम्परागत विधि में मखाना के खेतों में माँगुर, सींघी, केवई, गरई, ट्रैश आदि जंगली मछलियाँ बाढ़ के पानी के साथ तालाब में प्रवेश कर जाती हैं जिसे किसान अतिरिक्त फसल के रूप में प्राप्त करते हैं।

बीज रोपण का तरीका और समय
मखाना के बीजों को तालाब की निचली सतह में लगाते हैं। लेकिन बीजों को तालाब में लगाने से पहले पानी में उत्पन्न हुई सभी तरह की खरपतवार को नष्ट कर तालाबों की सफाई कर देनी चाहिए। जिससे पौधे की पैदावार या पौधे पर किसी तरह का कोई रोग या खरपतवार का असर देखने को ना मिले। खरपतवार नष्ट करने के बाद इसके बीजों को तालाब की निचली सतह में 3 से 4 सेंटीमीटर नीचे मिट्टी में लगाते हैं। एक हेक्टेयर में बनाए गए तालाब में लगभग 80 किलो बीज लगाया जाता हैं।
    इसके बीजों को सीधा तालाब में उगा सकते हैं। लेकिन कुछ किसान भाई इसके बीजों की पौधा तैयार कर खेतों में लगाते हैं। इसके बीजों से नवम्बर या दिसम्बर माह में ही पौध तैयार कर ली जाती हैं। उसके बाद इन्हें तालाब में लगाया जाता हैं। इसके पौधों को तालाब में लगाने का सबसे उपयुक्त टाइम जनवरी और फरवरी का महीना होता है. इस विधि में 30 से 90 किलोग्राम स्वस्थ मखाना बीज को तालाब में दिसम्बर के महीने में हाथों से छिंटते हैं। बीज को लगाने के; दिसम्बर से जनवरी 35 से 40 दिन बाद पानी के अंदर बीज का उगना शुरू हो जाता है तथा फरवरी के अंत या मार्च के शुरू में मखाना के पौधे जल की ऊपरी सतह पर निकल आते है। इस अवस्था में पौधे से पौधे एवं पंक्ति से पंक्ति के बीच की दूरी 1 मीटर X 1 मीटर बनाये रखने के लिए अतिरिक्त पौधें को निकाल दिया जाता है।

रोपाई विधि
स्वस्थ एवं नवजात पौधे की रोपाई मार्च से अप्रैल के महीने में कतार से कतार एवं पौधे से पौधे की दूरी 1.20 मी. - 1.25 मी. पर की जाती है। रोपाई के लगभग दो महीने के बाद चमकीले बैंगनी रंग का एकल फूल जहाँ-तहाँ से निकलना शुरू हो जाता है। फूल निकलने के 35 से 40 दिनों बाद फल पूरी तरह से विकसित एवं परिपक्व हो जाते हैं। फल एवं मखाना के सभी भाग कँटीले प्रकृति के होते है। मखाना के फल पूरी तरह से परिपक्व हो जाने के पश्चात गुद्देार फल फटना शुरू हो जाते हैं। मखाना के फल पूरी तहर से परिपक्व हो जाने के पश्चात गुद्देदार फल फटना शुरु हो जाते हैं।
    फल फटने के बाद पानी की ऊपरी सतह पर तैरते है तथा 2 से 3 दिन तालाब की निचली सतह पर बैठना शुरू हो जाते हैं। फूलों के विकसित होने एवं फल के फटने की प्रक्रिया सितम्बर के महीने तक चलती रहती है। सितम्बर के महीने के अंत या अक्टूबर महीने में स्थानीय औजार की सहायता से जलाश्य की सतह में 5 से 30 सेमी. की गहराई में बैठे बीजों को कुशल श्रमिकों की सहायता से जमा किया जाता है। फसल कटाई के 2 से 3 महीने बाद जलाश्य में शेष बचे लगभग एक तिहाई बीज जो इकठ्ठा करते समय छूट जाते है दूसरी फसल के लिए अंकुरित होना शुरू कर देते हैं।

खेत प्रणाली
यह मखाना की खेती करने की नई विधि हैं। जिसे मखाना अनुसंधन केन्द्र द्वारा विकसित किया गया है। इस विधि द्वारा मखाना की खेती 1 फीट तक पानी से भरे कृषि भूमि में की जाती है। यह मखाना की खेती की बहुत ही सरल विधि है जिसमें एक ही खेत में मखाना के साथ-साथ धान एवं अन्य फसलों को उपजाने का अवसर मिलता है। मखाना के पौधें को सर्वप्रथम नर्सरी में तैयार किया जाता है। रोपाई प्रायः फरवरी के प्रथम सप्ताह से लेकर अप्रैल के तीसरे सप्ताह तक की जा सकती है जो मुख्यतः खेत की उपलब्ध्ता एवं बिचड़े की स्थिति पर निर्भर करती है। इस विधि के द्वारा मखाना की खेती का समय घटकर मात्रा चार महीने रह जाता है। मखाना की खेती का विस्तृत वर्णन निम्न हैं।

नर्सरी
मखाना एक जलीय पौध है इस कारण पानी को संग्रहित करने वाली कार्बनिक पदार्थ से युक्त क्ले मिट्टी में मखाना का पौध सही रूप से विकास करता है। यही वजह है चिकनी एवं चिकनी-दोमट मिट्ट्टी इसके लिए बहुत उपयुक्त मानी जाती है। खेत को मखाने के लिए तैयार करने हेतु दो से तीन गहरी जुताई की आवश्यकता होती है तथा बिचड़े के सही विकास हेतु रासायनिक खाद नाइट्रोजन, पफास्पफोरस एवं पोटाश क्रमशः 100:60:40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के अनुपात में डालना चाहिए। इसके बाद खेत जिसमें मखाना के बिचड़े को तैयार करना है, का समतलीकरण कर दो पफीट ऊँचा बाँध खेत के चारों तरपफ बनाना चाहिए। खेत तैयार होने के बाद उसमें लगभग 1.5 फीट पानी डाल कर मखाना के बीज की दिसम्बर महीने में बोआई कर देनी चाहिए। एक हेक्टेयर क्षेत्रा में मखाने की बुआई के लिए लगभग 500 मी क्षेत्रा में नर्सरी तैयार करना चाहिए। इसके लिए लगभग 20 किलो मखाना के स्वस्थ बीज को पानी से भरे तैयार खेत में एक समान छींट देना चाहिए। बिचड़ा तैयार होने तक लगभग एक फीट पानी का स्तर बनाये रखना चाहिए दिसम्बर से अप्रैल तक। प्रायः यह देखा गया है कि प्रारंभिक अवस्था में बिचड़ा में एपिफड का प्रकोप बना रहता है। लेकिन इण्डोसल्पफान के 0.2: घोल (दो लीटर दवा 1 लीटर पानी में) का छिड़काव कर बिचड़ा को एपिफड से बचाया जा सकता है। मार्च महीने के अंत तक बिचड़ा रोपाई के लिए पूर्ण रूप से तैयार हो जाता हैं।

खेत की तैयारी
खेत की 2 से 3 गहरी जुताई के बाद ट्रैक्टर या देशी हल की सहायता से पाटा देकर खेत को मखाना की खेती के लिए तैयार करते है। मखाना की खेती के लिए खेत उपलब्ध होने पर मखाना के लिए खेत की तैयारी फरवरी के प्रथम सप्ताह से अप्रैल के दूसरे सप्ताह तक हर हाल में पूरी कर लेनी चाहिए। बिचड़ा के रोपाई से पूर्व खेत के चारों तरफ 2 फीट ऊँचा बाँध बनाकर लगभग 1 फीट पानी भर देना चाहिए। उसके बाद ट्रैक्टर आधरित गीली जुताई करने के उपकरण से 2 से 3 बार खेतों में कदवा करना चाहिए। खेतों में कदवा करना मखाना की खेती के लिए परम आवश्यक है क्योंकि यह नीचे की ओर होने वाले पानी के रिसाव को रोकता है।

खाद एवं उर्वरक
परम्परागत तरीके से तालाबों में मखाने की खेती में किसान खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग नहीं करते थे। लेकिन इसके विपरीत खेतों में मखाना की पैदावार लेने के लिए खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग अति आवश्यक है। मखाना को बड़े एवं भारी पत्तों वाला जलीय पौध होने की वजह से ज्यादा पोषक तत्वों की आवश्यकता होती हैं। मखाना की फसल में औसतन नेत्राजन, स्पफूर एवं पोटाश क्रमशः 100:60:40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है। पोषक तत्वों की उपर्युक्त मात्रा को पूरा करने के लिए कार्बनिक (15 टन/हे.) एवं अकार्बनिक दोनों तरह के उर्वरकों की आवश्यकता पड़ती हैं।

खेतों में रोपाई
नर्सरी में पौध तैयार होने पर स्वस्थ पौधें को उखाड़ कर उन्हें अच्छी तरह से कदवा किये गये खेत में पंक्तियों में ही लगाना चाहिए। अनुसंधन से यह पाया गया कि पौधें से पौधें एवं पंक्ति मखाना की रोपाई के लिए मुख्य खेत की तैयारी 9 से पंक्ति के बीच की दूरी 1.20 मी. X 1.25 मी. रखनी चाहिए ताकि मखाने के पौधें की सही बृद्धि एवं विकास हो सके। पौधें की रोपाई का कार्य फरवरी के प्रथम सप्ताह से लेकर अप्रैल के द्वितीय सप्ताह तक अवश्य कर लेना चाहिए ताकि फसल से अधिक से अधिक उत्पादन लिया जा सके।

जल प्रबंधन
परम्परागत तरीके से मखाना की खेती करने पर सामान्यतः किसानों को तालाबों में ज्यादा जल भराव करना होता था, वैसे भी जलीय पौध होने की वजह से मखाना की खेती के लिए निरंतर जल की व्यवस्था अति आवश्यक है। नर्सरी में मखाना के पौधें को तैयार होने में लगभग चार महीने लगते है। चूँकि इसकी रोपाई मार्च के अंत एवं अप्रैल महीने में होती है तथा रोपाई के बाद इसकी वृद्धि एवं विकास अप्रैल से अगस्त महीने में होती है जब फसल को सामान्यतः पानी मानसून में होने वाली वर्षा से प्राप्त होता है। असामान्य वर्षा के समय किसानों को 4 से 5 बार या इससे ज्यादा भी सिंचाई की आवश्यकता होती हैं।

खरपतवार नियंत्रण
मखाने के विकास की प्रारंभिक अवस्था में अवांछनीय पौधें का प्रकोप बढ़ जाता है। अतः शुरूआत में मखाना के खेत से कुछ अंतराल पर खरपतवार को निकालते रहना चाहिए। पौधें की रोपाई के 30 से 40 दिन बाद मखाना के पत्ते का वानस्पतिक विकास कापफी तेजी से होता है। खरपतवार की वृद्धि कम हो जाती है। समेकित कृषि प्रबंध्न में मखाना के साथ मछली एवं सिंघाड़ा लेने से दिसम्बर से जनवरी महीने में मछली के निकासी के वक्त जाल डालने से खरपतवार काफी हद तक कम हो जाते हैं।

पुष्प एवं फल का लगना
मखाना के पौधें में पुष्प एवं फल का बनना मई के महीने में शुरू होता है जो अक्टूबर एवं नवम्बर तक चलता रहता है। मखाना के पौधें की यह खासियत है कि इसके सभी पौधें में फूल एवं फल एक साथ नहीं लगते। फल परिपक्व होने के खेत प्रणाली में मखाना की रोपाई पुष्पावस्था में मखाना की फसल 10 बाद फटना शुरू हो जाता है। परिणाम स्वरूप मखाना के बीज पानी की ऊपरी सतह पर तैरने लगते है। फिर 2 से 3 दिनों बाद तालाब/खेत की निचली सतह पर बीज बैठ जाता है। फल के फटने एवं बीज के पानी की सतह के नीचे बैठने की क्रिया फसल अवधि तक चलती रहती हैं।

फसल की कटाई
मखाना के संदर्भ में फसल कटाई का मतलब तालाब/खेत की सतह पर एकत्रा बीजों का एकत्रिकरण होता है। मखाना की पारम्परिक खेती में बीजों के जमा करने का सिलसिला अगस्त से अक्टूबर महीने तक चलता है। जबकि खेतों में यह प्रक्रिया अगस्त महीने तक चलती है। इसका मुख्य कारण खेतों की कम गहराई (1 से 2 फीट) का होना है। प्रायः बीजों का एकत्रिकरण सुबह 6 से 11 बजे तक में पारम्परिक तरीके से की जाने वाली खेती में किया जाता था। करीब 4 से 5 लोगों का समूह बीज को तालाब की सतह से एकत्रा करते थे। बीज को एकत्रा करने में लगने वाला समय उसकी तालाब/खेतों में उपलब्ध मात्रा पर निर्भर करता है। खेतों में की जाने वाली मखाने की खेती में पानी की गहराई कम होने की वजह से बीजों को एकत्रित करना काफी सरल है तथा कम अवधि में हो जाता हैं।


पौधों का विकास
बीज रोपाई के लगभग एक से डेढ़ महीने बाद इसके पौधे सतह पर कांटेदार पत्तों के रूप में फैलने लगते हैं। जिनसे पूरा तालाब ढक जाता हैं। इन पत्तियों पर ही इसके फूल खिलते हैं. इसके फूलों के खिलने के लगभग तीन से चार दिन बाद इनमें बीज बनने लगते हैं। पत्तियों पर बीज लगने के लगभग दो महीने बाद ये पककर तैयार हो जाते हैं। पत्तियों पर पककर तैयार हुए बीज पौधे से अलग होकर पानी सतह पे तैरने लगते हैं। इसके बीज पानी की सतह पर एक से दो दिन तक तैरते रहते हैं। उसके बाद बीज पानी की सतह में चले जाते हैं। जिन्हें किसान भाई पौधों को हटाने के बाद सतह से निकालते हैं।

बीज उत्पादन
तालाब विधि से मखाना की खेती करने पर औसतन 1.4 से 2.2 टन/हे. बीज का उत्पादन होता है जो बुआई के लिए प्रयुक्त बीज की आनुवांशिक क्षमता पर निर्भर करता है। जबकि खेती विधि से मखाना की खेती करने पर उसी बीज को इस्तेमाल करने पर उसकी उत्पादन क्षमता बढ़ जाती है जो 2.6 से 3.0 टन/हे. दर्ज की गई हैं। अब तक मखाना की कोई उन्नत किस्म उपलब्ध् नहीं है। परन्तु उन्नत किस्म को विकसित करने के क्षेत्रा में अनुसंधन जारी है और कुछ विशु वंशक्रम का विकास किया जा चुका है जिसकी उत्पादन क्षमता 2.8 से 3.0 टन/हे. हैं।

मखाना के पौधे में लगने वाले कीट एवं व्याधि
अन्य फसलों की भाँति मखाना की फसल में भी कीड़े एवं रोगों का प्रकोप बना रहता है। इस फसल में मुख्यतः एपिफड, केसवर्म, जड़ भेदक के प्रकोप का खतरा बना रहता है। नर्सरी में मखाना का बिचड़ा तैयार करते समय एपिफड के प्रकोप का ज्यादा खतरा रहता है। परन्तु केसवर्म एवं जड़ भेदक का प्रकोप पूर्ण रूप से विकसित मखाना के पौधें में दिखाई पड़ता हैं।

एफिड
एपिफड सामान्यतः मखाना के नवजात पौधें की पत्तियों को नुकसान पहुँचाते हैं। जबकि केसवर्म एवं जड़ भेदक क्रमशः फूल एवं जड़ को नुकसान पहुँचाते हैं।

नियंत्रण
एपिफड एवं केसवर्म के प्रकोप से पौधें को सुरक्षित रखने के लिए 0.3 प्रतिशत नीम तेल के घोल का छिड़काव करना चाहिए। जड़ भेदक से बचाव के लिए 25 किलोग्राम नीम की खल्ली को प्रारम्भ में खेत की तैयारी करते वक्त डालना चाहिए।

झुलसा रोग
मखाना में होने वाला झुलसा रोग एक बहुत ही नुकसानदायक फफूँदीजनक रोग है। इसे उत्पन्न करने वाला ऑर्गनिज़म को अल्टरनेरिया टिनुईस कहते हैं। यह प्रायः पूर्ण रूप से विकसित मखाना के पौधें में होता है। इस रोग से प्रभावित पत्तियों के ऊपरी सतह पर गहरे भूरे या काले रंग का लगभग गोलाकार मृत क्षेत्रा जहाँ-तहाँ बन जाता है। इसमें प्रायः समक्रेंद्री बहुत सारे छल्ले एवं पटरी रूपी विकृति हो जाती जो टारगेट बोर्ड को इफेक्ट देती है। बहुत सारे धब्बे मिलकर बाद में बड़े एक पौधें द्वारा उत्पादित बीज 13 धब्बे बनाते हैं। जब यह बीमारी अन्तिम अवस्था में होती है तो पत्ते पूरी तरह से जले या झुलसे हुये प्रतीत होते हैं।

नियंत्रण
मखाना में लगने वाले झुलसा रोग को नियंत्रित करने के लिए कॉपर ऑक्सीक्लोराइड, डाइथेर्न Z-78 या डाइथेन M-45 का 0.3 प्रतिशत घोल का पन्द्रह दिन के अंतराल पर दो से तीन बार छिड़काव करना चाहिए।

फल सड़न
हाल में मखाना में फल सड़न रोग देखा गया है पर अभी तक इसे उत्पन्न करने वाले कीटाणु का पता नहीं चल पाया है। फिर भी इसे कवक जनित रोग की श्रेणी में रखा गया है क्योंकि इस रोग में कार्बेन्डाजिम एवं डाइथेन M-45 के 0.3 प्रतिशत घोल से पत्तियों पर छिड़काव करने पर यह बीमारी काफी हद तक नियंत्रित हो जाती है। इस रोग से ग्रसित पौध पूर्ण रूप से स्वस्थ नजर आता है परन्तु इसके अविकसित फल सड़ना शुरू हो जाते हैं जिससे आर्थिक उत्पाद काफी प्रभावित होता है।

अति अंगवृद्धि
कुछ पौधें में अति अंगबृद्धि रूपी बीमारी को देखा गया है हालांकि यह मखाना के पौधे के लिए गंभीर बीमारी नहीं हैं। लेकिन अति अंगबृद्धि से ग्रसित पौधें के पूल एवं पत्ते असामान्य बृद्धि से प्रभावित उत्तकों की वजह से बुरी तरह से खराब हो जाते हैं। यह बीमारी डोसानसियोपसिस यूरेलि नामक फफूद से भी होता है। पत्तियों एवं फूलों में होने वाली असामान्य बृद्धि की वजह से इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। इस बीमारी के लक्षण किसी खास जगह पर नहीं होते लेकिन साधरणतः यह पत्रा फलक से डंठल एवं पुष्पासन की तरफ फैलता है इस कारण फूल के निचले हिस्से को कापफी क्षति होती है। परिणामस्वरूप फूल में बीज भी नहीं बन पाते। अभी तक इस बीमारी की रोकथाम के लिए कोई भी शोध रिपोर्ट नहीं है। अतः जल्द से जल्द इस बीमारी की रोकथाम के लिए गहन अध्ययन एवं शोध किये जाने की आवश्यकता हैं।

बीजों की पैदावार
इसके पौधे कांटेदार होते हैं जो पूरे तालाब की ढके हुए होते हैं। इस कारण जब इसके बीज पौधे से अलग होते हैं तो उन्हें किसान भाई एकत्रित नही कर पाते हैं। जिसके कारण बीज सतह में चले जाते हैं। उसके बाद जब पौधों पर सभी बीज पककर गिर जाते हैं तब पौधे को हटाकर सतह से इसके बीजों को एकत्रित कर लिया जाता हैं। इस दौरान इसके बीजों को निकालने में एक से दो महीने का समय लग जाता हैं। जिससे बीजों में काफी ज्यादा नुकसान हो जाता हैं। इसके बीजों को पानी से निकालकर उनके छिलके को हटाकर साफ़ किया जाता हैं। उसके बाद उन्हें लकड़ी की हथोड़ी से पीटकर उनसे लावा निकाल लिया जाता हैं। तीन किलो कच्चे बीजों से एक किलो मावा प्राप्त होता हैं। जिससे मखाना तैयार किया जाता हैं। एक क्विंटल मखाना गुडी से लगभग 40 किलो मावा निकलता हैं। जिससे किसान भाइयों की अच्छी कमाई हो जाती है।