ईश्वर साहू, सरिता, प्रेमचंद उइके
फल विज्ञान विभाग
राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर (म.प्र.) 474002
परिचय
पपीते का फल थोड़ा लम्बा व गोलाकार होता है तथा गूदा पीले रंग का होता है। गूदे के बीच में काले रंग के बीज होते हैं। पेड़ के ऊपर के हिस्से में पत्तों के घेरे के नीचे पपीते के फल आते हैं ताकि यह पत्तों का घेरा कोमल फल की सुरक्षा कर सके। कच्चा पपीता हरे रंग का और पकने के बाद हरे पीले रंग का होता है। आजकल नयी जातियों में बिना बीज के पपीते की किस्में ईजाद की गई हैं। एक पपीते का वजन 300, 400 ग्राम से लेकर 1 किलो ग्राम तक हो सकता है।
पपीते के पेड़ नर और मादा के रुप में अलग-अलग होते हैं लेकिन कभी-कभी एक ही पेड़ में दोनों तरह के फूल खिलते हैं। हवाईयन और मेक्सिकन पपीते बहुत प्रसिद्ध हैं। भारतीय पपीते भी अत्यन्त स्वादिष्ट होते हैं। अलग-अलग किस्मों के अनुसार इनके स्वाद में थोड़ी बहुत भिन्नता हो सकती है।
पपीता की खेती हेतु भूमि एवं जलवायु
इस पपीते के सफल उत्पादन के लिए दोमट मिट्टी अच्छी होती है। खेत में पानी निकलने का सही इंतजाम होना जरूरी है, क्योंकि पपीते के पौधे की जड़ों व तने के पास पानी भरा रहने से पौधे का तना सड़ने लगता है। इस पपीते के लिहाज से मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 तक होना चाहिए।
यह मुख्य रूप से उष्ण प्रदेशीय फल है इसके उत्पादन के लिए तापक्रम 22-26 डिग्री से.ग्रे. के बीच और 10 डिग्री से.ग्रे. से कम नहीं होना चाहिए क्योंकि अधिक ठंड तथा पाला इसके शत्रु हैं, जिससे पौधे और फल दोनों ही प्रभावित होते हैं। इसके सकल उत्पादन के लिए तुलनात्मक उच्च तापक्रम, कम आर्द्रता और पर्याप्त नमी की जरुरत है।
पपीते की मुख्य किस्में
पूसा डोलसियशः यह अधिक ऊपज देने वाली पपीते की गाइनोडाइसियश प्रजाति है। जिसमें मादा तथा नर-मादा दो प्रकार के फूल एक ही पौधे पर आते हैं पके फल का स्वाद मीठा तथा आकर्षक सुगंध लिये होता है।
पूसा मेजेस्टीः यह भी एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। इसकी उत्पादकता अधिक है, तथा भंडारण क्षमता भी अधिक होती है।
रेड लेडी 786ः पपीते की एक नई किस्म पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना द्वारा विकसित की गई है, जिसे रेड लेडी 786 नाम दिया है। यह एक संकर किस्म है। इस किस्म की खासीयत यह है कि नर व मादा फूल ही पौधे पर होते हैं, लिहाजा हर पौधे से फल मिलने की गारंटी होती है।
इस किस्म के फलों की भंडारण क्षमता भी ज्यादा होती है। पपीते में एंटी आक्सीडेंट पोषक तत्त्व कैरोटिन, पोटैशियम, मैग्नीशियम, रेशा और विटामिन ए, बी, सी सहित कई अन्य गुणकारी तत्व भी पाए जाते हैं, जो सेहत के लिए बेहद फायदेमंद होते हैं।
पूसा जाइन्टः यह किस्म बहुत अधिक वृद्धि वाली मानी जाती है। नर तथा मादा फूल अलग-अलग पौधे पर पाये जाते हैं। पौधे अधिक मजबूत तथा तेज हवा से गिरते नहीं हैं।।
पूसा ड्रवार्फः यह छोटी बढ़वार वाली डादसियश किस्म कही जाती है।जिसमें नर तथा मादा फूल अलग अलग पौधे पर आते हैं। फल मध्यम तथा ओवल आकार के होते हैं।
पूसा नन्हाः इस प्रजाति के पौधे बहुत छोटे होते हैं। तथा यह गृहवाटिका के लिए अधिक उपयोगी होता है। साथ साथ सफल बागवानी के लिए भी उपयुक्त है।
कोयम्बर-1ः पौधा छोटा तथा डाइसियश होता है। फल मध्य आकार के तथा गोलाकार होते हैं।
कोयम्बर-3ः यह एक गाइनोडाइसियश प्रजाति है। पौधा लम्बा, मजबूत तथा मध्य आकार का फल देने वाला होता है। पके फल में शर्करा की मात्रा अधिक होती है। तथा गूदा लाल रंग का होता है।
हनीइयू (मधु बिन्दु): इस पौधे में नर पौधों की संख्या कम होती है,तथा बीज के प्रकरण अधिक लाभदायक होते हैं। इसका फल मध्यम आकार का बहुत मीठा तथा खुशबू वाला होता है।
कूर्गहनि डयूः यह गाइनोडाइसियश जाति है। इसमें नर पौधे नहीं होते हैं। फल का आकार मध्यम तथा लम्बवत गोलाकार होता है। गूदे का रंग नारंगी पीला होता है।
वाशिगंटनः यह अधिक उपज देने वाली विभिन्न जलवायु में उगाई जाने वाली प्रजाति है। इस पौधे की पत्तियों के डंठल बैगनी रंग के होते हैं। जो इस किस्म की पहचान कराते हैं। यह डाइसियश किस्म हैं फल मीठा,गूदा पीला तथा अच्छी सुगंध वाला होता है।
पन्त पपीता-1ः इस किस्म का पौधा छोटा तथा डाइसिशय होता है। फल मध्यम आकार के गोल होते हैं। फल मीठा तथा सुगंधित तथा पीला गूदा होता है। यह पककर खाने वाली अच्छी किस्म है तथा तराई एवं भावर जैसे क्षेत्र में उगाने के लिए अधिक उपयोगी है।
पपीते की बोआई
पपीते का व्यवसाय उत्पादन बीजों द्वारा किया जाता है। इसके सफल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि बीज अच्छी क्वालिटी का हो। बीज के मामले में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए-
- बीज बोने का समय जुलाई से सितम्बर और फरवरी-मार्च होता है।
- बीज अच्छी किस्म के अच्छे व स्वस्थ फलों से लेने चाहिए। चूंकि यह नई किस्म संकर प्रजाति की है, लिहाजा हर बार इसका नया बीज ही बोना चाहिए।
- बीजों को क्यारियों, लकड़ी के बक्सों, मिट्टी के गमलों व पोलीथीन की थैलियों में बोया जा सकता है।
- क्यारियाँ जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊंची व 1 मीटर चौड़ी होनी चाहिए।
- क्यारियों में गोबर की खाद, कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट काफी मात्रा में मिलाना चाहिए। पौधे को पद विगलन रोग से बचाने के लिए क्यारियों को फार्मलीन के 1रू40 के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए और बीजों को 0.1 फीसदी कॉपर आक्सीक्लोराइड के घोल से उपचारित करके बोना चाहिए।
- जब पौधे 8-10 सेंटीमीटर लंबे हो जाएँ, तो उन्हें क्यारी से पौलीथीन में स्थानांतरित कर देते हैं।
- जब पौधे 15 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ, तब 0.3 फीसदी फफूंदीनाशक घोल का छिड़काव कर देना चाहिए।
पपीते के उत्पादन के लिए नर्सरी में पौधों का उगाना बहुत महत्व रखता है। इसके लिए बीज की मात्रा एक हेक्टेयर के लिए 500 ग्राम पर्याप्त होती है। बीज पूर्ण पका हुआ, अच्छी तरह सूखा हुआ और शीशे की जार या बोतल में रखा हो जिसका मुँह ढका हो और 6 महीने से पुराना न हो, उपयुक्त है। बोने से पहले बीज को 3 ग्राम केप्टान से एक किलो बीज को उपचारित करना चाहिए।
बीज बोने के लिए क्यारी जो जमीन से ऊँची उठी हुई संकरी होनी चाहिए इसके अलावा बड़े गमले या लकड़ी के बक्सों का भी प्रयोग कर सकते हैं। इन्हें तैयार करने के लिए पत्ती की खाद, बालू, तथा सदी हुई गोबर की खाद को बराबर मात्र में मिलाकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं। जिस स्थान पर नर्सरी हो उस स्थान की अच्छी जुताई, गुड़ाई,करके समस्त कंकड़-पत्थर और खरपतवार निकाल कर साफ कर देना चाहिए तथा जमीन को 2 प्रतिशत फोरमिलिन से उपचारित कर लेना चाहिए। वह स्थान जहाँ तेज धूप तथा अधिक छाया न आये चुनना चाहिए। एक एकड़ के लिए 4059 मीटर जमीन में उगाये गए पौधे काफी होते हैं। इसमें 2.5 × 10 × 0.5 आकर की क्यारी बनाकर उपरोक्त मिश्रण अच्छी तरह मिला दें, और क्यारी को ऊपर से समतल कर दें।यदि गमलों या बक्सों का उगाने के लिए प्रयोग करें तो इनमे भी इसी मिश्रण का प्रयोग करें। बोई गयी क्यारियों को सूखी घास या पुआल से ढक दें और सुबह शाम होज द्वारा पानी दें। बोने के लगभग 15-20 दिन भीतर बीज जम जाते हैं। जब इन पौधों में 4-5 पत्तियाँ और ऊँचाई 25 से.मी. हो जाये तो दो महीने बाद खेत में प्रतिरोपण करना चाहिए, प्रतिरोपण से पहले गमलों को धूप में रखना चाहिए, ज्यादा सिंचाई करने से सड़न और उकठा रोग लग जाता है। उत्तरी भारत में नर्सरी में बीज मार्च-अप्रैल,जून-अगस्त में उगाने चाहिए।
पपीते का रोपण
अच्छी तरह से तैयार खेत में 2 × 2 मीटर की दूरी पर 50 × 50 × 50 सेंटीमीटर आकार के गड्ढे मई के महीने में खोद कर 15 दिनों के लिए खुले छोड़ देने चाहिएं, ताकि गड्ढों को अच्छी तरह धूप लग जाए और हानिकारक कीड़े-मकोड़े, रोगाणु वगैरह नष्ट हो जाएँ।
पौधे लगाने के बाद गड्ढे को मिट्टी और गोबर की खाद 50 ग्राम एल्ड्रिन मिलाकर इस प्रकार भरना चाहिए कि वह जमीन से 10-15 सेंटीमीटर ऊँचा रहे। गड्ढे की भराई के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए, जिससे मिट्टी अच्छी तरह बैठ जाए।
वैसे पपीते के पौधे जून-जुलाई या फरवरी -मार्च में लगाए जाते हैं, पर ज्यादा बारिश व सर्दी वाले इलाकों में सितंबर या फरवरी -मार्च में लगाने चाहिए। जब तक पौधे अच्छी तरह पनप न जाएँ, तब तक रोजाना दोपहर बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए।
प्लास्टिक थैलियों में बीज उगाना
इसके लिए 200 गेज और 20 ×15 सेमी आकर की थैलियों की जरुरत होती है । जिनको किसी कील से नीचे और साइड में छेड़ कर देते हैं तथा 1ः1ःः1ः1 पत्ती की खाद, रेट, गोबर और मिट्टी का मिश्रण बनाकर थैलियों में भर देते हैं । प्रत्येक थैली में दो या तीन बीज बो देते हैं। उचित ऊँचाई होने पर पौधों को खेत में प्रतिरोपण कर देते हैं । प्रतिरोपण करते समय थाली के नीचे का भाग फाड़ देना चाहिए।
गड्ढे की तैयारी तथा पौधारोपण
पौध लगाने से पहले खेत की अच्छी तरह तैयारी करके खेत को समतल कर लेना चाहिए ताकि पानी न भर सकें। फिर पपीता के लिए 50 × 50 × 50 से.मी. आकार के गड्ढे 1.5 × 1.5 मीटर के फासले पर खोद लेने चाहिए और प्रत्येक गड्ढे में 30 ग्राम बी.एच.सी. 10 प्रतिशत डस्ट मिलकर उपचारित कर लेना चाहिए। ऊँची बढ़ने वाली क़िस्मों के लिए 1.8 × 1.8 मीटर फासला रखते हैं। पौधे 20-25 से०मी० के फासले पर लगा देते हैं। पौधे लगते समय इस बात का ध्यान रखते हैं कि गड्ढे को ढक देना चाहिए जिससे पानी तने से न लगे।
खाद व उर्वरक का प्रयोग
पपीता जल्दी फल देना शुरू कर देता है। इसलिए इसे अधिक उपजाऊ भूमि की जरुरत है। अतः अच्छी फसल लेने के लिए 200 ग्राम नाइट्रोजन, 250 ग्राम फॉस्फरस एवं 500 ग्राम पोटाश प्रति पौधे की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष प्रति पौधे 20-25 कि०ग्रा० गोबर की सड़ी खाद, एक कि०ग्रा० बोनमील और एक कि.ग्रा. नीम की खली की जरुरत पड़ती है। खाद की यह मात्र तीन बार बराबर मात्रा में मार्च-अप्रैल, जुलाई-अगस्त और अक्तूबर महीनों में देनी चाहिए।
पपीता जल्दी बढ़ने व फल देने वाला पौधा है, जिसके कारण भूमि से काफी मात्रा में पोषक तत्व निकल जाते हैं। लिहाजा अच्छी उपज हासिल करने के लिए 250 ग्राम नाइट्रोजन, 150 ग्राम फास्फोरस और 250 ग्राम पोटाश प्रति पौधे हर साल देना चाहिए। नाइट्रोजन की मात्रा को 6 भागों में बाँट कर पौधा रोपण के 2 महीने बाद से हर दूसरे महीने डालना चाहिए।
फास्फोरस व पोटाश की आधी-आधी मात्रा 2 बार में देनी चाहिए। उर्वरकों को तने से 30 सेंटीमीटर की दूरी पर पौधें के चारों ओर बिखेर कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की आधी मात्रा फरवरी-मार्च और आधी जुलाई-अगस्त में देनी चाहिए। उर्वरक देने के बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए।
पाले से पेंड़ की रक्षा
पौधे को पाले से बचाना बहुत आवश्यक है। इसके लिए नवम्बर के अंत में तीन तरफ से फूंस से अच्छी प्रकार ढक दें एवं पूर्व-दक्षिण दिशा में खुला छोड़ दें। बाग के चारों तरफ रामाशन से हेज लगा दें जिससे तेज गर्म और ठंडी हवा से बचाव हो जाता है। समय-समय पर धुआँ कर देना चाहिए।
पपीते में कीट, बीमारी व उनकी रोकथाम
प्रमुख रूप से किसी कीड़े से नुकसान नहीं होता है परन्तु वायरस, रोग फैलाने में सहायक होते हैं। इसमें निम्न रोग लगते हैं-
तने तथा जड़ के गलने से बीमारी
इसमें भूमि के तल के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है और जड़ भी गलने लगती है। पत्तियाँ सुख जाती हैं और पौधा मर जाता है। इसके उपचार के लिए जल निकास में सुधार और ग्रसित पौधों को तुंरत उखाड़कर फेंक देना चाहिए। पौधों पर एक प्रतिशत वोरडोक्स मिश्रण या कोंपर आक्सीक्लोराइड को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करने से काफी रोकथाम होती है।
डेम्पिग ओंफ
इसमें नर्सरी में ही छोटे पौधे नीचे से गलकर मर जाते हैं। इससे बचने के लिए बीज बोने से पहले सेरेसान एग्रोसन जी.एन. से उपचारित करना चाहिए तथा सीड बेड को 2.5: फार्मेल्डिहाइड घोल से उपचारित करना चाहिए।
मौजेक (पत्तियों का मुड़ना)
इससे प्रभावित पत्तियों का रंग पीला हो जाता है व डंठल छोटा और आकर में सिकुड़ जाता है। इसके लिए 250 मि. ली. मैलाथियान 50 ई.सी. 250 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करना काफी फायदेमंद होता है।
चैपा
इस कीट के बच्चे व जवान दोनों पौधे के तमाम हिस्सों का रस चूसते हैं और विषाणु रोग फैलाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए डायमेथोएट 30 ईसी 1.5 मिलीलीटर या पफास्पफोमिडाल 5 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।
लाल मकड़ी
इस कीट का हमला पत्तियों व फलों की सतहों पर होता है। इसके प्रकोप के कारण पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और बाद में लाल भूरे रंग की हो जाती है। इसकी रोकथाम के लिए थायमेथोएट 30 ईसी 1.5 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
पद विगलन
यह रोग पीथियम फ्रयूजेरियम नामक पफपफूंदी के कारण होता है। रोगी पौधें की बढ़वार रूक जाती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं और पौध सड़कर गिर जाता है। इसकी रोकथाम के लिए रोग वाले हिस्से को खुरचकर उस पर ब्रासीकोल 2 ग्राम को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
श्याम वर्ण
इस रोग का असर पत्तियों व फलों पर होता है, जिससे इनकी वृद्धि रूक जाती है। इससे फलों के ऊपर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए ब्लाईटाक्स 3 ग्राम को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
पपीते के अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई
पानी की कमी तथा निराई-गुड़ाई न होने से पपीते के उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ता है। अतः दक्षिण भारत की जलवायु में जाड़े में 8-10 दिन तथा गर्मी में 6 दिन के अंतर पर पानी देना चाहिए। उत्तर भारत में अप्रैल से जून तक सप्ताह में दो बार तथा जाड़े में 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पानी तने को छूने न पाए अन्यथा पौधे में गलने की बीमारी लगने का अंदेशा रहेगा इसलिए तने के आस-पास मिट्टी ऊँची रखनी चाहिए। पपीता का बाग साफ सुथरा रहे इसके लिए प्रत्येक सिंचाई के बाद पेड़ों के चारो तरफ हल्की गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए।
पपीते के अच्छे उत्पादन के लिए सिंचाई का सही इंतजाम बेहद जरूरी है। गर्मियों में 6-7 दिनों के अंदर पर और सर्दियों में 10-12 दिनों के अंदर सिंचाई करनी चाहिए। बारिश के मौसम में जब लंबे समय तक बरसात न हो, तो सिंचाई की जरूरत पड़ती है। पानी को तने के सीधे संपर्क में नहीं आना चाहिए। इसके लिए तने के पास चारों ओर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण
पपीते के बगीचे में तमाम खरपतवार उग आते हैं, जो जमीन से नमी, पोषक तत्त्वों, वायु व प्रकाश वगैरह के लिए पपीते के पौधे से मुकाबला करते हैं, जिससे पौधे की बढ़वार व उत्पादन पर उल्टा असर पड़ता है। खरपतवारों से बचाव के लिए जरूरत के मुताबिक निकाई-गुड़ाई करनी चाहिए। बराबर सिंचाई करते रहने से मिट्टी की सतह काफी कठोर हो जाती है, जिससे पौधे की बढ़वार पर उल्टा असर पड़ता है। लिहाजा 2-3 बार सिंचाई के बाद थालों की हल्की निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए।
पपीते की उपज
आमतौर पर पपीते की उन्नत किस्मों से प्रति पौध 35-50 किलोग्राम उपज मिल जाती है, जबकि नई किस्म से 2-3 गुणा ज्यादा उपज मिल जाती है।
0 Comments