द्विवेदी प्रसाद, सहायक प्राध्यापक (शस्य विज्ञान)
पं. शिवकुमार शास्त्री कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, राजनांदगांव (छ.ग.)

वर्मी कम्पोस्ट
आज की सघन खेती के युग में मृदा की उर्वराशक्ति बनाये रखने के लिये प्राकृतिक खादों का प्रयोग आवश्यक हैं। कम्पोस्ट बनाने की विधि जिसमें केंचुआ का प्रयोग किया जाता हैं, वर्मी कम्पोस्टिंग कहते हैं। केंचुए जिन कार्बनिक पदार्थाें को निगलते हैं, वे उनकी अंतड़ियों में जाकर अच्छी तरह मिल जाते हैं और इसमें कई प्रकार के बैक्टीरिया और रासायनिक रस अच्छी तरह मिलकर एक लसदार मिश्रण तैयार करते हैं। जब केंचुआ इसे विष्ठा के रूप में बाहर छोड़ता हैं तो यह बारीक और दानेदार होती हैं, इस विष्ठा को ही वर्मीकम्पोस्ट कहते हैं।

1. वर्मीकम्पोस्टिंग (केंचुआ खाद बनाना):- यह जैविक व्यर्थ पदार्थों को केंचुए के मल (कास्टिंग) में बदलने की प्रक्रिया हैं। केंचुए के मल मृदा की उर्वरता के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसमें प्रचुर मात्रा में नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस, कैल्शियम तथा मैग्नीशियम पाये जाते हैं। केंचुए के कास्टिंग में अच्छी मिट्टी की ऊपरी सतह की तुलना में, पांच गुणा नाइट्रोजन, सात गुणा पोटाश एवं डेढ़ गुणा कैल्शियम अधिक मात्रा में पाया जाता हैं। विभिन्न शोधकर्ताओं ने यह प्रदर्शित किया हैं कि, केंचुए की कास्टिंग में बहुत अच्छा वातन, रंध्राकाश (पोलापन), संरचना, निथार तथा जलधारण क्षमता होती हैं। केंचुआ खाद एवं केंचुए के प्राकृतिक रूप से भूमि में छिद्र बनने के कारण भूमि में वायु तथा पानी का संचार बढ़ जाता हैं।

2. वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन के लिए सामग्रियों का चयनः- वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन के लिए गाय का गोबर, खेत के व्यर्थ पदार्थ, फसल अवशेष, गिरी हुई पत्तियां, निकाले गये नींदा (खरपतवार), जैव अपघटनीय पदार्थ (सब्जी बाजार, फूल, कृषि उद्योगों, फल बाजार आदि से प्राप्त)।

3. केंचुआ खाद उत्पादन के लिए जगह का चयनः- केंचुए की खाद ऐसे किसी भी जगह पर बनाई जा सकती हैं जहां पर छाया, अधिक नमी तथा ठंडा स्थान उपलब्ध हो यदि इसे खुले क्षेत्र में उत्पादित करना हो तो छायादार स्थान का चयन करना चाहिए। सूर्य की सीधी रोशनी तथा वर्षा से बचाव के लिए छप्पर का निर्माण करना चाहिए। वर्मीकम्पोस्ट बनाने के लिए ढ़ेर लगये गये व्यर्थ जैविक पदार्थों को गीले जूट के बोरो से ढ़क देना चाहिए।

4. वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन हेतु टांकाः- सीमेंट के टांके जिनकी ऊँचाई 2 फुट तथा चैड़ाई 4 फुट एवं लम्बाई, जगह एवं कम्पोस्टिंग मटेरियल की उपलब्धता के अनुसार कम या ज्यादा की जा सकती हैं। सामान्य रूप से 10 फुट लम्बें टांके बनाये जाते हैं। इन टांकों के सतह (फर्श) को ढ़ाल देकर बनाना चाहिए जिससे अतिरिक्त पानी वर्मीकम्पोस्ट इकाई से रिस सके। इन टांको के बाजू में एक पक्का गड्ढ़ा बना देना चाहिए जिससे रिसे हुए पानी को एकत्रित किया जा सके, इसे वर्मीवाश कहते हैं एवं इसका उपयोग स्प्रे द्वारा पोषक तत्व देने के लिए उपयुक्त होता हैं। टांके के चारो ओर पतली नाली बनानी चाहिए जिस पर पानी भरे रहने से केंचुओं को खाने वाली चींटियां टांके में प्रवेश नहीं कर पायेगी।
सूर्य की सीधी रोशनी एवं वर्षा से बचाव हेतु टांकों के ऊपर छप्पर/छाया की व्यवस्था करनी चाहिए।



टांके को भरनाः
  • गोबर एवं अन्य जैविक पदार्थ को छायादार स्थान पर 15-20 दिन के लिये सड़ाना
  • टांके की तली में 1-2 इंच मोटी परत महिन रेत की डालें।
  • अर्ध अपघटित कचरा एवं गोबर का मिश्रण 12-14 इंच डालें।
  • अर्ध अपघटित गोबर की 3-4 इंच की परत डालें।
  • प्रति टांका 3-5 कि.ग्रा. केंचुआ डालें।
  • ऊपरी परत को जूट की बोरों से गीला कर ढ़ंक दें।

5. केंचुए की उपयुक्त प्रजाति का चयनः- वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन के लिए केवल सतह में रहने वाले केंचुओं का उपयोग करना चाहिए। जो केंचुए भूमि में गहराई पर रहते हैं वे केंचुए की खाद बनाने के लिए उपयुक्त नहीं होते हैं। वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन के लिए अफ्रीकी केंचुआ (Eudrillus engenial) तथा लाल केंचुआ (Eisenia foetida) अच्छे माने जाते हैं। अफ्रीकी केंचुआ, लाल केंचुआ की अपेक्षा आकार में बड़ा एवं गहरे रंग का होता हैं। लाल केंचुए की मृत्यु दर अफ्रीकी केंचुए की तुलना में कम होती हैं। इन केंचुओं को आपस में मिलाकर वर्मीकम्पोस्ट का उत्पादन करना चाहिए। अफ्रीकी केंचुआ (Eudrillus engenial) बेहतर माना जाता हैं, क्योंकि यह कम समय में ज्यादा वर्मीकम्पोस्ट का उत्पादन करता हैं। इसके अतिरिक्त, यह कम्पोस्टिंग के दौरान ज्यादा बच्चों को जन्म भी देता हैं।

6. टांका भरनाः- आयतन अथवा भार के आधार पर आंशिक रूप से अपघटित पदार्थों में 30 प्रतिशत गाय का गोबर मिलाना चाहिए। इसके बाद इन मिश्रित पदार्थों को टांके में भरना चाहिए। इस दौरान कम्पोस्टिंग सामग्री में 60 प्रतिशत नमी बनाये रखना चाहिए। इन सामग्रियों के ऊपर चयनित केंचुओं को समान रूप से छोड़ना चाहिए। एक वर्गमीटर क्षेत्र में 1 किलों केंचुए डालना चाहिए सामान्यतः 1 किलो में 1000 केंचुए आते हैं, इस प्रकार 10 × 4 × 2 फुट के टांके में 4 किलो केंचुए डालने होंगे। इसी दर से टांके के आकार के अनुसार केंचुओं की मात्रा का निर्धारण करना चाहिए। यह कोई आवश्यक नहीं हैं कि केंचुओं को टांके के अंदर ही रखा जाय, केंचुए स्वतः टांके के अंदर प्रवेश कर जाते हैं। केंचुए डालने के बाद टांके को जूट के गीले बोरों से ढ़ंक दें। कम्पोस्टिंग मटेरियल को टांके में भरने के 30 दिन बाद पलटकर पानी का छिड़काव करें एवं पुनः गीले जूट के बोरो से ढ़ंक दें।

7. वर्मीबेड में पानी देनाः- वर्मीबेड में प्रतिदिन पानी देने की आवश्यकता नहीं हैं, परन्तु अपघटन की पूरी प्रक्रिया के दौरान पर्याप्त (30-40 प्रतिशत) नमी बनाए रखना चाहिए। पानी को वर्मीबेड के ऊपर छिड़कना चाहिए ना कि पानी वर्मीबेड के ऊपर उडेलें। वर्मीकम्पोस्ट को निकालने (हार्वेस्टिंग) के 10 दिन पहले पानी देना बंद कर देना चाहिए।

8. केंचुओं के रोग एवं शत्रुः- केंचुओं में सूक्ष्मजीवी के द्वारा कोई बीमारी नहीं फैलती, परन्तु इसके कई शत्रु होते हैं, जैसे चींटी, छिपकली, सांप एवं मेंढ़क आदि। इन सभी शत्रुओं से कम्पोस्टिंग के दौरान केंचुओं की रक्षा करना चाहिए। केंचुओं को चींटियों से बचाने के लिए टांका के चारों ओर एक संकरी नाली बनाकर पानी भरे रखना चाहिए जिससे चींटी पानी भरे नाली को पार ना कर सके।

9. केंचुओं को अलग (हार्वेस्ट) करनाः- वर्मीकम्पोस्ट लगभग 2-3 माह में बनकर तैयार हो जाती हैं। जब ढ़ेरी के ऊपर वर्मीकास्ट पूरे तौर से दिखने लगें, तब समझ लेना चाहिए कि वर्मीकम्पोस्ट बनकर तैयार हो गई हैं।
    वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन के बाद टांके में विद्यमान केंचुओं को अलग करने के लिए ट्रैप विधि का उपयोग करना चाहिए। कम्पोस्ट को हार्वेस्ट करने से पहले वर्मीबेड में गाय के ताजा गोबर से बने गेंद को वर्मीबेड के अंदर पांच से छः जगहों में रख देना चाहिए। 24 घण्टे के बाद गोबर के गेंद को बाहर निकाल लेना चाहिए। टांके में मौजूद सभी केंचुए गोबर के गेंद में चिपक जाते हैं। इन चिपके हुए केंचुओं को अलग करने के लिए पानी भरे बाल्टी में डाल दिया जाता हैं। इन एकत्रित केंचुओं को अगली कम्पोस्टिंग के लिए उपयोग किया जाता हैं।
    केंचुओं को अलग करने के लिए दूसरी विधि में पके हुए वर्मीकम्पोस्ट की छोटी-छोटी ढ़ेरियां बना ली जाती हैं। धीरे-धीरे सभी केंचुए ढ़ेर की निचली सतह पर जमा हो जाते हैं। ढ़ेर के ऊपरी कम्पोस्ट को हाथों से अलग कर लिया जाता हैं एवं नीचे के केंचुआ मिश्रित कम्पोस्ट को छानकर अलग कर लिया जाता हैं। वर्मीकम्पोस्ट तैयार होने के बाद 1 टांके से अधिकतम 70 प्रतिशत खाद एवं 40-50 किलो केंचुए प्राप्त हो जाते हैं जिनका उपयोग अगली किश्त में वर्मीकम्पोस्टिंग के लिए किया जा सकता हैं।

10. वर्मीकम्पोस्ट का भंडारण एवं पैकिंगः- हार्वेस्ट किये गये वर्मीकम्पोस्ट को अंधेरा एवं ठंडी जगह पर भंडारित करना चाहिए। भंडारण करना चाहिए। भंडारण के समय वर्मीकम्पोस्ट में नमी की मात्रा न्यूनतम 25-30 प्रतिशत होनी चाहिए। भंडारित वर्मीकम्पोस्ट को सूर्य की सीधी रोशनी से बचाना चाहिए अन्यथा वर्मीकम्पोस्ट से नमी तथा पोषक तत्वों की हानि होगी। तैयार वर्मीकम्पोस्टको बोरियों में भरकर एवं छल्ली लगाकर भंडारित करने की बजाय खुले रूप में रखना चाहिए। विक्रय करने के दौरान इसकी पैकिंग करनी चाहिए। अगर इसे खुले क्षेत्र में भंडारित किया गया हैं तो समय-समय पर पानी का छिड़काव करते रहना चाहिए जिससे इसमें नमी बनी रहे तथा लाभकारी सूक्ष्मजीवों की संख्या भी बढ़ती रहे। वर्मीकम्पोस्ट को एक साल तक बगैर इसकी गुणवत्ता में गिरावट आये, भंडारित किया जा सकता हैं, बशर्ते वर्मीकम्पोस्ट में 25-30 प्रतिशत नमी की मात्रा बनी रहें।

11. वर्मीकम्पोस्टिंग के लाभः-
  • वर्मीकम्पोस्ट सभी अनिवार्य पोषक तत्वों से परिपूर्ण होता हैं।
  • पौधों की बढ़वार में इसका अच्छा प्रभाव पड़ता हैं। यह पत्तियों एवं नई शाखाओं के बढ़वार को प्रोत्साहित करता हैं तथा उत्पाद के भंडारण अवधि (शेल्फ लाइफ) को बढ़ाता हैं।
  • वर्मीकम्पोस्ट को आसानी से उपयोग में लाया जा सकता हैं, भंडारित किया जा सकता हैं एवं इससे कोई दुर्गंध नहीं आती।
  • यह मृदा संरचना, मृदा विन्यास, मृदा वातन तथा भूमि की जल धारण क्षमता को बढ़ाता/सुधारता हैं एवं मृदा क्षरण को रोकता हैं।
  • वर्मीकम्पोस्ट में विभिन्न प्रकार के लाभकारी सूक्ष्मजीव पाये जाते हैं।
  • वर्मीकम्पोस्ट में केंचुओं के कोकून (अण्डे) पाये जाते हैं जिससे भूमि में केंचुओं की संख्या एवं गतिविधियां बढ़ जाती हैं।
  • यह मृदा के पीएच मान को उदासीन बनाता हैं।
  • यह भूमि से पोषक तत्वों की हानि को रोकता हैं एवं रासायनिक उर्वरकों की उपयोग दक्षता को बढ़ाता हैं।
  • वर्मीकम्पोस्ट में रोगाणु, जहरीले तत्व एवं खरपतवारों के बीज नहीं पाये जाते।
  • वर्मीकम्पोस्ट कीट-व्याधियों के अतिक्रमण को कम करते हैं।
  • यह भूमि में जैविक पदार्थों के अपघटन को बढ़ाता हैं।

12. वर्मीकम्पोस्ट का पोषक मानः- वर्मीकम्पोस्ट में पोषक तत्वों की मात्रा, कम्पोस्टिंग में उपयोग किये गये व्यर्थ पदार्थ पर निर्भर करता हैं। यदि उपयोग किये गये व्यर्थ पदार्थ मिश्रित हैं, तो वर्मीकम्पोस्ट में पाये जाने वाले पोषक तत्वों की मात्रा ज्यादा परिवर्तनीय होगी। यदि वर्मीकम्पोस्टिंग में प्रयुक्त कम्पोस्टिंग मटेरियल समान होगी तब उसमें पोषक तत्वों की मात्रा लगभग निश्चित होगी।



उर्वरक (नियंत्रण) आदेश 1985 के अनुसार मानक वर्मीकम्पोस्ट खाद में नियमानुसार गुण एवं पोषक तत्व की मात्रा होनी चाहिए।

रंग                                    गाढ़ा भूरा से काला, दुर्गंध रहित

कणों का आकार                                4.0 मिमी कणाकार

नमी                                                  15-20 प्रतिशत

कुल जैविक कार्बन न्यूनतम                18 प्रतिशत

नाइट्रोजन न्यूनतम                            0.8 प्रतिशत

फास्फेट न्यूनतम                               0.8 प्रतिशत

पोटाश न्यूनतम                                  0.8 प्रतिशत

कैडमियम अधिकतम                         5 मि.ग्रा./कि.ग्रा.

क्रोमियम अधिकतम                          50 मि.ग्रा./कि.ग्रा.

निकेल अधिकतम                              50 मि.ग्रा./कि.ग्रा.

लेड अधिकतम                                   100 मि.ग्रा./कि.ग्रा.



वर्मीकम्पोस्ट बनाते समय ध्यान रखने योग्य बातेंः
  • वर्मीकम्पोस्ट टांके में केंचुआ, कोकून (अण्डा) को जीवित व सक्रिय रखने के लिये इसमें 30 से 40 प्रतिशत नमी बनाये रखने हेतु आवश्यकतानुसार पानी का छिड़काव करते रहें।
  • वर्मी बेडो में केंचुआ छोड़ने से पूर्व कच्चे माल (गोबर व आवश्यक कचरा) का आंशिक विच्छेदन, जिसमें 15 से 20 दिन का समय लगता हैं, करना अति आवश्यक हैं।
  • वर्मी बेडो पर तेज धूप न पड़ने दी जाये। तेज धूप पड़ने पर कचरे में केचुएँ अक्रियाशील रह कर अंततः मर जाते हैं।
  • वर्मी बेड में ताजे गोबर का उपयोग कदापि न करें। ताजे गोबर के सड़ने के समय निकलने वाली गर्मी से केंचुए मर जाते हैं।
  • केंचुआ खाद तैयार करने हेतु कार्बनिक कचरे में गोबर की मात्रा कम से कम 30 प्रतिशत अवश्य होनी चाहिए। इसके साथ ही हरे एवं जीवित पदार्थ की मात्रा लगभग 30 प्रतिशत रहने पर कम्पोस्टिंग बेहतर ढ़ंग से होती हैं।
  • वर्मी बेड में नमी की मात्रा 35 प्रतिशत से अधिक होने से वायु संचार में कमी होती हैं जिसके कारण केंचुए बेड की ऊपरी सतह पर आ जाते हैं।
  • टैंक में चीटियाँ, कीड़े-मकोड़ों, मुर्गियों एवं अन्य पक्षी का प्रवेश नहीं होना चाहिए। केंचुओं की चीटियों एवं कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिये टैंक में ग्रीस या तेल की परत चढ़ा देना चाहिए या फिर टैंक के चारों ओर पानी की नाली खोदना चाहिए।
  • प्रति वर्गमीटर क्षेत्र में भरे गये कुल कचरे से अधिकतम 70% खाद तैयार की होती हैं। प्रतिवर्ष चार बार (चार चक्रों में) खाद तैयार होती हैं, यानि खाद बनने में 2-3 माह का समय लग जाता हैं।
  • प्रति वर्गमीटर क्षेत्र से वर्ष के अंत में कुल 10 कि.ग्रा. जीवित केंचुए प्राप्त होते हैं।

केंचुआ खाद प्रयोग की मात्रा एवं विधिः
  • धान, मक्का, मिर्च, हल्दी आदि- 1 टन प्रति एकड़/बुवाई पूर्व
  • गन्ना, सूरजमुखी- 1.5 टन प्रति एकड़/बुवाई पूर्व
  • अन्य सब्जियों में- 1.5-02 टन प्रति एकड़/बुवाई पूर्व
  • फल वृक्षों में- 2 कि.ग्रा./वृक्ष रोपण के समय तथा 1-5 वर्ष के पेड़ का 5 कि.ग्रा., 6-10 वर्ष के पेड़ को 10 कि.ग्रा. खाद देना चाहिए।
केंचुआ खाद की खेत स्तर पर प्रयोग की विधि अत्यन्त आसान हैं। इसकी खेत में बुवाई के समय नाली के साथ-साथ प्रयुक्त किया जाता हैं। कुछ प्रयोगों से ज्ञात हुआ हैं कि यदि केंचुआ खाद के साथ एजोटोबैक्टर एवं पी.एस.बी. 1 कि.ग्रा. प्रति 40 कि.ग्रा. केंचुआ खाद की दर से मिलाकर प्रयोग किया जाये जो इसकी क्षमता बढ़ जाती हैं। फलदार वृक्षों एवं वृक्षारोपण फसलों में मुख्य तने से 3-4 फीट की दूरी पर तने के चारों तरफ गोलाकार नाली बनाकर केंचुआ खाद का प्रयोग करते हैं तथा इसे मिट्टी से ढ़ँक देते हैं।