मृदा संरक्षण का अर्थ उन सभी उपायों को अपनाना तथा कार्यान्वित करना है जो भूमि की उत्पादकता को बढ़ाने और उसे बनाए रखने, मृदा को अधोगति या अपरदन ह्रास से सुरक्षित रखने, अपरदित मृदा को पुनर्निर्मित और पुनरुद्धार करते हैं, फसलों के उपयोग के लिये मृदा नमी को सुरक्षित करके जमीन की उत्पादकता को बढ़ाते हैं। इस प्रकार मुनाफायुक्त जमीन-प्रबन्ध कार्यक्रम को मृदा संरक्षण कह सकते हैं और देश के भूमि साधन एवं भूसम्पत्ति का बिना उचित व्यवहार या प्रबन्ध के कारण नाश होता रहा है। ऐसे में वे सभी उपाय जो मृदा की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के साथ हमारी समृद्धि का आधार बनते हैं, उनकी सुरक्षा तथा उसकी उच्च-उत्पादन क्षमता को बनाए रखना न सिर्फ हमारा कर्तव्य है अपितु एक अहम जरूरत बन गया है। एसएचसी इस दिशा में एक कारगर प्रयास है क्योंकि यह भू-संरक्षण के लिये उचित फसल चक्र के उपयोग को अनुशंसित करने में मदद करता है। फसल चक्र या सस्यावर्तन का अर्थ उसी खेत पर एक निश्चित अवधि में फसलों को नियमित तरीके से एक के बाद एक उगाना है। कम पौधों वाली फसलों को लगातार उगाने से अपरदन अधिक होता है। ऐसे में फसल चक्र की सततीयता मृदा संरक्षण को बढ़ावा देती है। एसएचसी से मृदा की माँग के अनुसार फसलों का उत्पादन करने में मदद मिलती है जैसे यदि किसी खेत के मृदा की प्रवणता सूखे के प्रति अधिक है तो ऐसे खेतों में मक्का, ज्वार, मूँग, उड़द जैसी फसलें उगानी चाहिए। यदि मृदा में अधिक समय तक जल धारित रहता है तो धान आदि फसलें उगाई जा सकती हैं। एसएचसी में अनुशंसित सुझावों से मृदा के विभिन्न भौतिक गुणों के विकास में भी मदद मिलती है। भारत में पिछले कुछ वर्षों में उर्वरकों, कीटनाशकों और कीटनाशक दवाइयों के अविवेकपूर्ण और अधिक प्रयोग की वजह से प्रत्येक वर्ष करीब 5334 लाख टन मिट्टी खत्म हो रही है। औसतन 16.4 टन प्रति हेक्टेयर उपजाऊ मिट्टी हर साल समाप्त हो रही है। इसी प्रकार उचित प्रबन्धन के अभाव में 10 से 12 सेमी की वर्षा एक हेक्टेयर के खेत से हर साल करीब 2 हजार क्विंटल मिट्टी बहा ले जाती है जो मृदा की उर्वरा हानि का एक बड़ा कारण है। अविवेकपूर्ण तरीके से उर्वरकों के इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरकता में कमी आती है जिसके फलस्वरूप मिट्टी के सूक्ष्म तथा सूक्ष्मतर पोषक तत्वों में कमी हो जाती है और कृषि पैदावार में भी कमी आ जाती है।
    इन समस्याओं के समाधान के लिये ठोस डाटाबेस तैयार करने की आवश्यकता है, क्योंकि देश भर से एकत्रित मिट्टी के नमूने और मिट्टी की जाँच से देश के अलग-अलग पारिस्थितिकीय क्षेत्र में मिट्टी की स्थिति के बारे में वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध होती है।
    एसएचसी से मृदा में धारित वर्गीकृत विशेषता से सम्बन्धित मृदा के उपजाऊपन और उसमें उपज योग्य फसलों की समझ कृषकों को आसानी से हो जाती है जैसे- मृदा में पोटाश, फास्फोरिक अम्ल, चूना व जैविक पदार्थों से समृद्ध है और इसमें नाइट्रोजन व ह्यूमस तत्वों की कमी है तो ऐसी मृदा पर जूट, गन्ना, गेहूँ, कपास, मक्का, तिलहन, फल और सब्जियों को उपजाया जा सकता है। निष्कर्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि मृदा न केवल हमारी खाद्य सुरक्षा और आजीविका सुरक्षित करती है बल्कि मानव के जीवन और धरती पर धारित जैव विविधता पर मृदा की अहमियत इतनी अधिक है कि अन्तरराष्ट्रीय मृदा संघ ने वर्ष 2002 में प्राकृतिक प्रणाली के प्रमुख घटक के रूप में मृदा के योगदान के प्रति आभार के उद्देश्य से 5 दिसम्बर को विश्व मृदा दिवस मनाने का प्रस्ताव किया था जिसे स्वीकार कर 20 दिसम्बर, 2013 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 68वीं बैठक में संकल्प पारित कर 5 दिसम्बर को विश्व मृदा दिवस और वर्ष 2015 को ‘अन्तरराष्ट्रीय मृदा वर्ष’ के रूप में मनाने की घोषणा की थी। इस तरह मृदा के महत्त्व को कायम रखने के लिये 05 दिसम्बर, 2014 से हर साल ‘विश्व मृदा दिवस’ सम्पूर्ण विश्व में मनाया जा रहा है। अतः यदि भारत में मृदा को पर्याप्त संरक्षण मिलता है तो भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद दूसरी सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि है जो भारत के कुल क्षेत्रफल का 46.54 प्रतिशत है, इसके साथ ही यहाँ 14.2 प्रतिशत परती भूमि भी है जो कृषि हेतु प्रयोग में लाई जा सकती है। यदि अपेक्षित सुधारों के साथ इसे उपयोग में लाया जाये तो भारत खाद्यान्न अतिरेक की स्थिति में पहुँच सकता है।