*सरिता, #ईश्वर साहू, *प्रीति साहू एवं #प्रेमचंद उइके
*इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर (छ.ग.) 492006
#राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर (म.प्र.) 474002
परिचय
रामतिल एक तिल की ही प्रजाति है जिसका मुख्य उपयोग तेल बनाने के लिए किया जाता है आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों की जगनी के नाम से जाने जानी वाली रामतिल एक तिलहनी फसल है। रामतिल के बीजों में 38-43 प्रतिशत तेल एवं 20 से 30 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा पायी जाती है। इसकी खेती उन सभी भूमि पर की जा सकता है जहाँ कम पानी तथा मिट्टी उपजाऊ नहीं है यह विषम परिस्थितियों में भी अच्छी पैदावार देती है इसके साथ ही अधिक बारिश के कारण बहाव में भी भूमि के कटाव को रोकता है।
इसकी फसल के बाद उगाई जाने वाली फसल की उपज अच्छी आती है।उन्नत तकनीक के साथ अनुशंसित कृषि कार्यमाला अपनाते हुये काश्त करने पर रामतिल की फसल से 700-800 कि.ग्रा. हे. तक उपज प्राप्त की जा सकती।
रामतिल फसल लेने के लिए खेत की तैयारी
जैसा की ऊपर बताया गया है की रामतिल की खेती किसी भी मिट्टी में किया जा सकता है। इसलिए इसके लिए ज्यादा खेत की तैयारी करने की जरुरत नहीं होती।
रामतिल की खेती पर्वतीय तथा बंजर भूमि में भी आसानी से की जा सकती है। इसकी खेती के लिए एक या दो जुताई की पड़ती है, जिससे मिट्टी हल्की हो सके।
रामतिल रामतिल की उन्नत किस्में
उटकमंड- इस किस्म की पकने अवधि 105 से 110 दिन और तेल की मात्रा 40 प्रतिशत होती है औसत पैदावार क्षमता 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है।
जे एन सी- 6- इस रामतिल किस्म पकने की अवधि 95 से 100 दिन और तेल की मात्रा 40 प्रतिशत तथा पत्ती धब्बे के लिए सहनशील है औसत पैदावार क्षमता 5 से 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है।
जे एन सी- 1- इस किस्म की पकने अवधि 95 से 102 दिन और तेल की मात्रा 38 प्रतिशत तथा दाने का रंग काला होता है औसत पैदावार क्षमता 6 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है ।
जे एन एस- 9- यह रामतिल की किस्म संपूर्ण भारत हेतु उपयुक्त है फसल पकने की अवधि 95 से 100 दिन और तेल की मात्रा 39 प्रतिशत तथा औसत पैदावार क्षमता 5.5 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है।
बीरसा नाईजर- 1- इस किस्म की पकने अवधि 95 से 100 दिन और तेल की मात्रा 40.7 प्रतिशत तथा गुलाबी रंग का तना एवं हल्का काले रंग का दाना होता है औसत पैदावार क्षमता 5 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है।
बिरसा नाईजर-2- यह 90 दिनों में पकने वाली सबसे कम अवधि की किस्म है इसकी उपज क्षमता 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है एवं बीजों में 39 प्रतिशत तेल पाया जाता है।
अन्य उन्नत किस्में- बीरसा नाईजर- 3, पूजा, गुजरात नाईजर- 1, और एन आर एस- 96 -1 आदि प्रमुख है।
रामतिल बीजोपचार एवं बुवाई का तरीका
रामतिल को बोनी कतारों में दूफन, त्रिफन या सीडड्रील द्वारा कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. तथा कतारों में पौधों से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखते हुये 3 से.मी. की गहराई पर करना चाहिये। बोनी करते समय बीजों का पूरे खेत में (कतारों में) समान रूप से वितरण हो इसके लिए बीजों को बालू कण्डे की राख गोबर की छनी हुई खाद के साथ 1: 2 के अनुपात में अच्छी तरह से मिलाकर बोना चाहिए।
बीज दर
सामान्यत- 5 से 7 कि.ग्रा। बीज प्रति हे. की दर से बुवाई हेतु आवश्यक होता है।
बीजोपचार
फसल को बीजजनय एवं भूमिजनय रोगो से बचाने के लिए बुवाई करने से पहले फफूंदनाशी दवा थायरम 3 ग्राम कि.ग्रा। बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
दवा उपयोग करने का तरीका बीज को किसी पॉलीथिन शीट में समान रूप से फैला लेना चाहिये। फफूंदनाशक दवा की अनुशंसित मात्रा को समान रूप से बीज में मिलाकर पानी से मिला देना चाहिये एवं लगभग 20-25 मिनट तक हवा लगने देना चाहिये। बीजोपचार के दौरान दस्ताने अवश्य पहनकर बीजोपचार करना चाहिये।
खाद, उर्वरक एवं पोषक तत्व प्रबंधन
जैव उर्वरक, जीवाणु मिश्रित होते हैं जो कि फसल को फसल हेतु आवश्यक नत्रजन तत्व को वायुमण्डल से पौधों को उपलब्ध कराते हैं तथा मृदा में स्थित अघुलनशील स्फुर तत्व को घुलनशील कर पौधों को उपलब्ध कराते हैं। जैव उर्वरक रासायनिक उर्वरकों की तुलना में अत्यन्त सस्ते होते हैं एवं इनके प्रयोग से रासायनिक उर्वरकों की मात्रा को कम कर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
रामतिल में प्रमुख रूप से एजोटोबेक्टर एवं स्फुर घोलक जीवाणु (पी.एस.बी.) जैव उर्वरकों का प्रयोग 5-5 ग्राम/किलो बीज की दर से बीजोपचार किया जाना चाहिये। यदि किसी कारणवश जैव उर्वरकों से बीजोपचार नहीं कर पाए हो तो इस दशा में बुवाई करने के पूर्व आखरी बार बखरनी करते समय 5-7 किग्रा. हे. के मान से इन जैव उर्वरकों को 50 कि.ग्रा. हे. की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर पूरे खेत में समान रूप से बिखरे। इस समय खेत में पर्याप्त नमी को होना नितांत आवश्यक होता है।
जैव उर्वरकों का प्रयोग
सर्वप्रथम बीजो को फफूंदनाशक दवा से बीजोपचार करना चाहिए इसके पश्चात् जैव उर्वरकों की अनुशंसित मात्रा द्वारा बीजोपचार करने से अच्छे परिणाम प्राप्त होते है। जैव उर्वरकों से बीजोपचार हेतु छाया वाले स्थान का चयन करना चाहिये। सर्वप्रथम पॉलिथीन शीट को छायादार स्थान में बिछाकर फफूंदनाशक दवा से उपचारित बीजो को फैला देना चाहिये तत्पश्चात् गुड़ के घोल को समान रूप से बीजों के ऊपर छिंटक देना चाहिये। इसके पश्चात् अनुशंसित जैव उर्वरकों (एजोटोबेक्टर एवं पी.एस.बी.) की मात्रा को बीजो के ऊपर समान रूप से फैलाकर हाथ से मिलादेना चाहिये तथा लगभग 20-30 मिनट तक छाया में सुखाने के बाद बोनी करना चाहिये।
पोषक तत्व प्रबंधन
गोबर की खाद कम्पोस्ट की मात्रा एवं उपयोग- जमीन की उत्पाकता को बनाए रखने तथा अधिक उपज पाने के लिए भूमि की तैयारी करते समय अंतिम जुताई के पूर्व लगभग 2 से 2.5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट खेत में समान रूप से मिलाना चाहिये।
रामतिल की फसल हेतु अनुशंसित रासायनिक उर्वरक की मात्रा 40ः30ः20 नःफःपो किग्रा.हे. है। जिसको निम्नानुसार देना चाहिये। 20 किलोग्राम नत्रजन, 30 किलोग्राम फास्फोरस, 20 किलोग्राम पोटाश हेक्टेयर बुवाई के समय आधार रूप में देना चाहिये। शेष नत्रजन की 10 किलोग्राम मात्रा बोने के 35 दिन बाद निंदाई करने के बाद दे। इसके पश्चात् खेत में पर्याप्त नमी होने पर 10 किग्रा नत्रजन की मात्रा फसल में फूल आते समय देना चाहिये।
रामतिल की फसल में सिंचाई
खेती खरीब के मौसम में पूर्णतः वर्षा आधारित की जाती है। वर्षाकाल में लम्बे समय तक वर्षा नहीं होने की स्थिति में अथवा सूखे की स्थिति निर्मित होने पर भूमि में नमी का स्तर कम होता है। भूमि में कम नमी की दशा का फसल की उत्पादकता पर विपरित प्रभाव पड़ता है।
यदि फसल वृद्धि के दौरान इस तरह की स्थिति निर्मित होती है तो सिंचाई के साधन उपलब्ध होने पर सिंचाई करने से फसल से अच्छी उपज प्राप्त होती है।
रामतिल फसल में खरपतवार एवं निंदाई-गुड़ाई
किसान खरपतवारों को अपनी फसलों में विभिन्न विधियों जैसे कर्षण, यांत्रिकी, रसायनों तथा जैविक विधि आदि का प्रयाग करके नियंत्रण कर सकते हैं। रासायनिक नींदा नियंत्रण के लिये ’’पेन्डीमेथालिन’’ 1.0 किलोग्राम सक्रिय घटक हेक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में बोनी के तुरंत बाद किन्तु अंकुरण के पूर्व छिड़काव करें।
रामतिल फसल में लगने वाले रोग एवं उनका उपचार
रोग प्रबंधन की विधियाँ-
फसल में रोग का प्रबंधन करने के लिए बुवाई से पहले ही कुछ सावधानियां एवं कार्य करना चाहिए। जिससे रोग से बचा जा सके ।
- गर्मी में गहरी जुताई करें।
- अच्छी साड़ी हुई गोबर खाद, नीम खली या महा की खेती की खली 500 किलोग्राम हेक्टेयर की दर से प्रयोग करें ।
- प्रतिरोधी किस्मों जैसे जे.एन.सी.-1 या जे.एन.सी.-6 का बोनी हेतु प्रयोग करें।
- दलहनी फसलों का 3 वर्षों का फसल चक्र अपनायें।
- ट्राइकोडर्मा विरडी या ट्राइकोडर्मा हारजिएनम 5 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज की दर से बीजोपचार करें।
- अंतर्वतीय खेती के रूप में मूंग, उड़द या कोदो के साथ बुवाई करें।
- फसल में रोग प्रबंधन के लिए रासायनिक दवा का उपयोग कर सकते हैं। जिससे फसल को बचाया जा सकता है तथा उत्पादन को बाह्य जाता है।
सरकोस्पोरा पर्णदाग
इस रोग में पत्तियों पर छोटे धूसर से भूरे धब्बे बनते हैं जिसके मिलने पर रोग पूरी पत्ती पर फैल जाता है तथा पत्ती गिर जाती है।
रोकथाम
इस रोग की रोकथाम के लिए हेक्साकोनाजोल 5 प्रतिशत ई.सी. की 2 मिलि लीटर प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें। इस दवा का प्रयोग लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आवश्यकतानुसार दुबारा छिड़काव करें। दवा का छिड़काव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए।
आल्टरनेरिया पत्ती घब्बा
इस रोग में पत्तीयों पर भूरे, अंडाकार, गोलाकार एवं अनियंत्रित वलयाकार धब्बे दिखते हैं।
रोकथाम
इस रोग की रोकथाम के लिए जीनेब दवा का प्रयोग 0.2 प्रतिशत दवा का छिड़काव रोग आने पर 15 दिन के अंतराल से करें लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आवश्यकतानुसार दुबारा छिड़काव करें। दवा का छिड़काव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए।
जड़ सड़न
इस रोग की पहचान तना आधार एवं जड़ का छिलका हटाने पर फफूंद के स्क्लेरोशियम होने के कारण कोयले के समान कालापन होता हैं।
रोकथाम
इस रोग की रोकथाम के लिए कापर आक्सीक्लोराइड की 1 किग्रा.हे. की दर से छिड़काव लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आवश्यकतानुसार दुबारा छिड़काव करें। दवा का छिड़काव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए।
भभूतिया रोग (चूर्णी फफूंद)
इस रोग की पहचान यह की पत्तियों एंव तनों पर सफेद चूर्ण दिखता है।
रोकथाम
इस रोग की रोकथाम के लिए घुलनशील गंधक की 0.2 प्रतिशत का फुहारा पद्धति से फसल पर लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आवश्यकतानुसार दुबारा छिड़काव करें। दवा का छिड़काव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए।
रामतिल फसल में लगने वाले कीट और उनका नियंत्रण
रोग की तरह ही कीट से फसल को काफी नुकसान पहुँचता है। कभी-कभी तो पूरी फसल का ही नुकसान हो जाता है। कीट की रोकथाम के लिए जरुरी है की कीट की पहचान सही तरीके से हो सके। रामतिल में कुछ महत्वपूर्ण कीट लगते हैं जिसकी रोकथाम इस तरह कर सकते हैं।
रामतिल की इल्ली
इस इल्ली की पहचान यह है कि यह हरे रंग की होती है जिस पर जामुनी रंग की धारियाँ रहती है पत्तियाँ खाकर पौधे की प्रारंभिक अवस्था में ही पत्तीरहित कर देती हैं।
रोकथाम
इसकी रोकथाम के लिए ट्राइजोफास 40 प्रतिशत ई.सी. को 800 मिलि. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आवश्यकतानुसार दुबारा छिड़काव करें। दवा का छिड़काव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए ।
माहों कीट
इसकी पहचान यह है कि माहो कीट के शिशु तथा प्रौढ़ पत्तियों तथा तने पर चिपके रहकर पौधे से रस चूसते हैं जिससे उपज में कमी आती है।
रोकथाम
इस कीट की रोकथाम के लिए इमीडाक्लोप्रिड की 0.3 मिली लीटर मात्रा प्रति 1 लीटर पानी के मान से 600-700 लीटर पानी में अच्छी तरह से बनाकर प्रति हेक्टेयर की दर से लक्षण दिखाई देने के तुरंत बाद एवं आवश्यकतानुसार दुबारा छिड़काव करें। दवा का छिड़काव प्रातःकाल या सायंकाल के समय करना चाहिए ।
उपज एवं भण्डारण
उपरोक्त उन्नत कृषि तकनीकी को अपनाने से फसल की औसत उपज 6 से 7 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो सकती है। गहाई उपरांत बीज को साफ कर धूप में 8-9 प्रतिशत नमी तक सुखाकर भण्डारण करें।
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