धान की उचित वृद्धि व विकास के लिये उच्च तापक्रम, उच्च आर्द्रता और अधिक वर्षा की आवश्यकता होती हैं। जिन क्षेत्रों में 140 से.मी. से अधिक वार्षिक वर्षा होती हैं वहां पर धान की खेती वर्षा आधारित की जा सकती हैं। जहां 100 से.मी. से कम वर्षा वाले क्षेत्र हैं वहां धान की खेती के लिये सिंचाई के समुचित साधन आवश्यक हैं। धान के पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिये 20 डिग्री सेल्सियस से लेकर 37 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता हैं। फूल आते समय 25.5 डिग्री सेल्सियस से 29.5 डिग्री सेल्सियस तापक्रम तथा पकने के लिए 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तापक्रम होना आवश्यक हैं पौधों की वृद्धि काल में अधिक आर्द्रता एवं पकने के समय आर्द्रता लाभप्रद हैं।

भूमि का चुनाव
धान की खेती के लिए भारी दुमट भूमि जिसका जल निकास अच्छा हो सर्वोत्तम पाई गई हैं। धान की खेती चिकनी, कंकरीली एल्यूवियल, क्षारीय, हल्की दुमट भूमियों में सफलतापूर्वक की जा सकती हैं। जिन भूमियों में जीवांश की मात्रा कम होती हैं तथा जलधारण क्षमता कम होती हैं उनमें धान की उपज कम प्राप्त होती हैं। धान की खेती 4.5 से 8.5 पीएच वाली भूमियों में भी सफलतापूर्वक की जा सकती हैं।
    गर्मी के मौसम में उपयुक्त समय मिलने पर यथा संभव खेत की एक या दो बार जुताई करें इसके पश्चात पूर्व फसलों के डण्ठल एवं जड़ें एकत्रित करके कम्पोस्ट बनाने के काम में लें। यदि प्रतिवर्ष संभव न हो तो हर दूसरे तीसरे वर्ष 10-15 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की अच्छी सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट अवश्य प्रयोग में लावें। यदि गोबर/कम्पोस्ट उपलब्ध न हो तो हरी खाद के रूप में सनई अथवा ढ़ैंचा प्रति 3 वर्ष में अवश्य लगावें। खेत में पानी भरकर खेत की मचाई करें पाटा लगाकर समतल कर लें।

बीजोपचार
बीज को फफूंदनाशक दवा कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज या कार्बेन्डाजिम + मैन्कोजेब 3 ग्राम/कि.ग्रा. बीज या कार्बोक्सिन + थायरम 3 ग्राम/कि.ग्रा. बीज से उपचारित करें। धान में एजोस्पिरिलियम या एजोटोबेक्टर एवं पी.एस.बी. जीवाणुओं की 5 किलो ग्राम को 50 कि.ग्रा./हेक्टेयर सूखी सड़ी हुई गोबर की खाद में मिलाकर खेत में मिला दें। धान के रोपित खेत में (20 दिन रोपाई उपरांत) 15 कि.ग्रा./हेक्टेयर नील हरित काई का भुरकाव 3 से.मी. पानी की तह रखते हुए करें।

बुवाई का समय
वर्षा आरम्भ होते ही धान की बुवाई का कार्य आरम्भ कर देना चाहिए। जून मध्य से जुलाई प्रथम सप्ताह तक बुवाई का समय सबसे उपयुक्त होता हैं।

बीज की मात्रा

क्र.

बोवाई की पद्धति

बीज दर (किलो/हेक्टेयर)

1

श्री पद्धति

5-6

2

रोपाई पद्धति

40-50

3

कतरों में बीज बोना

60-80

4

छिड़कवा विधि

100-110

5

संकर किस्म

15-18



बुवाई की विधियाॅ

कतारों में बुवाई
अच्छी तरह से तैयार खेत में निर्धारित बीज की मात्रा नारी हल या दुफन या सीडड्रिल द्वारा 20 से.मी. की दूरी की कतारों में बुवाई करना चाहिए।

रोपा विधि
सामान्य तौर पर 2-3 सप्ताह के पौध रोपाई के लिये उपयुक्त होते हैं तथा एक जगह पर 2-3 पौध लगाना पर्याप्त होता हैं रोपाई में विलम्ब होने पर एक जगह पर 4-5 पौधे लगाना उचित होगा।

क्र.

प्रजातियां तथा रोपाई का समय

पौधों की ज्यामिती (से.मी.× से.मी.)

1.

जल्दी पकने वाली प्रजातियां उपयुक्त समय पर

15 × 15

2.

मध्यम अवधि की प्रजातियां उपयुक्त समय पर

20 × 15

3.

देर से पकने वाली प्रजातियां उपयुक्त समय पर

25 × 20


रोपाई पद्धति

नर्सरी में पौध तैयार करके 20-25 दिन के बाद खेत मचाने के बाद पौधे रोपे जाते हैं।

उन्नत खुर्रा बोनी
गांव द्वारा विकसित बरसात शुरू होने के पहले सूखे खेत को तैयार कर सूखे खेत में धान बीज की बुवाई करते हैं। उन्नत खुर्स बोनी में अकरस जुताई, देशी हल या ट्रैक्टर द्वारा की जाती है। जून के प्रथम सप्ताह में बैल चलित बुवाई यंत्र (नारी हल) या ट्रैक्टर चलित सीड ड्रिल द्वारा 20 से.मी. कतार से कतार की दूरी पर धान बोया जाता हैं।

बिवासी विधि
प्रदेश में धान की अधिकांश खेती पूर्णतया वर्षा पर निर्भर है और यही वजह है कि लगभग 60-65 प्रतिशत क्षेत्र में धान की खेती बियासी विधि से की जाती है। इसमें वर्षा आरम्भ होने पर जुताई कर खेत में धान के बीज को छिड़क कर बीज ढ़कने के लिये देशी हल अथवा हल्का पाटा चलाया जाता है। जब फसल करीब 30-35 दिन की हो जाती हैं तथा खेतों में 15-20 से.मी. पानी भर जाता है, तब खड़ी फसल में बैलचलित हल चलाकर बियासी करते हैं।

कतार बोनी
रोपा विधि में पर्याप्त सिंचाई उपलब्ध न होने तथा बियासी विधि में पौधों के अधिक मर जाने से उत्पादन में कमी होती हैं, इसलिये धान की कतार में बुवाई करें। इस विधि में बुवाई यत्रो अथवा देशी हल के पीछे बनी कतारों में सिफारिश के अनुसार उर्वरकों एवं बीज की बुवाई करें। खेतों में अच्छी बतर की स्थिति में यंत्रों द्वारा कतार बुवाई आसानी से की जा सकती है।

रोपण विधि
इस विधि में धान की रोपाई वाले कुल क्षेत्र के लगभग 1/10 भाग में नर्सरी तैयार की जाती है तथा 20 से 25 दिनों की आयु होने पर खेतों को मचाकर रोपाई की जाती है।

लेही विधि
लगातार वर्षा होने अथवा बुवाई में विलम्ब होने से बतर बोनी एवं रोपणी (नर्सरी) की तैयारी करने का समय न मिल सके तो लेही विधि अपनायें। इसमें रोपा विधि की तरह ही मचाई कर खेत तैयार करें तथा अंकुरित बीज खेत में पंक्ति में ड्रम सीडर से बोयें। लेही बुवाई के लिये प्रस्तावित समय से 2-3 दिन पहले से ही बीज अंकुरित करने का कार्य शुरू कर दें।

धान उगाने की एस. आर. आई. (श्री) पद्धतिः

धान उत्पादन की आधुनिक श्री पद्धति क्या है?
श्री पद्धति एक ऐसी तकनीक है जिसमें धान नर्सरी, रोपाई, उर्वरक, जल एवं खरपतवार का प्रबंधन इस प्रकार किया जाता है कि धान की अधिक से अधिक एवं लंबी वजनी बालियां प्राप्त हो जिससे उत्पादन हो। इस पद्यति का विकास 1980 के दशक में मेडागास्कर में किया गया था। इस पद्यति में धान के एक पौधे में 80-100 कंसे प्राप्त होते है एवं कम बीज के साथ साथ कम मात्रा में रसायनिक उर्वरकों की आवश्यकता होत है। इस विधि को एस.आर.आई. या मेडागास्कर विधि के नाम से भी जाना जाता है।

धान की श्री पद्धति से लाभ
धान की श्री पद्धति से खाली खेती करने के निम्नांकित प्रमुख लाभ है-
  1. धान के उत्पादन में 20-25 प्रतिशत वृद्धि।
  2. धान की खेती में 30-40 प्रतिशत जल की बचत ।
  3. रासायनिक उर्वरकों की खपत में कमी।
  4. भूमि की संरचना एवं उर्वरता में सुधार।

धान की उन्नत जातियों का चुनाव

क्र.

धान की शस्य पारिस्थितिकी (एग्रो इकोलाॅजी)

राज्य हेतु धान की अनुशंसित किस्में

1.

असिंचित-उच्च भूमि

इंदिरा बरानी धान-1, छत्तीसगढ़ जिंक राईस-1, सहभागी धान, बस्तर धान-1

2.

असिंचित-मध्य भूमि

डी.आर.आर. धान-धान-42 (आई.आर.-64 ड्राउट), इंदिरा एयरोबिक-1, आई.जी.के.व्ही.आर.-1(इंदिरा राजेश्वरी), आई.जी.के.व्ही.आर.-2 (दुर्गेश्वरी), आई.जी.के.व्ही.आर.-1244 (महेश्वरी),  कर्मा मासुरी, सी.आर. धान-201, सी.आर. धान-309, ट्रांबे छ.ग. दुबराज म्यूटेन्ट-1, चन्द्रा (एम.टी.यू-1153), छत्तीसगढ़ मधुराज-55, महामाया

3.

असिंचित-निचली भूमि

छत्तीसगढ़ देवभोग, स्वर्णा सब-1 बादशाह भोग सलेक्सन-1, तरूण भोग सलेक्सन-1, दुबराज सलेक्सन-1, विष्णु भोग सलेक्सन-1, सी. आर सुगंधित धान-907, डी.आर.आर. धान-50, डी.आर.आर. धान-51, सी. आर. धान-312, स्वर्णा

4.

सिंचित भूमि

आई.जी.के.व्ही.आर.-1, आई.जी.के.व्ही.आर.-2 (दुर्गेश्वरी), आई.जी.के.व्ही.आर.-1244 (महेश्वरी), स्वर्णा सब-1, तरूण भोग सलेक्सन-1, दुबराज सलेक्सन-1, विष्णु भोग सलेक्सन-1, छत्तीसगढ़ मधुराज-55, छत्तीसगढ सुगंधित भोग, छत्तीसगढ़ जिंक राईस-1, ट्रांबे छ.ग. दुबराज म्यूटेन्ट-1, छत्तीसगढ़ देवभोग चन्द्रा ((एम.टी.यू-1153), रत्नागिरि-8, सी. आर सुगंधित धान-907, डी.आर.आर. धान-50, डी.आर.आर. धान-51, सी. आर. धान-312,


रोपणी (नर्सरी) तैयार करने की विधि
खेत की दो 2-3 जुताई कर समतल एवं भुरभुरी बनायें तथा 150 से 200 क्विंटल गोबर की खाद या कम्पोस्ट खेत में अच्छी तरह मिला दें। एक हजार वर्गमीटर क्षेत्र की नर्सरी एक हेक्टेयर खेत के लिये पर्याप्त होती हैं। खेत को समतल करते हुये 1-1.5 मीटर चौड़ी तथा 10 मीटर लम्बी एवं 10-15 से.मी. की जगह अवश्य छोड़ें। इस जगह का उपयोग जल निकास, सिंचाई के लिए तथा नर्सरी का समीप से निरीक्षण हेतु किया जाता हैं। प्रति वर्गमीटर नर्सरी में 40 ग्राम अमोनियम सल्फेट या 25 ग्राम यूरिया तथा 50 ग्राम स्फुर एवं 20 ग्राम पोटाश अच्छी तरह मिला दें। प्रति वर्गमीटर 40 ग्राम बारीक धान एवं 50 ग्राम मोटा धान की आवश्यकता होती हैं बीज की बुवाई से पूर्व थायरम एवं बाविस्टीन फफूंदनाशी दवा से 2 ग्राम/किलो बीज के हिसाब से उपचारित अवश्य करें।


रोपाई
रोपाई के पूर्व खेत की अच्छी तरह से मचाई करें। इसके पश्चात् पाटा लगाकर खेत को समतल करें। इसी समय आधी मात्रा नत्रजन, पूरी मात्रा स्फुर एवं पोटाश की आधार खाद के रूप से खेत में फैलाकर देना चाहिए। आमतौर पर रोपणी की उम्र 25 से 30 दिन की ही होनी चाहिए। एक स्थान पर दो से तीन पौधों की रोपाई की जानी चाहिए। रोपणी लगाने में देरी होने पर एक स्थान पर 4-5 पौधों की रोपणी करें।

खाद-उर्वरक
प्रायः धान की पकने की अवधि के अनुसार तत्वों की मात्रा निर्धारित की जाती हैं परन्तु धान के विपुल उत्पादन हेतु मृदा परीक्षण के आधार पर नत्रजन, स्फुर, पोटाश, गंधक तथा जस्ता तत्वों की मात्रा निर्धारित होना चाहिए। धान की अच्छी पैदावार लेने हेतु 120 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. स्फुर तथा 30 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए।

धान पकने की अवधि के अनुसार सामान्य अनुशंसा निम्नानुसार हैं-

क्र.

धान पकने की अवधि

किलो ग्राम/हेक्टेयर

नत्रजन

स्फुर

पोटाश

1

शीघ्र पकने वाली (80-100 दिन)

40

30

15

2

मध्यम अवधि (110-120 दिन)

60

40

20

3

मध्यम से अधिक (125-135 दिन)

80

50

30

4

देर से पकने वाली बोनी किस्में (140 से अधिक)

100-120

60

40

जिंक की कमी वाले क्षेत्रों में 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर तीसरी फसल के पश्चात् प्रयोग करें। खड़ी फसल में जस्ते की कमी दिखाई देने पर एक कि.ग्रा. जिंक सल्फेट एक कि.ग्रा. चूने के साथ मिलाकर 250 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

    गंधक की कमी का सीधा प्रभाव उर्वरक उपयोग क्षमता पर विशेष पड़ता हैं तथा उपज में कमी भी आंकलित की गई हैं। धान की फसल को 3 कि.ग्रा. गंधक प्रति टन धान की उपज दर से आवश्यक माना गया हैं। अतः 20-30 कि.ग्रा./हेक्टेयर की दर से धान को देना लाभदायक पाया गया हैं। गंधक के स्त्रोत के रूप में अमोनियम सल्फेट, सिंगल सुपर फास्फेट, फास्फोजिप्सम, जिप्सम, जिंक सल्फेट का प्रयोग किया जा सकता हैं।


    उर्वरकों का प्रयोग बुवाई की विधियों पर निर्भर करता हैं खुर्रा, जरई तथा रोपा विधियों में पोषक तत्वों की आपूर्ति में कुछ भिन्नता पाई जाती हैं सामान्य तौर पर 1/4 भाग नत्रजन सम्पूर्ण स्फुर, पोटाश, जस्ता तथा गंधक की मात्रा आधार खाद के रूप में रोपाई के समय दे दी जाती हैं। शेष नत्रजन की दूसरी मात्रा 1/4 रोपाई के 20-25 दिन बाद, तीसरी मात्रा 1/4 कंसे निकलने पर तथा अन्तिम 1/4 मात्रा बाल निकलने पर प्रयोग करना चाहिए। खुर्रा/बियासी विधि में आधी मात्रा नत्रजन, सम्पूर्ण मात्रा स्फुर व पोटाश की खेत की तैयारी के समय आधार खाद के रूप तथा शेष नत्रजन की आधी मात्रा को दो बार में कंसे एवं बालियां निकलते समय देना चाहिए।

जल प्रबंधन
धान का उत्पादन बढ़ाने की दृष्टि से समुचित जल प्रबंध बहुत आवश्यक हैं। धान के खेत में वर्षा की अनिश्चितता के कारण खेत में अधिक से अधिक पानी रोककर रखा जाता हैं। अधिक पानी भरे रखने का उत्पादन की दृष्टि से कोई विशेष लाभ नहीं मिलता। सिंचाई सुविधा होने पर एक बार खेत में पानी भरने के बाद दोबारा सिंचाई तब करें जब जल की सतह जमीन को छूने लगे। उत्पादन की दृष्टि से यह उतना ही या उससे अधिक लाभकारी पाया गया हैं जितना कि खेत में लगातार पानी भरे रखना लाभदायक होगा। साधारण तौर पर एक बार में 5-7 से.मी. पानी देना पर्याप्त होता हैं।

धान की विभिन्न अवस्थाओं में पानी की आवश्यकता (से.मी.)

क्र.

अवस्था

पौधों की अवधि (दिन में)

जल की आवश्यकता (से.मी.)

1.

प्रारम्भिक अवस्था

20-30

10-25

2.

रोपाई

-

15-20

3.

पौधों का जमाव

10-15

8-10

4.

कंसों की अवस्था

35-45

35-45

5.

फूलने से दाना भरने तक

25-35

30-40

6.

दाने भरने से पकने तक

20-22

8-10

 

कुल

100-174

114-150


खरपतवार नियंत्रण
धान की फसल में प्रमुख रूप से सवां, कनकौआ, सफेद मुर्ग, मोथा, पथराचटा एवं दूब घास की समस्या हैं। फसल की प्रारम्भिक अवस्था खरपतवारों के लिए अधिक संवेदनशील होती हैं अतः फसल को खरपतवारों से रहित रखना चाहिए। जिससे उत्पादन पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता यह क्रांतिक अवस्था 15-45 दिन की होती हैं।

धान की फसल के लिए शाकनाशी रसायनों का नाम, मात्रा एवं प्रयोग का समय

क्र.

खरपतवारनाशी का तकनीकी नाम

प्रति एकड़ सक्रिय तत्व (ग्राम)

डालने की मात्रा व्यावसायिक  (मि.ली./ग्रा.)      

डालने का समय (बुवाई के बाद, दिनों में)

(अ) बोता धान में अंकुरण पूर्व खरपतवार प्रबन्धन

 

प्रेटिलाक्लोर

300

600

3-5 के अंदर

 

ऑक्साडायर्जिल

32.0

40.0

0-3 के अंदर

 

पायेजोसल्फ्युराॅन 10% डब्ल्यू.पी.

8.0

80.0

10-12 के अंदर

(ब) रोपा धान में अंकुरण पूर्व खरपतवार प्रबन्धन

 

प्रेटिलाक्लोर

300

600

3-6 के अंदर

 

ऑक्साडायर्जिल

32.0

40.0

0-3 के अंदर

 

पायेजोसल्फ्युराॅन 10% डब्ल्यू.पी.

8.0

80.0

0-3/10-12 के अंदर

 

प्रेटिलाक्लोर + बेनसल्फ्यूरान (दानेदार)

264.0

4000

0-3 के अंदर

(स) बोता धान में अंकुरण पश्चात् खरपतवार प्रबन्धन

 

बिसपायरीबैक सोडियम

10.0

100

20-25 के अंदर

 

फिनाॅक्साप्राॅप पी-इथाइल 9.3%

24.0

250.0

20-25 के अंदर

 

इथाॅक्सीसल्फ्यूराॅन

6.0

40.0

15-20 के अंदर

 

क्लोरिम्यूराॅन + मेटसल्फ्यूराॅन (2+4)

1.60

8.0

15-20 के अंदर

 

पिनाॅक्सुलम

9.0

37.5

12-18 के अंदर

(द) रोपा धान में अंकुरण पश्चात् खरपतवार प्रबन्धन

 

बिसपायरीबैक सोडियम

8-10

80-100

20-25 के अंदर

 

फिनाॅक्साप्राॅप पी-इथाइल 9.3%

(24.0 + 6.0)

(250.0 + 50.0 )

20-25 के अंदर

 

फिनाॅक्साप्राॅप + क्लोरिम्यूराॅन + मेटसल्फ्यूराॅन (2+4)

(24.0 + 1.6)

(250 + 8.0 )

20-25 के अंदर

 

 

पिनाॅक्सुलम

9.0

37.5

12-18 के अंदर



कीट प्रबंधन-

गंगई कीट
लक्षण
मेगट पौधों के तनों के आंतरिक भाग को काटकर खाती हैं, जिससे तना खोखला हो जाता हैं। ग्रसित पौधों में दैहिकीय परिवर्तन होने के कारण पौधे की बढ़वार पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं तथा पौधों की मध्य पत्ती के आधारीय भाग में या कंसा में गांठ बन जाती हैं। यह गांठ बाद में खोखली होकर चांदी जैसे सफेद रंग की हो जाती हैं। फलस्वरूप रजत पोई या प्याज पोरी या सिल्वर शूट बनता हैं। पौधों में बाली नहीं बनती हैं।

प्रबंधन
इसे नष्ट करने हेतु फिप्रोनिल 5 प्रतिशत एस.सी. 1000-1500 मि.ली./हेक्टेयर, फिप्रोनिल 0.03 प्रतिशत जी.आर. 16600-25000 ग्राम/हेक्टेयर डालें।

तना छेदक
लक्षण
इस कीट की इल्ली अवस्था फसल को नुकसान पहुुंचाती हैं, पूर्ण विकसित इल्ली हल्के पीले रंग की व लगभग 20 मि.मी. लंबी होती हैं। यह कीट फसल के कंसा एवं गभोट अवस्था में तनें के अंदर घुसकर खाती हैं जिससे क्रमशः सूखा तना व सूखी बालियां बनती हैं जो खींचने पर आसानी से बाहर निकल जाती हैं।



प्रबंधन
इसे नष्ट करने हेतु फिप्रोनिल 5 प्रतिशत एस.सी. 1000-1500 मि.ली./हेक्टेयर, फलुबेंडामाइड 20 प्रतिशत डब्ल्यू.जी. 125 ग्राम/हेक्टेयर, क्लोरट्रानिलीप्रोल 5.05 प्रतिशत एस.सी. + थायोमिथेक्साॅम 01 प्रतिशत जी.आर., लैम्डा साइहेलोथ्रिन 5 प्रतिशत एस.सी. 250 मि.ली./हेक्टेयर एवं क्यूनालफास 5 प्रतिशत जी. 500 ग्राम/हेक्टेयर डालें।

पत्ती मोड़क
लक्ष्ण
इल्ली पत्ते को लपेटकर उसके अंदर रहकर उसके हरित पदार्थ को खा जाती हैं, जिससे पत्ती का वह हिस्सा सफेद हो जाता हैं व पत्ती के उस भाग में केवल नाड़िया ही दिखलाई पड़ती हैं।

प्रबंधन
इसे नष्ट करने हेतु इण्डोक्साकार्ब 14.5 प्रतिशत एस.सी. 200 मि.ली./हे. डालें।

सफेद चितरी बंकी
लक्षण
इल्लियाँ पत्तियों को ऊपर की ओर से छोटे-छोटे भागों में काटती हैं। पत्तियों का ऊपरी सिरा सूख जाता हैं। इल्लियाँ कटी पत्तियों को खोल बनाकर पानी में तैरती हैं तथा एक पौधें एवं एक खेत से दूसरे खेत में सिंचाई जल द्वारा दूसरे पौधों में पहुंचती हैं।

प्रबंधन
  • प्रभावित खेत में पानी के अन्दर केरोसिन तेल 5 लीटर प्रति हे. फैलाकर रस्सी की सहायता से तेल को हिलाकर पानी निकाल लें।
  • क्विनालफास 1000 मि.ली. व 250 मि.ली. कार्टाप हाइड्रोक्लोराइड 50 प्रतिशत् डब्लू.पी. 625 ग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।

गंगी बग
लक्षण
इस कीट की शिशु एवं प्रौढ़ अवस्थाएं फसल को नुकसान पहुंचाती हैं, पूर्ण विकसित बग मच्छर की आकृति का हरापन लिए भूरा रंग का व आकार में लगभग 25 मि.मी. लंबा होता हैं। यह कीट पत्तियों एवं बालियों से रस चूस लेती हैं इससे दानें पोंचे रह जाते हैं।

प्रबंधन
इसे नष्ट करने हेतु इमिडाक्लोपिरिड 6 प्रतिशत + लैम्डा साइहेलोथ्रिन 4 प्रतिशत एस.सी. 300 मि.ली./हे. का उपयोग करें।

भूरा, हरा एवं सफेद माहू
लक्षण
धान में तीन तरह के माहू हरा, भूरा, सफेद का आक्रमण पत्तियों के ऊपरी एवं निचली सतह में समूह में होता हैं। प्रभावित खेत के बीच-बीच में हाॅपर बर्न (माहू द्वारा जला लक्षण) दिखाई पड़ता हैं। भूरा एवं सफेद माहू व्यस्क कीट की पहचान रंगों के आधार पर की जा सकती हैं। जब धान के खेत में पुष्पण अवस्था शुरू होती हैं तो ये दोनों माहू का लक्षण दिखाई देने लगता हैं। आक्रमण मुख्यतः पानी का भराव स्तर के बाद तना पर देखने को मिलता हैं। शिशु व व्यस्क पौधों के तने से रस चूसकर नुकसान पहुंचाते हैं।


प्रबंधन
इसे नष्ट करने हेतु ब्युपरोफेजीन 25 प्रतिशत एस.सी. 800 मि.ली./हेक्टेयर, फिप्रोनिल 4 प्रतिशत डब्ल्यू.डब्ल्यू. + थायोमिथेक्साॅम 4 प्रतिशत एस.सी. 1100 मि.ली./हे. क्यूनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. 1500 मि.ली./हे., क्लोरट्रानिलीप्रोल 0.5 प्रतिशत एस.सी. + थायोमिथेक्साॅम 01 प्रतिशत जी.आर. 6 कि.ग्रा./हे. एसीटामिप्रिड 04 प्रतिशत + क्लोरफेनापायर 20 प्रतिशत ई.सी. 2500 मि.ली./हे. इमिडाक्लोपिरिड 17.8 प्रतिशत एस.एल. 125 मि.ली./हे. तथा बुफरोफेन्जीन 23.10 प्रतिशत + फिप्रोनिल 3.85 प्रतिशत एस.सी. 750 मि.ली./हे. डालें।

कटुआ कीट इल्ली
लक्षण
इल्ली पत्तियों व तनों को काटकर हानि पहुंचाती हैं इल्ली पौधों के ऊपरी हिस्सों में पत्तियों की शिराओं को छोड़कर शेष भाग खा जाती हैं।

प्रबंधन
मिथाईल पैराथियान चूर्ण का 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। थरहा एवं बाली अवस्था में एक इल्ली प्रति पौधा दिखाई पड़ने पर क्लोरपायरीफास 50 प्रतिशत् की 2000 एम.एल. प्रति हेक्टेयर दवाई का घोल बनाकर छिड़काव करें।

रोग प्रबंधन

जीवाणु जनित पत्ती झुलसा या अंगमारी रोग
लक्षण
पत्ती के ऊपरी सिरे से या पत्तियों के किनारे से पीलापन लिए हुए विक्षत दोनों किनारों से प्रारंभ होकर नीचे की ओर बढ़ते हैं तथा कुछ समय बाद विक्षत का रंग पीला हो जाता हैं। यह विक्षत पूरी पत्ती की लंबाई व चौड़ाई में फैलकर पत्ती तथा पर्णच्छद को लहराते हुये सुखा देता हैं।

प्रबंधन
  • सन्तुलित उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए। नत्रजनयुक्त खादों का उपयोग निर्धारित मात्रा से अधिक नहीं करना चाहिए। रोग होने की दशा में पोटाश (25 किलो/हे.) का उपयोग लाभकारी होता हैं।
  • रोग होने की दशा में खेत से अनावश्यक पानी निकालते रहना चाहिये।
  • रोगरोधी अथवा रोग सहनशील किस्मों जैसे- उन्नत सावाँ मासुरी व बम्लेश्वरी का चुनाव करना चाहिए।
  • कोई रासायनिक उपचार इस बीमारी के लिये प्रभावकारी नहीं हैं।

झुलसा रोग
लक्षण
पत्तियों पर नाव या आँख के आकार के धब्बे बनते हैं। जिनका केन्द्र राख के रंग (घूसर) तथा किनारा गहरा भूरा होता हैं। बाली की गर्दन पर काले भूरे रंग की सड़न जैसी उत्पन्न होने लगती हैं जो संक्रमित भाग से मुड़कर नीचे की ओर झुक जाती हैं। तने की गांठों पर संक्रमण होने पर गठाने काली भूरी होकर तना गठानों से टूट जाती हैं।



प्रबंधन
  • रोग के प्रारम्भिक लक्षण दिखते ही ट्राइफ्लोवी स्ट्रोबिन 25 प्रतिशत + टेबूकोनाजोल 50 प्रतिशत डब्लू.जी. 75 प्रतिशत 4 ग्रा. प्रति ली. कवकनाशी 4 ग्राम प्रति 10 लीटर में से किसी भी एक रसायन का छिड़काव 12-15 दिन के अन्तर से करना चाहिए।
  • रोगरोधी जातियाँ- आई.आर.-64 का चयन करें।
  • समय पर बुवाई और सन्तुलित उर्वरकों का उपयोग इस रोग को सीमित करने में मदद करते हैं।

आभासी कंडवा या फूट कलिका रोग
लक्षण
धान की आभासी कंडवा या फूट कलिका रोग से प्रभावित बाली।

प्रबंधन
बाली निकलने की अवस्था में तथा 7-8 प्रतिशत् रोग लक्षण दिखाई होने पर फाइटोलान, ब्लाइटाक्स-50, क्यूप्राभाट, मेंकोजेब (3 ग्राम/ली) कवच (क्लोरोथैलोनील) (2 ग्राम/लीटर) दवाओं में से किसी एक दवा का 15 दिन के अंतराल में दो छिड़काव करना चाहिए।

पर्णच्छद विगलन रोग (शीथ राॅट)
लक्षण
इस रोग के लक्षण धान की गभोट वाली अवस्था में दिखाई देते हैं। गभोट के निचले हिस्से पर हल्के भूरे रंग के धब्बे बनते हैं, जिनका कोई विशेष आकार नहीं होता हैं। ये धब्बे एक भूरे रंग की परिधि से घिरे रहते हैं। इस रोग की वजह से बाली गभोट के बाहर नहीं आ पाती हैं। बाली का कुछ भाग ही बाहर आ पाता हैं, उसमें दाने नहीं भरते व ग्रसित बाल पकने तक सीधी खड़ी रहती हैं। रोग की वजह से बदरा बढ़ जाता हैं और उत्पादन बहुत कम हो जाता हैं। यह रोग सारोक्लेडियम ओराइजी फफूंद द्वारा होता हैं।



प्रबन्धन
  • धान बीज को बुवाई से पूर्व 17 प्रतिशत नमक के घोल में डुबोने से हल्के तथा खराब बीज (बदरा) ऊपर आ जाते हैं एवं स्वस्थ पुष्ट बीज नीचे बैठ जाते हैं।
  • चयनित बीज का बीजोपचार कवकनाशी कार्बेन्डाजिम 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से करने पर इस रोग का प्रसार कम करने में मदद मिलती हैं।
  • गभोट अवस्था के समय थीफ्लूजामीड (24 प्रतिशत एस.सी.), हेक्साकोनाजोल (1 मि.ली./ली.), कार्बेन्डाजिम (1 ग्राम/ली.) या मैन्कोजेब (2.5 ग्राम/ली.) का छिड़काव करना लाभकारी हैं।
  • रोग सहनशील किस्म दन्तेश्वरी का चयन करें।

भूरा धब्बा रोग
लक्षण
जड़ को छोड़कर रोग के लक्षण प्रायः पौधे के सभी भागों पर पायें जाते हैं। पत्तियों पर अण्डाकर बैंगनी भूरे धब्बे बनते हैं जिनके चारों ओर पीला घेरा दिखाई देता हैं।

प्रबंधन
  • नमक के घोल द्वारा पुष्ट बीज का चयन व उसके बाद कवकनाशी से बीजोपचार करें।
  • मेन्कोजेब 50 प्रतिशत $ कबैन्डाजिम 25 प्रतिषत डी.एस. 2 लीटर का छिड़काव लाभप्रद हैं।
  • रोग सहनशील जातियों जैसे- इंदिरा सुगंधित धान-1 का चुनाव करना चाहिए।
  • ध्यान रखें कि पानी की कमी न होने पाये।

धान का पर्णच्छद झुलसा रोग (शीथ ब्लाइट)
लक्षण
यह रोग धान में कंसे निकलने की अवस्था से गभोट की अवस्था तक देखा जा सकता हैं। रोग प्रकोपित खेत में पानी की सतह से आरम्भ होकर पर्णच्छद पर ऊपर की ओर फैलता हैं और अंततः पौधा रोगग्रस्त होकर झुलस जाता हैं। रोग लक्षण पर्णच्छद व पत्तियों पर दिखाई देते हैं। पर्णच्छद पर 2-3 से.मी. लम्बे, 0.5 से.मी. चौड़े भूरे से बदरंगे धब्बे बनते हैं। प्रारंभ में धब्बे का रंग हरा-मटमैला या ताम्र रंग का होता हैं।
    बाद में बीच का भाग मटमैला हो जाता हैं, जबकि धब्बों के किनारे भूरे रंग के होते हैं। इस रोग को धान स्क्लेरोशियल ब्लाइट या बेन्डेड ब्लाइट के नाम से भी जाना जाता हैं। रोग उग्र अवस्था में तने के ऊपर की ओर फैल जाता हैं व कभी-कभी धब्बों पर सफेद रंग का कवकजाल व राई के दाने के समान कठ कवक (स्क्लेरोशियम) दिखाई देता हैं। यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनी फफूंद द्वारा होता हैं।

प्रबंधन
  • रोगी फसल अवशेषों को जलाकर नष्ट कर दें। पौधों की रोपाई बहुत पास-पास न करें।
  • खड़ी फसल के रोग-प्रकोप होने पर हेक्साकोनाजोल कवकनाशी (1 मि.ली./ली.) या थीयोफ्लूजा माइड (पल्सर) का छिड़काव 10-12 दिन के अन्तर से करें।

खैरा रोग
यह रोग मिट्टी में जस्ते की कमी से होता हैं। प्रभावित फसल की निचली पत्तियां पीली पड़ना शुरू हो जाती हैं और बाद में पत्त्तियों पर कत्थई रंग के छिटकवाँ धब्बे उभरने लगते हैं। कल्ले कम निकलते हैं तथा पौधों की वृद्धि रूक जाती हैं।

प्रबन्धन
  • इसके लिये 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से रोपाई या बुवाई से पूर्व खेत की तैयारी के समय डालना चाहिए।
  • रोग लगने के बाद इसकी रोकथाम के लिए 5 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 2.5 कि.ग्रा. चूना 600-700 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।

कटाई, गहाई एवं भण्डारण
कटाई के 10-15 दिन पूर्व खेत से पानी निकाल देना चाहिए। धान के अन्तिम कंसे की बाली भूरे रंग की हो जाएं तब धान कटने योग्य समझना चाहिए। दानों में 20-25 प्रतिशत नमी रह जाये तब कटाई करना चाहिए। पकने के बाद अधिक समय तक फसल खेत में खड़ी रखने से उपज में गिरावट आती हैं। अतः फसल पकने पर शीघ्रता से कटाई करना चाहिए। फसल को 2-3 दिन तक खेत में ही सूखने देना चाहिए। तत्पश्चात् अच्छी तरह सुखाकर गहाई का कार्य करें। भण्डारण करने से पूर्व धान को 3-4 दिन धूप में अच्छी तरह सुखाकर जब दानों में 12-14 प्रतिशत नमी रह जाये तब भण्डारण करना चाहिए।

स्त्रोतः कृषि विभाग, छ.ग. शासन 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर छ.ग.