अंजली पटेल (सस्य विज्ञान विभाग), शकीना बेगम (पादप कार्यिकी विभाग) एवं दीपिका साहू (मृदा विज्ञान एवं कृषि रसायन विभाग) इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर, 492012 (छ.ग.).
कैलाश विशाल (पौध रोग विज्ञान विभाग) जवाहरलाल नेहरु कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर 482004 (म.प्र.)

आज विश्व की बढ़ती जनसंख्या खाद्यान्न उत्पादन पर दबाव डाल रही है। खेती में उपलब्ध संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग कर, सीमित संसाधनों से अधिक उत्पादन लेना आज की आवश्यकता बन गई है। वहीं पौध रोग व खरपतवार खाद्यान्न फसलों को लगातार नुकसान पहुंचाते आ रहे हैं। इन रोगों और खरपतवारों के प्रबंधन के लिए अनेक विधियां विकसित की गई हैं, जैसे रसायनों का छिड़काव, खेत की सफाई, फसल चक्र, जैविक नियंत्रण इत्यादि। अब मृदाजनित कीट-व्याधियों को प्रबंध करने की अवधारणा बदल गइ है। पहले इन कीटों व रोगाणुओं के उन्मूलन (पूर्णतः नाश) पर ध्यान केन्द्रित था, लेकिन अब कीटों व रोगाणुओं के प्रबंधन के लिए आर्थिक क्षति स्तर को ध्यान में रखा जाता है। समन्वित कीट/रोग/खरपतवार प्रबंधन, कीट/रोग/खरपतवार प्रबंधन के विभिन्न आयामों को शामिल करती है। इस संदर्भ में मृदा सौरीकरण सार्थक भूमिका निभाती है।
    जार्डन घाटी के किसानों तथा प्रसार कार्यकर्ताओं ने अनुभव किया कि पाॅलीथिन की परत बिछानें (या प्लास्टिक मल्च) से भूमि के तापमान में सार्थक वृद्धि होती है। इसके पश्चात् 19 वीं शताब्दी के अन्त में इजराइल के वैज्ञानिकों के एक समूह ने मृदा संक्रमण नियंत्रण के लिए मृदा सौरीकरण तकनीक का विकास किया। गत कई दशकों से प्रयोग किए जा रहे रसायन मानव समाज व पर्यावाण के लिए हानिकारक सिद्ध हुए हैं, जिसके विरोध में वर्तमान में प्राकृतिक एवं जैविक खेती पर बल दिया जा रहा है। ऐसी अवस्था में खरपतवार तथा हानिकारक सूक्ष्म जीवों के नियंत्रण के लिए मृदा सौरीकरण तकनीक कारगार साबित हो सकती है।
    मृदा सौरीकरण, मृदा जनित कीट, रोगों व खरपतवार को नियंत्रित करने का एक अरासायनिक व नवीनतम तकनीक है। यह जलतापीय प्रक्रिया गर्मी के महीनों में नम मृदा को पारदर्शी प्लास्टिक परत से ढ़ककर 4-6 सप्ताह के लिए सूर्य की किरण लगने देने से संपन्न होती है। यह अभ्यास सर्वप्रथम 1888 में जर्मनी में रिपोर्ट की गई थी तथा व्यवसायिक रुप से सर्वप्रथम 1897 में अमेरिका में उपयोग किया गया।
    इस प्रक्रिया के द्वारा मृदा में उपस्थित खरपतवारों के बीज, प्रोपेग्युल, रोगजनित रोगाणु व कीटों के अण्डे, लार्वा व प्युपा इत्यादि नष्ट अथवा निष्क्रिय किए जा सकते हैं।

मृदा सौरीकरण के सिद्धांत
मृदा सौरीकरण, सूर्य की हीट एनर्जी को एक घातक कारक के रुप में उपयोग करती है। सूर्य की रोशनी को एक पारदर्शक प्लास्टिक मल्च के द्वारा कैप्चर किया जाता है। यह प्लास्टिक फिल्म नम मृदा में अधिक से अधिक सौर ऊर्जा को प्रसारित करती है तथा साथ ही वाष्पोत्सर्जन के द्वारा मृदा सतह से होने वाली नमी की हानि को कम करती है। अधिक मृदा नमी के कारण ऊष्मा का संवाहन अधिक होता है, जिसके परिणामस्वरुप मृदा का तापमान बढ़ जाती है। यह ऊर्जा मृदा समुदाय में भौतिक, रासायनिक व जैविक परिवर्तन लाता है। मृदा सौरीकरण का मुख्य सिद्धांत मृदा की दैनिक हीटिंग एवं कूलिंग साइकल को बढ़ाना है।

सारणी 1. मृदा तापमान (डिग्री सेन्टीग्रेड पर) सौरीकरण तकनीक का प्रभाव

दशा

मृदा गहराई (सेमी.)                                        

0.0

7.5

10.0

भारी मृदा (काली)

हल्की मृदा (दोमट)

भारी मृदा (काली)

हल्की मृदा (दोमट)

भारी मृदा (काली)

हल्की मृदा (दोमट)

सामान्य दशा

49

47

43

41

39

37

सूर्यीकृत दशा

 58

56

49

45

43

42


सरणी 1 के अवलोकन से विदित होता है कि सतह पर सामान्य दशा के तुलना में सौरीकृत दशा में मृदा का तापमान लगभग 8-10 डिग्री सेंटीग्रेड अधिक होती है, जो कि विभिन्न प्रकार के खरपतवारों व मृदा जनित सूक्ष्म जीवाणुओं, परजीवियों एवं सूत्रकृमि के विनाश के लिए पर्याप्त होता है। आंकड़ों के अनुसार काली मिट्टी हल्के रंग की तुलना में सौर ऊष्मा का अधिक अवशोषण करती है।


मृदा सौरीकरण की प्रक्रिया

1. उपयुक्त समय - मृदा सौरीकरण यदि साल के सबसे गर्म सप्ताह में किया जाये तो सर्वाधिक प्रभावशाली होता है। जून से अगस्त का माह इसके लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। हालांकि मई के अंतिम सप्ताह में किया गया मृदा सौरीकरण सबसे अच्छा परिणाम देता है।

2. मृदा की तैयारी - सर्वप्रथम भूमि का चयन कर उसकी गहरी जुताई कर समतलीकरण किया जाता है। भूमि में मृदा के बड़े ढ़ेले व पौधे के अवशेष नहीं होने चाहिए।

3. मृदा नमी - मृदा सौरीकरण की सफलती में मृदा नमी एक क्रांतिक तत्व है। उपयुक्त मृदा नमी (क्षेत्र क्षमता की 60-70 प्रतिशत सम अधिक) लक्षित खरपतवारों और जीवों की संवेदनशीलता को बढ़ाती है और मिट्टी की ऊष्मा चालकता में सुधार करती है।

4. प्लास्टिक सीट (मल्च) - प्लास्टिक कवर के ट्रैपिंग की प्रभावकारिता प्लास्टिक के प्रकार, लाइट संप्रंषण क्षमता, चैड़ाई व रंग से प्रभावित होती है। कम घनत्व वाले पतली (0.05 मिमी.) पारदर्शी प्लास्टिक फिल्म सबसे अचछा माना जाता है क्योंकि यह अधिकतम सौर विकिरण प्रसारित करती है और मिट्टी से गर्मी के पलायन को कम करती है।

5. मिट्टी ढ़कना - पूरे क्षेत्र को प्लास्टिक की फिल्म से ढ़क दिया जाता है और किनारों को मिट्टी में लगभग 20 सेमी की गहराई तक दफन कर दिया जाता है।



मृदा सौरीकरण का प्रभाव

1. खरपतवारों पर प्रभाव - खरपतवार विज्ञान अनुसंधान निदेशालय, महाराजपुर, जबलपुर (म.प्र.) में मुख्यतः खरपतवारों पर अध्ययन/शोध किया जाता है। अनेक अध्ययनों में पाया गया कि 4-6 सप्ताह के मृदा सौरीकरण से बहुतायत खरपतवारों का पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कुछ खरपतवार जैसे- नागर, मोथा, दूबघास या कांस, जिनका प्रजनन कंद या तने के गांठों से होती है पर मृदा सौरीकरण का कम प्रभाव पड़ता है, क्योंकि जमीन के अंदर ये कंद या गांठें प्रायः अधिक गहराइयों में होती है, साथ ही कुछ खरपतवार जैसे- सेंजी, हिरनखुरी, जिनके बीजावरण काफी सख्त होते हैंै पर भी मृदा सौरीकरण का प्रभाव कम पड़ता है।

2. फसल बढ़वार एवं उत्पादन पर प्रभाव - चूंकि मृदा सौरीकरण से मिट्टी में पाये जाने वाले परजीवी कवकों, जीवाणुओं, सूत्रकृमि व खरपतवारों पर अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः इनकी निष्क्रियता फसलों को सीधा लाभ पहुंचाती है। लाभकारी सूक्ष्म जीवों की सक्रियता, पोषक तत्वों की घुलनशीलता तथा उपलब्धता में वृद्धि एवं प्रभावकारी खरपतवार नियंत्रण आदि सभी कारकों के सम्मिलित प्रभाव से फसलों के बढ़वार तथा अुततः पैदावार में सार्थक वृद्धि होती है।

3. रासायनिक परिवर्तन - मृदा सौरीकरण से मिट्टी में घुलनशील पोषक तत्वों की मात्रा एवं उनकी पौधों को उपलब्धता बढ़ जाती है। मृदा में कार्बनिक पदार्थ, अमोनियम व नाइट्रेट नाइट्रोजन, कैल्शिम, मैग्निशियम तथा मिट्टी की विद्युत चालकता में प्रशंसनीय वृद्धि होती है।

4. जैविक परिवर्तन - मृदा सौरीकरण का प्रभाव मुख्यतः परजीवी या परपोशी प्रकार के सूक्ष्म जीवों पर ही पाया जाता है। हालांकि इसका प्रभाव लाभदायक जीवाणुओं जैसे- राइजोबियम पर भी होता है, परन्तु बुवाई के समय राइजोबियम कल्चर से बीजोपचारित किया जाए तो पौधों के बढ़वार पर कोई प्रतिकुल प्रभाव नहीं पड़ता है।

मृदा सौरीकरण की प्रभावशीलता
यह विभिन्न प्रकार के खरपतवारों, कवकों, जीवाणुओं तथा सूत्रकृमि पर प्रभावकारी है तथा फसलों की बढ़वार को उत्प्रेरित करता है। प्रायः इसका प्रभाव 2-3 फसलों तक रहता है।
    मृदा सौरीकरण की प्रभावषीलता तीन प्रमुख तत्वों की विशेषताओं से प्रभावित होती है, जैसे- सौर ऊर्जा, प्लास्टिक कवर और मृदा की विशेषता।

मृदा सौरीकरण की प्रभावशीलता को निम्नलिखित तरीकों से बढ़ाया जा सकता है -
  • निकटतम ग्रीनहाउस में मृदा सौरीकरण
  • प्लास्टिक कवर की दो परतों का उपयोग - दो परतों के बीच हवा की परत मिट्टी से हीट, नमी और वाष्पशील गैसों के पलायन को रोकने के लिए इन्सुलेसन प्रदान करती है। इस उपचार से मृदा का तापमान एक परत की तुलना में 3-10 डिग्री सेल्सियस बढ़ जाता है।
  • प्लास्टिक बिछाने से पहले मृदा में कार्बनिक पदार्थ मिलाना।

मृदा सौरीकरण के लाभ
  • इस विधि का प्राथ्मिक लाभ खरपतवारों और मृदाजनित रोगों का गैर रासायनिक प्रबंधन है।
  • इसके अलावा यह मृदा के जैव-रासायनिक व जैव- भौतिक अवस्था में परिवर्तन करती है, जो अंततः पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ाती है।
  • यह विधि सरल, सुरक्षित, प्रभावी है तथा बहुत महंगा नहीं है, साथ ही कोई विषैला अवशेष नहीं छोड़ता व पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है।

मृदा सौरीकरण की सीमाएं
  • कुछ प्रतिकुल पर्यावरणीय स्थिति मृदा सौरीकरण में बाधा डाल सकती है।
  • ग्रीष्म कालीन अवधि में किसान फसल लगाने से वंछित रह जाते हैं।
  • मृदा सौरीकरण के दौरान पूरक सिंचाई जल की कमी।
  • मृदा में गहराई में उपस्थित खरपतवार जीवित रह जाते हैं।
  • उपचार के परिणामस्वरुप प्लास्टिक अवशेषों द्वारा प्रदुषण का खतरा।
  • बड़े पैमाने पर मिट्टी के मल्चिंग के लिए अपर्याप्त मशीनरी की उपलब्धता।