श्रीमती मंजू टंडन
सहायक प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र, जांजगीर-चांपा (छ.ग.)
विश्व में मूंगफली के क्षेत्रफल व उत्पादन की दृष्टि से भारत प्रथम स्थान पर हैं। हमारे देश में मूँगफली गुजरात के साथ-साथ राजस्थान की भी प्रमुख तिलहनी फसल हैं। गुजरात, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश एवं पंजाब सहित अन्य राज्यों में मूंगफली की खेती की जाती हैं। मूँगफली के दाने में 48-50ः वसा, 26ः और प्रोटीन तथा 45ः तेल पाया जाता हैं। मूँगफली की खेती 100 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती हैं। मूंगफली की खेती करने से भूमि की उर्वरता भी बढ़ती हैं। इसका निर्माण भूमि में होता हैं। अतः इसकी फसल के लिए अच्छी जल निकास वाली, भुरभुरी दोमट एवं रेतीली दोमट, कैल्शियम और मध्यम जैव पदार्थाें युक्त मृदा उत्तम रहती हैं। इसकी फसल के लिए मृदा की पीएच 5-8.5 उपयुक्त रहता हैं। सामान्यतः 12 से 15 से.मी. गहरी जुताई उपयुक्त होती हैं। हमारे देश में मूंगफली की कम उत्पादकता का कारण, इसकी खेती असिंचित व अनुपजाऊ भूमि में होना हैं। साथ ही सूखे की अधिकता व अधिक अवधि में पककर तैयार होना हैं।
मृदा एवं भूमि की तैयारी
मूंगफली की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं में की जा सकती हैं फिर भी इसकी अच्छी तैयारी हेतु जल निकास वाली कैल्शियम एवं जैव पदार्थ से युक्त बलुई दोमट मृदा उत्तम होती हैं। मृदा का पीएच मान 6.0 से 8.0 उपयुक्त रहता हैं। मई के महीने में खेत की एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके 2-3 बार हैरो चलावें जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाएं। इसके बाद पाटा चलाकर खेत को समतल करें जिससे नमी संचित रहें। खेत की आखिरी तैयारी के समय 2.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से जिप्सम का उपयोग करना चाहिए।
मूंगफली उत्पादन
भूमि उपचार
मूंगफली फसल में मुख्यतः सफेद लट एवं दीमक का प्रकोप होता हैं। इसलिए भूमि में आखिरी जुताई के समय फोरेट 10 जी या कार्बोफ्यूरान 3 जी से 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपचारित करके हैं। दीमक का प्रकोप कम करने के लिए खेत की पूरी सफाई जैसे पूर्व फसलों के डण्ठल आदि को खेत से हटाना चाहिए और कच्ची गोबर की खाद खेत में नहीं डालना चाहिए। जिन क्षेत्रों में उकठा रोग की समस्या हो वहां 50 कि.ग्रा. सड़े गोबर 2 कि.ग्रा. ट्राइकोडर्मा जैविक फफूंदनाशी को मिलाकर अंतिम जुताई के समय प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिला देना चाहिए।
खाद एवं उर्वरक प्रबंधन
मिट्टी परीक्षण के आधार पर की गयी। सिफारिशों के अनुसार ही खाद एवं उर्वरकों की मात्रा सुनिश्चित की जानी चाहिए। मूंगफली की अच्छी फसल के लिये 5 टन अच्छी तरह सड़ी गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत की तैयारी सके समय मिट्टी में मिला देनी चाहिए। उर्वरक के रूप में 20ः60ः20 कि.ग्रा./हे.। नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग आधार खाद के रूप में करना चाहिए। मूंगफली में गंधक का विशेष महत्व हैं अतः गंधक पूर्ति का सस्ता स्त्रोत जिप्सम हैं। जिप्सम की 250 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग बुवाई से पूर्व आखरी तैयारी के समय प्रयोग करें। मूंगफली के लिये 5 टप गोबर की खाद के साथ 20ः60ः20 कि.ग्रा./हे. नत्रजन, फाॅसफोरस व पोटाश के साथ 25 कि.ग्रा./हेक्टेयर जिंक सल्फेट का प्रयोग आधार खाद के रूप में प्रयोग करने से उपज में 22 प्रतिशत् वृद्धि प्रक्षेत्र परीक्षण व अग्रिम पंक्ति प्रदर्शनों में पायी गयी हैं।
बीजदर
मूंगफली की गुच्छेदार प्रजातियों का 100 कि.ग्रा. एवं फैलने व अर्द्ध फैलने वाली प्रजातियों का 80 कि.ग्रा. बीज (दाने) प्रति हेक्टेयर प्रयोग उत्तम पाया गया हैं।
बीजोपचार
बीजोपचार कार्बोक्सिन 37.5 प्रतिशत थाइरम 37.5 प्रतिशत की 2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज की दर से या 1 ग्रा. कार्बेन्डाजिम ट्राईकोडर्मा विरिडी 4 ग्रा./कि.ग्रा. बीज को उपचार करना चाहिए। बुवाई पहले राइजोबियम एवं फास्फोरस घोलक जीवाणु (पी.एस.बी.) से 5-10 ग्रा./कि.ग्रा. बीज के मान से उपचार करें। जैव उर्वरकों से उपचार करने से मूंगफली में 15-20 प्रतिशत की उपज बढ़ोत्तरी की जा सकती हैं।
बुवाई एवं बुवाई की विधि
मूंगफली की बुवाई जून के द्वितीय सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह में की जाती हैं। झुमका किस्म के लिए कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10 से.मी. रखना चाहिए। विस्तार और अध्रविस्तारी किस्मों के लिए कतार से कतार की दूरी 45 से.मी. एवं पौधे से पौधे की दूरी 15 से.मी. रखना चाहिए। बीज की गहराई 3 से 5 से.मी. रखनी चाहिए। मूंगफली फसल की बोनी की रेज्ड/ब्रोड-बेड पद्धति से करने पर उपज का अच्छा प्रभाव पड़ता हैं इस पद्धति में मूंगफली की 5 कतारों के बाद एक कतार खाली छोड़ देते हैं। इससे भूमि में नमी का संचय जल निकास खरपतवारों का नियंत्रण व फसल की देखरेख सही हो जाने के कारण उपज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता हैं।
उन्नत किस्में
किस्में |
अवधि |
उपज (क्विं/हे) |
जे.जी.एन.-3 |
100-105 |
15-20 |
जे.जी.एन.-23 |
90-95 |
15-20 |
टी.जी.-37 |
100-105 |
18-20 |
जे.एल.-501 |
105-110 |
20-25 |
जी.जी.-20 |
100-110 |
20-25 |
एस.बी.-11 |
110-120 |
14-16 |
जे.एल.-24 |
90-100 |
13-15 |
आई.सी.जी.एस.-11 |
105-110 |
14-16 |
आई.सी.जी.एस.-37 |
105-110 |
15-18 |
आई.सी.जी.एस.-44 |
105-110 |
15-18 |
निराई-गुड़ाई एवं खरपतवार नियंत्रण
मूंगफली की अच्छी पैदावार लेने के लिये कम से कम निराई-गुड़ाई अवश्य करें। इससे जड़ों का फैलाव अच्छा होता हैं। साथ ही भूमि में वायु संचार भी बढ़ता हैं और मिट्टी चढ़ाने का कार्य स्वतः हो जाता हैं, जिससे उत्पादन बढ़ता हैं। यह कार्य कोल्पा या हस्तचलित व्हील हो से करना चाहिए। रसायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण विधि से खरपतवार नियंत्रण हेतु पेण्डीमिथेली 38.7 प्रतिशत 750 ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 3 दिन के अंदर प्रयोग कर सकते हैं या खड़ी फसल में इमेजाथापर 100 मिली. सक्रिय तत्व को 400-500 लीटर पानी में ही एक निराई-गुड़ाई बुवाई के 30-35 दिन बाद अवश्य करें जो तांतु (पेंगिग) प्रक्रिया में लाभकारी होती हैं।
सिंचाई प्रबंधन
मूंगफली वर्षा आधारित फसल हैं अतः सिंचाई की कोई विशेष आवश्यकता नहीं होती हैं। मूंगफली की फसल में 4 वृद्धि अवस्थाएं क्रमशः प्रारंभिक वानस्पतिक वृद्धि अवस्था, फूल बनना, अधिकीलन (पेंगिग) व फली बनने की अवस्था सिंचाई के प्रति अति संवेदनशील हैं। खेत आवश्यकता से अधिक जल को तुरंत बाहर निकाल देना चाहिए अन्यथा वृद्धि व उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।
कीट एवं उसका प्रबंधन
रोमिल इल्ली
रोमिन इल्ली पत्तियों को खाकर पौधों को अंगविहीन कर देता हैद्य पूर्ण विकसित इल्लियों पर घने भूरे बाल होते हैं यदि इसका आक्रमण शुरू होते ही इसका नियंत्रण न किया जाय तो इनसे फसल की बहुत बड़ी क्षति हो सकती हैं।
नियंत्रण
- इसके अण्डों या छोटे-छोटे इल्लियों से लद रहे पौधों या पत्तियों को काटकर या तो जमीन में दबा दिया जाये या फिर उन्हें घास-फूस के साथ जला दिया जायें।
- क्विनलफास 1 लीटर कीटनाशी दवा को 700 से 800 लीटर पानी में घोल बना प्रति हैक्टर छिड़काव करना चाहिए।
माहु कीट
सामान्य रूप से छोटे-छोटे भूरे रंग के कीड़े होते हैं और बहुत बड़ी संख्या में एकत्र होकर पौधों के रस को चूसते हैं, साथ ही साथ वाइस जनित रोग के फैलाने में सहायक हैं।
नियंत्रण
रोग को फैलने से रोकने के लिए इमिडाक्लोरपिड 1 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।
लीफ माइनर
लीफ माइनर का प्रकोप होने पर पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे दिखाई पड़ने लगते हैं। इसके गिडार पत्तियों में अन्दर ही अन्दर हरे भाग को खाते रहते हैं, जिससे पत्तियों पर सफेद धारियॉ सी बन जाती हैं। इसका प्यूपा भूरे लाल रंग का होता है, इससे फसल की काफी हानि हो सकती हैं। मादा कीट छोटे और चमकीले रंग के होते हैं, मुलायम तनों पर अण्डा देती हैं।
नियंत्रण
इसकी रोकथाम के लिए इमिडाक्लोपिड 1 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी की दर से घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
सफेद लट
मूंगफली को बहुत ही क्षति पहुँचाने वाला कीट हैं। यह बहुभोजी कीट है, इस कीट की ग्रव अवस्था ही फसल को काफी नुकसान पहुँचाती हैं। लट मुख्य रूप से जड़ों और पत्तियों को खाते हैं जिसके फलस्वरूप पौधे सूख जाते हैं मादा कीट मई से जून के महीने में जमीन के अन्दर अण्डे देती हैं इनमें से 8 से 10 दिनों के बाद लट निकल आते हैं और इस अवस्था में जुलाई से सितम्बर-अक्टूबर तक बने रहते हैं। शीतकाल में लट जमीन में नीचे चली जाती हैं तथा प्यूपा फिर गर्मी व बरसात के साथ ऊपर आने लगते हैं।
नियंत्रण
- क्लोरोपायरिफास से बीजोपचार प्रारंभिक अवस्था में पौधों को सफेद लट से बचाता हैं।
- अधिक प्रकोप होने पर खेत में क्लोरोपायरिफास का प्रयोग करें।
- इसकी रोकथाम फोरेट की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टर खेत में बुवाई से पहले भुरका कर की जा सकती हैं।
प्रमुख रोग एवं उनका नियंत्रण
मूंगफली की कम पैदावार के कारणों में सबसे बड़ा कारण हैं इस फसल पर रोगों का प्रकोप किसान रोगों से फसल को बचा कर मूंगफली की पैदावार बढ़ा सकते हैं मूंगफली का प्रचुर उत्पादन प्राप्त हो इसके लिये पौध रोग प्रबंधन की उचित आवश्यकता होती हैं। मूंगफली के रोग एवं उनका नियंत्रण इस प्रकार हैं-
पर्ण चित्ती अथवा टिक्का रोग
मूंगफली का यह एक मुख्य रोग हैं यह रोग सर्कोस्पोरा अराचिडीकोला/सर्कोस्पोरा परसोनाटा नामक कवक से होता हैं। जब पौधे एक या दो माह के होते हैं तब फसल पर इस रोग का प्रकोप होता हैं। इस रोग में पत्तियों के ऊपर बहुत अधिक धब्बे बन जाते हैं जिसके कारण वह शीघ्र ही पकने के पूर्व गिर जाती हैं। परिणामस्वरूप पौधों से फलियां बहुत कम और छोटी प्राप्त होती हैं। सर्वप्रथम रोग के लक्षण पत्तियों की ऊपरी सतह पर हल्के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, इन धब्बों की ऊपरी सतह वाले ऊतकक्षीय क्षेत्र लाल भूरे से काले जबकि निचली सतह के क्षेत्र हल्के भूरे रंग के होते हैं।
नियंत्रण
- मूंगफली की खुदाई के तुरंत बाद फसल अवशेषों को एकत्र करके जला देना चाहिए।
- मूंगफली की फसल के साथ ज्वार या बाजरा की अंतवर्ती फसलें उगायें ताकि रोग के प्रकोप को कम किया जा सकें।
- बीजों को थायरम (1ः350) या कैप्टान (1ः500) द्वारा उपचारित करके बोएं।
- खड़ी फसल में कार्बेन्डाजिम 0.1ः या मेंकोजेब 0.2ः का 2-3 छिड़काव करें।
श्याम व्रण या ऐन्थे्रक्नोज
यह रोग मुख्यतः बीज पत्र, तना, पर्णवृन्त, पत्तियों तथा फल्लियों पर होता हैं। रोगग्रस्त पत्तियां जगह-जगह पीली हो जाती हैं। पत्तियों की निचली सतह पर अनियमित आकार के भूरे धब्बे दिखाई देते हैं जिनमें लालिमा भी पाई जाती हैं जो कुछ समय बाद गहरे रंग की हो जाती हैं। पौधों के प्रभावित तक विवर्णित होकर मर जाते हैं और फलस्वरूप विशेष विक्षत बन जाते हैं।
नियंत्रण
- ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें।
- प्रमाणित एवं स्वस्थ बीजों का चुनाव करें।
- रोगग्रस्त पौधों को निकालकर नष्ट कर दें।
- बीजों को बोर्डो मिश्रण (4ः4ः50) या काॅपर आॅक्सीक्लोराइड या मेनकोजेब (0.25 द्वारा बीजोपचार करें)।
रस्ट या गेरुआ रोग
यह पक्सिनिया अराॅचिडिस नामक फफूंद से होता हैं इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों की निचली सतह पर जंग के सामान उतकक्षीय स्पाॅट के रूप में दिखाई पड़ते हैं। पत्तियों के प्रभावित भाग की बाह्य त्वचा फट जाती हैं। पर्णवृन्त एवं वायवीय भाग पर भी ये स्पाॅट देखे जा सकते हैं। रोग उग्र होने पर पत्तियां झुलसकर गिर जाती हैं। फल्लियों के दाने चपटे व विकृत हो जाते हैं।
नियंत्रण
- फसल की बुवाई जून के मध्य पखवाड़े तक करें ताकि रोग का प्रकोप कम हों।
- मूंगफली की खुदाई के तुरंत बाद फसल अवशेषों को एकत्र करके जला देना चाहिए।
- रोगग्रस्त पौधों को निकालकर नष्ट कर दें।
- बीज को 0.1ः की दर से वीटावेक्स या प्लांटवेक्स दवा से बीजोपचार करके बोएं।
- खड़ी फसल में घुलनशील गंधक चूर्ण 15 कि.ग्रा. प्रति हे. की दर से भुरकाव या कार्बेन्डाजिम या बाविस्टीन 0.5ः की दर से 15 दिन के अंतराल में छिड़कें।
जड़ सड़न रोग
इस रोग में पौधे पीले पड़ने लगते हैं मिट्टी की सतह से लगे पौधें के तने का भाग सूखने लगता हैं। जड़ों के पास मकड़ी के जाले जैसी सफेद रचना दिखाई पड़ती हैं। प्रभावित फल्लियों में दाने सिकुड़े हुए या पूरी तरह से सड़ जाते हैं, फल्लियों के छिलके भी सड़ जाते हैं।
नियंत्रण
- ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें।
- लम्बी अवधि वाले फसल चक्र अपनाएं।
- बीज की फफूंदनाशक दवा जैसे थायरम या कार्बेन्डाजिम या सेरेसन की 3 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें।
कली ऊतकक्षय विषाणु रोग
यह विषाणु जनित रोग हैं थ्रिप्स इस विषाणुजनित रोग के वाहक का कार्य करते हैं। ये हवा द्वारा फैलते हैं। रोग के प्रभाव से मूंगफली के नए पर्णवृन्त पर हरिमा हीनता दिखाई देने लगती हैं। उतकक्षयी धब्बे एवं धारियां नए पत्तियों पर बनते हैं तापमान बढ़ने पर कली उतकक्षयी लक्षण प्रदर्शित करती हैं पौधों की बढ़वार रूक जाती हैं।
नियंत्रण
- शीघ्र बुवाई करें।
- फसल की रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें।
- मूंगफली के साथ अंतवर्ती फसलें जैसे बाजरा 7ः1 के अनुपात में लगाएं।
- मोनोक्रोटोफाॅस 1.6 मि.ली./ली. या डाइमेथोएट 2 मि.ली./ली. के दर से छिड़काव करें।
फसल कटाई
मूंगफली में जब पुरानी पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगें, फली का छिलका कठोर हो जाए, फली के अन्दर बीज के ऊपर की परत गहरे गुलाबी या लाल रंग की हो जाए तथा बीज भी कठोर हो जाए तो मूंगफली की कटाई कर लेनी चाहिए पकी फसल पर वर्षा होने से फलियों में ही बीज के उगने का अंदेशा रहता है, इसलिए कटाई समयानुसार सावधानी से करनी चाहिए कटाई के बाद पौधों को सुखाएं और बाद में फलियां अलग करें फलियों को अलग करने के बाद फिर से सुखाएं ताकि उनमें नमी की मात्रा 8 प्रतिशत रह जाएं फसल की कटाई में देरी होने से फसल का पैदावार और गुणवत्ता दोनों पर प्रभाव पड़ता हैं।
पकने के बाद जब फली अधिक देर के लिए जमीन में पड़ी रहें तो उसमें कीटों और रोगों का प्रकोप बढ़ जाता है, जिससे पैदावार में काफी कमी आ जाती हैं। खुदाई से पहले अगर जमीन सूखी है, तो खेत की सिंचाई कर लें। सिंचाई करने से जमीन नरम पड़ जाती है, जिससे खुदाई करने में आसानी रहती हैं। खुदाई के बाद फलियों को अच्छी तरह साफ कर लें अगर हो सके तो फलियों को आकार के हिसाब से वर्गीकरण कर लें, जिससे मण्डी में उत्पाद के अच्छे दाम मिल सकें।
पैदावार
उपरोक्त तकनीक अपनाकर मूंगफली की खरीफ की फसल से 18 से 20 क्विंटल और रबी या जायद की फसल से 20 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार प्राप्त की जा सकती हैं।
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