छत्रपाल सिंह पुहुप, यंग प्रोफेसनल-II
कृषि विज्ञान केन्द्र, सिंगारभाट, कांकेर

उड़द दलहनी फसल होने से आगामी फसल के लिए नत्रजन छोड़ती हैं जिससे भूमिकी उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती हैं। उड़द की फसल कम समय में पक कर तैयार होने के कारण सघन फसल प्रणाली के लिये भी उपयुक्त हैं।

भूमि की तैयारी
पानी के समुचित निकास वाली जमीन में उड़द की खेती अच्छी होती हैं। वर्षा आरम्भ होने के बाद दो-तीन बार हल चला कर खेत तैयार करना चाहियें।

बीज का चुनाव एवं बीज मात्रा
स्वस्थ व रोगरहित बीज की 15-20 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होगा। जिससे 4 से 4.5 लाख तक पौध संख्या (प्रति हेक्टेयर) मिल सकेगी।

उन्नत किस्मों का विवरण

क्र.

किस्म

पकने की अवधि

प्रति हेक्टेयर उपज (कि.ग्रा)

अन्य विवरण

1.

टी-9

70-80

1000-1200

पौधा सीधा तथा दाने काले होते हैं। पूरे प्रदेश के लिए विशेषकर द्विफसली क्षेत्रों हेतु उपयुक्त।

2.

पंत यू-30

100

1200-1500

दाना मध्यम काले रंग का रीवा, ग्वालियर तथा पील मोजेक क्षेत्र के लिए उपयुक्त।

3.

खरगोन-3

90

1000-1200

दाना बड़ा काला, साधारण फैलने वाली निमाड़ एवं मालवा क्षेत्र के लिए उपयुक्त।

 

4.

जवाहर उड़द-3

70

1500-2000

सम्पूर्ण मध्य प्रदेश पीत विषाणु रोग एवं पर्ण धब्बा रोग के प्रति मध्यम अवरोधी हैं।

5.

जवाहर उड़द-2

75-80

1200-1500

पीत विषाणु रोग के प्रति अवरोधी हैं।

6.

जे.यू. 86

65

1200-1400

चूर्णित आसिता, पीत विषाणु रोग एवं पर्ण धब्बा रोग के प्रति मध्यम अवरोधी हैं।

7.

पी.डी.यू.-1

70-80

1200-1400

जायद के लिये उपयुक्त तथा पीत विषाणु रोग के प्रति अवरोधी।

8.

टी.पी.यू.-4

70-80

1000-1200

दाना मध्यम आकार का होता हैं।

9.

एल.बी.जी.-20

65-70

1000-1200

पीत विषाणु रोग के लिये सहनशील

10.

एल.बी.जी-402

78

1080

दाना बड़ा होता हैं।



बोने का समय एवं तरीका
जून के अंतिम सप्ताह से लेकर जुलाई के द्वितीय सप्ताह तक बोनी करना चाहिए। बीज 4 से.मी. की गहराई पर 10 से.मी. दूरी रखते हुए बोना चाहिये। कतारों से कतारों की दूरी 30 से.मी. रखना चाहियें।

बीजोपचार
बोनी से पहले बीज को फफूंदनाशक दवा कार्बेन्डाजिम या कार्बेन्डाजिम $ मेन्कोजेब या कार्बेन्डाजिम $ थायरम (2ः1) की ग्राम के साथ थायोमेथाक्जिम-75 डब्ल्यू.एस. की 3 ग्राम मात्र से प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहियें। उपचारित बीज में राइजोबियम एवं पी एस बी कल्चर की 5-8 ग्राम की मात्रा द्वारा प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर षीघ्र बुवाई करें।

रासायनिक खाद
उड़द की खेती में 20 किलो नत्रजन और 50 किलो स्फुर 20 किलो पोटाष प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिये। खाद उर्वरक की संपूर्ण मात्रा बूवाई पूर्व खेत में डालना चाहियें।

निंदाई-गुड़ाई
पौधे जब 6 इंच के हो जावें तब डोरा से एक बार निंदाई करना चाहिये। आवश्यकता के अनुसार दो बार निंदाई करना चाहियें। नींदा की रोकथाम के लिए नींदानाशक दवाओं का प्रयोग किया जा सकता हैं। एक हेक्टेयर के लिए नींदानाशकों की संस्तूत मात्रा को 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। खरपतवार नाशक दवाओं के छिड़काव के लिये हमेशा फ्लेट फेन नोजल का ही उपयोग करें।

शाकनाशी का नाम

व्यवसायिक मात्रा/हेक्टेयर

प्रयोग

खरपतवार नियंत्रण

फ्लूक्लोरालिन

3000 मि.ली.

रोपण पूर्व

समस्त खरपतवार

पेन्डिमिथिलीन

3000 मि.ली.

बुवाई के 0-3 दिन तक

घासकुल एवं कुछ चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार

इमेजेथापायर

750 मि.ली.

बुवाई के 20 दिन बाद

घासकुल, मोथाकुल एवं चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार

क्यूजालोफाप ईथाइल

1250 मि.ली.

बुवाई के 15-20 दिन बाद

घासकुल के खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण



पौध संरक्षण
प्रमुख कीट

1. एफिड- चमकीले काले रंग के षिषु एवं प्रौढ़ कीट पौधों के कोमल भागों से रस चूसकर पौधों को क्षति पहुँचाते हैं। इनके प्रबंधन हेतु निम्बोली का 5 प्रतिशत् अथवा नीम का तेल 3000 पी.पी.एम. का छिड़काव करें।

2. सफेद मक्खी- यह कीट पौधों के कोमल भागों का रस चूसकर क्षति पहुँचाती हैं तथा पीत विषाणु रोग के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करती हैं। सफेद रंग का यह कीट पत्तियों की निचली सतह पर रहकर रस चूसती हैं। इस कीट के प्रबंधन हेतु रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर गाड़ दे या जला दें। इनके रासायनिक प्रबंधन हेतु इमिडाक्लोप्रिड-17.8 एस.एल. की 0.2 मि.ली. प्रति लीटर अथवा एसीफेट-75 एस.पी. की एक ग्राम मात्रा का प्रति लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें अथवा नीम के तेल (3000 पी.पी.एम.) की 20 मि.ली. प्रति लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें।

3. कबंल कीड़ा (बिहारी हेयरी केटर पिलर)- इल्लियाँ पत्तियों को नुकसान पहुँचाती हैं। अधिक प्रकोप से फसल को अधिक नुकसान होता हैं। इसकी रोकथाम के लिए डाईक्लोरोवाॅस-100 ई.सी. की एक मि.ली. अथवा फेनवेलरेट-20 ई.सी. की 1 मि.ली. मात्रा का प्रति लीटर की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें अथवा फेनवेलरेट-0.4 प्रतिशत् की 15 कि.ग्रा. मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करें।

4. फलीछेदक कीट- यह कीट प्रारंभ में हरी मुलायम पत्तियों को खता हैं। फली बनने पर फलियों में छेदकर दानोंको खाकर क्षति पहुँचाता हैं। हेलिकोवर्पा, तम्बाकू की सुंडी एवं चित्तीदार फली छेदक कीट प्रमुख रूप से क्षति पहुँचाते हैं। इनके जैविक प्रबंधन हेतु वैसिलस थुरिनजैन्सिस की 1 कि.ग्रा./हेक्टेयर अथवा एच.एन.पी.व्ही.-250 एल.ई. की 1 मि.ली. अथवा निम्बोली का सत 5 प्रतिशत् की 50 ग्राम मात्रा प्रति लीटर अथवा 3000 पी.पी.एम. नीम की तेलकी 20 मि.ली. मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें। रासायनिक प्रबंधन हेतु इमामेक्टिंग बेन्जोएट की 5 एस.जी. की 0.2 ग्राम मात्रा अथवा प्रोपेनोफाॅस 50 ई.सी. की 2 मि.ली. अथवा रिनाक्सीपायर 20 एस.सी. की 0.15 मि.ली. मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें।

प्रमुख बीमारियाँ

1. सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बा- यह रोग सर्कोस्पोरा कैनीसेन्स नामक फफंूद से फैलता हैं। सवंमित पत्तियों पर भूरे से लेकर हल्के हरे रंग के धब्बे बनते हैं जिनके किनारे रक्ताव भूरे रंग के होते हैं। अनुकूल अवस्था में रोग के लक्षण तना, पर्णवृन्त एवं फलियों पर भी देखें जा सकते हैं। अधिक संक्रमण में पत्तियाँ झड़ जाती हैं। इनके प्रबंधन हेतु बीजों को बुवाई से पूर्व थीरम + कार्बेन्डाजिम (2ः1) की 3 ग्राम मात्रा से प्रति किलो बीज को उपचारित कर बुवाई करें। पौधों पर रोग के लक्षण दिखाई देते ही कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. की 0.1 प्रतिशत् अथवा मैन्कोजेब 45 डब्ल्यू.पी. की 0.2 प्रतिशत् घोल का छिड़काव करें।

2. पाउडरी मिल्ड्यू- इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों के ऊपरी सतह पर पाउडर जैसे वृद्धि दिखाई देते हैं। अनुकूल वातावरण में पूरा पौधा सफेद पाउडर जैसी फफूंद वृद्धि से ढंक जाता हैं। जिससे पत्तियां पीली पड़कर झड़ने लगती हैं। इस रोग के प्रबंधन हेतु 5 प्रतिशत् निम्बोली का सत अथवा 3000 पी.पी.एम. नीम के तेल की 20 लीटर मात्रा प्रति लीटर पानी अथवा सल्फर 80 डब्ल्यू.पी. की 4 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से अथवा कार्बेन्डाजिम की 0.1 प्रतिशत् घोल का छिड़काव करें।

3. पीत विषाणु रोग- सफेद मक्खी के द्वारा फैलने वाला यह एक विषाणु जनित रोग हैं। जिसमें प्रारंभिक अवस्था में पत्तियों पर चितकवरे धब्बे बनते हैं। जो बाद में फैल कर पूरी पत्ती को ढ़क लेते हैं। जिससे पूरा पौधा पीला पड़ जाता हैं। फूल एवं फल बहुत कम लगते हैं। इस रोग के द्वारा सत प्रतिशत् हानि संभव हैं। इस रोग के प्रबंधन हेतु रोग अवरोधी प्रजातियों का बुवाई हेतु चयन करें। बुवाई से पूर्व बीजों को थायोमेथाक्जिम-75 डब्ल्यू.एस. की 5 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीजो उपचार कर बुवाई करें। रोग ग्रस्त पौधें दिखाई देते ही उखाड़कर जमीन में दवा दे अथवा जला दें। इसके तुरंत बाद इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. की 0.3 मि.ली. अथवा ट्राइजोफास 40 ई.सी. की 2 मि.ली. मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें।

4. श्यामवर्ण रोग- इस रोग में सर्वप्रथम पत्तियों पर गोलाकर भूरे धसे हुये धब्बे बनते हैं। जिनके मध्य भाग गहरे एवं किनारे हल्के रंग के होते हैं। अनुकुल वातावरण में इस रोग का संक्रमण पौधे के समस्त वायुवीय भाग पर देखे जा सकते हैं। पत्तियों के सवंमित धब्बे सूख कर गिर जाते हैं जिससे पत्तियों पर छिद्र बन जाते हैं। इस रोग के प्रबंधन हेतु बीजों को बुवाई से पूर्व कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. की 2 ग्राम मात्रा अथवा थायरम + कार्बेन्डाजिम (2ः1) की 3 ग्राम मात्रा अथवा कार्बाक्सिन (बीटावेक्स पावर) की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलों बीज को उपचारित कर बुवाई करें। रोग का संक्रमण दिखाई देते ही पौधों पर कार्बेन्डाजिम की 50 डब्ल्यू.पी. की 0.1 प्रतिशत् अथवा हेक्साकोनाजोल की 0.1 प्रतिशत् घोल का छिड़काव करें।

फसल कटाई
जब फसल पूरी तरह पक जावे तब उसकी कटाई कर लेना चाहियें।