फसल चक्र या सस्यचक्र (Crop Rotation) का तात्पर्य है कि विभिन्न फसलों को क्रमवार को किसी निश्चित क्षेत्र पर, निश्चित क्रम या निश्चित समय में बुवाई करना। यह एक पुरानी प्रथा है जिसके अंतर्गत फसलों को अदल-बदल कर खेती की परम्परा चली आ रही है, परन्तु अब इसका चलन कम हो गया या तो ऐसा कहे ना के बराबर ही हो गया हैं। वर्तमान समय में बढ़ती खाद्यन्न की मांग को देखते हुए एवं खेतों की उत्पादकता में कमी के कारण फसल चक्र को अपनाना वर्तमान की आवश्यकता है। फसल चक्र अथवा सस्य चक्र के कुछ मूलभूत सिंद्धात है, जिसके आधार पर इसका क्रियान्वन किया जाता है जैसे कि, अधिक खाद की मांग वाली फसल के बाद कम खाद की मांग वाली फसलों की खेती, अधिक सिंचाई की आवश्यकता वाली फसल के बाद कम सिंचाई वाली फसलों की खेती। इसी तरह ज्यादा निराई-गुड़ाई की मांग वाली फसल, ज्यादा पोषक तत्व के शोषण वाली फसल, एक ही कीट या रोग से ग्रसित होने वाली फसलों के स्थान पर कम निराई-गुड़ाई, पोषक तत्व मांग वाली फसलों की खेती करना ही फसल चक्र कहलाता हैं। फसल चक्र या सस्यचक्र से होने वाले लाभः-
  • पोषक तत्वों का समान व्यय- फसलों की जड़ें गहराई तथा फैलाव में विभिन्न प्रकार की होती हैं, अतः गहरी तथा उथली जड़ वाली फसलों के क्रमशः बोने से पोषक तत्वों का व्यय विभिन्न गहराइयों पर समान होता है, जैसे गेहूँ, कपास।
  • पोषक तत्वों का संतुलन- विभिन्न पौधे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश तथा अन्य पोषक तत्व भिन्न-भिन्न मात्राओं में लेते हैं। सस्यचक्र द्वारा इनका पारस्परिक संतुलन बना रहता है। एक ही फसल निरंतर बोने से अधिक प्रयुक्त होने वाले पोषक तत्वों की भूमि में शून्यता हो जाती है।
  • हानिकारक कीटाणु, रोग तथा खरपतवार की रोकथाम- एक फसल, अथवा उसी जाति की अन्य फसलें, लगातार बोने से उनके हानिकारक कीड़े, रोग तथा साथ उगने वाली खरपतवार उस खेत में बनी रहती है।
  • श्रम, आय तथा व्यय का संतुलन - एक बार किसी फसल के लिए अच्छी तैयारी करने पर, दूसरी फसल बिना विशेष तैयारी के ली जा सकती है और अधिक खाद की मांग वाली फसल को पर्याप्त मात्रा में खाद को देकर, शेष खाद पर अन्य फसलें लाभ के साथ ली जा सकती है, जैसे आलू के पश्चात् तंबाकू, प्याज या कद्दू आदि।
  • भूमि में कार्बनिक पदार्थों की पूर्ति- निराई-गुड़ाई की मांग वाली फसलें, जैसे आलू, प्याज आदि बोने से, भूमि में जैव पदार्थों की कमी हो जाती है। इनकी पूर्ति दलहन वर्ग की फसलों तथा हरी खाद के प्रयोग से हो जाती है।
  • अल्पकालीन फसलें बोना- मुख्य फसलों के बीच अल्पकालीन फसलें बोई जा सकती हैं, जैसे मूली, पालक, मूँग आदि।
  • भूमि में नाइट्रोजन की पूर्ति- दलहन वर्ग की फसलों को, जैसे सनई, ढेंचा, मूँग इत्यादि, भूमि में तीन या चार वर्ष में एक बार जुताई करने से, न केवल कार्बनिक पदार्थ ही मिलते हैं अपितु नाइट्रोजन भी मिलता है, क्योंकि इनकी जड़ की छोटी-छोटी गाँठों में नाइट्रोजन स्थापित करने वाले जीवाणु होते हैं।
  • भूमि की अच्छी भौतिक दशा- झगड़ा जड़वाली तथा अधिक गुड़ाई चाहने वाली फसलों को सस्यचक्र में संमिश्रित करने से भूमि की भौतिक दशा अच्छी रहती है।
  • खरपतवार की सफाई- निराई-गुड़ाई की मांग वाली फसलों के बोने से खरपतवार की सफाई स्वयं हो जाती है।
  • कटाव से बचत- उचित सस्यचक्र से वर्षा के जल से भूमि का कटाव रुक जाता है तथा खाद्य पदार्थ बहने से बच जाते हैं।
  • समय का सदुपयोग- इससे कृषि कार्य उत्तम ढंग से होता है। खेत एवं किसान व्यर्थ खाली नहीं रहते।
  • भूमि के विषैले पदार्थों से बचाव- फसलें जड़ों से कुछ विषैला पदार्थ भूमि में छोड़ती हैं। एक ही फसल बोने से, भूमि में विषैले पदार्थ अधिक मात्रा में एकत्रित होने के कारण हानि पहुँचाते हैं।
  • उर्वरा शक्ति की रक्षा- भूमि की उर्वरा शक्ति मितव्ययिता से ठीक रखी जा सकती है।
  • शेषांक से लाभ- पूर्व फसलों के शेषांक से लाभ उठाया जा सकता है।
  • अधिक उपज- उपर्युक्त कारणों से फसल की उपज प्रायरू अधिक हो जाती है।