संदीप कुमार पैकरा सहायक प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र रायगढ़ (छ.ग.)
द्विवेदी प्रसाद, सहायक प्राध्यापक (सस्य विज्ञान)
पं. शिव कुमार शास्त्री कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र रायगढ़ (छ.ग.)
खरीफ दलहनी फसलों में अरहर का प्रमुख स्थान हैं। दलहनी फसलों में अरहर भारत वर्ष की प्रमुख फसल है जो 37 प्रतिशत् क्षेत्रफल में उगायी जाती हैं तथा विश्व के कुल उत्पादन में 27 प्रतिशत् भागीदारी सुनिश्चित् करती हैं। यह फसल अकेली अथवा दूसरी फसलों के साथ भी बोई जाती हैं। अरहर गहरे जड़ वाली फसल हैं अतः वायुमण्डलीय नत्रजन का स्थिरीकरण पर्याप्त मात्रा में कर मृदा उर्वरता में वृद्धि करती हैं। अरहर की दाल में प्रोटीन की प्रचुरता के साथ-साथ लोहा व आयोडीन जैसे तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं।
भूमि व खेत की तैयारी
अरहर को विविध प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता हैं। चुनाव की दृष्टि से हल्की रेतीली दोमट या माध्यम भूमि जिसमें समुचित जल निकास हो इस फसल के लिये उपयुक्त होती हैं। गहरी काली भूमि पर्याप्त वर्षा वाले क्षेत्रों में मध्यम अवधि या देरी से पकने वाली प्रजातियाँ लगायें। हल्की, ढ़ाल युक्त कम वर्षा वाले क्षेत्रों में जल्दी पकने वाली प्रजातियां लगायें। खेत की तैयारी हेतु गर्मी में खाली खेतों की गहरी जुताई करें तथा वर्षा शुरू होने पर एक-दो जुताई कर पाटा चलाकर समतल करें।
बुवाई व बीजोपचार
अरहर की बुवाई वर्षा प्रारम्भ होने के साथ ही करें सामान्य रूप से जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह के मध्य अवश्य करें (25 जून से 5 जुलाई) जल्दी पकने वाली प्रजातियों के लिये 25-30 किलोग्राम एवं मध्यम समय में पकने वाली प्रजातियों के लिये 18-20 किलोग्राम बीज/हेक्टेयर रखें। शीघ्र पकने वाली प्रजातियों की बोनी 30×15 से.मी. तथा मध्यम-देरी से पकने वाली प्रजातियों के लिये 60×20 से.मी. पर करें। बुवाई के पूर्व बीजो को कैल्शियम क्लोराइड की 2 प्रतिशत् मात्रा से तथा थायरम + कार्बेन्डाजिम (2ः1) के 3 ग्राम मिश्रण प्रति किलों ग्राम बीज की दर से बीज उपचार अवश्य करें तत्पश्चात् अरहर के राइजोबियम कल्चर एवं पी.एस.बी. कल्चर प्रत्येक की 5-5 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बोनी करें।
उन्नत प्रजातियाँः
क्र.
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किस्म का नाम
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अवधि, दिन
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औसत उपज, क्वि./हे.
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विशेषतायें
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1.
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प्रगति (आई.सी.पी.एल.-87)
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135-140
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12-15
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उकठा सहनशील
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2.
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पूसा-992
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130-140
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17-18
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बन्ध्याकरण रोग एवं उकठा के प्रति सहनशील
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3.
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जागृति (आई.सी.पी.एल.-87-151)
|
135-140
|
15-20
|
विषाणु रोग के लिये
|
4.
|
पूसा-33
|
140-145
|
12-15
|
शीघ्र पकने वाली
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5.
|
जवाहर अरहर-4
|
160-170
|
15-20
|
उकटा अवरोधी, सूखा तथा फलीछेदक के प्रति सहनशील
|
6.
|
जे.के.एम.-7
|
165-170
|
15-20
|
उकटा रोधी
|
7.
|
जे.के.एम-189
|
165-170
|
15-20
|
उकटा रोधी
|
8.
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टी.जे.टी.-501
|
145-150
|
15-20
|
उकटा रोधी
|
9.
|
आशा (आई.सी.पी.एल.-87-119)
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180-195
|
18-20
|
उकटा रोग अवरोधी
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10.
|
ग्वालियर-3
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220-250
|
18-20
|
देर से पकने वाली
|
11.
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राजीवलोचन
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180-195
|
18-20
|
सूखा निरोधक, बाँझपन तथा फाइटोफ्थोरा
|
12.
|
टी.टी.-401
|
138-156
|
14-16
|
फलीछेदक के प्रति सहनशील
|
13.
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विपुला
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145-160
|
14-16
|
उकठा व बाँझपन रोधी
|
14.
|
जी.टी.एच.-1
|
135-145
|
15-18
|
बाँझपन एवं उकठा निरोधक, फल्लीभेदक सहनशील
|
15.
|
ए.के.टी.-8811
|
135-145
|
15-18
|
उकठा रोधी, फल्लीभेदक सहनशील
|
16.
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व्ही.एल.ए.-1
|
135-145
|
12-15
|
उकठा रोधी, फल्लीभेदक सहनशील, शीघ्र पकने वाली
|
17.
|
बी.एस.एम.आर.-736
|
180-190
|
18-20
|
उकठा एवं बाँझपन सहनशील
|
18.
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नम्बर-148
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165-170
|
9-10
|
उकठा सहनशील
|
उन्नत किस्मों का चुनाव
भूमि का प्रकार, बुवाई का समय, जलवायु, आदि के आधार पर अरहर के उन्नत किस्मों का चयन करना चाहिए। ऐसे क्षेत्र जहां सिंचाई के साधन उपलब्ध हो व कम वर्षा वाली असिंचित भूमि हो तो शीघ्र पकने वाली किस्म की बुवाई करनी चाहिए। इसी तरह मध्यम गहरी भूमि जहां पर्याप्त वर्षा होती हो एवं सिंचित व असिंचित क्षेत्रों में मध्यम अवधि में पकने वाली किस्मों की बुवाई करनी चाहिए।
खाद एवं उर्वरक
20 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम स्फुर, 20 किलोग्राम पोटाश व 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट/हेक्टेयर का प्रयोग करें। 8-10 टन गोबर की अच्छी तरह से सड़ी हुई खाद दो वर्ष के अंतराल से दें।
जल प्रबंधन
वर्षा ऋतु में जल भराव से बचने हेतु उचित जल निकास के लिए 15-20 मीटर दूरी पर गहरी नालियां बनायें। आमतौर पर अरहर की असिंचित खेती की जाती हैं। देरी से पकने वाली प्रजातियों में पानी उपलब्ध होने पर फूल, फली की अवस्था में एक सिंचाई करने पर उत्पादन अच्छा मिलता हैं।
खरपतवार नियंत्रण
खरपतवार नियंत्रण हेतु बोनी के तुरन्त बाद पेन्डीमिथलीन 1-1.25 किलोग्राम/हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें तत्पश्चात् एक निदाई लगभग 25-30 दिनों बाद करें। अंकुरण के उपरान्त क्यूजालोफाप पी.ईथाल की 1.25 किलोग्राम या इमेजाथापर की 1 किलोग्राम मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के 15-20 दिन बाद छिड़काव करें।
अन्तरवर्तीय फसल
अन्र्तवर्तीय फसल पद्धति से मुख्य फसल की संपूर्ण पैदावार एवं अंतरवर्तीय फसल से अतिरिक्त पैदावार प्राप्त होती हैं। मुख्य फसल की कीट व्याधि के प्रकोप होने पर या मौसम की प्रतिकूलता होने पर अंतर्वर्तीय फसल से सुनिश्चित आय प्राप्त होती हैं। अतः अंतर्वर्तीय फसल के लिये अरहर: ज्वार 4ः2, अरहर: सोयाबीन 4ः2 कतारों में लगायें।
पौध संरक्षण
प्रमुख रोग
उकठा रोग
इस रोग का प्रकोप अधिक होता हैं। यह फ्यूजेरिम नामक कवक से फैलता हैं। लक्षण साधारणतयाः फसल में फूल लगने की अवस्था पर दिखाई देते हैं। नवम्बर से जनवरी महीनों के बीच में यह रोग देखा जा सकता हैं। पौधा पीला होकर सूख जाता हैं। इसमें जड़े सड़कर गहरे रंग की हो जाती हैं तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकर तने की ऊँचाई तक काले रंग की धारियां पाई जाती हैं। इस बीमारी से बचने के लिये रोग रोधी जातियाँ जैसे सी.3, जवाहर के.एम.-7बी.एस.एम.आर.-853, आशा आदि बोयें। उन्नत जातियों के बीज को ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा कारबाक्सिन की 2 ग्राम अथवा ट्राइकोडरमा बीजोपचार करके ही बोयें। गर्मी में खेत की गहरी जुताई व अरहर के साथ ज्वार की अंतरर्तीय कि.ग्रा. वर्मी कमपोस्ट के साथ 3 दिन तक नम अवस्था में इनकूबेट करने के उपरान्त मिट्टी में मिलाकर भूमि को उपचारित करें।
बांझपन विषाणु रोग
यह रोग विषाणु (वायरस) से फैलता हैं। इसके लक्षण पौधे के ऊपरी शाखाओं में पत्तियाँ अधिक लगती हैं। यह रोग माइट, मकड़ी के द्वारा फैलता हैं। इसकी रोकथाम हेतु रोगरोधी किस्मों को लगाना चाहियें। खेत में उग आये बेमौसम अरहर के पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए। मकड़ी का नियंत्रण करना चाहियें। मकड़ी की प्रबंधन हेतु इमामेक्टिंन बेंजोएट 1.9 ई.सी. की 125 मिली लीटर मात्रा का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
फाइटोपथोरा झुलसा रोग
रोग ग्रसित पौधा पीला होकर सूख जाता हैं। इसकी रोकथाम हेतु 3 ग्राम मेटालेजिक फफूंदनाशक दवा प्रति किलो ग्राम बीज के हिसाब से उपचारित करें। बुआई कूड़ नाली पद्धति से करें, मूंग की फसल साथ में लगायें।
प्रमुख कीट
फली मक्खी
यह फली पर छोटा सा गोल छेद बनाती हैं। इल्ली अपना जीवनकाल फली के भीतर दानों को खाकर पूरा करती हैं एवं बाद में प्रौढ़ बनकर बाहर आती हैं। दानों का सामान्य विकास रूक जाता हैं। मादा छोटे व काले रंग की होती हैं जो वृद्धिरत फलियों में अंडे रोपण करती हैं। अंडों से मेगट बाहर आते हैं और दाने को खाने लगते हैं। फली के अंदर ही शंखी में बदल जाती हैं जिसके कारण दाना पर तिरछी सुरंग बन जाती हैं और दानों का आकार छोटा रह जाता हैं। तीन सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।
फली छेदक इल्ली
छोटी इल्लियां फल्लियां के हरे उत्तकों को खाती हैं व बड़े होने पर कलियों, फूलों, फल्लियों व बीजों पर नुकसान करती हैं। इल्लियां फल्लियां पर टेढ़े-मेढ़े छेद बनाती हैं। इस कीट की मादा छोटे सफेद रंग के अंडे देती हैं। इल्लियाँ पीली, हरी, काली रंग की होती हैं तथा इनके शरीर पर हल्की गहरी पट्टियाँ होती हैं। अनुकूल परिस्थितियों में चार सप्ताह में एक जीवन चक्र पूर्ण करती हैं।
समन्वित कीट प्रबन्धन
कृषिगत प्रबन्धन विधि-
- गर्मी में खेत की गहरी जुताई करें।
- शुद्ध अरहर न बोयें।
- फसल चक्र अपनायें।
- क्षेत्र में एक ही समय बोनी करना चाहियें।
- रासायनिक खाद की अनुशंसित मात्रा का प्रयोग करें।
- अरहर में अंतर्वर्तीय फसलें जैसे ज्वार, मक्का या मूंगफली को लेना चाहियें।
यांत्रिकी प्रबन्धन द्वारा-
- प्रकाश प्रपंच (01/हेक्टेयर) लगाना चाहियें।
- फेरामेन प्रपंच (05/हेक्टेयर) लगायें।
- पौधों को हिलाकर इल्लियों को गिरायें एवं उनकों इकट्ठा करके नष्ट करें।
- खेत में चिड़ियों के बैठने के लिए टी के आकार की 5 फीट ऊँची लकड़ी की (50/हेक्टेयर) व्यवस्था करें।
जैविक प्रबन्धन द्वारा
ब्यूबेरिया बेसियाना की 1.5 किलोग्राम या एच.ए.एन.पी.व्ही. या एस.एल.एन.पी.व्ही. की 250 एल.ई/हेक्टेयर या वैसिलस थूरेन्जेसिस की 1.0 किलोग्राम मात्रा को 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
रासायनिक प्रबन्धन द्वारा
आवश्यकता पड़ने पर ही कीटनाशक दवाओं का छिड़काव या भुरकाव करना चाहियें। फली मक्खी नियंत्रण हेतु सर्वागीण कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करें जैसे ट्राइजोफास-40 ई.सी. 1-1.5 लीटर या इन्डेक्साकार्ब-14.5 एस.सी. की 300 मि.ली./हेक्टेयर या फिप्रोनील-5 एस.सी. की 600-800 ग्राम/हेक्टेयर या स्पायनोसेड 45 एस.सी. की 125 मि.ली/हेक्टेयर या रीनाक्सीपायर 20 एस.सी. की 100 मि.ली./हेक्टेयर या इमामेक्टिन बेन्जोऐट-5 एस.जी. की 55 ग्राम/हेक्टेयर या क्लोरपायरीफाॅस 20 ई.सी. या क्यूनालफास 25 ई.सी. की 1.5/हेक्टेयर लीटर मात्रा का छिड़काव करें।
रोपण विधि द्वारा अरहर का विपुल उत्पादन (एस.पी.आई.)
वर्तमान में देश में अरहर का क्षेत्रफल लगभग 34 लाख हेक्टेयर हैं तथा उत्पादकता 760 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं। उत्पादकता कम होने के कारण प्रति व्यक्ति दाल की उपलब्धता लगभग 30 ग्राम प्रतिदिन हैं जो विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुशंसा (80 ग्राम/व्यक्ति/दिन) से काफी कम हैं। देश व प्रदेश में अरहर की कम उत्पादकता के कारण निम्नानुसार हैं-
- अनुपयुक्त प्रजातियों का चयन एवं अधिक पौध संख्या।
- सीमांत एवं कम उपजाऊ भूमियों में अरहर की खेती।
- अनुचित फसल प्रबंधन एवं असंतुलित उर्वरक उपयोग।
- अधिक या कम वर्षा से फसल पर प्रतिकूल प्रभाव।
- दाना भरते समय कम नमी व पाले के प्रकोप से उपज पर प्रतिकूल प्रभाव।
- बीमारियों एवं कीड़ों के संक्रमण से फसल पर प्रतिकूल प्रभाव।
उत्पादन के उपरोक्त सीमांतकारी कारकों को दृष्टिगत रखते हुए अरहर की खेती 90 से 100 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में किया जाना चाहिए तथा भूमि मे उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए तथा भूमि मे उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। अरहर के विपुल उत्पादन हेतु कृषि विश्वविद्यालय, धारवाड़ (कर्नाटक) द्वारा रोपण विधि इजाद की गई है जिसमें बीज दर काफी कम होती है तथा उत्पादन कई गुना बढ़ाया जा सकता हैं। उक्त विधि द्वारा अंतरवर्तीय फसलों के साथ अरहर की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती हैं। उत्तम फसल प्रबंधन हेतु सामयिक सस्य क्रियायें यथा खरपतवार प्रबंधन एवं कीट व्याधि प्रबंधन हेतु सुगमतापूर्वक कर अरहर का विपुल उत्पादन प्राप्त किया जा सकता हैं।
रोपण हेतु अरहर की प्रजातियाँ एवं अवधि
उकठा रोधी एवं विषाणु जनित बध्य रोग के प्रति प्रतिरोधक क्षमता वाली प्रजातियाँ। जिनकी अवधि 140 से 180 दिन हो, रोपण हेतु उपयुक्त होती हैं।
बीजदर एवं बीजोपचार
रोपण विधि में बीज की मात्रा 2 किलोग्राम/हेक्टेयर पर्याप्त होती हैं। उकठा एवं जड़ गलन रोग से बचाव हेतु बीज को ट्राइकोडर्मा विरडी द्वारा 5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। तत्पश्चात् राइजोबियम फेसियोलाई व पी.एस.बी. कल्चर द्वारा 5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज के हिसाब से निवेशित कर छायादर स्थान में सुखा लें।
नर्सरी की तैयारी व समय
नर्सरी हेतु 6’’ * 3’’ या 5’’ * 3’’ आकार की छिद्रयुक्त पाॅली बैग लेकर इन्हें छायादार स्थान पर रख दें। मई के मध्य अथवा 15 से 20 मई तक इनमें उपचारित बीज के एक-एक दानों की बुवाई कर प्रतिदिन सिंचाई करते रहें। एक सप्ताह बाद इनमें अंकुरण व इसके एक सप्ताह बाद पौधे चार पत्ती के हो जायेंगे। 25 से 30 दिन की नर्सरी होने पर इनकी रोपाई कर देनी चाहिए।
खेत की तैयारी एवं रोपण
ग्रीष्म ऋतु में खेत की गहरी जुताई करें ताकि खरपतवार के बीज, कीड़ों के अण्डे, लार्वा आदि नष्ट हो जायें। रोपाई से पूर्व गोबर की खाद 4-5 टन अथवा केंचुआ खाद 2 से 2.5 टन प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें, यदि संभव हो तो पौध रोपण मेड़ों पर करे ताकि अधिक अथवा कम वर्षा से फसल प्रभावित न हो।
शाकनाशी का नाम
|
व्यवसायिक मात्रा/हेक्टेयर
|
प्रयोग
|
खरपतवार नियंत्रण
|
फ्लूक्लोरालिन
|
3000 मि.ली.
|
रोपण पूर्व
|
समस्त खरपतवार
|
पेंडीमेथेलीन
|
3000 मि.ली.
|
रोपण पूर्व
|
संकरी पत्ती वाले
|
इमाजाथाईपर
|
750 मि.ली.
|
रोपण पश्चात् 15-20 दिन बाद
|
संकरी व चौड़ी पत्ती वाले
|
पौध अंतरण एवं अन्तराशस्यन
नर्सरी 25-30 दिन की होने पर पौधों को पाॅलीथिन बैग से निकालकर खेत में रोपाई करें। रोपाई विधि में पौधे से पौधे की दूरी 90 से.मी. तथा कतार की दूरी 150 से.मी. रखनी चाहिए। मध्यम अवधि की किस्मों में कतार से कतार की दूरी 180 से.मी. या अधिक रखी जा सकती हैं। अन्तराशस्यन फसल के रूप में सोयाबीन, अदरक व तिल की बोनी 1ः3 (मुख्य व अंतराशस्यन फसल) के अनुपात में तथा प्याज की बोनी 1ः8 के अनुपात में की जा सकती हैं।
पोषक तत्व प्रबंधन
रोपण विधि में सम्पूर्ण खेत में पोषक तत्वों को उपयोग के बजाय पौधावार तत्वों का प्रयोग करने से पौध अवशोषण बढ़ता हैं तथा तत्वों का हृास बहुत कम होती हैं जिसके फलस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती हैं। रोपाई के 4-6 दिन पश्चात पौधावार पोषक तत्वों का उपयोग थाले में करना चाहिए।
प्रति पौधा पोषक तत्व व उर्वरकों की मात्रा (ग्राम में)
पौध अंतरण (से.मी.)
|
150×90
|
180×90
|
210×72
|
210×90
|
240×75
|
पौध संख्या/एकड़
|
2904
|
2420
|
2490
|
2074
|
2178
|
नत्रजन
|
3.4
|
4.13
|
4.01
|
4.82
|
4.60
|
स्फुर
|
6.88
|
8.26
|
8.03
|
9.64
|
9.18
|
पोटाश
|
1.72
|
2.06
|
2.00
|
2.41
|
2.29
|
जिंक
|
0.41
|
0.49
|
0. 66
|
0.58
|
0.55
|
यूरिया
|
7.38
|
8.96
|
8.70
|
10.46
|
9.98
|
सिंगल सुपर फास्फेट
|
43.00
|
51.63
|
50.18
|
60.25
|
57.38
|
म्यूरेट ऑफ पोटाश
|
2.87
|
3.44
|
3.34
|
4.02
|
3.82
|
जिंक सल्फेट (21%)
|
2.06
|
2.47
|
3.30
|
2.89
|
2.75
|
शीर्ष कलिका विच्छेदन
रोपाई के 20 दिन बाद प्रत्येक पौधे की शीर्ष कलिका को तोड़ देना चाहिए। इस प्रक्रिया से पौधों में शाखाएँ अधिक निकलती हैं जिसके फलस्वरूप पैदावार में बढ़ोत्तरी होती हैं।
निंदाई-गुड़ाई एवं खरपतवार प्रबंधन
रोपण के 20-25 दिन बाद प्रथम एवं आने से पूर्व द्वितीय निंदाई हस्तचलित हो या कुल्पा द्वारा करली चाहिए ताकि खरपतवार नियंत्रण के साथ-साथ मिट्टी में पर्याप्त वायु संचार बना रहे एवं फसल की बढ़वार ठीक हा। रासायनिक विधि से नियंत्रण में अग्रदर्शित शाकनाशी रसायनों की अनुसंशित मात्रा को लगभग 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर के मान से फ्लेट फेन नोजल लगाकर निर्धारित समय पर समान रूप से छिड़काव करें।
सिंचाई
विभिन्न क्रांतिक अवस्थाओं यथा रोपण के समय, फूल आने से पूर्व व फली आते समय सिंचाई आवष्यक रूप से करनी चाहिए।
कटाई एवं गहाई
जब पौधों की पत्तियाँ गिरने लगें व फलियाँ सूखकर भूरे रंग की हो जायें तब फसल कटाई का उपयुक्त समय होता हैं। कटाई उपरांत फसल को खलिहान में सुखाकर ट्रैक्टर अथवा बैलों द्वारा गहाई करनी चाहिए। बीज को 8-10 प्रतिशत् नमी की अवस्था पर भण्डारित करना चाहिए।
उपज
उपरोक्त विधि द्वारा अरहर की खेती कर 30-35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त की जा सकती हैं।
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