जलवायु
लोबिया गर्म मौसम तथा अर्ध शुष्क क्षेत्रों की फसल हैं, जहां का तापमान 20-30℃ के बीच रहता हैं। बीज जमाव के लिए न्यूनतम तापमान 20℃ हैं तथा 32℃ से अधिक तापमान पर जड़ों का विकास रूक जाता हैं। लोबिया के अधिकतम उत्पादन के लिए दिन का तापमान 27℃ तथा रात का तापमान 22℃ होना चाहिए। यह ठंड के प्रति संवेदनशील हैं तथा 15℃ से कम तापमान उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालता हैं। यह 400-900 मि.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जाता हैं, लेकिन लगातार व कई दिनों तक भारी वर्षा से फसल को हानि होती हैं। पुष्पन के समय लम्बे समय तक आकाष में बादल रहने से लोबिया में रोग व कीट लगते हैं, जिससे उपज घट जाती हैं।

मृदा
लोबिया की फसल लगभग सभी प्रकार की मृदाओं में अच्छे प्रबंधन के साथ उगाई जा सकती हैं। यद्यपि लोबिया की फसल मटियार या रेतीली दोमट मृदा में अच्छी होती हैं, फिर भी लाल, काली और लैटराइटी मृदा में भी उगाया जाता हैं। इसके लिए मृदा पीएच मान उदासीन होना चाहिए। अत्यधिक लवणीय या क्षारीय मृदा अनुपयुक्त होती हैं। अच्छे जल निकास एवं प्रचुर रूप से कार्बनिक पदार्थ वाली मृदा इसके लिए विशेष रूप से उपयुक्त होती हैं।

फसल चक्र
लोबिया की फसल को सामान्य रूप से मिश्रित फसलोत्पादन के अन्तर्गत अरहर, मक्का, ज्वार तथा बाजरा के साथ उगाया जाता हैं। यद्यपि मिश्रित फसल के रूप में लोबिया की फसल से उत्पादन कम होता हैं तथापि अन्य फसल के रूप में इससे लाभ पर्याप्त हो जाता हैं। गर्मी और बसंतकाल में इसे सामान्य रूप से अकेली फसल के रूप में उगाया जाता हैं, लेकिन चारे के लिए इसे मक्का के साथ उगाते हैं जिससे चारे की गुणवत्ता बढ़ जाती हैं।

लोबिया के प्रचलित फसल चक्र निम्नलिखित हैं-
लोबिया-गेहूँ-लोबिया (गर्मी), लोबिया-जौं-लोबिया (गर्मी), मक्का-गेहूँ-लोबिया (गर्मी), मटर-गन्ना-लोबिया, लोबिया-आलू, लोबिया-गेहूँ, लोबिया-जई, लोबिया-गन्ना

उन्नत किस्में
आवश्यकता के अनुसार लोबिया की विभन्न प्रकार की किस्में पाई जाती हैं, इनमें से कुछ किस्में एक से अधिक उद्देष्य के लिए उगाई जाती हैं, जैसे चारे व दाने के लिए, दाने व सब्जी के लिए जो किस्में चारे के लिए उगाई जाती हैं उनको हरी खाद वाली फसल के रूप में भी उगाते हैं। बसंत और गर्मी के मौसम के लिए अपेक्षाकृत कम अवधि वाली किस्में उपयुक्त पाई गई हैं, जबकि खरीफ के मौसम के लिए अधिक अवधि वाली किस्में अच्छी होती हैं।

पूसा संस्थान द्वारा विकसित लोबिया की प्रमुख किस्मों का उल्लेख सारणी 1 में किया गया हैं।

सारणी 1. पूसा संस्थान द्वारा विकसित लोबिया की प्रमुख किस्में
समय पर बुवाई

किस्म

अनुमोदित वर्ष

अनुमोदित क्षेत्र/परिस्थिति

उपज (क्विं/हे.)

विशेषताएं

पूसा संपदा (वी. 585)

1999

उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र/ समय पर बुवाई के लिए

8.6

यह किस्म विषाणु जनित पीली चित्ती रोग की प्रतिरोधी हैं तथा 100 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं।

पूसा 578

2005

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली/समय पर बुवाई के लिए

12

यह किस्म विषाणु जनित पीली चित्ती रोग की प्रतिरोधी हैं तथा 90 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं।


लोबिया की अन्य उल्लेखनीय उन्नत किस्में इस प्रकार हैं-

पूसा फाल्गुनी
यह अत्यधिक अगेती किस्म हैं। बसंत और गर्मी के लिए यह किस्म सबसे उपयुक्त हैं। इसको पकने में लगभग 70-75 दिन लगते हैं। दाना सफेद तथा मध्यम आकार का होता हैं, अतः दाल के लिए ज्यादा अच्छी हैं। इसकी हरी फलियों से सब्जी बनाई जाती हैं। यह किस्म मिश्रित खेती के लिए भी उपयुक्त हैं।

पूसा दो फसली
यह किस्म 80-85 दिन में पक जाती हैं तथा सभी मौसमों में उगाई जाती हैं। यह सब्जी के लिए अधिक उगाई जाती हैं।

पूसा बरसाती
खरीफ के लिए उपयुक्त किस्म हैं। यह 110-120 दिन में पककर तैयार हो जाती हैं। यह विशेषतः हरी सब्जी के लिए उगाई जाती हैं। फलियां बुवाई से 45-50 दिन बाद सब्जी के लायक हो जाती हैं।

अन्य महत्वपूर्ण किस्में
टाइप-2, पूसा ऋतुराज (एफ.एस.-68), सी-22, सी-152, सी-13, सी.ओ.-1, एस-203, पूसा कोमल, फिलीपाइन्स अर्ली, एस-488, सेलेक्शन 2-1, सेलेक्शन-263, आई.आई.एच.आर.-16, अर्का गरिमा, बिधान बारबती-1, बिधान बारबती-2, काशी यामल, काशी गौरी, काशी कंचन, काशी उन्नति आदि हैं।

खेत की तैयारी
भूमि की गहरी जुताई से लोबिया की जड़ों का अनुकूल विकास होता हैं। एक बार खेत जोतकर डिस्क हैरो चलाकर भूमि तैयार की जा सकती हैं। जब फसल गर्मी या बसंत में उगाई जाती हो तो कम से कम जुताई की जानी चाहिए। खेत की अंतिम तैयारी करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए की भूमि समतल हो जाए तथा उसमें जल निकास अच्छा हों।

बुवाई
उत्तर भारत में लोबिया की फसल मुख्यतः खरीफ में ली जाती हैं। इसके लिए बरसात की शुरूआत होते ही लोबिया की बुवाई की जानी चाहिए। बुवाई में देरी करने पर उपज कम हो जाती हैं क्योंकि पुष्पन अवधि घट जाती हैं। ग्रीष्मकालीन लोबिया की बुवाई के लिए मार्च अन्त से मध्य अप्रेल का समय अनुकूल होता हैं तथा देरी करने पर उपज कम हो जाती हैं व मानसून से फसल बरबाद हो जाती हैं। लोबिया की बुवाई कतार में या छिटकवां विधि से की जा सकती हैं। इसके लिए देसी हल या सीड ड्रिल का प्रयोग किया जाता हैं। दाने व सब्जी के लिए उगाई फसल के लिए 20-25 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर उपयुक्त होते हैं तथा हरी खाद वाली फसल के लिए यह दर 35 से 45 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तक उपयुक्त पाई जाती हैं। बीज को बुवाई से पहले राइजोबियम कल्चर से उपचारित करने से उपज पर अनुकूल प्रभाव पड़ता हैं।
बसंत व ग्रीष्म में पौधे से पौधे की दूरी 8-10 से.मी. व कतार से कतार की दूरी 30 से.मी. जबकि खरीफ में 45 से 60 से.मी. दूरी पर बिजाई करने पर अधिकतम उपज प्राप्त होती हैं।

पोषक तत्व प्रबंधन
दलहनी फसल होने के कारण इसे नत्रजन की आवश्यकता कम पड़ती हैं अतः बुवाई के कुछ दिनों बाद तक की नत्रजन आवश्यकता के लिए 15-20 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय देनी चाहिए। फास्फोरस व पोटाष मृदा पोषक तत्व परीक्षण के अनुसार देना चाहिए। फास्फोरस व पोटाश की मात्रा सामान्यतः 50 से 60 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर देने से अच्छी उपज प्राप्त होती हैं। सभी पोषक तत्व बुवाई से पहले वाली जुताई के समय भूमि में 6-7 से.मी. गहराई में देने से अधिक उपज प्राप्त होती हैं। इसमें सामान्यतः सूक्ष्म तत्व की आवश्यकता नहीं पड़ती, फिर भी कम उपजाऊ मृदा में मृदा परीक्षण के आधार पर सूक्ष्म तत्व देने से उपज बढ़ती हैं।

जल प्रबंधन
खरीफ की फसल में सिंचाई की ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती फिर भी लंबे समय तक सुखा पड़ने पर सिंचाई करनी चाहिए। लोबिया में पुष्पन व फलियों के भरने के समय अगर नमी में कमी आती हैं तो उपज में भारी कमी आती हैं। अतः सूखे के समय पुष्पन व फलियां भरने के समय मृदा में नमी की मात्रा कम न होने दें। बसंत व गर्मी की फसल में 10 से 15 दिन के अन्तराल में सिंचाई देने से अच्छी उपज मिलती हैं। बसंत व गर्मी की फसल के लिए 5 से 7 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती हैं। सिंचाई की संख्या मृदा, किस्म, तापमान व किस उद्देश्य के लिए फसल ली जा रही हैं, पर निर्भर करती हैं। भारी व ज्यादा वर्षा वाले क्षेत्र में जल निकास का अच्छा प्रबंधन करने से उपज में वृद्धि पाई जाती हैं।

खरपतवार प्रबंधन
अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए फसल को शुरूआत के 25 से 30 दिन तक खरपतवार मुक्त रखना आवश्यक हैं। इसके लिए कम से कम दो बार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। अगर हाथ से खरपतवार नियंत्रण नहीं हो पाए तो फलुक्लोरेलीन 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर 800-1000 लीटर पानी के साथ बीजाई से पहले देने से अच्छा खरपतवार नियंत्रण होता हैं।

रोग प्रबंधन

जीवाणु झुलसा
रोग के प्रकोप की प्रारंभिक दशा में बड़े पैमाने पर नवजात पौधों की मृत्यु हो जाती हैं। यह मध्य वर्षा के मौसम में होता हैं। रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों पर छोटे-छोटे हरे रंग के धब्बे के रूप में प्रकट होता हैं। प्रभावित पत्तियां जल्दी से गिर जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए रोग रोधी किस्मों को उगाएं, रोगरहित बीज का प्रयोग करें तथा 0.2 प्रतिशत का ब्लाईटाक्स का छिड़काव करें।

लोबिया मोजैक
यह बीमारी सफेद मक्खी द्वारा संचारित होती हैं। संक्रमित पौधों की पत्तियां पीली व पत्तियों का आकार विकृत हो जाता हैं। इसकी रोकथाम के लिए स्वस्थ व रोगरहित बीज का उपयोग करें, सफेद मक्खी को रोकने के लिए 0.1 प्रतिशत मेटासिस्टाॅक्स या डाइमेथोएट का छिड़काव 10 दिन के अन्तराल पर करें।

चूर्णिल आसिता
रोग से पौधों की पत्तियों, तनों, शाखाएं व फलियों पर सफेद रंग के कवक बीजाणुओं का चूर्ण दिखाई देता हैं। रोग की उग्र अवस्था में पत्तियां पीली पड़कर गिर जाती हैं। इसकी रोकथाम के लिए रोग सहनशील या अवरोधी किस्मों का चुनाव किया जाए एवं पेन्कानोजोल 0.25 ग्राम या ट्राइडेमार्फ की 1 मि.ली. मात्रा या डिनोकेप की 1 मि.ली. मात्रा को प्रति लीटर की दर से पानी में घोलकर 5-7 दिन के अंतराल पर छिड़काव किया जाए।

कीट प्रबंधन

रोमिल सूंडी
यह लोबिया का प्रमुख कीट हैं। यह फसल को भारी नुकसान पहुंचाता हैं। यह नवजात पौधे को काट देता हैं व हरी पत्तियों को खा जाता हैं। इस कारण कभी-कभी दोबारा बुवाई करनी पड़ती हैं। इसकी रोकथाम के लिए अण्डा व लारवों को इकट्ठा करके जला दें। जवान कैटरपिलर को मारने के लिए 25 से 30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से 2 प्रतिशत मिथाइल पेराथियान पाउडर बुरकाव करें।

लीफ होपर, जैसिड, एफिड
ये कीट पौध के रस को चूसकर उसे पीला व कमजोर कर देते हैं। इनकी रोकथाम के लिए प्रारंभिक अवस्था में डाईमेथोएट 30 ई.सी. या मिथाइल डिमेटान 30 ई.सी. की 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। जब फसल में फलियां आ जाती हैं उस अवस्था में इसका प्रकोप होने पर फलियों की तुड़ाई के बाद एन्डोसल्फान 35 ई.सी. की 2 मि.ली. प्रति लीटर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव किया जाए।

कटाई एवं गहराई
लोबिया के दाने की फसल, उस समय काटी जाती हैं जब 90 प्रतिशत फलियां पक गई हों। कटाई में देरी करने से उपज में हानि होती हैं। यदि वर्षा होने की आशंका हो तो पहले ही फलियां तोड़ लेनी चाहिए। चारे तथा हरी खाद वाली फसल को दाना भरने की अवस्था में काटना लाभकारी होता हैं। हरी फलियों के उपयोग के लिए उगाई फसल की फलियां 45 से 90 दिन तक तोड़ सकते हैं। इसके बाद यह फलियां सब्जी के लिए उपयुक्त नहीं रहती, क्योंकि फलियों में दाना पक जाता हैं तथा फलियां रेशायुक्त हो जाती हैं और इनसे सब्जी नहीं बन पाती हैं।
फसल की गहाई दो-तीन दिन तक कटी हुई फसल को सुखाकर करनी चाहिए। इसकी गहाई ट्रैक्टर या बैलों से भी की जा सकती हैं लेकिन गहाई सामान्यतः हाथ से की जाती हैं। गहाई-मड़ाई करते समय ध्यान रखना चाहिए कि दाना टूटने न पाए। इसके लिए गहाई से पूर्व फसल को अच्छी तरह धूप में सुखा लेना चाहिए।

उपज
अच्छी तरह उगाई फसल से लगभग 12 से 15 क्विंटल दाना व 50-60 क्विंटल भूसा प्राप्त हो जाता हैं। अगर फसल चारे के लिए उगाई गई हो तो 250 से 350 क्विंटल तक हरा चारा प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त किया जाता हैं। सब्जी वाली फसल से 75 से 100 क्विंटल तक हरी फलियां प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती हैं।