बजरंग बली1, पद्माक्षी ठाकुर2, देवशंकर राम3, एवं उपेन्द्र कुमार नायक2,
1. एम.एस.सी, उद्यानिकी, सब्जी विज्ञान विभाग, इं.गां.कृ.वि.वि.,रायपुर (छ.ग.)
2. श.गु.कृ.महा.एवं अनुसंधान केन्द्र, जगदलपुर (छ.ग.)
3. कार्यालय निदेशक, विस्तार सेंवायें, 
इं.गां.कृ.वि.वि.,रायपुर (छ.ग.)

जिमीकंद या सुरन एक महत्वपूर्ण कंदवर्गीय फसल है । यह एक रुपांतरित कंद फसल होता है, जिसकी खेती पुरे भारतवर्ष मे की जाती है। इसके वैज्ञानिक नाम अमोर्फोफ्लस पेओनिफोलियस एव यह एरेसी कुल मे सम्मलित है। यह एक ऐसा कंदवर्गीय फसल है जो कि छाया सहिष्णुता, खेती में सुगमता, उच्च उत्पादकता, कीटों और बीमारियों का प्रकोप कम, स्थिर मांग, नगद फसल और उचित मूल्य के कारण लोकप्रिय है। यह 5-6 महिने कि फसल होती है। छत्तीसगढ़ मे इसकी खेती मुख्यतरू वर्षा अधारित फसल के रुप मे की जाती है।
    जिमीकंद मुख्य रूप से पूरी तरह परिपक्व हो जाने से खुदाई के बाद सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके अलावा कोमल तना और पत्तियों का उपयोग सब्जी के लिए किया जाता है। ऑक्सीलेट्स की उच्च मात्रा के कारण कंद और पत्तियां मे खुजलाहट होती हैं। आमतौर पर 25 से 30 मिनट तक कंद को उबालने से खुजलाहट लगभग कम हो जाता है। जिमीकंद की खेती छत्तीसगढ़ मे क्षेत्रफल की दृष्टि से कोरिया, राजनांदगांव दुर्ग, कांकेर और जगदलपुर प्रमुख है, परंतु उत्पादन एव् उत्पादक्ता बस्तर (जगदलपुर) आगे है । पोषक तत्व जिमीकंद में 7-17ः स्टार्च, 0.56 - 3.1ः प्रोटीन, फाइबर 0.74ः और पत्तियो में 2-3ः प्रोटीन, 3ः कार्बोहाइड्रेट और 4-7ः कच्चे फाइबर ऊपलब्ध होते हैं।

उन्नत किस्में
जिमीकंद की तीन महत्वपूर्ण उन्नत किस्में जिसे वैज्ञानिक पद्धति से खेती के लिए उपयुक्त पाया गया हैंः-

.क्र.               

 

किस्म का नाम   

विवरण

1.

गजेन्द्र

परिपक्वता  7-8 माह उत्पादन 50-60 टन प्रति हे.  पत्ती धब्बा के लिये सहनशील होता है यह एक खुजलाहट रहित किस्म है।

 

 

2.

श्री अथिरा

परिपक्वता 9-10 माह उत्पादन 40.5 टन प्रति हे.

 

3.

श्री पदमा

परिपक्वता 8-9 माह उत्पादन 42 टन प्रति हे.  मोजेक एवं तना सड़न के लिये सहनशील होता है।

 


जलवायु और मौसम
जिमीकंद एक उपोष्णकटिबंधीय और उष्णकटिबंधीय फसल है, इसके वानस्पतिक विकास के लिए आर्द्र और गर्म जलवायु 25- 30 डिग्री सेल्सियस तापमान की आवश्यकता होती है और इसके सम्पुर्ण विकास के लिए ठण्डी और शुष्क जलवायु मे जिमीकंद का विकास अच्छा होता है। औसत वार्षिक वर्षा 1000-1500 मी. मी. होने से उत्पादकता अच्छी होती है।

मृदा का चयन एव खेतों की तैयारी
जिमीकंद के अच्छे विकास एवं अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए उत्तम जल निकास वाली हल्की और भुरभुरी मिट्टी सर्वोत्तम है। इस फसल के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश पदार्थ प्रचुर मात्रा मे उपयुक्त पायी गयी है। इसकी खेती के लिए मिट्टी का उपयुक्त पी.एच.मान 5.5 से 7.2 उपयुक्त होता है। खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और दो-तीन बार देशी हल से अच्छी तरह जोताई कर मिट्टी को मुलायम तथा भुरभुरी बना लेना चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पाटा चलाकर समतल कर दें।

जिमीकंद लगाने हेतु खेत में तैयार गड्ढेे














कंदो की बुवाई
जिमीकंद का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा किया जाता है जिसके लिए पूर्ण कंद को काट कर लगाया जाता है। बुआई हेतु 200-400 ग्राम का कंद उपयुक्त होता है। यदि उपरोक्त वजन के पूर्ण कंद उपलब्ध हो तो उनका ही उपयोग करें। ऐसा करने पर प्रस्फुटन अग्रिम होता है जिससे फसल पहले तैयार एवं अधिक उपज प्राप्त होता है। यदि कंद का आकार बड़ा होने से उसे 200 - 400 ग्राम के टुकड़ों में काट कर बुआई करना चाहिए। परन्तु कंद को काटते समय इस बात का ध्यान रखें कि प्रत्येक टुकड़े में कम से कम एक कलिका का भाग अवश्य रहे।

कंदो का उपचार













कटिंग कंद











रोपड़ से पुर्व कंदो का उपचार 1 ग्राम बाविस्टीन और 1.5 मिली. क्लोरोपाइरिफास प्रति लीटर पानी मे मिलाकर 15 मिनट तक डुबा कर करना चाहिये। इस प्रकार नर्सरी मे रोपे गये कंदो की हल्की सिंचाई छिड्काव विधि से हर दो दिन के बाद करते रहना चाहिये। मानसून के आने के बाद जून के अंतिम सप्ताह या जुलाई के प्रथम सप्ताह मे पहले से तैयार खाद एव उर्वरक से भरे गये गड्ढ़ो मे नर्सरी से प्राप्त अंकुरित कंदो की रोपाई कर देना चाहिये।
उपरोक्त आकार के कंद लगाने पर इनकी बढ़वार 8-10 गुणा के बीच होता है। बीज दर कंद के आकार एवं बुआई की दूरी पर निर्भर करता है।

कंद बीज वजन   

रोपण दूरी

बीज दर (क्विंटल/हे.)

200-400 ग्राम

60 x 60 से.मी.

120-160

400-500 ग्राम

75 x 60 से.मी.

88-111

500-700 ग्राम

90 x 60 से.मी.

90-112

800 -1000 ग्राम

90 x 90 से.मी.

98 -123

    
    सामन्यत 500 ग्राम वजन के कंद बीज तथा 90 - 60 सेमी. दूरी पर रोपण उपयुक्त होता है  तथा फसल के बीज अंतराशस्यन एव अंत-कर्षन मे आसानी रहती है। इसके छोटे कंद बीज के लिये उपयोग किया जा सकता है, इसकी रोपण दुरी 40 - 60 सेमी. रखा जाता है । जिसे द्वितीय वर्ष मे बीज के लिये उपयोग किया जाता है ।

लगाने का समय - फरवरी अप्रैल
1. फरवरी अप्रैल- यदि सिंचाई की उचित व्यवस्था हो तो फरवरी अक्टूबर माह मे ही जिमीकंद की उपलब्धता हो जयेगी।
2. मई जून- वर्षा आधारित स्थिती होने पर इस कंद की बुवाई मई जून महिने से शुरु करनी चाहिये एव अंतिम बुवाई जून के प्रथम सप्ताह मे ही कर ली जानी चाहिये।

लगाने की विधिः- दो विधि से जिमीकंद बुआई की जाती है 1.) समतल भुमि में 2.) गड्डो में ।

1. समतल भुमि में जिमीकंद की बुआई करने के लिए अंतिम जुताई के समय गोबर की सड़ी खाद एवं रासायनिक उर्वरक में नाइत्रोजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा एवं फास्फोरस की पूर्ण मात्रा खेत में मिलाकर जुताई कर देते हैं। उसके बाद कंदों के आकार के अनुसार 75 से 90 सें.मी. की दूरी पर कुदाल द्वारा 20 से 30 सें.मी. गहरी नाली बनाकर कंदों की बुआई कर दी जाती है तथा नाली को मिट्टी से ढक दिया जाता है।
श.गु.कृ.महा.एवं अनुसंधान केन्द्र, जगदलपुर (छ.ग.) में समतल भुमि में रोपित जिमीकंद











2. गड्ढ़ो में इस विधि से अधिकांश जिमीकंद बुआई की जाती है। इस विधि में 75x75x30 सें.मी. या 1.0x1.0 मी. 30 सें.मी. चैड़ा एवं गहरा गड्ढा खोद कर कंदों की रोपाई की जाती है। रोपाई के पूर्व निर्धारित मात्रा में खाद एवं उर्वरक मिलाकर गड्ढा में डाल दें। कंदों को बुआई के बाद मिट्टी से पिरामिड के आकार में 15 सें.मी. ऊँचा कर दें। कंद की बुआई इस प्रकार करते हैं कि कंद का कलिका युक्त भाग ऊपर की तरफ सीधा रहे।

खाद एव उर्वरक
जिमीकंद की अच्छी उपज हेतु खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल करना बहुत ही आवश्यक है। इसके लिए 10-15 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद नाइट्रोजन फास्फोरस एवं पोटाश 80ः 60: 80 किग्रा./हे. के अनुपात में प्रयोग करें। बुआई के पूर्व गोबर की सड़ी खाद को अंतिम जुताई के समय खेत में मिला दें। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा नाइत्रोजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा बेसल ड्रेसिंग के रूप में तथा शेष बची नत्रजन एवं पोटाश को दो बराबर भागों में बाँट कर कंदों के रोपाई के 50 से 60 एव 80 से 90 दिनों बाद गुड़ाई एवं मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करें। उर्वरकों का व्यवहार तालिका के अनुसार करें।

उर्वरक

उर्वरक की मात्रा कि.ग्रा./हे.)

बुआई के समय कि.ग्रा./हे.)

बुआई के बाद कि.ग्रा./हे.)

50-60 दिन

70-80 दिन

यूरिया

180

60

60

60

सिंगल सुपर फास्फेट

500

500

0

0

म्यूरेट आफ पोटाश

100

33

33

33

    
    गड्ढो में जिमीकंद लगाते समय प्रति गड्ढा 2 से 3 किग्रा. गोबर की सड़ी खाद 4-5 ग्राम यूरिया 40 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट 2-3 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश एवं 5 ग्राम ब्लीचिंग पाउडर का प्रयोग करें। यूरिया की आधी मात्रा 4-5 ग्राम एवं अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा को मिट्टी में मिलाकर गड्ढों में भर दें। शेष आधी बची यूरिया को प्ररोह निकलने के 70 से 80 दिन बाद प्रति गड्ढों की दर से उपयोग करें।

अंतरवर्ती - फसल 
जिमीकंद का अंकुरण देर से होता है। इसलिए पौधों के प्रारम्भिक विकास की अवधि में अन्तवर्तीय फसलें जैसे भिण्डी, मूंग, बरबटी, धनिया, पालक या दो से तीन माह की फसलें सफलतापूर्वक लिया जा सकता है। अनुसंधान द्वारा यह पाया गया है कि इसकी खेती आम नारियल एव अन्य बागों में अन्तवर्तीय फसल के रूप में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।

सिंचाई एवं जल प्रबंधन
जिमीकंद की खेती वर्षा आधारित क्षेत्र में की जाती है। हालाकि शुष्क मौसम व्यव्सायिक खेती के तहत इस फसल को सिंचाई की आवश्यकता होती है। जलवायु और मिट्टी की नमी धारण क्षमता के आधार पर सिंचाई सप्ताह में एक बार दी जानी चाहिए। भारी बारिश और बाढ़ होने से जल निकासी का उचित प्रबंध करे । क्योंकि फसल में पानी का भराव फसलों को नुकसान पहुंचाता है और बीमारियों का कारण बनता है।

खरपतवार नियंत्रण
जब आवश्यक हो तभी निराई और गुड़ाई करें। मलचिंग गड्ढों के चारों ओर खरपतवार को उगने से रोकता है।

मल्चिंग
बुआई के बाद पुआल अथवा पत्तियों से ढक देना चाहिए जिससे जिमीकंद का अंकुरण जल्दी होता है और खेत में नमी बनी रहती है तथा खरपतवार कम होने से अच्छी उपज प्राप्त होती है।

निदाई-गुड़ाई
बुआई के 30 से 45 दिनों के बाद पौधे उग जाते हैं। 50 से 60 दिनों बाद पहली तथा 80 से 90 दिनों बाद दूसरी निदाई करें। निदाई के समय पौधों पर मिट्टी भी चढ़ाते जायें।

फसल सुरक्षा

1 तना गलन
यह रोग मृदा जनित फंगस स्क्लेरोटियम रॉल्फसी। इसका प्रकोप अगस्त-सितम्बर माह में अधिक होता है। इसका लक्षण कालर भाग पर दिखाई पड़ता है तथा पौधा पीला पड़कर जमीन पर गिर जाता है। संक्रमण्मुक्त रोपण सामग्री का उपयोग करे । इसके रोकथाम हेतु उचित फसल चक्र अपनाये। जल निकास की उचित व्यवस्था रखें। कंद लगाने से पूर्व उसे बताई गयी विधि द्वारा उपचारित कर लें। कैप्टान दवा के 2: के घोल से 15 दिनों के अंतराल पर दो-तीन बार पौधे के आस-पास भूमि को भींगा दें।

तना गलन








तना गलन
तना गलन
















2 झुलसा रोग
यह जिमीकंद का बैक्टीरिया जनित रोग है जिसका सक्रमण पौधों की पत्तियों पर सितम्बर-अक्टूबर माह में अधिक होता है। पत्तियों पर छोटे-छोटे वृताकार हल्के-भूरे रंग के धब्बे बनते हैं जो बाद में सुखकर काले पड़ जाते हैं एवं पत्तियाँ सुख कर झुलस जाती है। कंदों की वृद्धि नहीं हो पाती है।रोग का लक्षण आते ही बाविस्टीन अथवा इंडोफिल एम 45 का 2.5 मिली. प्रति ली. की दर से 2-3 छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर करें।

झुलसा रोग










झुलसा रोग










खुदाई एव उपज 
बुआई के सात से आठ माह के बाद जब पत्तियाँ पीली पड़ कर सूखने लगती है तब फसल खुदाई हेतु तैयार हो जाती है। बेहतर बाजार मूल्य के लिए 6 महीने बाद से कटाई शुरू करें। उत्पादन उगाई जाने वाली विधी और कृषि प्रबंधन पर निर्भर करता है। उत्पादन 50-60 टन/हेक्टेयर प्राप्त किया जा सकता है तथा किसान की आर्थिक स्थिति सुधार करने का एक अच्छा विकल्प हैं।

भंडारण विधि
जिमीकंद ही एक मात्रा ऐसी सब्जी है जिसको कक्ष तापमान पर भी 6 महीने के लम्बे समय तक भंडारित किया जा सकता है। भांडारित कंद मे 6 माहिने मे सिर्फ नमी की कमी आती है तथा 3 माह बाद से कुछ में अंकुरण होने लगता है जिसे रोपण के काम मे लिया जाता है।
    कंदो को खुदाई उपरांत भडारित करने के लिये हवादार नमी रहित कक्षों का चुनाव करना चाहिये। कक्षों मे कन्दो को रखने के लिये बांस की या लकडी की बनी पट्टियों वाली आलमारी मे एक कंद जमा कर रखना चाहिये। अगर कंदो को बीज उदेश्य से स्टोर किया जाता है तो कंद को तुरंत मेंकोजेब 0.5 प्रतिशत से उपचारित करे। यदि भंडारण रोपण उदेश्य से किया जाता है तो कंद को फेनिट्रोथियन 0.5 प्रतिशत और मेन्कोजेब 0.2 प्रतिशत से उपचार किया जाता है।