ईश्वर साहू, प्रदीप कुमार साहू एवं सरिता (एम.एस.सी.उद्यानिकी फल विज्ञान) रा.वि.सि.कृ.वि.ग्वालियर ( म.प्र.)

वानपस्पतिक नाम : लिलियम स्पीसीज
सामान्य नाम : लिलियम
कुल : लिलिएसी

परिचय
लिलियम कन्दीय वर्ग का महत्वपूर्ण पुष्प है। यह लिलिएसी कुल का सदस्य है। इसके फूल अत्यन्त सुन्दर आकर्षक, चमकदार तथा विभिन्न रंगों के होते है। विभिन्न प्रकार की लिलियों में सबसे अधिक मांग ओरिएन्टल तथा एसियाटिक हाइब्रिड लिलियों की है। अन्य व्यसायिक पुष्पों की अपेक्षा लिलियों के फूल बाजार में उच्च मूल्य प्राप्त करते है। घरेलु पुष्प बाजारों में लिलियों में सबसे अधिक एसियाटिक लिली के पुष्प की खपत होती है।

जलवायु एवं स्थान
अच्छी गुणवत्तायुक्त लिलियम पुष्प एवं कन्द्र उत्पादन के लिए दिन का तापमान 20-25 सेंटीग्रेड तथा रात का तापमान 10-15 सेंटीग्रेड के बीच होना अच्छा पाया गया है। तापमान के इससे कम या अधिक होने पर भी इसके पुुष्प एवं कन्द का उत्पादन किया जा सकता है। तापमान अधिक होने पर पौधे छोटे रह जाते है और पुष्प कलियों की संख्या भी कम हो जाती है। तापमान काफी घट जाने से पौधो की वृद्धि की गति धीमी पड़ जाती हैं तथा पुष्पोत्पादन में बिलम्ब हो जाता है। लेकिन पाला पड़ने पर कुछ प्रजातियो में पुष्प कलियाँ खिलाने से पहले मुरझा कर गिरने लगती हैं।लिलियम की खेती के लिए ऐसे स्थानों का चयन करना चाहिए जहाँ पर अधिक पाला न गिरता हो तथा जल निकास का उचित प्रबन्ध हो। लिलियम को मुुख्यतौर पर आंशिक छाया में उगना चाहिए। प्रकाश का वेग या तीव्रता को कम करने के लिए 40-50 प्रतिशत का छायादार प्लास्टिक नेट का प्रयोग करना आवश्यक ळें

मिट्टी
लिलियम के पुष्प एवं कन्द उत्पादन के लिए जैविक पदार्थों से युक्त बलुई दोमद मिट्टी सर्वोत्तम पायी गई है। मिट्टी में लवणों की मात्रा अधिक होने पर या दूसरे शब्दों में खारी मिट्टी होने पर इसके पौधों की अच्छी बढ़वार नहीं होती है जिसके परिणामस्वरूप पुष्प एवं कन्द का आकार छोटा रह जाता है। मिट्टी का पी एच मान 5.5 से 7.0 के बीच में होने पर परिणाम अच्छे मिलते हैं । मिट्टी का पी एच मान 7.0 से अधिक होने पर जिप्सम मिट्टी में मिलाकर पी एच मान को कम किया जा सकता है, तथा पी एच 5.5 से कम होने पर चूना को मिट्टी मे मिलाने पर इसका पीएच मान बढ़ जाता है। जिप्सम तथा चूना की मात्रा वर्तमान में मिट्टी के पी एच मान पर निर्भर करता है।

मिट्टी तथा क्यारी की तैयारी
जिस स्थल पर लिलियम एवं कन्द्र उत्पाद करना है, उसकी मिट्टी को अच्छी खुदाई या जुलाई द्वारा भुरभुरा तथा खरपतवार रहित कर लेते है। कंद रोपण से 20 से 235 दिनों पहले पूर्ण रूप से सड़ी गोबर की खाद 5 से 8 किलोग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से मिट्टी में डालकर 15 से 20 सेंमी. गहराई तक अच्छी तरह मिला देते है। यदि मिट्टी में बालू की मात्रा कम हो तो गोबर की खाद के साथ आवश्यकतानुसार बालू भी डालकर मिला देते हैं। जिस क्षेत्रफल में इसका पुष्पोत्पादन करने जा रहे हैं यदि उस क्षेत्रफल में पहले से किसी कन्दीय वर्ग की पुष्पीय फसल का उत्पादन नहीं किया गया हो तो कम से कम दो वर्ष तक मिट्टी की संक्रामक बिना शुद्धि किए कन्द एवं पुष्प का उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन तीसरे के लिए 20 प्रतिशत सांद्रता की सतह से हटाने के बाद मिट्टी को 6-7 दिनों के लिए खुला छोड़ देते है। पौध रोपण के एक सप्ताह पहले व्यारियाँ की हल्की सिंचाई कर देते हैं। जिससे फार्मेल्डिहाइड गैस की सान्द्रता कम हो जाए तथा मिट्टी में हल्की नमी बनी रहे। अच्छी तरह तैयार भुरभुदी मिट्टी में 1.0-1.2 मीटर चैड़ी और 20-25 सेंमी जमीन की सतह से उठी क्यारियाँ बनानी चाहिए । व्यारी की लम्बाई सुविधानुसार रखना चाहिए। दो क्यारियों के बीच में 1 फुट चैड़ा रास्ता भी छोड़ना चाहिए।

प्रवर्धन
लिलियम के पुष्प उत्पादन के लिए बीज/सीड के तौर पर इसके बडे़ आकार (कन्द की परिधि 14 सेंमी. या इससे अधिक) के कन्द का प्रयोग किया जाता है। कन्द का आकार जितना बड़ा होगा,इनसे उत्पादित पुष्पों की गुणवत्ता उतनी ही अच्छी होगी। लिलियम के कन्द को इनके विभिन्न भागों से तैयार किया जाता है। इसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार हैः-

स्केल द्वारा छोटे आकार के कन्दों का उत्पादन
लिलियम के कन्द की संरचना अनेक स्केल के एक स्थान पर जुड़ने से होती है। लहसुन के क्लोाव की तरह लिलियम के स्केल को एक दूसरे से अलग करना बहुत ही आसान है। स्केल से छोटे आकार के कन्दों को उत्पादित किया जाता है। इस विधि से पुष्प उत्पादक के स्तर पर एसियाटिक लिली के छोटे कन्दों का उत्पादन करना लाभकारी है।

बडे़ आकार के कन्दों से छोटे आकार के कन्दों का उत्पादन
लिलियम के केन्द्रों को मात्र छोटे कन्दों के उत्पादन के लिए रोपण नहीं किया जाता है, जबकि इन कन्दों को पुष्प उत्पादन के लिए लगाते हैं तो उस स्थिति में कन्द पुष्प,उत्पादन के साथ एक या दो बडे़ आकार का कन्द तथा 1 से 3 छोटे आकार के कन्द भी उत्पादित करते है। इन कन्दों की संख्या एवं आकार जलवायु,मिट्टी के प्रकार शस्य प्रबन्धन एवं प्रजातियों पर निर्भर करता है।

उत्तक संवर्धन विधि द्वारा छोटे आकार के कन्दों का उत्पादन
औद्योगिक स्तर पर लिलियम के कन्दों का उत्पादन करने के लिए संवर्धन विधि के अतिरिक्त और कोई विधि नहीं है। इस तकनीक से लिलियम के छोटे आकार के कन्दों के उत्पादन के लिए संक्रामक शुद्धि प्रयोगशाला एवं इस तकनीक की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।

किस्मों का चुनाव
किस्मों का चयन बहुत सोच समझकर करना चाहिए। इसकी प्रजातिों का चुनाव पुष्पों बाजारों मंे प्रचलित रंगों की मांग,लम्बी पुष्प डण्डी लम्बी एवं मोटी पुष्प कलियों कर्तित पुष्प का लम्बा जीवन काल,रोग मुक्तता,प्रति डण्डी कलियों की अधिक संख्या,पत्तियों में इत्यादि अच्छे गुणों के आधार किया जाता है । अतः उन्हीं किस्मों को खरीदना चाहिए जिनमें उपरोक्त गुण विद्यमान है।

एसियाटिक हाइब्रिड लिलियाॅ
अमेरिका,पौलियाना, मोना,नोवेसेन्टो,लन्दन,मारसेल,एडेलिना शिकागो,बूनेलो, चैन्टी इत्यादि।

ओरिएन्टल हाइब्रिट लिलियाॅ
अल्हाबा,स्टारगेजर,स्टार फाइटर,मास्को पोलो,मेडिटेरैनी,व्हाईट मेरो स्टार, अमाण्डा, अटलान्टिस, कैसकैडे इत्यादि।

कन्दों का आकार
लिलियम के कन्द का आकार पुष्प उत्पादन में बहुत महत्वपूर्ण योगदान देता है। यह एक सर्वमान्य बात है कि बड़े आकार के कन्द से लम्बे, मोटे, व अधिक कलियों वाले पुष्प डण्डी उत्पन्न होती है। लिलियम में एसियाटिक तथा ओरिएन्टल हाइब्रिठ लिलियों के कन्दों का चुनाव इस प्रकार करते हैः-

लिलियाँ

कन्द का आकार (परिधि)

एसियाटिक हाइब्रिड

12-14 सेंमी.,14-16 सेंमी.16-18 सेंमी.या इससे अधिक

ओरिएन्टल हाइब्रिड

14-16 सेंमी.,16-18 सेंमी.,20-22 सेंमी. या इससे अधिक


कन्द रोपण का समय
मैदानी क्षेत्रों में इन्हें अक्टूबर से नवम्बर माह में लगाया जाता है। उन्हीं कन्दों को लगाना चाहिए जिनकी सुषुप्तावस्था खत्म हो गई हो, यानी प्रस्फुटित हो गये हों तथा जड़ों का फुटाव हो गया हो क्योंकि पहले तीन सप्ताहों में जल व पोषक तत्वों का संचार इन्हीं जड़ों पर निर्भर होता है। पश्चिमी हिमालय क्षेत्रों में मानसून के अलावा पूरे साल लिलियम को लगाया जा सकता है। मानसून के दौरान अत्यधिक वर्षा के कारण कन्द सड़ जाते हैं। मानसून के समय ठण्डे पहाड़ी क्षेत्रों में कन्द रोपण का कार्य पाॅलीहाउस के अन्दर किया जा रहा है। सामान्य तौर पर हिमाचल प्रदेश में लिलियम (एसियाटिक एवं ओरिएन्टल हाइब्रिड) कन्द रोपण मार्च से शुरू होकर फरवरी तक विभिन्न स्थान/जलवायु में विभिन्न समय पर किया जा रहा है।

कन्द रोपण का घनत्व
कन्द रोपण की सघनता लिलियम की प्रजति एंव कन्द का आकार पर निर्भर करती है।

लिलियाँ

कन्द का आकार (परिधि)

कन्द रोपण की दूरी

कन्द घनत्व

एसियाटिक हाइब्रिड

12-14 सेंमी.

एक वर्गमीटर में 7 पंक्ति तथा एक पंक्ति में 7 कन्द

49

14-16 सेंमी.

एक वर्गमीटर में 7 पंक्ति तथा एक पंक्ति में 7 कन्द

49

16-18 सेंमी.

एक वर्गमीटर में 6 पंक्ति तथा एक पक्ति में 6 कन्द

36

ओरिएन्टल हाइब्रिड

14-16सेंमी.

एक वर्गमीटर में 7 पंक्ति तथा एक पंक्ति में 7 कन्द

49

16-18 सेंमी.

एक वर्गमीटर में 6 पंक्ति तथा एक पंक्ति में 6 कन्द

36

18-20 सेंमी.

एक वर्गमीटर में 6 पंक्ति तथा एक पंक्ति में 6 कन्द

36

20-22 सेंमी.

एक वर्गमीटर में 5 पंक्ति तथा एक पंक्ति में 6 कन्द

30


कन्द रोपण की गहराई
जब कन्द प्रस्फुटिक हो जाते है तो जमीन के अन्दर के उपरी भाग पर तने से जुडें़ निकलनी शुरू हो जाती है। यह जड़ें कन्द की जड़ों के स्थान पर पौधे को तुरन्त पानी तथा खाद्य पदार्थो का संचार शुरू कर देेती हैं। अच्छी गुणवत्ता के फूलों को प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि इन जड़ों का विकास अच्छी प्रकार से हो सके । सर्दियों में कन्द 10-12 सेंमी. तथा गर्मी के मौसम में 12-15 सेंमी. की गहराई पर लगाना चाहिए। उथला कन्द रोपण करने से पुष्प डण्डियाॅ इधर-उधर झुकने लगती है। तथा जमीन के अन्दर तना से जड़ों का फुटाव भी कम हो जाता है जिसके कारण पौधों की बढ़वार क्रम हो जाती है। बहुत गहरा कन्द रोपण करने पर पौधे की लम्बाई कम हो जाती है तथा पुष्पन में भी विलम्ब होने लगता है।

सिंचाई
लिलियम के पौधों की अच्छी बढ़कर के लिए फ्लोराइड और लवण रहित गुणवत्ता वाले पानी की आवश्यकता होती है। क्यारी की मिट्टी को रोपण से पहले हल्का सींच देना चाहिए तथा बाद में थोड़ा-थोड़ा समय बाद हल्का पानी देना चाहिए, जिससे जड़ व कन्द को नमी मिलती रहे। मिट्टी की उपरी सतह पर तनों में जड़ों का विकास होता है, इसलिए यह आवश्यक है कि उपरी 25-30 सेंमी.सतह में लगातार नमी बनी रहे। खेत में पानी इकट्ठा नहीं होना चाहिए। शुष्क मौसम के एक दिन छोड़कर दूसरे दिन पानी देना चाहिए।क्यारियों में उवर्रक देने के बाद हल्की सिंचाई कर देना चाहिए, जिससे उर्वरक घुल कर पौधों को उपलब्ध हो सके।

पोषण
पौध रोपण तथा क्यारी बनाने से पहले मिट्टी का परीक्षण करवा लेना चाहिए जिससे मिट्टी में उपस्थित सभी पोषक तत्वों की मात्रा का पता लग जाए। लिलियम को पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। लिलियम को बहुत कम मात्रा में फोस्फोरस की आवश्यकता होती है। जिस मिट्टी मंे पोषक तत्व कम हो,उसमें गोबर की सड़ी खाद लगभग 5-8 किलोग्राम प्रति वर्ममीटर एवं नत्रजन 25 ग्राम$5 ग्राम फोस्फोरस $30 ग्राम पोटाश प्रति वर्ग मीटर की आश्यकता होती है। नत्रजन की एक तिहाई, कुल फोस्फोरस तथा कुल पोटाश की मात्रा क्यारी बनाते समय खेल में डाल देना चाहिए। शेष नत्रजन का 1/3 भाग कन्द रोपण के 40 दिनों शेष 1/3 भाग कन्द रोपण के 80 दिनों बाद क्यारी में डालने से अच्छा परिणाम पाया जाता है।

गुड़ाई एवं खरपतवार नियन्त्रण
कन्द रोपण के बाद लिलियम में उर्वरक देने के बाद क्यारियों में हल्की गुड़ाई करके उर्वरक को मिट्टी में मिला देते है। ऐसा करने से क्यारियों में मिट्टी डीली हो जाती है, जिससे जड़ों का अच्छा तरह विकास होता रहता है। ऐसा देखा गया है कि क्यारियों में गोबर की खाद डालने के बाद खरपतवार की अधिक समस्या सामने आती है। समय समय पर क्यारियों को खरपतवार रहित करते रहते हैं।

पीचिंग एवं डिस्बडिंग
लिलियम में पीचिंग एवं डिस्बडिंग की आवश्यकता प्रति वर्ष नहीं होती । इस फसल में पीचिंग उस समय करना पड़ता है,जब पुष्प डण्डियों को काटने के समय या तो पुष्प कलियाॅ किसी तरह टूट जाएं या उसमें कोई रोग व्याधि दिखाई देने लगे, ऐसी स्थिति में रोग से प्रभावित वानस्पतिक भाग को काटना पड़ता है, इसे ही पीचिंग कहते हैं। डिस्बडिंग का कार्य उस स्थिति में करते हैं जब छोटे आकार के कन्दों को बड़ा करने के लिए रोपित करते हैं या उन कन्दों से उत्पादित पुष्प डण्डी में एक या दो कलियों ही दिखें उस समय इन कलियों को छोटी अवस्था में हाथ द्वारा तोड़ देते हैं। इसे ही डिस्बडिंग कहते हैं।

स्टेकिंग या सहारा देना
पौधे को सीधा रखने के लिए सहारे की आश्यकता होती है। लिलियम के पौधों को सहारा देने के लिए दो सतह नायलोन की जाली जब पौधा 10-12 सेंमी. का हो जाए उस समय लगाना अच्छा होता हैं। इन जालियों को पुष्प डण्डियों की लम्बाई बढ़ने के साथ-साथ ऊपर उठाते रहना चाहिए।

कीट पतंग और रोग
लिलियम फसल पर कीट पतंग जैसे एफिड, थ्रिप्स, बल्ब माइट, लिली बीटल, निमैटोड, इत्यादि का प्रकोप होता रहता है। रोग व्याधियों में कवक द्वारा रोग जैसे बल्ब व स्केल राट,फुट राॅट, रूट राॅट, लीफ स्पाट एवं विषाणुु रोग का प्रकोप देखा गया है।कुछ जानवर जैसे खरगोश एवं चूहा भी इस फसल को नुकसान पहुंचाते हैं। खरगोश एवं चूहा कभी लिलियम की पत्ती एवं तना के साथ बल्ब भी खा जाते है। इनकी रोकथाम के लिए प्रभावित क्षेत्र में बाढ़ लगाएं तथा थाइमेट 10- जी कीटनाशक दवा को खेत में फैलाने से कुछ हद तक नियन्त्रित किया जा सकता है।

एफिड
एफिड लिलियम फसल को प्रभावित करने वाला मुख्य कीट हैं। यह मुख्य रूप से नई पत्तियों के पृष्ठ भाग पर रहते हैं तथा नई कलियों को भी प्रभावित करते हैं जिसके कारण फूलों मे विकृति आ जाती है। यह विषाणु रोग को फैलाने का भी कार्य करता है। यह पौधों को कमजोर कर देता है। इनकी रोकथाम के लिए रोगोर या मैलाथियान का छिड़काव 1.5 मिली.प्रति लीटर पानी के साथ चाहिए।

थ्रिप्स
लिली थ्रिप्स देखने में काले रंग का एक प्रकार का रस चूसने वाला कीट होता है। इसके अत्यधिक प्रभाव के कारण पौधों की बढ़वार तथा फूलों पर बुरा असर पड़ता है तथा बाजारों में भी उनकी बिक्री नहीं हो पाती। इससे बचाव के लिए समय-समय पर मोनोक्रोटोफाॅस, मैलाथियान इत्यादि का छिड़काव 1.5-2 मिली प्रति लीटर पानी के साथ करने से पौधे इनके कुप्रभाव से मुक्त रहते हैं। इसके बल्ब को जमीन से निकालने के बाद मैलाथियान 2 मिली. प्रति लीटर पानी में घोल कर बल्ब को 24 घण्टे तक डुबोकर उपचार करने से थ्रिप्स को खत्म किया जा सकता है।

बल्ब माइट
बल्ब माइट देखने में गोल आकृत वाला पीलापन सफेद रंग का कीट है। यह बल्ब के बेसल प्लेट जहाँ से जडे़ं निकलती हैं,और स्केल के बीच में अधिकांश देखा गया है। यह जड़ों को धीरे-धीरे खत्म कर देता है। इसके उपरान्त बल्ब के स्केल्स एवं तनों में छेद करके धीरे-धीरे पौधों को खत्म कर देता है। इनकी रोकथाम लिलियम के बल्ब पर सल्फर का डस्टिंग करके किया जा सकता है।

निमैटोड
लिलियम में कई तरह के निमैटोड का प्रभाव देखा गया है। निमैटोड बैक्टीरिया और विषाणु को भी अपने साथ लाकर पौधों को प्रभावित करते है। निमैटोड से प्रभावित पौधों की पत्तियाँ बहुत पहले पीली पड़ने लगती हैं तथा पौधा की बढ़वार रूक जाती है एवं जडे़ मरी जैसी दिखने लगती हैं। इसकी रोकथाम के लिए बल्ब रोपण से पहले मिट्टी की जांच कराने के उपरान्त यदि निमैटोड हो तो निमैटीसाइड जैसे निमागन का प्रयोग मिट्टी में करना चाहिए। यदि लिलियम की खेती करने से पहले खेत में गेंदा की खेती कर दी जाए तो निमैटोड का प्रकोप लिलियम पर कम हो जाएगा।

रोग

बल्ब व स्केल राॅट
यह बीमारी फ्यूजेरियम व क्लिन्डोकरपोन फफूंदियों के कारण उत्पन्न होती है। इस बीमारी से ग्रसित पौधे छोटे रह जाते हैं तथा पत्तियाँ पीले हरे रंग की हो जाती है। तने में भूमिगत भाग पर नारंगी,भूरे व गहरे धब्बे दिखाई देते हैं। जो कि बाद में बडे़ होकर तने के अन्दर फैल जाते हैं। ग्रसित कन्दों के स्केल पर गहरे भूरे धब्बे दिखने लगते हैं तथा बल्ब के निचले भाग व स्केल पर सड़न शुरू हो जाती है और पौधा समय से पूर्व मर जाता है। इस बीमारी को दूर रखने के लिए रोगाणु रहित मृदा में केन्दों को लगाना चाहिए। कन्दों को रोग मुक्त करने के लिए उन्हें 0.2 प्रतिशत कैप्टन के घोल में एक घण्टे तक डुबोकर रखना चाहिए। खेत के तापमान को जहाँ तक संभव हो,फसल काल के दौरान समय-समय पर पानी देकर ठण्डा रखना चाहिए।

फुट राॅट
यह रोग फाइटोफथोरा नामक फफूंदी के कारण कारण होता है। रोग ग्रसित पौधों में बैगनी भूरे रंग के धब्बे उपर की ओर फैलते हैं। पौधे या तो छोटे रह जाते हैं या फिर अचानक मुरझा जाते हैं तथा तने के निचले भाग से पत्तियाँ पीली पड़ जाती है। इस बीमारी की बीमारी की रोकथाम के लिए मृदा को रोगाणु रहित करने के पश्चात् कन्दों को लगाना चाहिए। 200 ग्राम डाईथेन एम-45 प्रति 100 वर्गमीटर के हिसाब से मिट्टी को डेच करने के लिए प्रयोग करना चाहिए।

रूट राॅट
यह रोग पीथियम नाम फफूंदी के कारण होता है। यह फफूंदी नमी तथा 20-23 सेंटीग्रेड तापमान पर अधिक फैलाती है। रोगयुक्त कन्द व तने की जड़ों में हल्के भूरे रंग के धब्बे तथा गलन के लक्षण दिखाई देते है। ग्रसित पौधे छोटे रह जाते हैं।पत्तियाँ पतली तथा हल्के रंग हो जाती हैं। इस प्रकार के पौधों में कलियां सामान्य पौधों की अपेक्षा अधिक गिरती है। फूल छोटे रह जाते हैं तथा भली-भांति नहीं खिल पाते । मृदा को रसायनों से रोगमुक्त करना चाहिए। रोग ग्रसित पौधों मंे डाइथेन एम-45 का 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए। मृदा एम-45 के 0.2 प्रतिशत घोल में डेªन्च करना लाभदायक होता है।

लीफ स्पाॅट
पत्तियों पर धब्बे बोट्राइटिस फफूंदी से नमीयुक्त वातावरण में होते हैं। यह फफूंदी बीजाणु उत्पन्न करती हैं। और वर्षा व हवा के कारण पौधों में फैल जाती हैं। शुष्क वातावरण में यह रोग नहीं फैलता । जब पौधा रोग से ग्रसित होता है,तो पत्तियों पर 1-2 मिमी. व्यास के गहरे रंग के धब्बे दिखने लगते हैं जो कि गोल व अण्डाकर आकार में बढ़ जाते हैं। रोग से प्रभावित पत्तियों तथा फूल अन्त में मर जाते हैं। इस बीमारी की रोकथाम के लिए सिंचाई रोक कर मिट्टी को शुष्क करना चाहिए।

विषाणु रोग
लिली विभिन्न प्रकार के विषाणु रोगों से प्रभावित होती है। जिनमें लिली सिमटलेस वायरस, कुकुम्बर मोजेक वायरस,ट्यूलिप कलर बे्रकिंग वायरस इत्यादि मुख्य हैं। विषाणु रोगों से ग्रसित कन्दों से उगाए गए पौधे कमजोर हो जाते हैं तथा फूल भी अच्छी किस्म के नहीं होते । विषाणु रोग की अधिकता वाले पौधे छोटे तथा विकृत आकृति वाले हो जाते हैं। अच्छे पुष्प प्राप्त करने के लिए विषाणु रोगों से मुक्त कन्दों को ही लगाना चाहिए। विषाणु रोम को भविष्य में कम करने के लिए फसल के दौरान खेत में प्रभावित पौधों को उखाड़ कर मिट्टी में गड्ढे खोदकर फसल क्षेत्र से दूर दबा देना चाहिए।

पुष्प डण्डियों की कटाई
कन्द रोपण के 100 से 200 दिनों के बाद एसियाटिक हाइब्रिड लिली तथा 120 से 140 दिनों बाद ओरिएन्टल हाइब्रिड लिली के फूल काटने के लिए तैयार हो जाते हैं। जब पहली पुष्प कली में रंग का विकास हो जाए, लेकिन पुष्प कली खिली न हो, ऐसी दशा में एसियाटिक तथा ओरिएन्टल हाइब्रिड लिली की पुष्प डण्डियों को जमीन की सतह से लगभग20-25 सेंमी. छोड़कर सुबह के समय काट देना चाहिए। अगर फूलों को सही अवस्था से पूर्व काट दिया जाए तो कलियाॅ पूर्ण रूप से खिल नहीं पाती हैं।पुष्प कलियों पूर्ण रूप से खिल नहीं पाती है। पुष्प कलियों को खिलने के बाद काटा जाए तो पुष्प सफर(ट्रान्सपोर्टेशन) के दौरान या तो टूट जाते हैं या खराब हो जाते हैं। काटने के उपरान्त पुुष्प डण्डियों को तुरंत साफ एवं ठण्डे पानी में बाल्टी के अन्दर रखते हैं तथा बाल्टी को किसी कमरे या छायादार स्थान पर 3 से 4 घण्टे के लिए रख देते है।

श्रेणीकरण एवं भण्डारण
फूलों को काटने के बाद उन्हें किस बाजार में बेचना है तथा उस बाजार में ग्रेडिंग का आधार क्या है, इस बात को ध्यान में रखते हुए पुष्प डण्डियों का श्रेणीकरण करते हैं। हमारे देश में उगाए जाने वाले एसियासिट एवं ओरिएन्टल हाइब्रिड लिलियों की अधिकांश खपत गाजीपुर,दिल्ली मंे स्थित पुष्प बाजार में है।इस बाजार में पुष्प डण्डियों का श्रेणीकरण इस प्रकार है।

लिलियम

ग्रेड

प्रति पुष्प डण्डी कलियों की संख्या

प्रति बन्च डण्डियों की संख्या

एसियाटिक तथा ओरिएन्टल हाइब्रिड लिली

‘ए

‘बी

‘सी

4 या इससे अधिक पुष्प कलियाँ

3 पुष्प कलियाँ

1-2 पुष्प कलियाँ

10

10

10


पुष्प डण्डी की लम्बाई गर्मी एवं सर्दी के मौसम में घटती एंवं बढ़ती रहती है। लेकिन दिल्ली पुष्प बाजार में देखा गया है कि सर्दी के मौसम में ‘ए’ ग्रेड के एसियाटिक एवं ओरिएन्टल हाइब्रिड लिली की पुष्प डण्डी की लम्बाई औसत 70 सेंमी. से अधिक ही रहती है। गर्मी के मौसम में यह लंबाई औसत 60 सेंमी. के ऊपर रहती है। ‘बी’ ग्रेड के पुष्प डण्डी की लम्बाई ‘ए’ ग्रेड की पुष्प डण्डी से थोड़ा ही कम रहता है। लेकिन ‘सी’ ग्रेड के पुष्प डण्डी की लम्बाई काफी घटती एवं बढ़ती रहती है। औसत ‘सी’ ग्रेड की पुष्प डण्डी की लम्बाई 35 से 45 सेंमी. के बीच में देखने को मिलती है। पुष्प उत्पादक लिलियम पुष्प डण्डियों को एक सप्ताह के लिए 2-5 सेंटीग्रेड तापमान पर भण्डारण कर सकते हैं। विभिन्न प्रकार के खर्च और आर्थिक विश्लेषण के बाद यह पाया गया है कि लिलियम की संरक्षित खेती से प्रति इकाई क्षेत्रफल शुद्ध लाभ अधिक होता है।

उपज
लिलि का औसतन उपज 1,00,000 से 1,12,500/हेक्टेयर तथा बल्ब का उत्पादन 1,25000 से 1,50,000/हेक्टेयर दर्ज किया गया है। लिलि मंे उत्पादन मुख्यतः प्रजाति कल्चरल क्रियाऐं अच्छा प्रबंधन किया जाए तो उत्पादन अच्छा मिलता है। इसलिए लिलि के उत्पादन में क्षेत्र विशेष तथा जलवायु, मृदा के आधार पर विभिन्नता है