यह भारत की एक महत्तवपूर्ण फसल है। मिर्च को कड़ी, आचार, चटनी और अन्य सब्जियों में मुख्य तौर पर प्रयोग किया जाता है। मिर्च में कड़वापन कैपसेसिन नाम के एक तत्व के कारण होता है, जिसे दवाइयों के तौर पर प्रयोग किया जाता है। कैपसेसिन में बहुत सारी दवाइयां बनाने वाले तत्व पाए जाते हैं। खासतौर पर जैसे कैंसर रोधी और तुरंत दर्द दूर करने वाले तत्व पाए जाते हैं। यह खून को पतला करने और दिल की बीमारियों को रोकने में भी मदद करता है। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उड़ीसा, तमिलनाडू, बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान मिर्च पैदा करने वाले भारत के मुख्य राज्य हैं।

मिर्च की खेती काफी खर्चीली खेती मानी जाती है। इसका मुख्य कारण मिर्च की खेती में रासायनिक उर्वरक व दवाओं पर किसानों की अत्यधिक निर्भरता है। मिर्च की फसल में खर्च कम करने के लिए किसानों को रासायनिक उर्वरक व दवाओं के संतुलित उपयोग के साथ इनके जैविक विकल्पों जैसे- केंचुआ खाद, नीम की खली, गोबर की खाद, हरी खाद, बायोपेस्टीसाइड़, नीम तेल आदि का उपयोग भी करना होगा। किसान खरपतवारनाशक रसायनों का उपयोग न करके निंदाई-गुड़ाई करें तो भी खर्च में कमी आयेगी। इसके अलावा कीट एवं रोग नियंत्रण के लिए समेकित नाशीजीव तकनीक अपनानी चाहिए। 

उपयुक्त जलवायु


मिर्च की फसल के लिए गर्म तथा आर्द्र जलवायु लाभकारी हैं। इसके पौधे के लिये अत्यधिक ठंड व गर्मी दोनों ही हानिकारक हैं। इसकी खेती हर प्रकार की जलवायु में आसानी से की जा सकती है। वर्षा आधारित फसल के लिए 100 सेन्टीमीटर वर्षा वाले क्षेत्रों में भी आसानी से उगाया जा सकता है। अंकुरण से बढ़वार के लिए 17 से 21 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान मिर्च का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए अनुकूल रहता है। मिर्च की फसल में फूल व फल आने के समय गर्म हवायें हानिकारक होती है। मिर्च पर पाले का प्रकोप अधिक होता है। अतः पाले की आशंका वाले क्षेत्रों में इसकी अगेती फसल ली जा सकती हैं। 

प्रमुख किस्में 

एल.सी.ए.-206, जवाहर मिर्च-216, जे.सी.ए.-283, पूसा सदाबहार, एल.सी.ए.-235, पूसा ज्वाला, इंदिरा मिर्च-1।

भूमि चयन

मिर्च को अच्छे जल-निकास वाली प्रायः सभी प्रकार की भूमि में पैदा किया जा सकता है। फिर भी जीवांशयुक्त दोमट या बलुई मिट्टी जिसमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अधिक हो सबसे उपुयक्त होती है। लवण और क्षार युक्त भूमि इसके लिए उपयुक्त नहीं है। लवण वाली भूमि इसके अंकुरण और प्रारंभिक विकास को प्रभावित करती हैं। मिर्च के लिए मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 सर्वोतम है, लेकिन इसको 8 पीएच मान (वर्टीसोल्स) वाली मिट्टी में भी उगाया जा सकता है। 

खेत की तैयारी

खेत को तैयार करने के लिए 2-3 बार जोताई करें और प्रत्येक जोताई के बाद कंकड़ों को तोड़ें। बिजाई से 15-20 दिन पहले रूड़ी की खाद 150-200 क्विंटल प्रति एकड़ डालकर मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें। खेत में 60 सें.मी. के फासले पर मेंड़ और खालियां बनाएं। एज़ोसपीरीलियम 800 ग्राम प्रति एकड़ और फासफोबैक्टीरिया 800 ग्राम प्रति एकड़ को रूड़ी की खाद में मिलाकर खेत में डालें। 

बीज की मात्रा 

हाइब्रिड किस्मों के लिए बीज की मात्रा 80-100 ग्राम और बाकी किस्मों के लिए 200 ग्राम प्रति एकड़ होनी चाहिए। 

नर्सरी एवं रोपाई का समय

मिर्च की रोपाई वर्षा, शरद, ग्रीष्म तीनो मौसम में की जा सकती है। परन्तु मिर्च की मुख्य फसल खरीफ जून से अक्तूबर मे तैयार की जाती है। जिसकी रोपाई जून से जुलाई , शरद ऋतु की फसल की रोपाई सितम्बर से अक्टूबर और ग्रीष्म कालीन फसल की रोपाई फरवरी से मार्च में की जाती है। रोपाई के लिये पौध 25 से 35 दिनों से अधिक पुरानी नही होनी चाहिए अर्थात नर्सरी में बीज की बुवाई मुख्य खेत में रोपाई के 4 से 5 सप्ताह पहले करें। 

नर्सरी की तैयारी 

मिर्च की पौधशाला तैयार करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए, जैसे- 

  • मिर्च की पौधशाला की तैयारी के समय 2 से 3 टोकरी वर्मीकंपोस्ट या पूर्णतया सड़ी गोबर खाद प्रति क्यारी की मिट्टी में मिलाएं। 
  • मिर्च की पौध तैयार करने के लिए बीजों की बुवाई 3 गुणा 1 मीटर आकार की भूमि से 15 सेंटीमीटर उँची उठी क्यारी में करें। 
  • बुवाई के 1 दिन पूर्व कार्बन्डाजिम दवा 1.5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से क्यारी को तर करे। घरेलू बीज इस्तेमाल कर रहे किसानों को सलाह है, कि वो बीज को थायरम 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
  • अगले दिन क्यारी में 5 सेंटीमीटर दूरी पर 0.5 से 1 सेंटीमीटर गहरी नालियाँ बनाकर बीज बुवाई करें।
  • बीज बोने के बाद गोबर खाद, मिट्टी व बालू (1:1:1) मिश्रण से ढकने के बाद क्यारियों को धान के पुआल, सूखी घास या पलाश के पत्तों से ढकें। 
  • अंकुरण के 10 दिन बाद कापर आक्सीक्लोराइड की 2 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। 
सिंचाई 

यह फसल अधिक पानी में नहीं उग सकती इसलिए सिंचाई आवश्यकतानुसार ही करें। अधिक पानी देने के कारण पौधे के हिस्से लंबे और पतले आकार में बढ़ते हैं और फूल गिरने लग जाते हैं। सिंचाई की मात्रा और फासला मिट्टी और मौसम की स्थिति पर निर्भर करता है। यदि पौधा शाम के 4 बजे के करीब मुरझा रहा हो तो इससे सिद्ध होता है कि पौधे को सिंचाई की जरूरत है। फूल निकलने और फल बनने के समय सिंचाई बहुत जरूरी है। कभी भी खेत या नर्सरी में पानी खड़ा ना होने दें। इससे फंगस पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। 

मल्चिंग का प्रयोग 

मिर्च फसल की आधुनिक खेती में सिंचाई के लिए ड्रिप पद्धति लगायी जा रही है और भूमि से नमीं की हानि रोकने के लिए मल्चिंग का उपयोग किया जाता हैं। मल्चिंग काफी पुरानी पद्धति है। इसमें किसान खेत की नमी बचाने का प्रयत्न करते हैं। पहले किसान खेत में सूखे पत्ते, भूसे इत्यादि के द्वारा नमी बचाने का प्रयत्न करते थे। आधुनिक कृषि में सूखे पत्ते, भूसे इत्यादि के स्थान पर प्लास्टिक शीट का इस्तेमाल करते हैं। खरपतवार नियंत्रण के लिए 30 माइक्रोन मोटाई वाली अल्ट्रावायलेट रोधी प्लास्टिक मल्चिंग शीट का प्रयोग किया जाता हैं। जिससे खरपतवार प्रबंधन के साथ-साथ कम सिंचाई जल के उपयोग से बेहतर उत्पादन लिया जा सकता हैं। 

मल्चिंग के लाभ 

मल्चिंग के उपयोग से पानी की बचत, निंदाई-गुड़ाई के खर्च की बचत होती है, मिर्च के उत्पादन व गुणवत्ता में वृद्धि होती हैं। निम्नतम सिंचाई व्यवस्था होने पर भी लाभ लिया जा सकता हैं। 

फर्टीगेशन तकनीक द्वारा पोषक तत्व प्रबंधन- 

मिर्च के पौधे, जिनको ऊठी हुई क्यारी पर लगाया गया हो, ड्रिप सिंचाई व्यवस्था का उपयोग करें और जल विलेय उर्वरकों जैसे 19:19:19 को सिंचाई जल के साथ ड्रिप में देने से उर्वरक की बचत के साथ साथ उसकी उपयोग क्षमता में भी वृद्धि होती है तथा पौधों को आवश्यकतानुसार व शीघ्र पोषक तत्व उपलब्ध होने से उत्पादन तथा गुणवत्ता दोनों में वृद्धि होती है। 

खरपतवार प्रबंधन 

सामान्यतः मिर्च मे पहली निंदाई 20 से 25 और दूसरी निंदाई 35 से 40 दिन पश्चात् करें या इसके लिए निदाई-गुड़ाई यंत्र का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। हाथ से निदाई या यंत्र को ही प्राथमिकता दें, जिससे खरपतवार नियंत्रण के साथ साथ मृदा नमी का भी संरक्षण हो मल्चिंग का प्रयोग करें। यदि खरपतवारनाशी से नियंत्रित करना चाहते है, तो 300 ग्राम आक्सीफ्ल्यूओरफेन का पौध रोपण से ठीक पहले छिड़काव 600 से 700 लीटर पानी घोलकर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करें। 

कीट और रोकथाम 

फल छेदक 

इसकी सुंडियां फल के पत्ते खाती हैं फिर फल में दाखिल होकर पैदावार का भारी नुकसान करती हैं। प्रभावित फलों और पैदा हुई सुंडियों को इक्ट्ठा करके नष्ट कर दें। हैलीकोवेरपा आरमीगेरा या स्पोडोपटेरा लिटूरा के लिए फेरोमोन जाल 5 एन ओ एस प्रति एकड़ लगाएं। 

रोकथाम 

इस कीट को रोकने के लिए ज़हर की गोलियां जो कि बरैन 5 किलो, कार्बरिल 500 ग्राम, गुड़ 500 ग्राम और आवश्यकतानुसार पानी की बनी होती है, डालें। यदि इसका नुकसान दिखे तो क्लोरपाइरीफॉस + साइपरमैथरिन 30 मि.ली.+टीपोल 0.5 मि.ली. को 12 लीटर पानी में डालकर पावर स्प्रेयर से स्प्रे करें या एमामैक्टिन बैंजोएट 5 प्रतिशत एस जी 4 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी या फलूबैंडीआमाइड 20 डब्लयु डी जी 6 ग्राम को प्रति 10 लीटर पानी में डालकर स्प्रे करें। 

चेपा 

यह कीड़ा आमतौर पर सर्दियों के महीने और फसल के पकने पर नुकसान करता है। यह पत्ते का रस चूसता है। यह शहद जैसा पदार्थ छोड़ता है। जिससे काले रंग की फंगस पौधे के भागों कैलिकस और फलियों आदि पर बन जाती है और उत्पाद की क्वालिटी कम हो जाती है। चेपा मिर्चों में चितकबरा रोग फैलाने में मदद करता है, जिससे पैदावार में 20 से 30 प्रतिशत नुकसान हो जाता है। 

रोकथाम 

इसे रोकने के लिए एसीफेट 75 एस पी 5 ग्राम प्रति लीटर या मिथाइल डैमेटन 25 ई सी 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें। पनीरी लगाने के 15-60 दिनों के बाद दानेदार कीटनाशक जैसे कार्बोफिउरॉन, फोरेट 4-8 किलो प्रति एकड़ की स्प्रे भी लाभदायक सिद्ध होती है। 

सफेद मक्खी 

यह पौधों का रस चूसती है और उन्हें कमज़ोर कर देती है। यह शहद जैसा पदार्थ छोड़ते हैं, जिससे पत्तों के ऊपर दानेदार काले रंग की फंगस जम जाती है। यह पत्ता मरोड़ रोग को फैलाने में मदद करते हैं। 

रोकथाम 

इनके हमले को मापने के लिए पीले चिपकने वाले कार्ड का प्रयोग करें, जिस पर ग्रीस और चिपकने वाला तेल लगा होता है। नुकसान के बढ़ने पर एसेटामिप्रिड 20 एस पी 4 ग्राम प्रति 10 लीटर या ट्राइज़ोफॉस 2.5 मि.ली. प्रति लीटर या प्रोफैनोफॉस 2 मि.ली. प्रति लीटर या प्रोफैनोफॉस 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें। 15 दिनों के बाद दोबारा स्प्रे करें। 

रोग और रोकथाम 

पत्तों पर सफेद धब्बे 

इस बीमारी से पत्तों के नीचे की ओर सफेद रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। यह बीमारी पौधे को अपने खाने के तौर पर प्रयोग करती है, जिससे पौधा कमज़ोर हो जाता है। यह बीमारी विशेष तौर पर फलों के गुच्छे बनने पर या उससे पहले, पुराने पत्तों पर हमला करती है पर यह किसी भी समय फसल पर हमला कर सकती है। अधिक नुकसान के समय पत्ते झड़ जाते हैं। 

रोकथाम 

खेत में पानी ना खड़ा होने दें और साफ सुथरा रखें। इसे रोकने के लिए हैक्साकोनाज़ोल को स्टिकर 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी के साथ मिलाकर स्प्रे करें। अचानक बारिश पड़ने से इस बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। ज्यादा हमला होने पर पानी में घुलनशील सलफर 20 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी की 2-3 स्प्रे 10 दिनों के फासले पर करें। 

झुलसा रोग 

यह फाइटोफथोरा कैपसीसी नाम की फंगस के कारण होता है। यह मिट्टी में पैदा होने वाली बीमारी है और ज्यादातर कम निकास वाली ज़मीनों में और सही ढंग से खेती ना करने वाले क्षेत्रों में पाई जाती है। 

रोकथाम 

इस बीमारी को रोकने के लिए फसली चक्र में बैंगन, टमाटर, खीरा, पेठा आदि कम से कम तीन वर्ष तक ना अपनायें। कॉपर ऑक्सीक्लोराइड 250 ग्राम प्रति 150 पानी की स्प्रे करें। 

छाछया 

छाछया रोग के प्रकोप में पत्तियों पर सफेद चूर्णी धब्बे दिखाई देते हैं और अधिक रोग ग्रसित पत्तियाँ पीली पड़कर झड़ जाती हैं। 

रोकथाम 

केराथियॉन एल सी 1 मिलीलीटर या केलेक्सिन एक मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें व आवश्यकतानुसार 15 दिन अन्तराल पर दोहरावें। 

उपज 

मिर्च की उपज किस्मों के चयन और खेती की तकनीक पर निर्भर करती है। यदि उपरोक्त उन्नत विधि और उन्नत किस्म के साथ खेती की जाये तो प्रति हेक्टेयर 175 से 250 क्विंटल तक पैदावार मिल जाती है।