महेन्द्र कुमार साहु, अतिथि शिक्षक (कृषि अर्थशास्त्र), पं. एस.के.एस. कृषि महाविद्यालय, राजनांदगांव (छ.ग.) 
राधेलाल देवांगन, एम.एससी. (उद्यानिकी), बी.टी.एम. भानुप्रतापपुर, कांकेर (छ.ग.)

पत्तेदार सब्जियों में पालक का प्रमुख स्थान हैं। यह रबी के मौसम में उगाई जाती हैं। पालक यद्यपि वर्ष भर उगायी जा सकती हैं, परन्तु शरद ऋतु में इसकी गुणवत्ता अच्छी होती हैं। गर्मी या तापमान बढ़ने के साथ इसको गुणवत्ता भी घट जाती हैं क्योंकि इस समय नाइट्रेट व आक्जलेट की मात्रा बढ़ जाती हैं। पालक में पौष्टिकता के साथ-साथ औषधीय गुण भी पाए जाते हैं। इनके प्रयोग से हीमोग्लोबिन के निर्माण में सहायता मिलती हैं। पालक के प्रयोग से खून की कमी दूर होती हैं तथा आयरन व कैल्शियम अलग से लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती हैं। यह हल्का दस्तावर, ज्वर को हटाने वाला, फेफड़ों तथा आंतों की सूजन घटाने तथा पित्तब्युतक्रम में लाभदायक हैं। सामान्यतया प्रति 100 ग्राम पालक की पत्तियों में 3.4 ग्राम प्रोटीन, 0.8 ग्राम वसा, 380 मिलीग्राम कैल्शियम, 16.2 मिलीग्राम आयरन, 5862 आई.यू. कैरोटीन एवं 70 मिलीग्राम विटामिन सी पाया जाता हैं। पालक कम खर्च के प्रति इकाई क्षेत्रफल अधिक उपज देने वाली सब्जी फसल हैं। इसकी खेती की उन्नत तकनीकी निम्नवत् हैं। 

जलवायु 
पालक मुख्यतः शीतकालीन फसल हैं। यह पाला एवं अधिक तापमान सहन कर लेती हैं, परन्तु अधिक तापक्रम पर जल्दी बोल्टिंग (फूल, बीज, शाखाएं निकलना) होने से कम कटाई, खराब गुणवत्ता व कम उपज प्राप्त होती हैं। इसी कारण मैदानी क्षेत्रों में इसे जाड़े के मौसम में उगाया जाता हैं, इसके अच्छे विकास के लिए खुली धूप की आवश्यकता होती हैं। 15-22 से.ग्रे. तापमान इसकी बढ़वार के लिए अच्छा होता हैं। पालक की शीतकालीन की फसल से सामान्यतः 5-6 कटाई की जा सकती हैं। 

उन्नत प्रजातियां 
आलग्रीन, पूसा पालक, पूसा ज्योति, जोबनेर ग्रीन, एच.एस. 23, उच्च उत्पादन वाली प्रजातियां हैं। पूसा हरित व पूसा भारती संकर प्रजातियां हैं। 

भूमि एवं भूमि की तैयारी
पालक की खेती किसी भी प्रकार की भूमि में की जा सकती हैं, परन्तु अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट एवं दोमट भूमि, जिसमें जीवांश पदार्थ की पर्याप्त मात्रा हो, इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम मानी जाती हैं। भूमि का हल्का क्षारीय (पी.एच. मान 7.5-8.0 तक) होना अच्छा माना जाता हैं। फसल की अगेती खेती के लिए बलुई दोमट तथा मुख्य फसल के लिए दोमट से भारी दोमट भूमियां अधिक उपज देती हैं। भूमि में तैयारी से पूर्व प्रति हेक्टेयर 200 क्विंटल गोबर की खाद या 50-60 क्विंटल नाडेप/वर्मी कम्पोस्ट मिला देना चाहिए। खेत की 15-20 से.मी. गहरी 3-4 जुताई करके भूमि को भुर-भुरी बना लेना चाहिए। खेत को तैयार करने के बाद उसे सुविधाजनक क्यारियों में बांट देना चाहिए। 

बोने का समय
पालक की बुवाई वैसे तो पूरे वर्ष की जा सकती हैं, परन्तु मुख्य रूप से खेती के लिए अक्टूबर-नवम्बर उपयुक्त होता हैं। वैसे इसकी बुवाई सितम्बर से नवम्बर तक की जा सकती हैं। 

बीज की मात्रा एवं बुवाई की विधि 
एक हेक्टेयर में बुवाई के लिए पालक के 20-25 किलोग्राम बीज की आवश्यकता पड़ती हैं। पालक के बीज छोटे होते हैं अतः इसकी बुवाई से पूर्व खेत की अच्छी तरह तैयार होना आवश्यक हैं। पालक समतल क्यारियों में छिटकाव विधि से बोते हैं, परन्तु इन्हें 20 से.मी. दूर बनी लाइनोें में 2-3 से.मी. गहराई में बोना अच्छा होता हैं। पौध के जमने के बाद सघन पौधों को निकालकर उनकी आपसी दूरी 4-5 से.मी. कर देना चाहिए, यदि बोवाई थोड़े (10-15 दिन) के अन्तराल पर की जाये तो फसल से उपज लम्बे समय तक प्राप्त होती रहती हैं। बुवाई से पूर्व बीज को 5-10 घंटे तक पानी में भिगों देने से एक समान व अच्छा जमाव होता हैं। बोवाई के समय खेत न तो सूखा हो और न ही बहुत अधिक नमी हो, क्यारियों में नमी की अधिकता होने पर आद्रपतन बीमारी की सम्भावना बढ़ जाती हैं। 

खाद एवं उवर्रक 
पालक की अच्छी व जल्दी-जल्दी बढ़ने के लिए पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा की आवश्यकता होती हैं। कार्बनिक खादों के अलावा प्रति हेक्टेयर 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फासफोरस व 50 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती हैं। इन उर्वरकों की सम्पूर्ण मात्रा में से 25 किलोग्राम नाइट्रोजन (55 किलोग्राम यूरिया) सम्पूर्ण फासफोरस व पोटाश (312 कि.ग्रा. सिंगल सुपरफासफेट व 84 कि.ग्रा. म्यूरेट आॅफ पोटाश) अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देना चाहिए। नाइट्रोजन की शेष मात्रा को बराबर मात्रा में बांटकर प्रत्येक कटाई के बाद प्रयोग करना चाहिए। जाड़े की फसल में प्रायः 3-4 टाप डेªसिंग करने की आवश्यकता पड़ती हैं, अन्तिम कटाई के बाद उर्वरक का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि 3 बार में नाइट्रोजन का प्रयोग करना हो तो प्रत्येक कटाई के बाद 55 कि.ग्रा. यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से टाप डेªसिंग करना चाहिए। गर्मी की फसल में उर्वरकों की आधी मात्रा ही प्रयोग करनी चाहिए, क्योंकि इस समय एक ही कटाई मिल पाती हैं। 

सिंचाई
पालक की खेती में सिंचाई का बहुत महत्व हैं। बीज की बुवाई के समय पर्याप्त नमी का होना आवश्यक हैं। पहली सिंचाई बीज के जमने के बाद करते हैं। इसके बाद पुनः 10-15 दिनों के अन्तराल पर आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए। सिंचाई हमेशा हल्की करनी चाहिए, प्रत्येक कटाई के बाद यूरिया की टाप डेªसिंग के बाद हल्की सिंचाई करना अच्छा रहता हैं। यदि गर्मी में पालक की बुवाई की गयी हो तो जल्दी-जल्दी सिंचाई की आवश्यकता पड़ती हैं। 

अन्तः सस्य क्रियायें (देखभाल)- 
अच्छी उपज के लिए खेत का खरपतवार से रहित होना आवश्यक हैं। इसके लिए एक या दो निराई की आवश्यकता पड़ती हैं। निराई खुरपी से की जानी चाहिए, निराई के समय खुरपी से हल्की गुड़ाई भी कर देनी चाहिए, इससे जड़ों के पास वायु संचार अच्छा होने से पौधों की बढ़वार पर अच्छा प्रभाव पड़ता हैं। 

फसल सुरक्षा
पालक के मुख्य रूप से पत्तियों को काटने वाले कीट हानि पहुंचाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए नीम तेल के 4ः (1 लीटर पानी में 40 मि.ग्रा.) का छिड़काव करना चाहिए। पत्तीदार सब्जियों में जहां तक संभव हो रासायनिक कीटनाशी या फफंूदनाशी का प्रयोग नहीं करना चाहिए। 

कटाई
पालक में पहली कटाई बुवाई के लगभग 25-30 दिन बाद की जाती हैं। बाद की कटाइयाँ 15-20 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए। कटाई जमीन की सतह से हमेशा 5-6 से.मी. ऊपर करें। जाड़े की फसल में प्रायः 4-5 कटाइयाँ प्राप्त होती हैं, गर्मी में बोई हुई फसल से एक ही कटाई प्राप्त होती हैं। 

उपज
पालक की खेती में उन्न्ात सस्य विधियों एवं प्रजातियां अपनाने से प्रति हेक्टेयर 100-150 क्विंटल उपज प्राप्त होती हैं। 

बीज उत्पादन 
पालक का बीज पैदा करना आसान होता हैं, परन्तु पर परागति फसल होने के कारण एक प्रजाति के बीज खेत से दूसरी प्रजाति के मध्य कम से कम 1000 मीटर की दूरी रखनी चाहिए। बीज उत्पादन के लिए दूसरी या तीसरी कटाई के बाद फसल को छोड़ देना चाहिए और पौधे को फूलने देना चाहिए। दशी पालक में अपेक्षाकृत बीज अधिक बनता हैं। बीज उत्पादन में अवांछित पौधों व खरपतवार को निकालना (रोगिंग) आवश्यक होता हैं। फूल निकलने के पहले एक बार भिन्न प्रकार के पौध जो प्रजातियां गुण के अनुसार न हो जिसमें पुष्प डन्ठल (बोल्टिंग) निकल आएं उन्हें निकाल दें। समय-समय पर आवश्यकता अनुसार फसल उत्पादन हेतु क्रियाएं करते रहना चाहिए। फसल पक जाने पर हाथ से काटकर खेत में ही सूखने देते हैं सूख जाने पर उन्हें मड़ाई कर बीज को अलग कर लेते हैं और उन्हें साफ कर लेते हैं।