डाॅ. अभय बिसेन, सहायक प्राध्यापक (उद्यानिकी) कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केंद्र, कोरबा (छ.ग.)
गेंदा (टेगेटस प्रजाति) भारतवर्ष में उगायें जाने वाले विभिन्न फूलों में से एक हैं। देश के लगभग सभी राज्यों में इसकी खेती की जाती हैं। भारत में गेंदा की खेती लगभग 55 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती हैं, जिससे 511310 मिट्रिक टन फूलों का उत्पादन होता हैं। भारत में गेंदे की औसत उपज 9.15 मिट्रिक टन प्रति हेक्टेयर हैं। गेंदा अपने जीवनकाल में पौध (नर्सरी) अवस्था से लेकर तुड़ाई तक कई प्रकार के कवक, जीवाणु तथा विषाणु जनित रोगों से ग्रसित होता हैं। इसके द्वारा फसल की उपज में होने वाली कमी रोग के प्रकार, पौधों की संक्रमित होने की अवस्था एवं वातावरणीय कारकों पर निर्भर करता हैं। आजकल इनके नियंत्रण हेतु फफूंदनाशकों तथा अन्य रासायनिक पदार्थों का उपयोग अंधाधुंध हो रहा हैं, जिससे जैव-विविधता एवं पारिस्थितिक तंत्र को क्षति पहुँच रही हैं तथा मृदा की स्वास्थ्य बिगड़ रही हैं। अतः इन्हें कम से कम क्षति पहुँचाते हुए रोगों का प्रबंधन केवल एकीकृत रोग प्रबंधन द्वारा ही संभव हैं।
1. आर्द्र पतन या आर्द्र गलन (डेम्पिंग आफ)
आर्द्र पतन एक मृदाजनित कवक रोग हैं, जो पिथियम प्रजाति, फाइटोफ्थोरा प्रजाति एवं राइजोक्टोनिया प्रजाति द्वारा होता हैं। यह रोग नर्सरी (पौधशाला) में अधिक नुकसानदायक हैं। इस रोग के लक्षण दो प्रकार के होते हैं। पहला लक्षण पौधे के दिखाई देने के पहले बीज सड़न एवं पौध सड़न के रूप में दिखाई देता हैं, जबकि दूसरा लक्षण पौधों के उगने के बाद दिखाई देता हैं। रोगी पौधा आधार भाग अर्थात् जमीन के ठीक ऊपर से सड़ जाता हैं तथा जमीन पर गिर जाता हैं। इस रोग के कारण लगभग 30 प्रतिशत् तक फसल उत्पादन में कमी आँकी गयी हैं, परन्तु इस रोग का संक्रमण पौधशाला में ही हो जाता हैं तो यह क्षति 90 प्रतिशत् तक भी हो सकती हैं।
2. पद गलन (काॅलर राॅट)
पद गलन, गेंदा का मृदाजनित रोग हैं जो फाइटोफ्थोरा प्रजाति एवं पिथियम प्रजाति से होता हैं। इस रोग से नवोद्भित पौधे अधिक प्रभावित होते हैं। नये पौधों में रोग का संक्रमण होने पर वे आधार भाग से गिर जाते हैं, जबकि पुराने पौधों में संक्रमण होने पर उनकी पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं तथा सभी पौधे सूख जाते हैं। रोगी पौधों के मुख्य तने आधार (काॅलर) भाग पर सड़ जाते हैं, जिस पर सफेद कवकीय वृद्धि स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। इस रोग के कारण लगभग 12-15 प्रतिशत् तक फसल उत्पादन में कमी आँकी गयी हैं।
3. उकठा रोग या म्लानि रोग (विल्ट)
उकठा रोग भी एक मृदाजनित रोग हैं जो फ्युजेरियम ऑक्सीस्पोरम उपप्रजाति केलिस्टेफी नामक कवक द्वारा होता हैं। सामान्य तौर पर रोग के लक्षण बुवाई के तीन सप्ताह बाद दिखाई देता हैं। रोगी पौधों की पत्तियाँ धीरे-धीरे नीचे से पीली पड़ने लगती हैं, पौधों की ऊपरी भाग मुरझाने लगती हैं और अंत में सम्पूर्ण पौधा पीला होकर सुख जाता हैं। तापक्रम 26-28 डिग्री सेल्सियस रोगी कवक की वृद्धि के लिए उपयुक्त होता हैं।
4. चूर्णी आसिता या चूर्णी फफूंदी (पाउडरी मिल्ड्यू)
यह भी एक मृदाजनित रोग हैं, जो ओइडियम प्रजाति एवं लेविलुल्ला टाॅरिका नामक कवकों से होता हैं। सर्वप्रथम रोग पौधे की पत्तियों पर दिखाई देता हैं तथा बाद में पौधे के दूसरे भागों पर भी फैल जाता हैं। आरम्भ में पत्तियों पर दिखाई देता हैं तथा बाद में पौधे के दूसरे भागों पर भी फैल जाता हैं। आरम्भ में पत्तियों की दोनों सतहों पर सफेद चूर्णी धब्बे बनते हैं जो रोग की उग्रता बढ़ने के साथ-साथ पूरे पत्तियों पर फैल जाते हैं एवं बैंगनी या भूरी होकर सुख जाती हैं। रोगी पौधों में वाष्पोत्सर्जन एवं श्वसन क्रियायें बढ़ जाती हैं तथा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया कम हो जाती हैं। इस प्रकार से रोगों पौधे छोटे रह जाते हैं और उन पर फूल कम लगती हैं, जो आकार में बहुत छोटी होती हैं।
5. कलिका विगलन या फूलों का विगलन (बड या फ्लावर राॅट)
यह रोग आल्टरनेरिया डाइएन्थी नामक कवक से होता हैं। यह कवक नई कलिकाओं को संदूषित (संक्रमित) करते हैं। संक्रमित कलिकाएँ सिकुड़कर गहरे भूरे रंग की हो जाती हैं। इस रोग से ग्रसित फूलों की पंखुड़ियों पर काले रंग के धब्बे दिखाई देते हैं जो बाद में पूरे फूल पर फैल जाते हैं।
6. पर्ण चित्ती एवं झुलसा रोग (लीफ स्पाॅट एवं ब्लाइट)
यह रोग आल्टरनेरिया, सरकोस्पोरा एवं सेप्टारिया के प्रजातियों द्वारा होता हैं। प्रारंभ में कोमल पत्तियों पर छोटे हल्के भूरे रंग की ऊत्तकक्षयी धब्बे बनते हैं जो बाद में पूरे पत्तियों पर फैल जाते हैं एवं गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं। रोग की उग्रता बढ़ने पर सभी पर्णीय भाग नष्ट हो जाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप पौधों की वृद्धि दयनीय हो जाती हैं तथा वे कमजोर हो जाते हैं।
7. चितकबरा रोग (मोजेक)
यह रोग कुकुम्बर मोजेक वायरस से होता हैं। यह वायरस एफिड (माहू) के द्वारा संचरित होता हैं अर्थात् फैलता हैं। सर्वप्रथम रोग के लक्षण पौधों की सबसे नयी कोमल पत्तियों पर शिराओं के साथ-साथ हल्की अपवर्णता (डिसकलरेशन) के रूप में दिखाई देते हैं तथा षीघ्र ही सम्पूर्ण पत्ती चितकबरी हो जाती हैं। पत्तियों पर चितकबरापन या मोजेक अनियमित आकार के हल्के हरे या पीले धब्बों तथा गहरे हरे धब्बों की उपस्थिति के रूप में प्रकट होता हैं। उग्र संक्रमण होने पर पौधों की पत्तियाँ संकीर्ण, प्रकंुचित (झुर्रीदार), पतली एवं कुरूपित हो जाती हैं बाद में पुरानी पत्तियों के पीले धब्बों के ऊत्तक नष्ट हो जाते हैं और उनका रंग भूरा हो जाने से कहीं-कहीं ऊत्तकक्षयी चित्तियाँ बन जाती हैं। यदि पौधों पर संक्रमण देर से होता हैं तो केवल ऊपर की नयी पत्तियों में ही चितकबरापन या मोजेक लक्षण दिखाई देते हैं तथा नीचे की पुरानी पत्तियों पर मोजेक लक्षण प्रकट नहीं होते हैं। मुख्य खेत में रोगग्रस्त पौधों को आसानी से पहचाना जा सकता हैं परन्तु नर्सरी में रोगग्रस्त पौधों को पहचानना लगभग असम्भव होता हैं।
8. गेंदे का पीत रोग (एस्टर येलो)
यह रोग फाइटोप्लाज्मा से होता हैं। इसका संचरण हरे पर्ण फूदकों (लीफहाॅपर) के द्वारा होता हैं। इस रोग का सामान्य लक्षण पत्तियों का पीला पड़ना या हरिमहीनता (क्लोरोसिस) हैं। हरमिहीनता विशेष रूप से नयी एवं कोमल पत्तियों पर प्रकट होती हैं। इन रोग के बढ़ने के साथ ही पौधों में बौनापन आता हैं। हरिमहीन पत्तियाँ समान रूप से फीके पीले रंग की होती हैं। संक्रमित पौधों में फूल नहीं बनते हैं और यदि बनते भी हैं तो वह बहुत छोटी एवं अनोपयुक्त होती हैं।
समेकित रोग प्रबंधन
1. सस्य विधियाँ
- गर्मियों के दिनों में मिट्टी पलट हल से गहरी जुताई करें, ताकि रोगजनक सूक्ष्मजीवों के निष्क्रिय एवं प्राथमिक निवेशद्रव्य (प्राइमरी इनाकुलम) तेज धूप से नष्ट हो जायें। यह प्रक्रिया हर दो से तीन साल के अंतराल में करनी चाहिए।
- पूर्ववर्ती फसल अवशेषों अथवा रोग ग्रसित गेंदा के पौधों को नष्ट कर देनी चाहिए।
- उपयुक्त फसल चक्र अपनानी चाहिए।
- अनेक अखाद्य खलियों (कार्बनिक मृदा सुधारकों) जैसे- करंज, नीम, रतनजोत (जैट्रोफा), महुआ एवं अरण्ड आदि के प्रयोग द्वारा मृदा जनित रोगों की व्यापकता कम हो जाती हैं।
- बुवाई हेतु स्वस्थ बीजों का चुनाव करें।
- फसलों की बुवाई के समय में परिवर्तन करके रोग संपात (डिजीज इनसिडेंस) एवं उग्रता को कम किया जा सकता हैं।
- निरंतर एक ही नर्सरी (पौधशाला) में लम्बे समय तक एक ही फसल या एक ही फसल की एक ही किस्म न उगायें।
- संतुलित उर्वरकों का उपयोग करें।
- सिंचाई का पानी खेत में अधिक समय तक जमा न होने दें।
2. भौतिक विधियाँ
- गहरी जुताई करने के बाद मृदा का सौर ऊर्जीकरण (साॅइल सोलराइजेशन) करें। इसके लिये 105-120 गेज के पारदर्शी पाॅलीथिन को नर्सरी बेड के ऊपर फैलाकर 4 से 6 सप्ताह के लिए छोड़ दें। मृदा को ढ़ँकने के पूर्व सिंचाई कर नम कर लें। नम मृदा में रोगजनकों तथा की सुसुप्त अवस्थायें जागृत हो जाती हैं, जिससे उच्च तापमान का प्रभाव उनके विनाश के लिये आसान हो जाता हैं।
- रोगग्रसित पौधों को उखाड़कर जला दें या मिट्टी में गाड़ दें।
- नर्सरी बेड की मिट्टी का रोगाणुनाशन करने की एक सस्ती विधि यह हैं कि पशुओं अथवा फसलों के कूड़ा करकट की 30 से.मी. मोटी ढ़ेर लगाकर उसे जला दें।
3. जैविक विधियाँ
बीजों को बोने से पूर्व ट्राइकोडर्मा विरिडी से उपचारित कर लेवें। इसके लिये ट्राइकोडर्मा विरिडी के 4 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें अथवा स्युडोमोनास फ्लोरसेन्स का 1.2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मृदा में अनुप्रयोग करने से पद-गलन रोग के प्रकोप को काफी हद तक कम किया जा सकता हैं।
4. रासायनिक विधियाँ
बुवाई से पूर्व बीजों को निम्नलिखित फफूँदनाशीयों से उपचारित करें-
रोग |
फफूँदनाशक |
मात्रा (ग्राम/कि.ग्रा. बीज) |
आर्द्र पतन, काॅलर राॅट |
मेटालेक्जिल (एप्राॅन) या केप्टान |
2.5 |
उकठा |
थीरम + कार्बेन्डाजिम |
1 ग्राम + 2 ग्राम |
काॅलर राॅट, कलिका विगलन एवं पर्ण चत्ती तथा झुलसा रोग |
क्लोरोनिल या विनक्लोजोलिन |
2 |
- आवश्यकता होने पर पर्णीय रोगों जैसे पर्णचित्ती एवं झुलसा के नियंत्रण हेतु आइप्रोडिओन या केप्टाफाॅल (2 मि.ली./लीटर पानी) का छिड़काव प्रभावशाली होता हैं।
- चूर्णी आसिता रोग के नियंत्रण हेतु बुपिरिमेट (1 मि.ली./लीटर पानी) या सल्फेक्स (3 ग्राम/लीटर पानी) का छिड़काव करें।
- नर्सरी बेड को रोगाणुनाषक करने के लिए इसकी मृदा में मिथेन सोडियम या क्लारोपिक्रिन तथा मिथाइल ब्रोमाइड के मिक्सचर का धूम्रण करें।
- मोजेक एवं पीत रोग नियंत्रण हेतु इमिडाक्लोप्रिड, एसिटामेप्रिड या थायोक्लोप्रिड का छिड़काव करें।
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