रबी मौसम की एक महत्वपूर्ण फसल हैं। इसकी खेती आमतौर पर समशीतोष्ण जलवायु में की जाती हैं। अधिक ठंड एवं कोहरा की दशा में इसके फूल एवं फल प्रभावित होते हैं। छत्तीसगढ़ में इसकी खेती मुख्यतः दुर्ग, कवर्धा, राजनांदगांव, बिलासपुर, कोरिया, धमतरी एवं रायपुर जिलों में की जाती हैं। वर्तमान में छत्तीसगढ़ में इसकी खेती लगभग 21 हजार हेक्टेयर में की जाती हैं। जिसका उत्पादन पांच हजार टन हैं। इसकी औसत पैदावार 300 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं जो कि राष्ट्रीय औसत काफी कम हैं। जिसे बढ़ाने की आवश्यकता हैं। मसूर की उपयोग मुख्य रूप से दाल एवं नमकीन बनाने में किया जाता हैं। इसमें प्रोटीन 24.2 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 60.8 प्रति, कैल्शियम 5 प्रति तथा लोहा 6 प्रति तक पाया जाता हैं। जो स्वास्थ्य के लिये अन्य दालों की तुलना में अधिक लाभप्रद हैं। इसकी प्रोटीन उबालने पर शीघ्र घुलनशील होने के कारण अन्या दालों की तुलना में कम समय में पक जाती हैं। मसूर की भरपूर पैदावार लेने हेतु निम्न उन्न्त तकनीकी को अपनाएं

भूमि का चुनाव एवं तैयारी

मसूर की खेती के लिये डोरसा तथा कन्हार भूमि उपयुक्त हैं जिसका पी.एचमान सामान्य होना चाहिये। अधिक क्षारीय एवं अम्लीय मृदा इसकी खेती हेतु अनुपयुक्त हैं। अच्छी पैदावार हेतु खेत की दो-तीन बार गहरी जुताई करके पाटा चलावें। गोबर की खाद या नाडेप कम्पोस्ट उपलब्ध होने पर जुताई के समय खेत में दें। मध्यम अम्लीय भूमियों में एक से डेढ़ टन प्रति हेक्टेयर की दर से चूना अंतिम जुताई के पूर्व मिला कर तीन दिन इंतजार करें।

उन्नत किस्मों का चयन

परीक्षणों के आधार पर निम्न किस्में यहां की जलवायु में उपयुक्त पाई गई हैं-

  • जे.एल.1:- यह 100-110 दिनों में पककर तैयार होने वाली उकठा एवं गेरूआ बीमारी हेतु निरोधी किस्म हैं इसके दाने बड़े एवं धूसर रंग के तथा औसत पैदावार 10 से 12 क्विंटल/हेक्टेयर देती हैं। यह .. के मैदानी भाग एवं सम्पूर्ण .प्र. हेतु उपयुक्त जाति हैं।
  • जवाहर मसूर-2:- यह 110-115 दिनों में पकने वाली मध्यम अवधि की किस्म हैं। इसका दाना बड़ा एवं औसत पैदावार 10-15 क्विंटल/हेक्टेयर हैं। यह उकठा एवं गेरूआ रोग निरोधी हैं।
  • जे.एल.-3:- यह  100-110 दिनों में पककर तैयार होने वाली जाति हैं जो 12-15 क्विंटल औसत उत्पादन देती हैं। यह बड़े दानों वाली एवं उकठा निरोधी जाति हैं।
  • लेन्स 4076:- यह मध्यम देरी (115-120 दिन) में पककर तैयार होने वाली, बड़े दानों वाली किस्म हैं। इसकी औसत उत्पादकता 15-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हैं। यह भी गेरूआ एवं उकठा निरोधी एवं .. हेतु उपयुक्त किस्म हैं।
  • आई.पी.एल.-81:- यह मध्यम अवधि (113-115 दिन) में पकने वाली किस्म हैं जो उकठा एवं गेरूआ रोग के प्रति सहनशील पाई गई हैं तथा औसतन 15 क्विंटल/हे. तक पैदावार देती हैं। इसके दाने मध्यम आकार के होते हैं।
  • डी.पी.एल.-62:- यह मध्यम देरी (120-122 दिन) में पकने वाली बड़े दानों वाली किस्म हैं। जिनका दाना धूसर लालिमा लिये हुए होते हैं एवं औसतन 12-15 क्विंटल/हेक्टेयर तक उत्पादन देती हैं। यह उकठा एवं गेरूआ निरोधी किस्म हैं।
  • के-75:- यह 110-115 दिनों में पकने वाली उकठा निरोधी किस्म हैं। जो 12-15 क्विंटल/हेक्टेयर तक पैदावार देती हैं।

बीज दर

उन्नत किस्मों का 30-35 कि.ग्रा. बीज प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती हैं। विलम्ब से बुवाई करने की दशा में 40 किलों ग्राम बीज प्रति हेक्टेयर बोना चाहिये।

बीजोपचार

स्वस्थ बीजों को बुवाई के पूर्व थाइरम या बाविस्टीन 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें। इसके उपरान्त बीजों को मसूर के राइजोबियम कल्चर तथा सुपर घोलक जीवाणु खाद प्रत्येक का 5 ग्राम प्रति किलों बीज की दर से उपचारित कर तुरन्त बुवाई करें। उपचारित बीज हमेशा छायादार स्थान में ही रखें।

बुवाई का समय एवं तरीका

बुवाई का समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर उपयुक्त हैं। ज्यादा विलम्ब से बुवाई करने पर कीट व्याधि का प्रकोप ज्यादा होता हैं। बुवाई नारी हल या सीड ड्रिल से कतारों में 22 से.मी. की दूरी पर करें।

उर्वरक की मात्रा

असिंचित दशा में 15:30:10 तथा सिंचित दशा में 20:40:20 कि.ग्रा. नत्रजनःस्फुरःपोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुवाई करते समय डालना चाहिये।

सिंचाई

सिंचाई उपलब्ध होने की दशा में पहली सिंचाई शाखा निकलते समय अर्थात् बुवाई के 30-35 दिन बाद करें तथा दूसरी सिंचाई आवश्यकतानुसार बुवाई के 70-75 दिन बाद करें। ध्यान रखें की पानी अधिक होने पावे। यथासंभव स्प्रिंकलर से ही सिंचाई करें या खेत में स्ट्रिप बनाकर हल्की सिंचाई करें। पानी अधिकता होने पर फसल पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।

पौध संरक्षणप्रमुख कीट एवं उनका नियंत्रण

इस फसल में मुख्य रूप से माहों, थ्रिप्स तथा चने की इल्ली से नुकसान होता हैं। जिनमें माहों एवं थ्रिप्स प्रमुख हैं।

माहों:- यह फसल की बढ़वार के समय से नुकसान पहुंचाना शुरू कर देता हैं। अतः इसके नियंत्रण हेतु मेटासिस्टाक्स 25 .सी. घोल का 1.5 मि.ली. याडाएमिथोएट 30 .सी. का 1-1.5 मि.ली. या मोनोकोटोफास 36 .सी. का 1.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिनों की अंतराल से छिड़काव करें।

थ्रिप्स:- ये कीट अत्यंत छोटे, पतले, लम्बे तथा चपटे होते हैं जो करले भूरे रंग लिये होते हैं। ये पत्ती, फूल की बोड़ी तथा फलों का रस चूसते हैं। अतः अधिक प्रकोप की दशा में फूल मुड़ने लगते हैं। इसके नियंत्रण हेतु उपरोक्तानुसार दवा का प्रयोग करें।

चने की इल्ली:- यह फली में छेद कर दानों को खा जाती हैं। नम एवं बादलयुक्त वातावरण में इसका प्रकोप अधिक होता हैं। इसकी रोकथाम हेतु इण्डोसल्फान 35 .सी. दवा का 1.5-2.0 मि.ली. अथवा पैराथियान 50 .सी. दवा 1.0 मि.ली. या क्यूनालुस 25 .सी. 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 15 दिनों की अंतराल से छिड़काव करें।

बीमारियां एवं नियंत्रण

  • पौध गलन एवं जड़ सड़न:- यह प्रारंभिक अवस्था की व्याधि हैं जिसे फफूंदनाषी से बीजोपचार तथा खेत की निंदाई-गुड़ाई के माध्यम से रोका या कम किया जा सकता हैं।
  • उकठा रोग:- यह भूमि जनित रोग हैं जिसके प्रकोप से पौधा समूल सूखा कर मर जाता हैं। नियंत्रण हेतु निरोधी किस्मों का प्रयोग करें तथा फसल चक्र अपनावें।
  • गेरूआ रोग:- इसका प्रकोप .. में कदाचित होता हैं। इसके बचाव हेतु निरोधी किस्मों का प्रयोग करना लाभप्रद होगा। रोग की अवस्था में बाविस्टीन अथवा बेनलेट दवा 1.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें।

कटाई:- फसल पकने पर ज्यादा सूखने से पूर्व ही कटाई करके साफ खलिहान में सूखाकर गहाई करें एवं 9-11 प्रतित् आद्रता रहने तक सूखाकर भण्डारण करें।