विश्व में मूंगफली के क्षेत्रफल व उत्पादन की दृष्टि से भारत प्रथम स्थान पर हैं। हमारे देश में मूँगफली गुजरात के साथ-साथ रास्थान की भी प्रमुख तिलहनी फसल हैं। गुजरात, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश एवं पंजाब राज्यों में मूंगफली की खेती की जाती हैं। 

मूँगफली के दाने में 48-50% वसा 26% और प्रोटीन तथा 45% तेल पाया जाता हैं। मूँगफली की खेती 100 से.मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती हैं। मूंगफली की खेती करने से भूमि की उर्वरता भी बढ़ती हैं। इसका निर्माण भूमि में होता हैं। अतः इसकी फसल के लिए अच्छी जल निकास वाली, भुरभुरी दोमट एवं रेतीली दोमट, कैल्शियम और मध्यम जैव पदार्थाें युक्त मृदा उत्तम रहती हैं। इसकी फसल के लिए मृदा की पीएच 5-8.5 उपयुक्त रहता हैं। सामान्यतः 12 से 15 से.मी. गहरी जुताई उपयुक्त होती हैं। हमारे देश में मूंगफली की कम उत्पादकता का कारण, इसकी खेती असिंचित व अनुपजाऊ भूमि में होना हैं। साथ ही सूखे की अधिकता व अधिक अवधि में पककर तैयार होना हैं। मूंगफली की कम पैदावार के कारणों में सबसे बड़ा कारण हैं इस फसल पर रोगों का प्रकोप किसान रोगों से फसल को बचा कर मूंगफली की पैदावार बढ़ा सकते हैं मूंगफली का प्रचुर उत्पादन प्राप्त हो इसके लिये पौध रोग प्रबंधन की उचित आवश्यकता होती हैं। मूंगफली के रोग एवं उनका नियंत्रण इस प्रकार हैं- 

प्रमुख रोग एवं उनका नियंत्रण 

पर्ण चित्ती अथवा टिक्का रोगः 

मूंगफली का यह एक मुख्य रोग हैं यह रोग सर्कोस्पोरा अराचिडीकोला/सर्कोस्पोरा परसोनाटा नामक कवक से होता हैं। जब पौधे एक या दो माह के होते हैं तब फसल पर इस रोग का प्रकोप होता हैं। इस रोग में पत्तियों के ऊपर बहुत अधिक धब्बे बन जाते हैं जिसके कारण वह शीघ्र ही पकने के पूर्व गिर जाती हैं। परिणामस्वरूप पौधों से फलियां बहुत कम और छोटी प्राप्त होती हैं। सर्वप्रथम रोग के लक्षण पत्तियों की ऊपरी सतह पर हल्के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं, इन धब्बों की ऊपरी सतह वाले ऊतकक्षीय क्षेत्र लाल भूरे से काले जबकि निचली सतह के क्षेत्र हल्के भूरे रंग के होते हैं।

नियंत्रणः
  • मूंगफली की खुदाई के तुरंत बाद फसल अवशेषों को एकत्र करके जला देना चाहिए।
  • मूंगफली की फसल के साथ ज्वार या बाजरा की अंतवर्ती फसलें उगायें ताकि रोग के प्रकोप को कम किया जा सकें।
  • बीजों को थायरम (1ः350) या कैप्टान (1ः500) द्वारा उपचारित करके बोएं।
  • खड़ी फसल में कार्बेन्डाजिम 0.1% या मेंकोजेब 0.2% का 2-3 छिड़काव करें।
श्याम व्रण या ऐन्थे्रक्नोजः

यह रोग मुख्यतः बीज पत्र, तना, पर्णवृन्त, पत्तियों तथा फल्लियों पर होता हैं। रोगग्रस्त पत्तियां जगह-जगह पीली हो जाती हैं। पत्तियों की निचली सतह पर अनियमित आकार के भूरे धब्बे दिखाई देते हैं जिनमें लालिमा भी पाई जाती हैं जो कुछ समय बाद गहरे रंग की हो जाती हैं। पौधों के प्रभावित तक विवर्णित होकर मर जाते हैं और फलस्वरूप विशेष विक्षत बन जाते हैं।

नियंत्रणः
  • ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें।
  • प्रमाणित एवं स्वस्थ बीजों का चुनाव करें।
  • रोगग्रस्त पौधों को निकालकर नष्ट कर दें।
  • बीजों को बोर्डो मिश्रण (4ः4ः50) या काॅपर ऑक्सीक्लोराइड या मेनकोजेब (0.25 द्वारा बीजोपचार करें)।
रस्ट या गेरुआ रोगः

यह पक्सिनिया अराॅचिडिस नामक फफूँद से होता हैं इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पत्तियों की निचली सतह पर जंग के सामान उतकक्षीय स्पाॅट के रूप में दिखाई पड़ते हैं। पत्तियों के प्रभावित भाग की बाह्य त्वचा फट जाती हैं। पर्णवृन्त एवं वायवीय भाग पर भी ये स्पाॅट देखे जा सकते हैं। रोग उग्र होने पर पत्तियां झुलसकर गिर जाती हैं। फल्लियों के दाने चपटे व विकृत हो जाते हैं।

नियंत्रणः
  • फसल की बुवाई जून के मध्य पखवाड़े तक करें ताकि रोग का प्रकोप कम हों।
  • मूंगफली की खुदाई के तुरंत बाद फसल अवशेषों को एकत्र करके जला देना चाहिए।
  • रोगग्रस्त पौधों को निकालकर नष्ट कर दें।
  • बीज को 0.1% की दर से वीटावेक्स या प्लांटवेक्स दवा से बीजोपचार करके बोएं।
  • खड़ी फसल में घुलनशील गंधक चूर्ण 15 कि.ग्रा. प्रति हे. की दर से भुरकाव या कार्बेन्डाजिम या बाविस्टीन 0.5% की दर से 15 दिन के अंतराल में छिड़कें।
जड़ सड़न रोगः

इस रोग में पौधे पीले पड़ने लगते हैं मिट्टी की सतह से लगे पौधें के तने का भाग सूखने लगता हैं। जड़ों के पास मकड़ी के जाले जैसी सफेद रचना दिखाई पड़ती हैं। प्रभावित फल्लियों में दाने सिकुड़े हुए या पूरी तरह से सड़ जाते हैं, फल्लियों के छिलके भी सड़ जाते हैं।

नियंत्रणः
  • ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें।
  • लम्बी अवधि वाले फसल चक्र अपनाएं।
  • बीज की फफूंदनाशक दवा जैसे थायरम या कार्बेन्डाजिम या सेरेसन की 3 ग्राम दवा प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें।
कली ऊतकक्षय विषाणु रोगः

यह विषाणु जनित रोग हैं थ्रिप्स इस विषाणुजनित रोग के वाहक का कार्य करते हैं। ये हवा द्वारा फैलते हैं। रोग के प्रभाव से मूंगफली के नए पर्णवृन्त पर हरिमा हीनता दिखाई देने लगती हैं। उतकक्षयी धब्बे एवं धारियां नए पत्तियों पर बनते हैं तापमान बढ़ने पर कली उतकक्षयी लक्षण प्रदर्शित करती हैं पौधों की बढ़वार रूक जाती हैं।

नियंत्रणः
  • शीघ्र बुवाई करें।
  • फसल की रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें।
  • मूंगफली के साथ अंतवर्ती फसलें जैसे बाजरा 7ः1 के अनुपात में लगाएं।
  • मोनोक्रोटोफाॅस 1.6 मि.ली./ली. या डाइमेथोएट 2 मि.ली./ली. के दर से छिड़काव करें।