भूमि का चुनाव एवं तैयारीः-
सोयाबीन की खेती अधिक हल्की, रेतीली व हल्की भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमि में सफलता पूर्वक की जा सकती है परन्तु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिए अधिक उपयुक्त होती है। जहाँ भी पानी रूकता हो वहाँ सोयाबीन की फसल न लें। ग्रीष्मकालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवश्य करनी चाहिए। वर्षा प्रारंभ होने पर 2 या 3 बार बखर एवं पाटा चलाकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए। इससे हानि पहुँचाने वाले कीटों की सभी अवस्थाएं नष्ट होंगी तथा खरपतवारों को भी नष्ट किया जा सकता है। ढेला रहित और भुरभुरी मिट्टी वाले खेत सोयाबीन के लिए उत्तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः अधिक उत्पादन के लिए खेत में जल निकास की व्यवस्था करना आवश्यक होता है, इस हेतु 20-25 लाइनों के बाद एक नाली का निर्माण करें। जहाँ तक संभव हो जुताई समय से करें। जिससे अंकुरित खरपतवार नष्ट हो सके एवं संभव हो तो मेड़ और कुंड (रीज एवं फरो) बनाकर बुवाई करें।    



सोयाबीन की उन्नतशील प्रजातियाॅ एवं उनकी विशेषताएँः-
प्रजातियों का नाम पकने की अवधि, दिन उपज, क्वि/हेक्टेयर विशेण गुण
जे-एस- 335 95-100 25-30 व्यापक क्षेत्र के लिए अनुकूल- श्रेष्ठ अंकुरण- अधिक उत्पादन क्षमता एवं बैक्टीरियल पश्च्यूल हेतु तिरोधिता- बड ब्लाइट रोग एवं कीटों में तना मक्खी हेतु सहनशीलता।
जे-एस-93-05 90-95 25-30 व्यापक क्षेत्र के लिए अनुकूल, शीघ्र पकने वाली, चार दाने वाली फली, अच्छी अंकुरण क्षमता, फली चटकने के लिए प्रतिरोधी, जड़ सड़न एवं प्रमुख कीट एवं बीमारियों के प्रतिरोधिता सहनशीलता।
जे-एस-95-65 82-87 18-20 अतिशीघ्र पकने वाली, चार दाने वालह फली, कम वर्षा तथा उथली जमीन वाले क्षेत्रों के लिये अनुकूल, अच्छी अंकुरण क्षमता- फली चटकने के लिए प्रतिरोधी- सूखा एवं अधिक तापमान सहनशील तथा कीटों में तना मक्खी- चक्रभृंग- नीला भृंग व बीमारियों में जड़ सड़न तथा जीवाणु धब्बे के लिए प्रतिरोधक।
जे-एस- 90-41 87-98 25-30 शीघ्र पकने वाली- चार दाने वाली- अच्छी अंकुरण क्षमता रोग एवं कीट व्याधियो के प्रति प्रतिरोधिता सहनशीलता।
जे-एस- 80-21 100-105 25-30 श्रेष्ठ अंकुरण क्षमता, माइरोथिसयम रोग एवं पत्ती खाने वाले कीटों के लिए प्रतिरोधिता सहनशीलता।
जे-एस-37 100-105 25-30 अधिक उत्पादन क्षमता- अच्छी अंकुरण क्षमता- फली चटकने के लिए प्रतिरोधिता- प्रमुख कीट एवं बीमारियों के प्रति प्रतिरोधिता सहनशीलता।
जे-एस-7 90-100 25-30 बेक्टीरियल पश्च्यूल- हरा विषाणु रोग- बेक्टीरियल ब्लाइट- फायलोडी विषाणु रोग के प्रति प्रतिरोधिता- मक्खी- तगर्डलबीटल- हरा और भूरा सेमीलूपर के लिए सहनशीलता।
जे-एस-12 95-100 25-30 बेक्टीरियल पश्च्यूल, माइरोथिसयम पर्ण दाग, बेक्टीरियल ब्लाइट, राइजोक्टोनिया पर्ण झुलसन के प्रति प्रतिरोधकता, पत्ती खाने वाले कीट, तना मक्खी, चक्रभृंग कीट के प्रति सहनशीलता।
जे-एस-2 100-105 25-30 राइजोक्टोनिया पर्ण झुलसन, हरा विषाणु रोग के प्रति प्रतिरोधकता- सरकोस्पोरा तथा एन्थ्रेकनोज बीमारी के लिए सहनशीलता।
जे-एस-97-52 98-102 25-30 व्यापक क्षेत्र के लिए अनुकूल, सर्वश्रेष्ठ अंकुरण- अधिक उत्पादन क्षमता- बहुरोधी क्षमता फली चटकने के लिए प्रतिरोधी। पीला मोजेक- जड़ सड़न एवं कीटों में तना छेदक एवं पत्ती भक्षक एवं अधिक नमी के लिए प्रतिरोधी एवं सहनशील। फूल का रंग सफेद।

अन्य उन्नत किस्मेंः- जे.एस. 97-52 एवं आर.के.एच.-18


बीज दरः-
1. छोटे दाने वाली किस्में        - 70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
2. मध्यम दाने वाली किस्में    - 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
3. बड़े दाने वाली किस्में          - 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर

बुवाई का समयः-
जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय सबसे उपयुक्त है। बोने के समय अच्छे अंकुरण हेतु 10 सेमी. तक उपयुक्त नमी होनी चाहिए। जुलाई के प्रथम सप्ताह के पश्चात बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिए।

बुवाई की विधिः-
सोयाबीन की बुवाई कतारों में करना चाहिए। कतारों की दूरी 30 सेमी. छोटे दाने वाली किस्मों के लिए तथा 45 सेमी. बड़ी किस्मों के लिये उपयुक्त है। 20 कतारों के बाद एक कूड़ जल निथार एवं नमी संक्षरण के लिये खाली छोड़ देना चाहिए। बीज 2.5 से 3.0 सेमी. गहराई तक बोयें। बीज एवं खाद को अलग-अलग बोना चाहिये जिससे अंकुरण क्षमता प्रभावित न हो।


बीजोपचारः-
सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते हैं। इस की रोकथाम हेतु बीज को थीरम या केप्टाम 2 ग्राम @ कार्बन्डाजीम या थायोफेनेट मिथाईल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए अथवा थीरम 3 प्रतिशत @ कार्बन्डाजीम 37 प्रतिशत मिश्रण 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या ट्राईकोडरमा 4 ग्राम @ कार्बन्डाजीम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करके बुवाई करें।


कल्चर का उपयोगः-
फफूंदनाशक दवाओं से बीजोपचार के पश्चात बीज को 5 ग्राम राईजोबियम एवं ग्राम पी.एस.बी. कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए एवं शीघ्र बुवाई करना चाहिए। ध्यान रहे कि फफूंद नाशक दवा एवं कल्चर को एक साथ न मिलावें।


समन्वित पोषण प्रबंधनः-
अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोट) पांच टन प्रति हेक्टर अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्छी तरह मिला देवें तथा बुवाई के समय 20 किलोग्राम नत्रजन 60 किलोग्राम स्फुर 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर देवें। यह मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर घटाई-बढ़ाई जा सकती हैं। यथा संभव नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासयनिक उर्वरकों कों कूड़ों में लगभग 5 से 6 सेमी. की गहराई पर डालना चाहिए। गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं उथली मिट्टियों में 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 5-6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिए।


खरपतवार प्रबंधनः
फसल के प्रारम्भिक 30 से 40 दिनों तक खरपतवार नियन्त्रण बहुत आवश्यक होता है। अतः बुवाई के 20 से 25 दिन बाद पहली निदांई करें व दूसरी निंदाई 35-40 दिन बाद करें। खड़ी फसल में रासायनिक नियंत्रण के लिए अंकुरणके पश्चात 15 से 20 दिन की खड़ी फसल में घास कुल के खरपतवार को नष्ट करने के लिए क्यूजेलेफोप ईथाइल एक लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा घास कुल और कुछ चैड़ी पत्ती बवाले खरपतवारों के लिए इमेजेथाफायर 750 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव की अनुशंसा है। नींदानाशक के प्रयोग में बुवाई के पूर्व फ्लूक्लोरेलीन 2 लीटर प्रति हेक्टेयर अंतिम जुताई के पूर्व खेत में छिड़के और भलीभाँति जुताई करके मिला देवें। बुवाई के बाद एवं अंकुरण के पूर्व एलाक्लोर 4 लीटर तरल या पेन्डीमेथलीन 3 लीटर प्रति हेक्अेयर या मेटोलाक्लोर 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी में घोलकर फ्लेट फेन या फ्लेटजेट नोजल की सहायता से पूरे खेत में छिड़काव करें। तरल खरपतवार- नाशियों के स्थान पर 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से एलाक्लोर दानेदार का समान भुरकाव कर सकते है। बुवाई के पूर्व एवं अंकुरण पुर्व वाले खरपतवार नाशियों के लिए मिट्टी में पर्याप्त नमी व भुरभुरापन होना चाहिए।


जल प्रबंधनः-
खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्यतः सोयाबीन को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात सितंबर माह में यदि नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो सिंचाई करना सोयाबीन के अधिक उत्पादन लेने हेतु लाभदायक है सोयाबीन में 7.5 सेमी. प्रति हेक्टेयर सिंचाई करें। सोयाबीन की फसल में यदि उचित जल प्रबंध नही है तो जो भी आदान एपयोग किये जाते है उसका समुचित उपयोग पौधों द्वारा नही हो पाता है। इसके साथ ही जड़ सड़न जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है एवं नींदा निंयत्रण कठिन हो जाता है। जिसके फलस्वरूप, पौधों का विकास सीमित हो जाता है एवं उत्पादन में अनुरूप 30 से.मी. गहरी जल निकास नालियाँ अवश्य बनाये, जिससे अधिक वर्षा की स्थिति में जलभराव की स्थिति पैदा न हो। मेंड नाली एवं चैडी पट्टी नाली विधि की बुवाई, जल निेास में प्रभावी पायी गयी हैं।


कीट प्रबंधनः-
सोयाबीन की फसल पर बीज एवं छोटे पौधे को नुकसान पहुँचने वाला नीलाभृंग (ब्लूबीटल) पत्ते खाने वाली इल्ली, तने को नुकसान पहुँचाने वाली तने की मक्खी एवं चक्रभृंग (गर्डल बीटल) आदि का प्रकाप होता है एवं कीटों के आक्रमण से 5-50 प्रतिशत तक पैदावार में कमी आ जाती है। इन कीटों के नियन्त्रण के उपाय निम्नलिखित है- बुवाई के समय थायोमेथाजेम 70 डब्लू.एस. 3 ग्राम/कि.ग्रा. बीज को उपचारित करने से प्रारम्भिक अवस्था के कीटों का नियंत्रण होता है अथवा अंकुरण के प्रारंभ होते ही नीला भृंग कीट के नियंत्रण के लिए क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत 25 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से भुरकाव करना चाहिए। कई प्रकार की इल्लियां, पत्ती, छोटी फलियाँ और फलों को खाकर नष्ट कर देती है। इन कीटों के नियंत्रण के लिए घुलनशील दवाओं की निम्नलिखित मात्रा 700 से 800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए। हरी इल्ली की एक प्रजाति जिसका सिर पतला एवं पिछला भाग चैड़ा होता है सोयाबीन के फूलों और फल्लियों को खा जाती है जिससे पौधे फली विहीन हो जाते है। फसल बांझ होने जैसी लगती है। चूंकि फसल पर तना मक्खी, चक्रभृंग, माहो एवं हरी इल्ली लगभग एक साथ आक्रमण करते हैं। अतः प्रथम छिड़काव 25 से 30 दिन पर एवं दूसरा छिड़काव 40-45 दिन की फसल पर अवश्य करना चाहिए। छिड़काव यंत्र उपलब्ध न होने की स्थिति क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत पावडर (डस्ट) का उपयोग 20-25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर करना चाहिए।


रोग प्रबंधनः-
1. बोनी के पहले बीजोपचार आवश्यक है। बीज जनित रोगों के नियंत्रण एवं फफूंद के आक्रमण से बीज सड़न रोकने हेतु प्रति किलोग्राम बीजों को कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम @ 2 ग्राम थीरम के मिश्रण से उपचारित करना चाहिए। बीजोपचार हेतु थीरम, कार्बन्डाजिम अथवा कार्बाक्स का प्रयोग किया जा सकता है।


2. पत्तों पर कई तरह के धब्बे वाले फफूंद जनित रोगों को कम करने के लिए कार्बेन्डाजिम 50 डब्ल्यू.पी. या थानोफेनेट मिथाइल 70 डब्ल्यू.पी.के. 0.05-0.1 प्रतिशत (0.5 से 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी) घोल का छिड़काव करना चाहिए। पहला छिड़काव 30-35 दिन की अवस्था पर एवं दूसरा छिड़काव 40-45 दिन की अवस्था पर करना चाहिए।


3. वैक्टीरियल पश्च्यूल नामक रोग को नियंत्रित करने के लिए स्ट्रेप्टो-साइक्लीन या कासूगामाइसिन की 200 पी.पी.एम. (200 मि.ग्रा. दवा प्रति लीटर पानी) के घोल और काॅपर आक्सीक्लोराइड 0.2 प्रतिशत (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) के घोल के मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए। इसके लिए 10 लीटर पानी में 1 ग्राम स्टैप्टोसाईक्लीन एवं 20 ग्राम काॅपरआक्सी क्लोराइड दवा का घोल बनाकर उपयोग कर सकते है।


4. गेरूआ प्रभावित क्षेत्रों में सहनशील जातियाँ लगाये तथा रोग के प्रांरभिक लक्षण दिखते ही 1. मि.ली. प्रति लीटर की दर से हेक्साकोनाजोल 5 ई.सी. या प्रापिकोनाजोल 25 ई.सी. या आक्सीकार्बाजिम 10 ग्राम प्रति लीटर की दर से ट्रायएडिमीफान 25 डब्ल्यू.पी. दवा के घोल का छिड़काव करें व 10-15 दिनों के अन्तराल पर दुबारा छिड़काव करें।


5. विषाणु जनित पीला मोजेक वायरस रोग व ब्लड व्लाईट रोग प्रायः एफिड्स सफेद मक्खी, थ्रिप्स आदि द्वारा फैलते है। अतः केवल रोग रहित स्वस्थ बीज का उपयोग करना चाहिए एवं रोग फैलाने वाले कीड़ों के लिए थायोमेथोक्जोन 70 डब्ल्यू.एस. से 3 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित कर एवं 30 दिनों के बाद निम्न में से किसी एक दवा का छिड़काव करें तथा 15 दिनों के अन्तराल पर दोहराते रहें।


  • इथोफेनप्राक्स 10 ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर
  • मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. 0.75 लीटर प्रति हेक्टेयर
  • टायमिथोएट 30 ई.सी. 0.75 लीटर प्रति हेक्टेयर
  • थायोमिथोक्जेम 25 डब्ल्यू.जी. 100 ग्राम प्रति हेक्टेयर
फसल कटाई एवं गहाईः-
अधिकांश पत्तीयों के सूख कर झड़ जाने पर और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरी हो जाने पर फसल की कटाई कर लेना चाहिए। जे.एस. 335, जे.एस. 72-44, जे.एस. 75-46 आदि सूखने के लगभग 10 दिन बाद चटकने लगती है। कटाई के बाद गट्टों को 2-3 दिन तक सुखाना चाहिए जब कटी फसल अच्छी तरह सूख जाये तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई थ्रेसर, टेक्टर, बैलों तथा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए (उपलब्धता अनुसार)।