डॉ. पी. मुवेंथन (वरिष्ठ वैज्ञानिक), डॉ. गुंजन झा (वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं प्रमुख, कृषि विज्ञान केंद्र, राजनांदगांव),
सुमन सिंह (वरिष्ठ अनुसंधान सहायक, एनएएसएफ परियोजना),
डॉ. हेम प्रकाश वर्मा (यंग प्रोफेशनल, एफएफपी परियोजना)
भाकृअनुप. - राष्ट्रीय जैविक स्ट्रेस प्रबंधन संस्थान, बारोंडा, रायपुर (छत्तीसगढ़)
परिचय
छत्तीसगढ़ में धान प्रमुख खरीफ फसल है और इसकी खेती व्यापक पैमाने पर की जाती है। धान की कटाई के बाद खेतों में बड़ी मात्रा में धान का पुआल (पराली) अवशेष के रूप में बचा रह जाता है, विशेषकर जब कटाई कंबाइन हार्वेस्टर से की जाती है। इन अवशेषों को नष्ट करने के लिए किसान प्रायः पराली को जलाने का सहारा लेते हैं, क्योंकि यह तरीका सबसे तेज़ और आसान माना जाता है। लेकिन पराली जलाने से पर्यावरण पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ते हैं, जैसे वायु प्रदूषण, मिट्टी की उर्वरता में कमी, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन और आसपास के जीव-जंतुओं तथा मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक असर। इसलिए अब समय की आवश्यकता है कि किसान पराली प्रबंधन के लिए पर्यावरण अनुकूल विकल्प अपनाएँ। धान अवशेष का उपयोग मल्चिंग, कम्पोस्ट निर्माण, बायोगैस उत्पादन, चारे और गत्ते व जैव ईंधन जैसी उपयोगी वस्तुओं के निर्माण में किया जा सकता है। इन विकल्पों से न केवल खेतों की उर्वरता और पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि किसानों को अतिरिक्त आय का भी अवसर मिलेगा।
धान की पराली जलाने की समस्याएँ
धान की पराली जलाने से अनेक गंभीर समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। इससे मिट्टी के आवश्यक पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटैशियम और कार्बनिक कार्बन नष्ट हो जाते हैं, जिसके कारण फसलों की वृद्धि और उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। साथ ही, मिट्टी की उर्वरता घटती है क्योंकि इसमें मौजूद उपयोगी जीवाणु, फफूंद और अन्य सूक्ष्मजीव भी नष्ट हो जाते हैं, जो मिट्टी की संरचना और जड़ों को पोषण उपलब्ध कराने में सहायक होते हैं। पराली जलाने से वातावरण में धुआँ और हानिकारक गैसें निकलती हैं, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता है और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है, जैसे आँखों में जलन, सांस की बीमारियाँ और हृदय रोग। इसके अतिरिक्त, जलती हुई पराली से खेतों, पेड़ों और ग्रामीण बस्तियों में आग लगने का भी खतरा बना रहता है, जिससे किसानों को आर्थिक नुकसान होता है और पर्यावरण को भी गंभीर हानि पहुँचती है।
(1) इन-सीटू प्रबंधन: धान की पराली का इन-सीटू प्रबंधन का अर्थ है कि इसे खेत में ही वैज्ञानिक ढंग से उपयोग किया जाए।
- हैप्पी सीडर / सुपर सीडर: इन मशीनों की मदद से गेहूँ और दलहनी फसलों की सीधी बुवाई धान की पराली में की जा सकती है। पराली खेत में ही रहती है और मिट्टी की सतह पर मल्च (आवरण) का काम करती है, जिससे नमी का संरक्षण होता है तथा खरपतवार नियंत्रण में मदद मिलती है।
- मल्चिंग: धान के भूसे को सब्जियों और बागवानी फसलों में मिट्टी की सतह पर फैलाकर मल्चिंग की जाती है। इससे नमी का वाष्पीकरण कम होता है, खरपतवार की वृद्धि घटती है और मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है।
- रोटावेटर / ज़ीरो टिल ड्रिल: इन उपकरणों से पराली को मिट्टी में मिला दिया जाता है, जिससे यह धीरे-धीरे सड़कर कार्बनिक पदार्थ के रूप में मिट्टी की उर्वरता बढ़ाती है।
(2) एक्स-सीटू प्रबंधन: इस पद्धति में पराली को खेत से बाहर निकालकर अन्य उपयोगी कार्यों में लिया जाता है।
- पशु आहार: धान के भूसे का पोषण स्तर सामान्य रूप से कम होता है, लेकिन इसे यूरिया उपचार (यूरेया ट्रीटमेंट) करने पर इसकी पौष्टिकता बढ़ जाती है। यह दुबले मौसम में पशुओं के लिए उपयोगी चारे के रूप में काम आता है।
- मशरूम उत्पादन: पराली ऑयस्टर मशरूम की खेती के लिए महत्वपूर्ण कच्चा माल है। इससे किसान मशरूम उत्पादन करके अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं।
- कम्पोस्ट / वर्मी-कम्पोस्ट: धान की पराली को कम्पोस्ट या वर्मी-कम्पोस्ट में परिवर्तित करके उच्च गुणवत्ता की जैविक खाद तैयार की जा सकती है, जिससे मिट्टी की उर्वरता और फसल की गुणवत्ता सुधरती है।
- बायो-एनर्जी / ब्रिकेट्स: धान का भूसा बायो-ब्रिकेट्स और पैलेट्स बनाने में भी उपयोग होता है। ये ऊर्जा उत्पादन और घरेलू ईंधन के लिए उपयोगी विकल्प हैं, जो परंपरागत कोयले और लकड़ी पर निर्भरता कम करते हैं।
ट्रैक्टर चलित बेलर मशीन से फसल अवशेष प्रबंधन:
बेलर मशीन एक ऐसा कृषि यंत्र है जो पराली/फसल अवशेष को बेल (गांठ) बनाकर खेतों से एकत्र करती है। यह मशीन फसल कटाई के बाद खेत में बचे हुए फसल अवशेष को इकट्ठा कर बेल के रूप में संपीड़ित कर देती है, जिससे अवशेष को आसानी से संग्रहित, परिवहन और उपयोग किया जा सके। इस मशीन की मदद से विभिन्न प्रकार की फसलों जैसे धान, गेहूं, सोयाबीन आदि के अवशेष का बेहतर प्रबंधन किया जा सकता है। बेलर मशीन के उपयोग से खेत साफ-सुथरे रहते हैं और फसल अवशेष का उपयोग चारे, ईंधन या अन्य कार्यों में किया जा सकता है। इससे न केवल पर्यावरण को प्रदूषण से बचाया जा सकता है, बल्कि किसानों को अतिरिक्त आय भी प्राप्त होती है।
कृषि बेलर मशीन से किसानों को अनेक लाभ प्राप्त होते हैं। पहला, इससे चारा में वृद्धि होती है क्योंकि यह मशीन फसल अवशेष को सुव्यवस्थित ढंग से एकत्र करती है और चारे के रूप में उपलब्ध कराती है। दूसरा, यह खरपतवार नियंत्रण में मदद करती है क्योंकि खेत में अवशेष बचे नहीं रहने से खरपतवार कम उगते हैं। तीसरा, यह पर्यावरण संरक्षण में सहायक है क्योंकि फसल अवशेष को खेतों में जलाने की आवश्यकता नहीं रहती, जिससे वायु प्रदूषण कम होता है। चौथा, किसान इन अवशेषों को बेचकर अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं।
बेलर मशीन के प्रभावी उपयोग के लिए कुछ सावधानियों का पालन करना आवश्यक है। मशीन की नियमित मरम्मत जरूरी है, मशीन चलाते समय सुरक्षा नियमों का पालन करना चाहिए तथा समय-समय पर सही रखरखाव करना अनिवार्य है।
(3) सूक्ष्मजीवी अपघटन: धान की पराली का सबसे सरल और पर्यावरण अनुकूल तरीका है इसका सूक्ष्मजीवों द्वारा अपघटन। पुसा डीकम्पोज़र या अन्य सूक्ष्मजीवी कल्चर खेत में छिड़काव करने पर पराली 20–25 दिनों में सड़कर पूरी तरह खाद में बदल जाती है। इससे मिट्टी में जैविक पदार्थ की मात्रा बढ़ती है, पोषक तत्वों की उपलब्धता सुधरती है और अगले मौसम की फसल के लिए खेत तैयार हो जाता है।
धान की पराली के सही प्रबंधन के लाभ
धान की पराली का सही प्रबंधन किसानों, पर्यावरण और समाज सभी के लिए अनेक लाभ प्रदान करता है। सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे मिट्टी का स्वास्थ्य और उर्वरता सुधरती है। जब पराली को खेत में ही मिलाया या सड़ाया जाता है तो यह मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ और आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति करती है, सूक्ष्मजीव गतिविधि को बढ़ाती है और मिट्टी की संरचना को बेहतर बनाती है, जिससे दीर्घकाल में फसल उत्पादन क्षमता बढ़ती है। इसके साथ ही, पराली प्रबंधन से उपज लागत कम होती है, क्योंकि पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण से रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता घटती है। पराली को उपचारित करके पशुओं के चारे के रूप में भी उपयोग किया जा सकता है, जिससे दुबले मौसम में चारे पर होने वाला खर्च कम होता है। इसके अलावा, पराली का उपयोग करके किसान अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं। इसे मशरूम उत्पादन, कम्पोस्ट या वर्मी-कम्पोस्ट निर्माण, बायो-ब्रिकेट्स तथा ऊर्जा उत्पादों में प्रयोग किया जा सकता है, जो न केवल आय के नए स्रोत खोलते हैं बल्कि अपशिष्ट को मूल्यवान संसाधन में बदलते हैं। सही प्रबंधन से पराली जलाने की आवश्यकता नहीं रहती, जिससे प्रदूषण रुकता है और पर्यावरण व मानव स्वास्थ्य सुरक्षित रहता है। समग्र रूप से देखा जाए तो पराली का वैज्ञानिक प्रबंधन जलवायु-स्मार्ट और सतत खेती को बढ़ावा देता है, जो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के साथ किसानों की आजीविका और उत्पादकता दोनों को सुदृढ़ करता है।
सरकारी योजनाएँ एवं सहयोग
1. फसल अवशेष प्रबंधन योजना
सरकार द्वारा फसल अवशेष प्रबंधन योजना के अंतर्गत किसानों को आधुनिक कृषि यंत्रों जैसे हैप्पी सीडर, सुपर सीडर, रोटावेटर आदि पर अनुदान (सब्सिडी) उपलब्ध कराया जाता है, ताकि किसान इनका उपयोग आसानी से कर सकें और पराली जलाने के बजाय खेत में ही उसका वैज्ञानिक प्रबंधन कर सकें।
2. कस्टम हायरिंग सेंटर
किसानों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कस्टम हायरिंग सेंटर (CHCs) की स्थापना की है। इन केंद्रों से किसान आवश्यक कृषि मशीनरी को किफायती किराए पर प्राप्त कर सकते हैं। इससे छोटे और सीमांत किसान भी आधुनिक यंत्रों का लाभ उठा सकते हैं।
3. जागरूकता एवं प्रशिक्षण कार्यक्रम
किसानों को पराली प्रबंधन के लाभ और तकनीकी पहलुओं की जानकारी देने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र (KVKs) और कृषि विभाग समय-समय पर जागरूकता अभियान, प्रशिक्षण कार्यक्रम और प्रदर्शनियों का आयोजन करते हैं। इन गतिविधियों का उद्देश्य किसानों को वैकल्पिक उपायों के प्रति प्रेरित करना और सतत खेती की दिशा में आगे बढ़ाना है।
निष्कर्ष
पराली जलाना हानिकारक और अपव्ययी प्रक्रिया है, जिससे मिट्टी की उर्वरता घटती है, प्रदूषण बढ़ता है और स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ता है। किसान यदि पराली का इन-सीटू या एक्स-सीटू प्रबंधन अपनाएँ तो न केवल पर्यावरण की रक्षा होगी बल्कि मिट्टी का स्वास्थ्य सुधरेगा और किसानों की आय में भी वृद्धि होगी। इसलिए आवश्यक है कि किसान “पराली को समस्या नहीं, संसाधन समझें।”

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