डॉ. संदीप तांडव (पीएचडी) वानिकी विभाग
डॉ. ज्योति सिन्हा (पीएचडी) वानिकी विभाग
डॉ. प्रताप टोप्पो (सहायक प्राध्यापक)वानिकी विभाग
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय रायपुर छत्तीसगढ़
परिचय
कृषि वानिकी में बाँस को मुख्यत: खेत की सीमा, खेत के बीच कतारों में या ब्लॉक प्लांटटेशन विधि द्वारा समायोजित कर सकते हैं। बाँस आधारित कृषिवानिकी में लगभग सभी तरह की फसलें उगाई जा सकती है, जैसे की उड़द, मूंग, तिल, मूंगफली, गेहूं, चना आदि। बाँस में रेशेदार जड़ों के कारण इसमें मृदा संरक्षण की क्षमता रहती है तथा यह वायु अवरोधन का कार्य करता है। इसके अतिरिक्त बाँस के बहुत से बहुमूल्य उत्पादों के कारण यह कृषिवानिकी के लिए बहुत ही उपयोगी है। बाँस को विभिन्न कृषिवानिकी पद्धतियों जैसे की कृषिवन, वैन चरागाह, कृषि वन चरागाह, कृषि वन उद्यानिकी आदि के द्वारा समायोजित किया जा सकता है।
बाँस एक चिरस्थायी बहुमुखी प्राकृतिक संसाधन है तथा यह भारतीय संस्कृति का एक अविभाज्य अंग है। बाँस की विशाल विविधता के कारण यह अनेक तरह के वातावरण के अनुकूल स्वयं को ढाल सकता है। बाँस की इसी क्षमता के आधार पर यह लगभग सभी प्रकार की मिट्टी एवं पर्णपाती, अर्द्धसदाबहार, आर्द्र, उपोष्ण उष्णकटिबंधीय तथा शीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में पाया जाता है। भारतीय किसान बाँस अपने घरों के इर्द – गिर्द खेतों की मेड़ों पर अपनी जीविका अर्जन के उद्देश्य से प्राचीन समय से ही लगा रहे हैं। बाँस घास परिवार पोएसी से सम्बन्ध रखता है। विश्व भर में बाँस की लगभग 155 वंश और 1,300 प्रजातियां हैं। भारत में बाँस की 23 एवं 58 प्रजातियां पाई जाती है, जिसमें अधिकतर पूर्वोतर क्षेत्र में पाई जाती हैं। मुख्य रूप से डेन्ड्रोकैलेसैम स्ट्राक्ट्स (45 प्रतिशत), बैम्बूसा बैम्बोस (13 प्रतिशत) और डेन्ड्रोकैलेसैम हैमिलटोनाई (7 प्रतिशत) प्रजातियाँ भारत में पाई जाती हैं। बाँस वृक्षारोपण हेतु पौध मुख्यत: बीज प्रकंदों (राइजोम), अंकुरित बाँस तनों, परत विधि (लेयरिंग) तने की कलम (कलम कटिंग), ऊतक संवर्धन (टिश्यू कल्चर) द्वारा तैयार की जा सकती है।
बाँस आधरित कृषि वानिकी से निम्नलिखित संभावित उपयोग/लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं
अक्षय ऊर्जा का स्रोत
कृषिवानिकी के माध्यम से प्राप्त किया गया बाँस बायो एनर्जी के रूप में उपयोग किया जा सकता है। एक किलो बाँस से एक घंटे में गैसीफायर के द्वार लगभग 1500 वाट बिजली पैदा की जा सकती है। इसके अतिरिक्त बाँस के इस्तेमाल से लकड़ी के प्रयोग में कमी लाई जा सकती है, जिससे की हमारे बेशकीमती वनों को बचाया जा सकता है।
पर्यावरण संबंधी लाभ
- बाँस, ऑक्सीजन उत्सर्जन के मामले में सबसे आगे हैं और भूमि क्षरण को रोकते हैं।
- आजीविका का दीर्धकालिक साधन
- बाँस लगभग 5 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार दे सकता है। विशेषकर उन करीब लोगों के लिए जिनका जीवन वनों पर आश्रित है। गरीब किसान के लिए खाद्यान्न के साथ – साथ जीविकोपार्जन के लिए बाँस आधारित कृषिवानिकी सर्वोत्तम है।
खाद्य पदार्थ
बाँस के आचार के साथ – साथ अब बाँस से नूडल्स, कैंडी और पापड़ भी बनाए जा सकते हैं। इनमें मौजूद प्रोटीन, कैल्सियम व फाइबर के कारण ये उत्पाद सेहत के लिए बेहद लाभकारी है।
लकड़ी का विकल्प एवं आर्थिक लाभ
बाँस आधारित कृषिवानिकी के माध्यम से प्राप्त बाँस को औद्योगिक प्रक्षेत्र में जैसे कागज उद्योग, चारकोल, बाँस द्वारा निर्मित घर, बाँस के फर्नीचर इत्यादि में प्रयोग किया जा सकता है। एसोचैम के मुताबिक बाँस को लकड़ी के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जाये तो भारत सरकार के लगभग 7,000 करोड़ रूपये बचाए जा सकते हैं।
बाँस के लिए उन्नत कृषि क्रियाएँ
बाँस को भारी मिट्टी तथा जल स्रोत के किनारे लगाने से उसकी बढ़वार अच्छी होती है। तेज बढ़ने की प्रकृति के कारण इसे अधिक जल एवं पोषक तत्व की आवश्यकता होती है। पर्णपाती होने की वजह से यह पोषक तत्वों का परिचक्रण और नमी संरक्षण एवं उपयोग भलीभांति करता है। व्यवासायिक काश्त के लिए इसे मेड़ पर 4 मीटर की दूरी पर लगाना चाहिए। कृषिवानिकी के अंतर्गत खेत में 10 मीटर की दूरी रोपण दीर्घकाल तक फसलोत्पादन और बाँस की पैदावार ली जा सकती है। कृषिवानिकी में फसल को दी जाने वाली सिंचाई का लाभ बाँस को भी मिलता है। प्रत्यक्षत: अल्प सिंचित दशा में बाँस की बढ़वार सिंचित दशा की अपेक्षा कम होती है। तथापि गुण धर्म के अनुसार अन्य वृक्षों की अपेक्षा बाँस से अधिक जैवपुंज का उत्पादन मिलता है। उपोष्ण जलवायु दशाओं में इसका रोपण जूलाई – अगस्त (मानसून) में करना चाहिए। रोपण हेतु पौधे बीज, शाखा कलम अथवा राइजोम से तैयार किये जाते हैं। तैयार पौधों को निर्दिष्ट स्थान पर 50x50x50 सें. मी. के गड्ढों में 4 -5 किग्रा. सड़ी गोबर की खाद तथा 100 ग्राम एमओपी प्रति गड्ढे में मिलाकर रोपण करना चाहिए। रोपण उपरांत सिंचाई आवश्यक है। पौधों पर मिट्टी अवश्य चढ़ानी चाहिए। इससे नये कल्लों का विकास अच्छा होता है। चार वर्ष पश्चात बाँस के कल्ले काटने योग्य हो जाते हैं। इनकी कटान चयनित कल्लों की कटान के आधार पर की जाती है।
सारणी 1 – बाँस आधारित कृषिवानिकी में जलवायु के आधार पर प्रमुख फसलें
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प्रजाति |
जलवायु |
प्रमुख फसलें |
बाँस का संभावित उपयोग |
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बैम्बूसा बैलकौआ |
आर्द्र कटिबंधीय |
अदरक, हल्दी,
अरबी |
भवन निर्माण,सामग्री, चीप उद्योग |
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बैम्बूसा बैम्बोस |
आर्द्र कटिबंधीय एवं अर्द्धशुष्क |
सोयाबीन, सरसों, |
कृषि उपकरण, कागज उद्योग |
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बैम्बूसा नूतन्स |
आर्द्र कटिबंधीय एवं हिमालय |
घास |
लकड़ी और कागज उद्योग |
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डैड्रोकैलेमस स्ट्रिक्टस |
अर्द्धशुष्क |
चना, मसूर,
घास, अदरक |
भूमि पुनरूद्धार, कागज उद्योग |
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डैड्रोकैलेमस एसपर |
उष्णकटिबंधीय |
गेहूं |
भवन निर्माण |
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बैम्बूसा बलगैरसी |
आर्द्र कटिबंधीय |
घास, स्टाइलो |
कागज़ उद्योग, हस्त हस्त शिल्प |
बाँस की प्रमुख विशेषताएं
- बाँस की जैविक विशेषता के कारण यह वातावरण में उपस्थित CO2 के स्तर को अवशोषित कर लगभग 35 प्रतिशत ऑक्सीजन वातावरण में विसर्जित करता है।
- बाँस की बढ़ोतरी बहुत तेजी से होती है तथा इसका जीवन चक्र छोटा होता है। बाँस की कुछ प्रजातियाँ प्रत्येक दिन में एक मोटर से भी अधिक बढ़ती हैं।
- कटाई के उपरांत बाँस के विस्तृत मूलतंत्र से बिना किसी रोपण या जुताई के नयी परोह उत्पन्न हो जाती है। बाँस की जड़ें कटाई के बाद भी अपनी जगह से नहीं हटतीं, इसलिए मृदाक्षरण को रोकने में सहायक होती हैं।
- बाँस की विभिन्न विशेषताओं के कारण इसके 1,500 से अधिक उपयोग विभिन्न दस्तावेजों में अंकित मिलते हैं।
- यह जैविक उत्पादन में सर्वप्रमुख है तथा यह लगभग 40 टन प्रति हे. प्रति वर्ष का उत्पादन दे सकता है।
- अभियांत्रिक क्षमताओं में बाँस समभार फौलाद का मुकाबला कर सकता है।

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