अमर नाथ, पी.एचडी. शोधार्थी शस्य विज्ञान विभाग,
कृष्णा, पी.एचडी. शोधार्थी,शस्य विज्ञान विभाग,
टोसन कुमार साहू, पी.एचडी. शोधार्थी,शस्य विज्ञान विभाग,
कृषि महाविद्यालय, आईजीकेवी, रायपुर सीजी 492012


परिचय:
भारत एक कृषि प्रधान देश है जहाँ धान (चावल) प्रमुख खाद्य फसलों में से एक है। देश की बड़ी जनसंख्या की आजीविका धान की खेती पर निर्भर करती है। पारंपरिक रूप से धान की खेती में अधिक मात्रा में पानी, श्रम और समय की आवश्यकता होती है। वर्तमान समय में जल संकट, श्रमिकों की कमी और उत्पादन लागत में वृद्धि जैसी समस्याओं को देखते हुए, किसान अब ऐसी तकनीकों की ओर आकर्षित हो रहे हैं जो कम लागत, कम पानी और अधिक उत्पादन प्रदान कर सकें।

धान की लेही विधि ऐसी ही एक आधुनिक और लाभकारी तकनीक है, जिसमें खेत की तैयारी के लिए लेही (एक प्रकार का पाटा) का उपयोग कर मिट्टी को समतल और महीन किया जाता है। इसमें, बीज को पहले भिगोकर अंकुरित किया जाता है, फिर खेत में छिड़का जाता है।, जिससे रोपाई की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। यह विधि विशेष रूप से उन क्षेत्रों में अधिक लाभकारी सिद्ध हो रही है जहाँ पानी की उपलब्धता सीमित है। लेही विधि, परंपरागत विधियों की तुलना में कम लागत और बेहतर लाभ देने वाली तकनीक के रूप में किसानों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रही है।

लेही विधि क्या है?
लेही विधि धान की खेती की एक आधुनिक और वैज्ञानिक पद्धति है, जिसमें खेत को विशेष प्रकार से समतल और भुरभुरा बनाकर बीज की सीधी बुवाई की जाती है, और रोपाई की आवश्यकता नहीं होती। इस विधि में खेत की तैयारी के अंतिम चरण में एक विशेष यंत्र जिसे "लेही" या समतल पाटा कहा जाता है, चलाया जाता है। यह यंत्र मिट्टी को महीन, समतल और पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए उपयुक्त बनाता है।

इस विधि में पानी भरकर धान की नर्सरी नहीं बनाई जाती, बल्कि बीज सीधे खेत में बोए जाते हैं। इसे डायरेक्ट सीडेड राइस (DSR) की एक सरल और देशज तकनीक भी कहा जा सकता है।

सरल शब्दों में:
लेही विधि वह तकनीक है जिसमें पारंपरिक धान की रोपाई को हटाकर खेत को समतल करके बीज सीधे बो दिए जाते हैं, जिससे खेती करना आसान, सस्ता और जल संरक्षण करने वाला बनता है।

लेही विधि की प्रमुख विशेषताएँ:
लेही विधि पारंपरिक धान की खेती की तुलना में सरल, किफायती और अधिक लाभकारी पद्धति है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

1. रोपाई की आवश्यकता नहीं होती
इस विधि में धान के बीज सीधे खेत में बोए जाते हैं, जिससे नर्सरी बनाने, रोपाई करने और श्रमिकों पर होने वाले खर्च की आवश्यकता नहीं होती।

2. कम पानी की जरूरत
पारंपरिक धान की खेती में खेतों में पानी भरकर रखा जाता है, जबकि लेही विधि में केवल आवश्यकता अनुसार सिंचाई की जाती है। इससे 30-40% तक पानी की बचत होती है।

3. खेत की विशेष तैयारी (लेही चलाना)
खेत को समतल और भुरभुरा बनाने के लिए “लेही” नामक समतल पाटा चलाया जाता है, जिससे बीज का जमाव (germination) बेहतर होता है।

4. कम श्रम और लागत
रोपाई न होने से मजदूरों की जरूरत कम होती है। साथ ही ट्रैक्टर, पानी और श्रम पर आने वाला खर्च घटता है, जिससे कुल लागत कम हो जाती है।

5. अधिक और समान उत्पादन
बीजों की समान गहराई और दूरी पर बुवाई होने से पौधों की वृद्धि बेहतर होती है, जिससे फसल की उपज अधिक होती है।

6. फसल जल्दी तैयार होती है
चूँकि नर्सरी और रोपाई का समय बचता है, इसलिए फसल 7-10 दिन पहले तैयार हो जाती है, जिससे अगली फसल की बुवाई समय पर संभव होती है।

7. पर्यावरण हितैषी विधि
इस विधि से भूजल संरक्षण, मिट्टी की उर्वरता का संरक्षण और कीटनाशकों का सीमित उपयोग संभव है, जिससे पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

8. यंत्रों का उपयोग सरल
लेही, सीड ड्रिल, स्प्रेयर आदि यंत्रों का प्रयोग आसानी से किया जा सकता है, जिससे खेती यंत्रीकृत और आधुनिक बनती है।

1. भूमि की तैयारी (Preparation of Land):
लेही विधि से धान की सफल खेती के लिए खेत की भूमि को सही ढंग से तैयार करना अत्यंत आवश्यक होता है। उचित भूमि तैयारी से बीज का अंकुरण अच्छा होता है, खरपतवार कम उगते हैं और फसल की जड़ें मजबूत बनती हैं।

भूमि तैयारी की प्रक्रिया:

(i) पहली जुताई (Preliminary Tillage):
  • खेत की पहली जुताई ट्रैक्टर या देशी हल से करें।
  • खेत में यदि फसल के अवशेष हों तो पहले उसे साफ करें।
  • जुताई से पहले खेत को हल्की सिंचाई दी जा सकती है ताकि मिट्टी मुलायम हो जाए।

(ii) सूखी अवस्था में 2-3 बार जुताई (Dry Tillage):
  • खेत को सूखी अवस्था में 2-3 बार हल चलाकर भुरभुरा करें।
  • हर जुताई के बाद पाटा या हेरो (harrow) चलाकर मिट्टी की ढेले तोड़ें।

(iii) लेही चलाना (Leveling with Lehi):
  • अंतिम जुताई के बाद खेत में "लेही" नामक यंत्र चलाएं।
  • यह एक समतलीकरण यंत्र होता है जो मिट्टी को समतल और महीन बनाता है।
  • समतल भूमि में बीज समान गहराई पर गिरते हैं, जिससे अंकुरण समान होता है।

(iv) खेत की समतलीकरण और जल निकासी:
  • खेत में जल निकासी की अच्छी व्यवस्था करें ताकि वर्षा का पानी न रुके।
  • समतल खेत में सिंचाई समान रूप से होती है और खरपतवारों की वृद्धि कम होती है।

उपयुक्त भूमि:
  • दोसारी (दोमट), बलुई दोमट या हल्की से मध्यम भूमि उपयुक्त मानी जाती है।
  • ऐसी भूमि जहाँ जल भराव न हो, लेही विधि के लिए आदर्श होती है।

नोट: अगर खेत में ढलान अधिक है तो चारों ओर मेड़ बनाकर जल संरक्षण करें और लेही चलाने से पहले समतलीकरण अच्छे से करें।

2. बीज का चयन और उपचार (Seed Selection and Treatment):
लेही विधि में धान की अच्छी उपज के लिए उचित बीज का चयन और बीजोपचार (Seed Treatment) अत्यंत आवश्यक है। इससे न केवल बीज का अंकुरण बेहतर होता है, बल्कि प्रारंभिक अवस्था में रोगों और कीटों से भी बचाव होता है।

(i) बीज का चयन (Seed Selection):
अच्छी उपज देने वाले, रोग-प्रतिरोधी और जलवायु के अनुकूल किस्मों का चयन करना चाहिए।

अनुशंसित किस्में:

क्षेत्र

प्रमुख किस्में

समतल क्षेत्र

IR-64, MTU-1010, Swarna, Pusa-44

मध्यम ऊँचाई वाले क्षेत्र

Pusa Basmati-1, Pusa-1509, Narendra-359

कम पानी वाले क्षेत्र

DRR Dhan-42, Sahbhagi Dhan, Anjali

सुगंधित किस्में

Pusa Basmati-1121, Pusa Basmati-1509



बीज दर (Seed Rate):
  • प्रति हेक्टेयर 20–30 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है।
  • बीज की दर खेत की मिट्टी, किस्म और मौसम पर निर्भर करती है।

(ii) बीज उपचार (Seed Treatment):

1. रोग नियंत्रण हेतु फफूंदनाशक उपचार:
  • बीज को थायरम या कार्बेन्डाजिम (2-3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित करें।
  • इससे बीजजनित रोग जैसे ब्लास्ट, शीथ ब्लाइट, जड़ सड़न आदि से सुरक्षा मिलती है।

2. कीटों से सुरक्षा हेतु कीटनाशक उपचार:
आवश्यकता हो तो इमिडाक्लोप्रिड (1-2 मिली प्रति किग्रा बीज) से उपचार करें।

3. जैविक उपचार (वैकल्पिक):
ट्राइकोडर्मा, पीएसबी (Phosphate Solubilizing Bacteria), राइजोबियम, या एज़ोटोबैक्टर जैसे जैविक एजेंटों से बीज का उपचार किया जा सकता है।

4. बीज अंकुरण जाँच (Germination Test):
  • बुवाई से पहले नम कपड़े में 100 बीज लपेटकर 3-4 दिन रखें।
  • यदि 85% से अधिक बीज अंकुरित हो जाएं तो बीज उपयुक्त हैं।

बीज उपचार की विधि (प्राकृतिक):
  • एक बाल्टी पानी में दवा घोलें, बीज डालें और 30 मिनट तक भिगोकर छाया में सुखा लें।
  • सुखाने के बाद तुरंत बुवाई करें।

सावधानियाँ:
  • बीज उपचार के लिए हमेशा साफ पानी का उपयोग करें।
  • बीजों को उपचार के बाद धूप में न सुखाएं, छाया में सुखाएं।
  • बीज को हाथ में लेते समय दस्ताने पहनें या सावधानी बरतें।

3. बुवाई (Sowing):

धान की लेही विधि में बुवाई की प्रक्रिया पारंपरिक विधियों से अलग होती है, क्योंकि इसमें रोपाई नहीं की जाती, बल्कि सीधे बीज खेत में बोए जाते हैं। इस विधि में बुवाई की समयबद्धता, गहराई और दूरी का विशेष महत्व होता है ताकि अंकुरण अच्छा हो और पौधों की वृद्धि समान रूप से हो।

बुवाई का सही समय (Sowing Time):

क्षेत्र

बुवाई का समय

खरीफ सीजन (मॉनसून)

जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के तीसरे सप्ताह तक

रबी सीजन (पूर्वी भारत में कुछ क्षेत्रों में)

अक्टूबर नवंबर (सीमित क्षेत्रों में)


बुवाई से पहले खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए या हल्की सिंचाई करनी चाहिए।

बुवाई की विधियाँ (Sowing Methods):

छिटकवाँ बुवाई (Broadcasting):
  • बीज को हाथ से पूरे खेत में समान रूप से छिटक दें।
  • बाद में हल्की सिंचाई करें।
  • सस्ती और आसान विधि, परंतु पौधों की दूरी असमान हो सकती है।

बीज दर (Seed Rate):
  • 20–30 किलोग्राम बीज/हेक्टेयर पर्याप्त होता है।
  • बीज दर मिट्टी के प्रकार, किस्म और अंकुरण क्षमता पर निर्भर करती है।

सिंचाई के बाद देखभाल:

  • बुवाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करें।
  • अंकुरण के समय अधिक नमी आवश्यक होती है, परंतु पानी का भराव न हो।

सावधानियाँ:
  • बुवाई से पहले खरपतवारनाशक का छिड़काव (Pre-emergence) करें।
  • अधिक गहराई पर बीज न बोएं, इससे अंकुरण प्रभावित होगा।
  • बीज का समान वितरण करें ताकि पौधों की संख्या समान हो।

4. सिंचाई (Irrigation):
लेही विधि से धान की खेती में पारंपरिक धान की खेती की तुलना में बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है, क्योंकि इसमें खेतों में स्थायी जल भराव (standing water) नहीं किया जाता। यह विधि जल संरक्षण की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है और उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहाँ पानी की उपलब्धता सीमित है।

सिंचाई की मुख्य विशेषताएँ:

1. बुवाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई:
बुवाई पूरी होते ही खेत में हल्की सिंचाई करें ताकि बीजों के पास उचित नमी हो और अंकुरण बेहतर हो।

2. आवश्यकता आधारित सिंचाई (Need-based Irrigation):

  • फसल की वृद्धि अवस्था और मिट्टी की नमी के अनुसार 5–7 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें।
  • खेत में पानी भरने की बजाय मिट्टी को नमीयुक्त (moist) बनाए रखें।

3. प्रमुख अवस्थाओं पर सिंचाई करें:

अवस्था

सिंचाई की आवश्यकता

अंकुरण (Germination)

बुवाई के तुरंत बाद

कली निकलना (Tillering)

बुवाई के 20-25 दिन बाद

पुष्पन (Flowering)

अत्यंत आवश्यक

दूध अवस्था (Milk Stage)

भरपूर नमी आवश्यक

पकने की अवस्था

सिंचाई बंद करें, जल निकास रखें


4. जल भराव नहीं करें:
  • खेत में स्थायी जल भराव से न केवल जल की बर्बादी होती है, बल्कि पौधों की जड़ें सड़ सकती हैं।
  • केवल हल्की नमी बनाए रखना पर्याप्त है।

5. जल निकासी का ध्यान रखें:
भारी वर्षा की स्थिति में खेत से अतिरिक्त पानी को बाहर निकालने के लिए मेड़ व नालियों की उचित व्यवस्था रखें।

उपयोगी सिंचाई विधियाँ:
  • फर्रो सिंचाई (Furrow Irrigation)
  • नालीदार विधि (alternate wetting and drying – AWD) – जिससे पानी और समय दोनों की बचत होती है।

लाभ:
  • जल की 30–40% तक बचत
  • खरपतवार की वृद्धि में कमी
  • जड़ सड़न और रोगों से सुरक्षा
  • उत्पादन लागत में कमी

5. खरपतवार नियंत्रण (Weed Management):
लेही विधि से धान की खेती में खरपतवार (Weeds) एक बड़ी समस्या होती है, क्योंकि इसमें खेतों में स्थायी जल भराव नहीं होता, जिससे खरपतवारों को पनपने का अधिक अवसर मिल जाता है। यदि समय पर नियंत्रण न किया जाए, तो खरपतवार मुख्य फसल से पोषक तत्व, पानी, प्रकाश और स्थान की प्रतिस्पर्धा करके उपज में 30–50% तक की कमी ला सकते हैं।

खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ:

(i) रासायनिक नियंत्रण (Chemical Control):

1. प्री-इमर्जेंस (Pre-emergence) खरपतवारनाशक:
  • बुवाई के 2-3 दिन के भीतर, अंकुरण से पहले प्रयोग करें।
  • बूटाक्लोर 50 EC – 1.5 लीटर/हेक्टेयर
  • प्रीटिलाक्लोर 50 EC + सेफनर – 0.75–1.0 लीटर/हेक्टेयर
  • 500 लीटर पानी में घोलकर फ्लैट फैन नोजल से छिड़काव करें।

2. पोस्ट-इमर्जेंस (Post-emergence) खरपतवारनाशक:
  • बुवाई के 15-25 दिन बाद, जब खरपतवार उग आएं तब प्रयोग करें।
  • बिस्पाइरबैक सोडियम (Bispyrebac Sodium) – 250 मिली/हेक्टेयर
  • पेनोक्सासुलाम – 100 मिली/हेक्टेयर

सावधानी:
  • खरपतवारनाशक छिड़कते समय खेत में उचित नमी होनी चाहिए।
  • केवल अनुशंसित मात्रा में ही दवा मिलाएं और छिड़काव समान रूप से करें।

(ii) यांत्रिक और शारीरिक नियंत्रण (Mechanical & Manual Control):

  • हाथ से निराई-गुड़ाई: बुवाई के 20–25 और 40–45 दिन बाद करें।
  • कुडाल या खरपतवार निकालने वाली मशीनों का उपयोग करें (Weeder tools)।
  • कतारों में बोई गई फसल में खरपतवार हटाने वाले यंत्र (Cono weeder, rotary weeder) अधिक प्रभावी होते हैं।

(iii) जैविक नियंत्रण (Bio-weed Control):
  • खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए काली मिर्च या दलहनी फसल के अवशेषों का मल्चिंग की तरह उपयोग किया जा सकता है।
  • नीम की खली या गोमूत्र आधारित घोल का उपयोग भी प्रारंभिक अवस्था में किया जाता है।

सावधानियाँ:

  • खरपतवारनाशकों का प्रयोग हवा रहित शांत मौसम में करें।
  • उचित सुरक्षा साधन (ग्लव्स, मास्क) का उपयोग करें।
  • रासायनिक छिड़काव के बाद 24 घंटे तक सिंचाई न करें।

खरपतवार नियंत्रण का लाभ:
  • फसल को पर्याप्त पोषण और प्रकाश मिलता है।
  • रोग और कीटों का प्रकोप कम होता है।
  • उपज में 25–30% तक वृद्धि होती है।

6. खाद प्रबंधन (Nutrient Management):
लेही विधि से धान की खेती में संतुलित और समय पर खाद प्रबंधन अत्यंत आवश्यक होता है, क्योंकि यह सीधे फसल की उपज, गुणवत्ता और रोग-प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करता है। सही मात्रा में जैविक और रासायनिक खाद देने से पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं और उत्पादन में वृद्धि होती है।

मुख्य पोषक तत्वों की आवश्यकता (Major Nutrient Requirements):

पोषक तत्व

मात्रा (किग्रा/हेक्टेयर)

नाइट्रोजन (N)

100–120 किग्रा

फास्फोरस (P₂O₅)

50 किग्रा

पोटाश (K₂O)

40–50 किग्रा


यह मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर घटाई या बढ़ाई जा सकती है।

खाद देने की विधि (Fertilizer Application Schedule):


1. नाइट्रोजन (N):

नाइट्रोजन को तीन भागों में विभाजित करके दें:
  • 1/3 भाग बुवाई के 20 दिन बाद (Tillering stage)
  • 1/3 भाग 40–45 दिन बाद (Active tillering/PI stage)
  • 1/3 भाग 60–65 दिन बाद (Panicle initiation or booting stage)

2. फास्फोरस और पोटाश (P & K):
फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय बेसल डोज़ के रूप में खेत में मिलाएं।

जैविक खाद (Organic Manure):
  • बुवाई से पहले खेत में 10–15 टन/हेक्टेयर गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट मिला सकते हैं।
  • वर्मी कम्पोस्ट: 2–3 टन/हेक्टेयर भी उपयोगी है।
  • जैविक खाद मिट्टी की उर्वरता और जलधारण क्षमता बढ़ाते हैं

सूक्ष्म पोषक तत्व (Micronutrients):

तत्व

उपयोग की विधि

लक्षण

जिंक (ZnSO₄)

25 किग्रा/हेक्टेयर (बेसल डोज़)

पीली पत्तियाँ, रुकाव

सल्फर

20 किग्रा/हेक्टेयर

धीमी वृद्धि

आयरन

0.5% का घोल पत्तियों पर छिड़कें

पत्तियाँ पीली, हरापन कम



जैव उर्वरक (Bio-fertilizers):
  • एज़ोटोबैक्टर या एज़ोस्पाइरिलम – नाइट्रोजन स्थिरीकरण हेतु।
  • पीएसबी (Phosphate Solubilizing Bacteria) – फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ाने हेतु।
  • 1 किग्रा प्रति एकड़ बीज या मिट्टी में मिलाया जा सकता है।

सावधानियाँ:
  • सभी रासायनिक उर्वरकों को अनुशंसित मात्रा में ही प्रयोग करें।
  • मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही खाद की योजना बनाएं।
  • उर्वरकों को खरपतवारनाशकों या कीटनाशकों के साथ न मिलाएं।

खाद प्रबंधन के लाभ:
  • पौधों की तेजी से वृद्धि
  • अधिक कल्ले और बालियों का विकास
  • अधिक अनाज भराव और उत्पादन
  • मिट्टी की उर्वरता का संरक्षण

7. कीट और रोग नियंत्रण (Insect and Disease Management):
धान की फसल में कीट और रोगों का प्रकोप बहुत सामान्य है, विशेषकर जब खेत में पर्याप्त नमी, गर्मी और सघन पौध व्यवस्था हो। लेही विधि से खेती में चूंकि सीधी बुवाई होती है और खेतों में स्थायी जल भराव नहीं होता, इसलिए कुछ कीटों और रोगों का जोखिम बढ़ सकता है। समय पर पहचान और नियंत्रण आवश्यक है ताकि उपज को नुकसान से बचाया जा सके।

A. प्रमुख कीट (Major Insect Pests):

कीट का नाम

पहचान

नियंत्रण उपाय

तना छेदक (Stem Borer)

पत्तियाँ सूखकर "डेड हार्ट" बन जाती हैं

क्लोरपायरिफॉस 20EC @ 2.5 मिली/ली. पानी

गंधी कीट (Stink Bug)

दूध अवस्था में दानों में बदबू और दाग

मिथाइल पाराथियान या क्विनालफॉस का छिड़काव

भूरा टिड्डा (Brown Planthopper)

पौधों की जड़ में लगता है, सूखने लगता है

इमिडाक्लोप्रिड या थायमेथॉक्साम का छिड़काव

झुलसिया कीट (Leaf Folder)

पत्तियाँ मुड़ जाती हैं और खुरच जाती हैं

साइपरमेथ्रिन या डेल्टामेथ्रिन का छिड़काव

B. प्रमुख रोग (Major Diseases):

रोग का नाम

लक्षण

नियंत्रण उपाय

ब्लास्ट (Blast)

पत्तियों पर भूरे-भूरे धब्बे

ट्राइไซक्लाजोल या कार्बेन्डाजिम का छिड़काव

शीथ ब्लाइट (Sheath Blight)

तनों के नीचे सफेद या भूरे धब्बे

हेक्साकोनाजोल या फ्लूट्राफोल

झुलसा रोग (Brown Spot)

पत्तियों पर गोल भूरे धब्बे

थायरम + कार्बेन्डाजिम (2.5 ग्राम/लीटर पानी)

बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट (BLB)

पत्तियाँ किनारे से पीली और फिर सूख जाती हैं

स्ट्रेप्टोसाइक्लिन + कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का मिश्रण छिड़कें

 

C. रोकथाम के सामान्य उपाय (Preventive Measures):
  • स्वस्थ बीज का चयन करें और बीज उपचार जरूर करें।
  • फसल चक्र अपनाएं – धान के बाद दलहनी फसल लें।
  • खेत की साफ-सफाई रखें – पुराने फसल अवशेष न छोड़ें।
  • समय पर कटाई और सिंचाई करें, जिससे रोग फैलाव कम हो।
  • प्राकृतिक शत्रुओं (जैसे ट्राइकोग्राम्मा, लेडी बर्ड बीटल) को संरक्षण दें।

कीटनाशक/रसायन प्रयोग में सावधानियाँ:
  • दवाओं का अनुशंसित मात्रा में ही उपयोग करें।
  • छिड़काव के समय दस्ताने, मास्क और चश्मे का उपयोग करें।
  • दवा छिड़काव के बाद कम से कम 24 घंटे तक खेत में प्रवेश न करें।
  • दवाओं को बच्चों की पहुंच से दूर और छाया में रखें।

लाभ:
  • पौधों की वृद्धि सुचारु रहती है
  • उपज की गुणवत्ता और मात्रा में सुधार होता है
  • फसल पर जोखिम कम होता है

8. कटाई और उत्पादन (Harvesting and Yield):
लेही विधि से धान की खेती में कटाई का समय और तकनीक अत्यंत महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि समय पर कटाई से अनाज की गुणवत्ता बनी रहती है और नुकसान से बचा जा सकता है। चूंकि इस विधि में रोपाई नहीं होती और फसल सीधे बोई जाती है, इसलिए फसल जल्दी पककर तैयार होती है, जिससे कटाई जल्दी की जा सकती है और अगली फसल की बुवाई का समय भी बचता है।

कटाई का समय (Time of Harvesting):
  • जब धान की 80–85% बालियाँ सुनहरी हो जाएं और दाने सख्त हो जाएं, तब कटाई करनी चाहिए।
  • सामान्यतः धान की फसल 110–140 दिन में पककर तैयार हो जाती है (किस्म के अनुसार)।

ध्यान दें:
अत्यधिक देर से कटाई करने पर दानों के झरने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे उपज और गुणवत्ता दोनों प्रभावित होती हैं।

कटाई की विधियाँ (Methods of Harvesting):
1. हाथ से कटाई (Manual Harvesting):
  • दरांती या हंसिया से काटा जाता है।
  • श्रम अधिक लगता है परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में यह विधि आम है।

2. यांत्रिक कटाई (Mechanical Harvesting):
  • रीपर, हार्वेस्टर जैसे यंत्रों का प्रयोग कर कटाई की जाती है।
  • समय की बचत होती है और उत्पादन की क्षति कम होती है।

पौध सुखाना और मड़ाई (Drying and Threshing):
  • कटाई के बाद पौधों को 2–3 दिन तक धूप में सुखाएं।
  • फिर मड़ाई (थ्रेशिंग) करें – मशीन से या पारंपरिक विधि से।
  • अनाज को साफ कर छाया में सुखाएं ताकि नमी 12–14% तक रह जाए।

उत्पादन (Yield):

किस्म

औसत उत्पादन (क्विंटल/हेक्टेयर)

सामान्य किस्में

45–55 क्विंटल/हेक्टेयर

उच्च उपज देने वाली किस्में

55–65 क्विंटल/हेक्टेयर

संकर (Hybrid) किस्में

65–75 क्विंटल/हेक्टेयर


यदि लेही विधि में समय पर सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण, उर्वरक और रोग-कीट नियंत्रण किया गया हो, तो उत्पादन पारंपरिक विधि से अधिक हो सकता है।

कटाई के लाभ (लेही विधि में):
  • फसल जल्दी पकती है, जिससे कटाई जल्दी हो जाती है
  • उत्पादन में वृद्धि होती है
  • अनाज की गुणवत्ता अच्छी रहती है
  • अगली फसल की बुवाई के लिए समय मिलता है

9. लेही विधि के लाभ (Advantages of Lehi Method in Paddy Cultivation):
लेही विधि से धान की खेती एक उन्नत, जल-संवेदनशील और लागत-कटौती वाली तकनीक है, जो वर्तमान कृषि चुनौतियों जैसे श्रमिकों की कमी, जल संकट और बढ़ती लागत का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करती है। इसके अनेक लाभ हैं, जो न केवल उत्पादन बढ़ाते हैं, बल्कि किसान की आय और पर्यावरण दोनों को सुरक्षित रखते हैं।

मुख्य लाभ (Key Benefits):

क्र.

लाभ

विवरण

1.

कम पानी की आवश्यकता

पारंपरिक विधि की तुलना में 30–40% तक पानी की बचत होती है, क्योंकि खेतों में स्थायी जल भराव नहीं किया जाता।

2.

रोपाई नहीं करनी पड़ती

सीधे बीज बोने से श्रम की बचत होती है और फसल जल्दी तैयार होती है।

3.

कम लागत में खेती

ट्रैक्टर, पानी और मजदूरी पर खर्च कम होता है, जिससे प्रति हेक्टेयर कुल लागत घटती है।

4.

कम श्रमिकों की जरूरत

लेही विधि से श्रमिकों की निर्भरता घटती है, जो श्रम संकट वाले क्षेत्रों में लाभकारी है।

5.

समय की बचत

नर्सरी और रोपाई का समय बचने से फसल 7–10 दिन पहले तैयार हो जाती है।

6.

अधिक उत्पादन की संभावना

यदि सभी कृषि कार्य समय पर हों तो उत्पादन पारंपरिक विधि से 10–20% अधिक हो सकता है।

7.

खरपतवार नियंत्रण आसान

समय पर खरपतवारनाशक का प्रयोग करने से खरपतवारों को प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रित किया जा सकता है।

8.

मशीनों से खेती में सहूलियत

ट्रैक्टर, सीड ड्रिल, स्प्रेयर जैसे यंत्रों का प्रयोग सरल होता है।

9.

जैविक एवं रासायनिक खाद दोनों का बेहतर उपयोग

खाद और उर्वरक की सटीक मात्रा देना आसान होता है।

10.

जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल

यह विधि कम पानी और गर्म मौसम में भी सफल हो सकती है, जिससे यह भविष्य के लिए उपयुक्त है।

 

पर्यावरणीय लाभ (Environmental Benefits):
  • जल संरक्षण
  • मिट्टी की संरचना बनी रहती है
  • भूजल का दोहन कम होता है
  • ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी

निष्कर्ष:
लेही विधि एक वैज्ञानिक, पर्यावरण-संवेदनशील और लाभकारी पद्धति है जो छोटे और सीमांत किसानों के लिए भी उपयुक्त है। यदि इस विधि को सही ढंग से अपनाया जाए, तो यह देश के कई हिस्सों में धान की खेती को अधिक टिकाऊ और लाभकारी बना सकती है।

10. लेही विधि की सीमाएँ (Limitations of Lehi Method in Paddy Cultivation):
जहाँ लेही विधि धान की खेती में कई लाभ प्रदान करती है, वहीं इसके कुछ सीमाएँ और चुनौतियाँ भी हैं, जिन्हें समझना और सही तरीके से प्रबंधित करना आवश्यक है। इन सीमाओं का समाधान करके ही किसान इस विधि का पूर्ण लाभ उठा सकते हैं।

लेही विधि की प्रमुख सीमाएँ:

क्र.

सीमा

विवरण

1.

खरपतवार की अधिक समस्या

चूंकि खेत में स्थायी जल भराव नहीं होता, इसलिए खरपतवार अधिक पनपते हैं, जिससे शुरूआती 30-40 दिनों में विशेष ध्यान देना पड़ता है।

2.

शुरुआती अवस्था में कीट रोग का खतरा

अंकुरण के समय पौधे कमजोर होते हैं, जिससे स्टेम बोरर, लीफ फोल्डर जैसे कीट जल्दी हमला कर सकते हैं।

3.

उचित सिंचाई प्रबंधन की आवश्यकता

इस विधि में बार-बार हल्की सिंचाई जरूरी होती है, जिससे अधिक सतर्कता और प्रबंधन की जरूरत होती है।

4.

जमाव (Germination) में असमानता का खतरा

बीज की गहराई या मिट्टी में नमी की कमी होने पर अंकुरण असमान हो सकता है।

5.

बीजोपचार और खरपतवारनाशक की अनिवार्यता

यदि समय पर दवा का छिड़काव किया जाए तो उपज में भारी नुकसान हो सकता है।

6.

यांत्रिक बुवाई की जरूरत (यदि बड़े स्तर पर उत्पादन हो)

कतारों में बोआई के लिए बीज ड्रिल या यंत्र की आवश्यकता हो सकती है, जो सभी किसानों के पास नहीं होती।

7.

समतल भूमि की आवश्यकता

यह विधि असमतल या ढलानदार भूमि में प्रभावी नहीं होती, क्योंकि बीज एकसमान गहराई पर नहीं गिरते।

8.

परंपरागत किसानों में जागरूकता की कमी

कई किसान इस तकनीक से अनजान हैं या बदलाव के लिए तैयार नहीं होते, जिससे इसका विस्तार सीमित हो सकता है।



सम्भावित समाधान (Possible Solutions):
  • खरपतवार नियंत्रण हेतु समय पर रसायनों और यांत्रिक निराई करें
  • अंकुरण से पहले बीज उपचार अनिवार्य करें
  • खेत को समतल और भुरभुरा बनाएं
  • प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रमों द्वारा किसानों को तकनीक से परिचित कराएं
  • छोटे किसानों के लिए यंत्र किराए पर उपलब्ध कराएं

11. निष्कर्ष (Conclusion):
धान की खेती में लेही विधि एक नवीन, सरल, कम लागत वाली और जल-संवेदनशील तकनीक के रूप में तेजी से उभर रही है। यह पद्धति पारंपरिक रोपाई आधारित खेती की तुलना में कम पानी, कम श्रम और अधिक उत्पादन की संभावना प्रस्तुत करती है। इस विधि में खेत को समतल कर बीज की सीधी बुवाई की जाती है, जिससे फसल जल्दी तैयार होती है और अगली फसल के लिए समय मिलता है।

लेही विधि के माध्यम से किसान न केवल उत्पादन लागत में कमी ला सकते हैं, बल्कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का भी बेहतर ढंग से सामना कर सकते हैं। यह विधि उन क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है, जहाँ पानी की उपलब्धता सीमित है और श्रमिकों की कमी है।

हालाँकि, इसके कुछ सीमाएँ भी हैं, जैसे खरपतवार नियंत्रण की आवश्यकता, अंकुरण में सावधानी, और किसानों को प्रशिक्षण की आवश्यकता। लेकिन यदि इन बातों का ध्यान रखा जाए और वैज्ञानिक अनुशंसाओं का पालन किया जाए, तो यह विधि किसानों की आय में वृद्धि और खेती को टिकाऊ बनाने में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

अंत में कहा जा सकता है कि —
“लेही विधि एक ऐसा आधुनिक उपाय है, जो सीमित संसाधनों में अधिक लाभ, अधिक उत्पादन और बेहतर पर्यावरणीय संतुलन प्रदान कर सकती है। इसे अपनाकर किसान जल, श्रम और समय की बचत करते हुए समृद्धि की ओर बढ़ सकते हैं।”

12. संदर्भ (References):
लेही विधि पर आधारित इस लेख को तैयार करने के लिए विभिन्न प्रामाणिक स्रोतों से जानकारी एकत्रित की गई है। नीचे कुछ प्रमुख संदर्भ दिए गए हैं जिनसे यह सामग्री प्रेरित और पुष्ट की गई है:

पुस्तकें और शैक्षणिक स्रोत:
  • भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) – धान उत्पादन तकनीकी गाइड
  • कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) रिपोर्ट्स – धान की आधुनिक तकनीकें
  • राज्य कृषि विश्वविद्यालयों की अनुशंसाएं – जैसे: IARI, BHU, IGKV, TNAU
  • "धान उत्पादन की वैज्ञानिक विधियाँ" – डॉ. आर.के. शर्मा, प्रकाशित: कृषि प्रकाशन
  • "Field Crops Production and Management" – Dr. Reddy and A. Ranga Rao

ऑनलाइन एवं सरकारी पोर्टल्स:
  • agriinfo.in – धान की सीधी बुवाई पर तकनीकी जानकारी
  • farmer.gov.in – भारत सरकार का किसान पोर्टल
  • icar.org.in – कृषि अनुसंधान परिषद
  • rkvy.nic.in – राष्‍ट्रीय कृषि विकास योजना पोर्टल
  • pib.gov.in – प्रेस सूचना ब्यूरो (सरकारी योजनाओं की जानकारी)

मैदानी अनुभव और अनुसंधान पत्र:
  • कृषि वैज्ञानिकों और प्रगतिशील किसानों के फील्ड अनुभव
  • "Direct Seeded Rice: Recent Development and Future Research Needs" – अंतरराष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान (IRRI)