- खेत की पहली जुताई ट्रैक्टर या देशी हल से करें।
- खेत में यदि फसल के अवशेष हों तो पहले उसे साफ करें।
- जुताई से पहले खेत को हल्की सिंचाई दी जा सकती है ताकि मिट्टी मुलायम हो जाए।
- खेत को सूखी अवस्था में 2-3 बार हल चलाकर भुरभुरा करें।
- हर जुताई के बाद पाटा या हेरो (harrow) चलाकर मिट्टी की ढेले तोड़ें।
- अंतिम जुताई के बाद खेत में "लेही" नामक यंत्र चलाएं।
- यह एक समतलीकरण यंत्र होता है जो मिट्टी को समतल और महीन बनाता है।
- समतल भूमि में बीज समान गहराई पर गिरते हैं, जिससे अंकुरण समान होता है।
- खेत में जल निकासी की अच्छी व्यवस्था करें ताकि वर्षा का पानी न रुके।
- समतल खेत में सिंचाई समान रूप से होती है और खरपतवारों की वृद्धि कम होती है।
- दोसारी (दोमट), बलुई दोमट या हल्की से मध्यम भूमि उपयुक्त मानी जाती है।
- ऐसी भूमि जहाँ जल भराव न हो, लेही विधि के लिए आदर्श होती है।
क्षेत्र |
प्रमुख किस्में |
समतल क्षेत्र |
IR-64, MTU-1010, Swarna, Pusa-44 |
मध्यम ऊँचाई वाले क्षेत्र |
Pusa Basmati-1, Pusa-1509, Narendra-359 |
कम पानी वाले क्षेत्र |
DRR Dhan-42, Sahbhagi Dhan, Anjali |
सुगंधित किस्में |
Pusa Basmati-1121, Pusa Basmati-1509 |
बीज दर (Seed Rate):
- प्रति हेक्टेयर 20–30 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है।
- बीज की दर खेत की मिट्टी, किस्म और मौसम पर निर्भर करती है।
(ii) बीज उपचार (Seed Treatment):
1. रोग नियंत्रण हेतु फफूंदनाशक उपचार:
- बीज को थायरम या कार्बेन्डाजिम (2-3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित करें।
- इससे बीजजनित रोग जैसे ब्लास्ट, शीथ ब्लाइट, जड़ सड़न आदि से सुरक्षा मिलती है।
2. कीटों से सुरक्षा हेतु कीटनाशक उपचार:
आवश्यकता हो तो इमिडाक्लोप्रिड (1-2 मिली प्रति किग्रा बीज) से उपचार करें।
3. जैविक उपचार (वैकल्पिक):
ट्राइकोडर्मा, पीएसबी (Phosphate Solubilizing Bacteria), राइजोबियम, या एज़ोटोबैक्टर जैसे जैविक एजेंटों से बीज का उपचार किया जा सकता है।
- बुवाई से पहले नम कपड़े में 100 बीज लपेटकर 3-4 दिन रखें।
- यदि 85% से अधिक बीज अंकुरित हो जाएं तो बीज उपयुक्त हैं।
बीज उपचार की विधि (प्राकृतिक):
- एक बाल्टी पानी में दवा घोलें, बीज डालें और 30 मिनट तक भिगोकर छाया में सुखा लें।
- सुखाने के बाद तुरंत बुवाई करें।
सावधानियाँ:
- बीज उपचार के लिए हमेशा साफ पानी का उपयोग करें।
- बीजों को उपचार के बाद धूप में न सुखाएं, छाया में सुखाएं।
- बीज को हाथ में लेते समय दस्ताने पहनें या सावधानी बरतें।
3. बुवाई (Sowing):
धान की लेही विधि में बुवाई की प्रक्रिया पारंपरिक विधियों से अलग होती है, क्योंकि इसमें रोपाई नहीं की जाती, बल्कि सीधे बीज खेत में बोए जाते हैं। इस विधि में बुवाई की समयबद्धता, गहराई और दूरी का विशेष महत्व होता है ताकि अंकुरण अच्छा हो और पौधों की वृद्धि समान रूप से हो।
बुवाई का सही समय (Sowing Time):
क्षेत्र |
बुवाई का समय |
खरीफ सीजन (मॉनसून) |
जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के तीसरे सप्ताह तक |
रबी सीजन (पूर्वी भारत में कुछ क्षेत्रों में) |
अक्टूबर – नवंबर (सीमित क्षेत्रों में) |
बुवाई से पहले खेत में पर्याप्त नमी होनी चाहिए या हल्की सिंचाई करनी चाहिए।
बुवाई की विधियाँ (Sowing Methods):
छिटकवाँ बुवाई (Broadcasting):
- बीज को हाथ से पूरे खेत में समान रूप से छिटक दें।
- बाद में हल्की सिंचाई करें।
- सस्ती और आसान विधि, परंतु पौधों की दूरी असमान हो सकती है।
बीज दर (Seed Rate):
- 20–30 किलोग्राम बीज/हेक्टेयर पर्याप्त होता है।
- बीज दर मिट्टी के प्रकार, किस्म और अंकुरण क्षमता पर निर्भर करती है।
सिंचाई के बाद देखभाल:
- बुवाई के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करें।
- अंकुरण के समय अधिक नमी आवश्यक होती है, परंतु पानी का भराव न हो।
सावधानियाँ:
- बुवाई से पहले खरपतवारनाशक का छिड़काव (Pre-emergence) करें।
- अधिक गहराई पर बीज न बोएं, इससे अंकुरण प्रभावित होगा।
- बीज का समान वितरण करें ताकि पौधों की संख्या समान हो।
4. सिंचाई (Irrigation):
लेही विधि से धान की खेती में पारंपरिक धान की खेती की तुलना में बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है, क्योंकि इसमें खेतों में स्थायी जल भराव (standing water) नहीं किया जाता। यह विधि जल संरक्षण की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है और उन क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है जहाँ पानी की उपलब्धता सीमित है।
सिंचाई की मुख्य विशेषताएँ:
1. बुवाई के तुरंत बाद पहली सिंचाई:
बुवाई पूरी होते ही खेत में हल्की सिंचाई करें ताकि बीजों के पास उचित नमी हो और अंकुरण बेहतर हो।
2. आवश्यकता आधारित सिंचाई (Need-based Irrigation):
- फसल की वृद्धि अवस्था और मिट्टी की नमी के अनुसार 5–7 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें।
- खेत में पानी भरने की बजाय मिट्टी को नमीयुक्त (moist) बनाए रखें।
3. प्रमुख अवस्थाओं पर सिंचाई करें:
अवस्था |
सिंचाई की आवश्यकता |
अंकुरण (Germination) |
बुवाई के तुरंत बाद |
कली निकलना (Tillering) |
बुवाई के 20-25 दिन बाद |
पुष्पन (Flowering) |
अत्यंत आवश्यक |
दूध अवस्था (Milk Stage) |
भरपूर नमी आवश्यक |
पकने की अवस्था |
सिंचाई बंद करें, जल निकास रखें |
4. जल भराव नहीं करें:
- खेत में स्थायी जल भराव से न केवल जल की बर्बादी होती है, बल्कि पौधों की जड़ें सड़ सकती हैं।
- केवल हल्की नमी बनाए रखना पर्याप्त है।
5. जल निकासी का ध्यान रखें:
भारी वर्षा की स्थिति में खेत से अतिरिक्त पानी को बाहर निकालने के लिए मेड़ व नालियों की उचित व्यवस्था रखें।
उपयोगी सिंचाई विधियाँ:
- फर्रो सिंचाई (Furrow Irrigation)
- नालीदार विधि (alternate wetting and drying – AWD) – जिससे पानी और समय दोनों की बचत होती है।
लाभ:
- जल की 30–40% तक बचत
- खरपतवार की वृद्धि में कमी
- जड़ सड़न और रोगों से सुरक्षा
- उत्पादन लागत में कमी
5. खरपतवार नियंत्रण (Weed Management):
लेही विधि से धान की खेती में खरपतवार (Weeds) एक बड़ी समस्या होती है, क्योंकि इसमें खेतों में स्थायी जल भराव नहीं होता, जिससे खरपतवारों को पनपने का अधिक अवसर मिल जाता है। यदि समय पर नियंत्रण न किया जाए, तो खरपतवार मुख्य फसल से पोषक तत्व, पानी, प्रकाश और स्थान की प्रतिस्पर्धा करके उपज में 30–50% तक की कमी ला सकते हैं।
खरपतवार नियंत्रण की विधियाँ:
(i) रासायनिक नियंत्रण (Chemical Control):
1. प्री-इमर्जेंस (Pre-emergence) खरपतवारनाशक:
- बुवाई के 2-3 दिन के भीतर, अंकुरण से पहले प्रयोग करें।
- बूटाक्लोर 50 EC – 1.5 लीटर/हेक्टेयर
- प्रीटिलाक्लोर 50 EC + सेफनर – 0.75–1.0 लीटर/हेक्टेयर
- 500 लीटर पानी में घोलकर फ्लैट फैन नोजल से छिड़काव करें।
2. पोस्ट-इमर्जेंस (Post-emergence) खरपतवारनाशक:
- बुवाई के 15-25 दिन बाद, जब खरपतवार उग आएं तब प्रयोग करें।
- बिस्पाइरबैक सोडियम (Bispyrebac Sodium) – 250 मिली/हेक्टेयर
- पेनोक्सासुलाम – 100 मिली/हेक्टेयर
सावधानी:
- खरपतवारनाशक छिड़कते समय खेत में उचित नमी होनी चाहिए।
- केवल अनुशंसित मात्रा में ही दवा मिलाएं और छिड़काव समान रूप से करें।
(ii) यांत्रिक और शारीरिक नियंत्रण (Mechanical & Manual Control):
- हाथ से निराई-गुड़ाई: बुवाई के 20–25 और 40–45 दिन बाद करें।
- कुडाल या खरपतवार निकालने वाली मशीनों का उपयोग करें (Weeder tools)।
- कतारों में बोई गई फसल में खरपतवार हटाने वाले यंत्र (Cono weeder, rotary weeder) अधिक प्रभावी होते हैं।
(iii) जैविक नियंत्रण (Bio-weed Control):
- खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए काली मिर्च या दलहनी फसल के अवशेषों का मल्चिंग की तरह उपयोग किया जा सकता है।
- नीम की खली या गोमूत्र आधारित घोल का उपयोग भी प्रारंभिक अवस्था में किया जाता है।
सावधानियाँ:
- खरपतवारनाशकों का प्रयोग हवा रहित शांत मौसम में करें।
- उचित सुरक्षा साधन (ग्लव्स, मास्क) का उपयोग करें।
- रासायनिक छिड़काव के बाद 24 घंटे तक सिंचाई न करें।
खरपतवार नियंत्रण का लाभ:
- फसल को पर्याप्त पोषण और प्रकाश मिलता है।
- रोग और कीटों का प्रकोप कम होता है।
- उपज में 25–30% तक वृद्धि होती है।
6. खाद प्रबंधन (Nutrient Management):
लेही विधि से धान की खेती में संतुलित और समय पर खाद प्रबंधन अत्यंत आवश्यक होता है, क्योंकि यह सीधे फसल की उपज, गुणवत्ता और रोग-प्रतिरोधक क्षमता को प्रभावित करता है। सही मात्रा में जैविक और रासायनिक खाद देने से पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं और उत्पादन में वृद्धि होती है।
मुख्य पोषक तत्वों की आवश्यकता (Major Nutrient Requirements):
पोषक तत्व |
मात्रा (किग्रा/हेक्टेयर) |
नाइट्रोजन (N) |
100–120 किग्रा |
फास्फोरस (P₂O₅) |
50 किग्रा |
पोटाश (K₂O) |
40–50 किग्रा |
यह मात्रा मृदा परीक्षण के आधार पर घटाई या बढ़ाई जा सकती है।
खाद देने की विधि (Fertilizer Application Schedule):
1. नाइट्रोजन (N):
नाइट्रोजन को तीन भागों में विभाजित करके दें:
- 1/3 भाग बुवाई के 20 दिन बाद (Tillering stage)
- 1/3 भाग 40–45 दिन बाद (Active tillering/PI stage)
- 1/3 भाग 60–65 दिन बाद (Panicle initiation or booting stage)
2. फास्फोरस और पोटाश (P & K):
फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय बेसल डोज़ के रूप में खेत में मिलाएं।
जैविक खाद (Organic Manure):
- बुवाई से पहले खेत में 10–15 टन/हेक्टेयर गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट मिला सकते हैं।
- वर्मी कम्पोस्ट: 2–3 टन/हेक्टेयर भी उपयोगी है।
- जैविक खाद मिट्टी की उर्वरता और जलधारण क्षमता बढ़ाते हैं
सूक्ष्म पोषक तत्व (Micronutrients):
तत्व |
उपयोग की विधि |
लक्षण |
जिंक (ZnSO₄) |
25 किग्रा/हेक्टेयर (बेसल डोज़) |
पीली पत्तियाँ, रुकाव |
सल्फर |
20 किग्रा/हेक्टेयर |
धीमी वृद्धि |
आयरन |
0.5% का घोल पत्तियों पर छिड़कें |
पत्तियाँ पीली, हरापन कम |
जैव उर्वरक (Bio-fertilizers):
- एज़ोटोबैक्टर या एज़ोस्पाइरिलम – नाइट्रोजन स्थिरीकरण हेतु।
- पीएसबी (Phosphate Solubilizing Bacteria) – फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ाने हेतु।
- 1 किग्रा प्रति एकड़ बीज या मिट्टी में मिलाया जा सकता है।
सावधानियाँ:
- सभी रासायनिक उर्वरकों को अनुशंसित मात्रा में ही प्रयोग करें।
- मिट्टी परीक्षण के आधार पर ही खाद की योजना बनाएं।
- उर्वरकों को खरपतवारनाशकों या कीटनाशकों के साथ न मिलाएं।
खाद प्रबंधन के लाभ:
- पौधों की तेजी से वृद्धि
- अधिक कल्ले और बालियों का विकास
- अधिक अनाज भराव और उत्पादन
- मिट्टी की उर्वरता का संरक्षण
7. कीट और रोग नियंत्रण (Insect and Disease Management):
धान की फसल में कीट और रोगों का प्रकोप बहुत सामान्य है, विशेषकर जब खेत में पर्याप्त नमी, गर्मी और सघन पौध व्यवस्था हो। लेही विधि से खेती में चूंकि सीधी बुवाई होती है और खेतों में स्थायी जल भराव नहीं होता, इसलिए कुछ कीटों और रोगों का जोखिम बढ़ सकता है। समय पर पहचान और नियंत्रण आवश्यक है ताकि उपज को नुकसान से बचाया जा सके।
A. प्रमुख कीट (Major Insect Pests):
कीट का नाम |
पहचान |
नियंत्रण उपाय |
तना छेदक (Stem Borer) |
पत्तियाँ सूखकर "डेड हार्ट" बन जाती हैं |
क्लोरपायरिफॉस 20EC @ 2.5 मिली/ली. पानी |
गंधी कीट (Stink Bug) |
दूध अवस्था में दानों में बदबू और दाग |
मिथाइल पाराथियान या क्विनालफॉस का छिड़काव |
भूरा टिड्डा (Brown Planthopper) |
पौधों की जड़ में लगता है, सूखने लगता है |
इमिडाक्लोप्रिड या थायमेथॉक्साम का छिड़काव |
झुलसिया कीट (Leaf Folder) |
पत्तियाँ मुड़ जाती हैं और खुरच जाती हैं |
साइपरमेथ्रिन या डेल्टामेथ्रिन का छिड़काव |
B. प्रमुख रोग (Major Diseases):
रोग का नाम |
लक्षण |
नियंत्रण उपाय |
ब्लास्ट (Blast) |
पत्तियों पर भूरे-भूरे धब्बे |
ट्राइไซक्लाजोल या कार्बेन्डाजिम का छिड़काव |
शीथ ब्लाइट (Sheath Blight) |
तनों के नीचे सफेद या भूरे धब्बे |
हेक्साकोनाजोल या फ्लूट्राफोल |
झुलसा रोग (Brown Spot) |
पत्तियों पर गोल भूरे धब्बे |
थायरम + कार्बेन्डाजिम (2.5 ग्राम/लीटर पानी) |
बैक्टीरियल लीफ ब्लाइट (BLB) |
पत्तियाँ किनारे से पीली और फिर सूख जाती हैं |
स्ट्रेप्टोसाइक्लिन + कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का मिश्रण छिड़कें |
- स्वस्थ बीज का चयन करें और बीज उपचार जरूर करें।
- फसल चक्र अपनाएं – धान के बाद दलहनी फसल लें।
- खेत की साफ-सफाई रखें – पुराने फसल अवशेष न छोड़ें।
- समय पर कटाई और सिंचाई करें, जिससे रोग फैलाव कम हो।
- प्राकृतिक शत्रुओं (जैसे ट्राइकोग्राम्मा, लेडी बर्ड बीटल) को संरक्षण दें।
- दवाओं का अनुशंसित मात्रा में ही उपयोग करें।
- छिड़काव के समय दस्ताने, मास्क और चश्मे का उपयोग करें।
- दवा छिड़काव के बाद कम से कम 24 घंटे तक खेत में प्रवेश न करें।
- दवाओं को बच्चों की पहुंच से दूर और छाया में रखें।
- पौधों की वृद्धि सुचारु रहती है
- उपज की गुणवत्ता और मात्रा में सुधार होता है
- फसल पर जोखिम कम होता है
- जब धान की 80–85% बालियाँ सुनहरी हो जाएं और दाने सख्त हो जाएं, तब कटाई करनी चाहिए।
- सामान्यतः धान की फसल 110–140 दिन में पककर तैयार हो जाती है (किस्म के अनुसार)।
- दरांती या हंसिया से काटा जाता है।
- श्रम अधिक लगता है परंतु ग्रामीण क्षेत्रों में यह विधि आम है।
- रीपर, हार्वेस्टर जैसे यंत्रों का प्रयोग कर कटाई की जाती है।
- समय की बचत होती है और उत्पादन की क्षति कम होती है।
- कटाई के बाद पौधों को 2–3 दिन तक धूप में सुखाएं।
- फिर मड़ाई (थ्रेशिंग) करें – मशीन से या पारंपरिक विधि से।
- अनाज को साफ कर छाया में सुखाएं ताकि नमी 12–14% तक रह जाए।
किस्म |
औसत उत्पादन (क्विंटल/हेक्टेयर) |
सामान्य किस्में |
45–55 क्विंटल/हेक्टेयर |
उच्च उपज देने वाली किस्में |
55–65 क्विंटल/हेक्टेयर |
संकर (Hybrid) किस्में |
65–75 क्विंटल/हेक्टेयर |
- फसल जल्दी पकती है, जिससे कटाई जल्दी हो जाती है
- उत्पादन में वृद्धि होती है
- अनाज की गुणवत्ता अच्छी रहती है
- अगली फसल की बुवाई के लिए समय मिलता है
क्र. |
लाभ |
विवरण |
1. |
कम पानी की आवश्यकता |
पारंपरिक विधि की तुलना में 30–40% तक पानी की बचत होती है, क्योंकि खेतों में स्थायी जल भराव नहीं किया जाता। |
2. |
रोपाई नहीं करनी पड़ती |
सीधे बीज बोने से श्रम की बचत होती है और फसल जल्दी तैयार होती है। |
3. |
कम लागत में खेती |
ट्रैक्टर, पानी और मजदूरी पर खर्च कम होता है, जिससे प्रति हेक्टेयर कुल लागत घटती है। |
4. |
कम श्रमिकों की जरूरत |
लेही विधि से श्रमिकों की निर्भरता घटती है, जो श्रम संकट वाले क्षेत्रों में लाभकारी है। |
5. |
समय की बचत |
नर्सरी और रोपाई का समय बचने से फसल 7–10 दिन पहले तैयार हो जाती है। |
6. |
अधिक उत्पादन की संभावना |
यदि सभी कृषि कार्य समय पर हों तो उत्पादन पारंपरिक विधि से 10–20% अधिक हो सकता है। |
7. |
खरपतवार नियंत्रण आसान |
समय पर खरपतवारनाशक का प्रयोग करने से खरपतवारों को प्रारंभिक अवस्था में नियंत्रित किया जा सकता है। |
8. |
मशीनों से खेती में सहूलियत |
ट्रैक्टर, सीड ड्रिल, स्प्रेयर जैसे यंत्रों का प्रयोग सरल होता है। |
9. |
जैविक एवं रासायनिक खाद दोनों का बेहतर उपयोग |
खाद और उर्वरक की सटीक मात्रा देना आसान होता है। |
10. |
जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल |
यह विधि कम पानी और गर्म मौसम में भी सफल हो सकती है, जिससे यह भविष्य के लिए उपयुक्त है। |
- जल संरक्षण
- मिट्टी की संरचना बनी रहती है
- भूजल का दोहन कम होता है
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी
क्र. |
सीमा |
विवरण |
1. |
खरपतवार की अधिक समस्या |
चूंकि खेत में स्थायी जल भराव नहीं होता, इसलिए खरपतवार अधिक पनपते हैं, जिससे शुरूआती 30-40 दिनों में विशेष ध्यान देना पड़ता है। |
2. |
शुरुआती अवस्था में कीट व रोग का खतरा |
अंकुरण के समय पौधे कमजोर होते हैं, जिससे स्टेम बोरर, लीफ फोल्डर जैसे कीट जल्दी हमला कर सकते हैं। |
3. |
उचित सिंचाई प्रबंधन की आवश्यकता |
इस विधि में बार-बार हल्की सिंचाई जरूरी होती है, जिससे अधिक सतर्कता और प्रबंधन की जरूरत होती है। |
4. |
जमाव (Germination) में असमानता का खतरा |
बीज की गहराई या मिट्टी में नमी की कमी होने पर अंकुरण असमान हो सकता है। |
5. |
बीजोपचार और खरपतवारनाशक की अनिवार्यता |
यदि समय पर दवा का छिड़काव न किया जाए तो उपज में भारी नुकसान हो सकता है। |
6. |
यांत्रिक बुवाई की जरूरत (यदि बड़े स्तर पर उत्पादन हो) |
कतारों में बोआई के लिए बीज ड्रिल या यंत्र की आवश्यकता हो सकती है, जो सभी किसानों के पास नहीं होती। |
7. |
समतल भूमि की आवश्यकता |
यह विधि असमतल या ढलानदार भूमि में प्रभावी नहीं होती, क्योंकि बीज एकसमान गहराई पर नहीं गिरते। |
8. |
परंपरागत किसानों में जागरूकता की कमी |
कई किसान इस तकनीक से अनजान हैं या बदलाव के लिए तैयार नहीं होते, जिससे इसका विस्तार सीमित हो सकता है। |
- खरपतवार नियंत्रण हेतु समय पर रसायनों और यांत्रिक निराई करें
- अंकुरण से पहले बीज उपचार अनिवार्य करें
- खेत को समतल और भुरभुरा बनाएं
- प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रमों द्वारा किसानों को तकनीक से परिचित कराएं
- छोटे किसानों के लिए यंत्र किराए पर उपलब्ध कराएं
- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) – धान उत्पादन तकनीकी गाइड
- कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) रिपोर्ट्स – धान की आधुनिक तकनीकें
- राज्य कृषि विश्वविद्यालयों की अनुशंसाएं – जैसे: IARI, BHU, IGKV, TNAU
- "धान उत्पादन की वैज्ञानिक विधियाँ" – डॉ. आर.के. शर्मा, प्रकाशित: कृषि प्रकाशन
- "Field Crops Production and Management" – Dr. Reddy and A. Ranga Rao
- agriinfo.in – धान की सीधी बुवाई पर तकनीकी जानकारी
- farmer.gov.in – भारत सरकार का किसान पोर्टल
- icar.org.in – कृषि अनुसंधान परिषद
- rkvy.nic.in – राष्ट्रीय कृषि विकास योजना पोर्टल
- pib.gov.in – प्रेस सूचना ब्यूरो (सरकारी योजनाओं की जानकारी)
- कृषि वैज्ञानिकों और प्रगतिशील किसानों के फील्ड अनुभव
- "Direct Seeded Rice: Recent Development and Future Research Needs" – अंतरराष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान (IRRI)
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