जलवायु
इसकी खेती गर्म जलवायु एवं 500 से 750 मि.मी. वर्षा वाले क्षेत्रों में अच्छी तरह की जा सकती है। अच्छी उपज और बढ़वार के लिए 20 से 260 सें. तापमान एवं वायु में कम आद्र्रता को उपयुक्त पाया गया है। भारत में मुख्यतः इसकी खेती खरीफ मौसम में की जाती है परन्तु उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ भागों में रबी मौसम में भी अरंडी की खेती की जा सकती है। अरंडी सूखा सहन करने की क्षमता रखती है, अतः शुष्क और गर्म क्षेत्रों में इससे अच्छी उपज मिलती है। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में भी अरंडी की अधिक बढ़वार होती है एवं कीटों व रोगों के प्रकोप का खतरा सामान्य से अधिक होता हैं।

मृदा
अरंडी को सभी प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है, परन्तु अधिक उपज के लिए अच्छी जल निकास वाली लाल दोमट मिट्टी को दक्षिणी भारत में और हल्की जलोढ़ मिट्टी को उत्तरी भारत में उपयुक्त पाया गया है।

उन्नत किस्में
अरंडी की अनुमोदित विभिन्न राज्यों के लिए उन्नत किस्में सारणी में दी गई है-

मध्य प्रदेश/छत्तीसगढ़

संकुल

संकर        

क्रान्ति, ज्योति, ज्वाला, जी.सी.एच.-4, डी.सी.एच.-32

गुजरात

संकुल

संकर

वी.आई-9, एस.के.आई.-73, जी.सी.-2, जी.ए.यू.सी.एच.-1, जी.सी.एच.-2, जी.सी.एच.-4, जी.सी.एच.-5,  डी.सी.एच.-32, जी.सी.एच.-

आन्ध्र प्रदेश

संकुल

संकर

अरूणा, सौभाग्य, भाग्य, ज्योति, क्रान्ति, किरण, जी.सी.एच.-4, जी.सी.एच.-5, डी.सी.एच.-32, डी.सी.एच.-519,   डी.सी.एच.-177, पी.सी.एच.-1, जी.सी.एच.-6

 

महाराष्ट्र

संकुल

संकर

ज्योति, ए.के.सी.-1, जी.सी.एच.-4, जी.सी.एच.-5, जी.सी.एच.-6, डी.सी.एच.-177

कर्नाटक

संकुल

संकर        

अरुणा, आर.सी.-8, ज्योति, ज्वाला, जी.सी.एच.-4, जी.सी.एच.-5, जी.सी.एच.-6, डी.सी.एच.-177

राजस्थान

संकुल

संकर

ज्योति, जी.सी.एच.-4, जी.सी.एच.-5, डी.सी.एच.-32, जी.सी.एच.-6,    आर.एच.सी.-1, डी.सी.एच.-177

तमिलनाडु

संकुल

संकर

एस.ए.-2, टी.एम.वी.-5, ज्योति, टी.एम.वी.-6, जी.सी.एच.-4, जी.सी.एच.-5, जी.सी.एच.-6, डी.सी.एच.-32, डी.सी.एच.-177, टी.एम.वी.सी.एच.-1,

उत्तरी भारत

संकुल

संकर

क्रान्ति, ज्योति, अरुणा, काल्पी-6, टी-3, पंजाब अरंडी नं.-1

जी.सी.एच.-4, जी.सी.एच.-5, जी.सी.एच.-6, डी.सी.एच.-32, डी.सी.एच.-177, डी.सी.एच.-519, जी.एयू.सी.एच.-1

फसल प्रणालियां
अरंडी की शुद्ध या अन्र्तफसली खेती की जाती हैं। अन्र्तफसली खेती में अरंडी को अरहर, मूंग, उड़द, ग्वार, मूंगफली, सोयाबीन, तिल, मिर्च, बाजरा आदि फसलों के साथ उगाया जाता हैं। अन्र्तफसली खेती में अरंडी की पौध संख्या शु़द्ध फसल के बराबर रखी जाती हैं तथा अन्र्तफसलों की पौध संख्या फसल कतार के अनुपात के हिसाब से रखी जाती हैं। विभिन्न प्रदेशों के लिए अनुमोदित फसलें इस प्रकार हैं-

अन्तः फसल प्रणाली

कतारों का अनुपात

          राज्य

अरंडी + अरहर

1:1

गुजरात, राजस्थान, हरियाणा

अरंडी + लोबिया या मूंग या उड़द या मोठबीन या बाजरा

1:2

गुजरात, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश, हरियाणा

अरंडी + मूंगफली

1:5

गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश


शुद्ध फसल के लिए कम तथा मध्य अवधि वाली किस्मों का प्रयोग करें। अन्र्तफसली खेती के लिए मध्य तथा लम्बी अवधि वाली किस्मों का प्रयोग करें। सिंचित क्षेत्रों में एक वर्षीय फसल चक्रों में बाजरा-अरंडी, ज्वार-अरंडी, अरंडी-तिल, अरंडी-सूरजमुखी, अरंडी-मूंग तथा अरंडी-मूंगफली को गुजरात, आन्ध्र प्रदेश तथा राजस्थान में लाभकारी पाया गया हैं। दक्षिणी भारत के बारानी क्षेत्रों में दो वर्षीय फसल चक्र में अरंडी-बाजरा, अरंडी-अरहर, अरंडी-मूंगफली और अरंडी-ज्वार को उपयुक्त पाया गया हैं।

खेत की तैयारी
वर्षा के शुरू होते ही खेत की अच्छी तरह से तैयारी करें। गर्मियों में उथली मिट्टियों के खेत की गहरी जुताई को अति उपयुक्त पाया गया हैं। बुवाई से पहले खेत की 2-3 बार हैरो/कल्टीवेटर से जुताई करें।

बुवाई
बारानी क्षेत्र में खरीफ फसल की बुवाई के लिए जून के दूसरे पखवाड़े को दक्षिणी राज्यों में उपयुक्त पाया गया हैं। गुजरात, राजस्थान और अन्य राज्यों में जुलाई के पहले पखवाड़े को अरंडी की बुवाई के लिए उपयुक्त पाया गया हैं। सिंचित क्षेत्रों में जुलाई के अन्तिम सप्ताह या अगस्त के प्रथम पखवाड़े में बुवाई करने से फसल को सेमीलूपर कीट से बचाकर अधिक उपज प्राप्त होती हैं। रबी फसल की बुवाई के लिए सितम्बर-अक्टूबर और ग्रीष्म काल की फसल के लिए जनवरी महीने को उपयुक्त पाया गया हैं। बारानी क्षेत्रों में वर्षा में देरी होने पर या समय पर बुवाई की फसल के नष्ट होने पर अरंडी की फसल की बुवाई 15 अगस्त तक की जा सकती हैं। देरी पर बुवाई करने पर बीज को 24-48 घण्टे तक पानी में भिगोकर बुवाई करें। ऐसा करने पर अंकुर जल्दी आ जाता हैं। इसके अतिरिक्त कम अवधि वाली किस्मों जैसे कि डी.सी.एच.-32, डी.सी.एच.-177, ज्योति, क्रांति, जी.सी.-2, जी.सी.एच.-4 इत्यादि का पछेती बुवाई के लिए प्रयोग करें। पछेती बुवाई में पंक्ति से पंक्ति की 45 से.मी. तथा पौधे से पौधे की 45 से.मी. की दूरी रखें।

बीज की मात्रा और बुवाई की विधि
अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए किसान प्रमाणित स्त्रोतों से ही संकुल और संकर किस्मों का बीज खरीदें। संकर किस्म का हर वर्ष नया बीज खरीदना जरूरी हैं जबकि संकुल किस्मों में दो-तीन वर्ष तक नया बीज खरीदने की आवश्यकता नहीं होती हैं। बुवाई से पहले बीज को 2-3 ग्राम थिरम या बाविस्टीन (कार्बेन्डाजिम) प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करें। अरंडी के बीज की मात्रा तथा पौधों की संख्या, जलवायु और किस्मों पर आधारित होती हैं। अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में या जहां खेत में अच्छी नमी बनी रहती हैं, अरंडी की बढ़वार बहुत अधिक होती हैं। अधिक उपज लेने के लिए आवश्यक हैं कि फसल की कटाई के समय तक खेत में बारानी क्षेत्रों में 18500 और सिंचित क्षेत्रों में 14000 पौधे प्रति हेक्टेयर हों। वांछित पौध संख्या प्राप्त करने के लिए असिंचित क्षेत्रों में पंक्ति से पंक्ति के बीच 90 से 120 सें.मी. और पौधे से पौधे के बीच 45 से 60 संे.मी. की दूरी रखें। सिंचित क्षेत्रों में पंक्ति से पंक्ति और पौधे से पौधे के बीच अन्तर 120 सें.मी × 60 सें.मी रहे। अधिक वर्षा और जमीन में अधिक नमी होने पर 90 × 90 सें.मी या 120 सें.मी × 120 सें.मी की व्यवस्था रखें। अरंडी को बुवाई में देरी होने पर 60 × 30 सें.मी या 90 × 20 सें.मी की दूरी पर बुवाई करें। बीज के अच्छे अंकुरण के लिए पोरा विधि का प्रयोग करें। बुवाई के लिए सीड ड्रिल का उपयोग भी किया जा सकता हैं। जमीन में नमी कम होने पर बीज को 24-48 घंटे तक पानी में भिगोकर बुवाई करें। पानी में डालने के बाद जो बीज तैरने लगें, उनको निकाल कर अलग कर देना चाहिए।

पोषक तत्व प्रबंधन
मिट्टी परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करें। मिट्टी परीक्षण के अभाव में, असिंचित क्षेंत्रों में बुवाई के समय 20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन और 40 कि.ग्रा. फाॅस्फोरस प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करें। वर्षा के पानी की उपलब्धता के अनुसार से 20 कि.ग्रा. नाइट्रोजन का प्रयोग फसल की 35-40 दिन एवं 65-70 दिन की अवस्था पर करें। सिंचित क्षेत्रों में बुवाई के समय 40 कि.ग्रा. नत्रजन एवं 40 फाॅस्फोरस के उपयोग के अतिरिक्त हर तुड़ाई के बाद 30 दिन के अन्तराल पर 20 कि.ग्रा. नत्रजन का प्रयोग प्रति हेक्टेयर करें। जिन क्षेत्रों में गंधक की कमी हो तो 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से उनमें सल्फर का प्रयोग करने से उपज और गुणवत्ता में सुधार किया जा सकता है। बारानी क्षेत्रों में फूल आने की अवस्था पर यदि वर्षा हो तो 20 कि.ग्रा. नत्रजन प्रति हेक्टेयर का छिड़काव करें। जहां जस्ते और लोहे की कमी हो उस स्थान पर जिंक सल्फेट की 30 कि.ग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें। जिन स्थानों पर लवणों की अधिकता हो वहां पर बीज को मेंड़ बनाकर ढ़ाल पर बुवाई करें। इसके अतिरिक्त लवणों के प्रति सहनशीलता किस्मों (जी.सी.एच-5 व जी.सी.-2) का प्रयोग करें।

जल प्रबंधन
अरंडी मुख्यतः वर्षा आधारित क्षेत्रों की फसल है। परन्तु लम्बे समय तक वर्षा न होने पर फसल की फूल एवं फल आने की अवस्था पर सिंचाई करने से उपज में आशातीत बढ़ोत्तरी होती है। सिंचित क्षेत्रों में वर्षा की मात्रा, तापमान एवं फसल की अवधि पर सिंचाइयों की संख्या निर्भर करती है। बुवाई के 55 दिन फसल की सिंचाई करें। अन्य सिंचाइयां पहली सिंचाई के बाद 20 से 25 दिन के अन्तराल पर करें।

खरपतवार प्रबंधन
अरंडी की फसल में खरपतवारों से काफी नुकसान होता है। कतार से कतार एवं पौधे से पौधे के बीच अधिक दूरी होने और साथ ही वे पौधों की शुरूआत में कम बढ़वार के कारण, अरंडी की फसल में खरपतवारों का बहुत अधिक प्रकोप होता है। अतः फसल की अच्छी बढ़वार और उपज के लिए यह आवश्यक है कि फसल को बुवाई के बाद 45-50 दिन तक खरपतवारों से बिल्कुल मुक्त रखें। इसके लिए 15-20 दिन के अन्तराल पर फसल की दो बार निराई-गुड़ाई करें। खरपतवारनाशियों के प्रयोग से भी खरपतवारों के प्रकोप को कम कर सकते है। इस फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए फ्लूक्लोरोलिन या ट्राईफ्लूरालिन के 1 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व का प्रति हेक्टेयर बुवाई से पहले छिड़काव करें। छिड़काव के लिए रसायन को 600-800 लीटर पानी में घोलें और छिड़काव के बाद रसायन को मिट्टी की ऊपर की परत में अच्छी तरह मिला दें।

कीट प्रबंधन
अरंडी की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों में लाल बालदार सूण्डी, सेमीलूपर (कुबड़ा कीड़ा) एवं कैप्सूल बोरर (फली छेदक), तम्बाकू की सूण्डी, तेला, सफेद मक्खी आदि प्रमुख है। लाल बालदार और सेमीलूपर की सूण्डियां पत्तियों को बहुत तेजी से खाती है और कभी-कभी तो फसल को पत्ता रहित कर देती है। ये दोनों कीट जुलाई और अगस्त के महीने में बहुत सक्रिय होते है। इन दोनों कीटों की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफास (36 प्रतिशत ई.सी.) 0.05 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करें। लाल बालों वाली सूण्डियों के प्रौढ़ (पतंगे) रोशनी की तरफ आकर्षित होते है। पहली वर्षा के बाद एक महीने तक लाईट ट्रैप का उपयोग करके इसकी रोकथाम की जा सकती है। फली छेदक कीट की सूंडियां ही फसल को मुख्य रूप से हानि पहुंचाती है। फूल आने की अवस्था पर ही कीट का प्रकोप शुरू हो जाता है। अधिक प्रकोप होने पर पुष्प कुन्ज पूरी तरह नश्ट हो जाता है और उसमें फलियां नही बनती है। फलियां बनने पर कीट उनमें छेदकर नष्ट कर देता है। इसकी रोकथाम के लिए भी मोनोक्रोटोफास का छिड़काव करें।

रोग प्रबंधन
उक्ठा, आल्टरनेरिया व सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बे, जड़ गलन, पत्तियों का झुलसा रोग और पाउडरी मिल्डयू आदि अरंडी के प्रमूख रोग हैं। अधिकत्तर रोगों की रोकथाम अच्छी गुणवत्ता वाले बीज का प्रयोग करें तथा उसको बुवाई से पहले बीज को 3 ग्राम थीरम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम/कि.ग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित करें। पौध गलन, आल्टरनेरिया तथा सर्कोस्पोरा पर्ण धब्बे की रोकथाम के लिए काॅपर ऑक्सीक्लोराइड के 0.3 प्रतिशत या मेकोजेब के 0.25 प्रतिशत का 2-3 छिड़काव करें। उक्ठा रोग के कारण आरंभ की पत्तियां किनारों से पीली पड़नी शुरू होती है और कुछ ही दिनों में पूरी की पूरी पीली होकर गिर जाती है। मुख्य जड़ तथा दूसरी जड़ों का रंग काला हो जाता है। पौधे का तना सिकुड़ जाता है एवं खोखला हो जाता है। जहां उक्ठा रोग की अधिक समस्या हो वहां पर किसान उक्ठा रोग के प्रतिरोधक किस्मों का प्रयोग करें, जैसे कि जी.सी.एच.-4, डी.सी.एच-32, ज्योति, ज्वाला, जी.सी.एच.-5 व डी.सी.एच-177। इसी तरह जड़ गलन रोग के प्रति ज्योति, ज्वाला एवं जे.एच.बी.-665 को सहनशील पाया गया है। उक्ठा और जड़ गलन के प्रकोप को कम करने के लिए अरंडी के बाद मोटे अनाजों की खेती करें और उसी खेत में बार-बार अरंडी की खेती न करें। अरंडी + अरहर की अन्र्तफसली से भी उक्ठा रोग को कम किया जा सकता हैं।

कटाई एवं गहाई
अरंडी की फसल से सिट्टों की तीन-चार बार तुड़ाई करनी पड़ती है। सामान्यतः सिट्टा बुवाई के 90-120 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाता है। 30 दिन के अन्तराल पर सिट्टों की तुड़ाई करें। सिट्टों की उस समय तुड़ाई करें जब उनमें कुछ कैप्सूल (फलियां) भूरे रंग के हो जाएं। पके सिट्टों को काटने के बाद कुछ दिनों के लिए धूप में सुखाएं। सूखने के बाद सिट्टों की गहाई करें। गहाई के लिए सिट्टों की डंडे से पिटाई करें या सिट्टों के ऊपर बैल या ट्रैक्टर चलाएं। गहाई के लिए थ्रेशर का प्रयोग भी किया जा सकता है। गहाई के बाद दानों को अलग करके उनको अच्छी तरह सुखा लें। सुखाने के बाद दानों को साफ बोरी में भरकर रख दें।

उपज
भारत में प्रति हेक्टेयर अरंडी की औसत उपज अन्य देशों की तुलना में अधिक है। बारानी क्षेत्रों में 8-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उपज आसानी से प्राप्त हो जाती है। सिंचित क्षेत्रों में 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उपज होती है। अच्छी देखभाल एवं अनुकूल जलवायु में किसान 40-50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त कर सकते हैं।

स्त्रोत- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली